अभागा बुनकर – Abhaga Bunkar
पंचतंत्र की कहानियाँ – दूसरा तंत्र – मित्रसंप्राप्ति – अभागा बुनकर – Abhaga Bunkar – Unfortunate Weaver
वसंतपुर नगर में सोमिलक नाम का एक बुनकर अपनी पत्नि कंचनलता के साथ रहता था। वह बहुत ही सुन्दर वस्त्र बनाता था। अनेकों प्रकार के रंगीन और सुन्दर वस्त्र बनाने के बाद भी वह बस इतना ही कमा पाता तो कि उसके भोजन और वस्त्र की व्यवस्था हो जाती थी। जबकि उसी नगर के अन्य जुलाहे मोटा और सादा कपड़ा बुनकर भी धनी हो गये थे।
क्यों न परदेस चला जाऊँ
यह देखकर एक दिन उसने अपनी पत्नि कंचनलता से कहा,
🧖🏻♂️ सोमिलक – प्रिये! देखो, मामूली कपड़ा बुनने वाले बुनकरों ने भी कितना धन-वैभव संचित कर लिया है। मैं तो कितने सुन्दर और उत्कृष्ट वस्त्र बनाता हूँ, लेकिन फिर भी आज तक निर्धन ही हूँ। मुझे लगता है यह स्थान मेरे लिये भाग्यशाली नहीं है, इसलिए मैनें सोच है कि क्यों ना परदेस जाकर धनोपार्जन करुँ।
🤷🏻♀️कंचनलता – प्रियतम! परदेस में जाकर धन कमाना केवल कोरी कल्पना और मिथ्या स्वप्न से अधिक नहीं है। यदि भाग्य में धन की प्राप्ति होनी ही हो, तो स्वदेश में भी हो जाती है, नहीं तो हाथ में आया धन भी नष्ट हो जाता है। इसलिए मेरी तो यही राय है कि यहीं रहकर अपना व्यवसाय करते रहो, भाग्य में लिखा होगा तो यहीं धन की वर्षा हो जायगी।
🧖🏻♂️ सोमिलक – भाग्य और दुर्भाग्य की बातें तो कायर लोग करते हैं। लक्ष्मी तो पुरुषार्थ और कर्म करने वाले पुरुष को ही प्राप्त होती है। हिरण स्वत: ही शेर के मुँह में नहीं चले जाते, शेर को भी उन्हें अपना भोजन बनाने के लिए परिश्रम करना पड़ता है। मैं परदेस जाकर अपने कौशल और परिश्रम से बहुत सारा धन कमाने का प्रयत्न करूँगा।
इतना कहकर सोमिलक वर्धमानपुर चला गया। वहाँ उसने अपने कौशल और परिश्रम से तीन वर्षों में ही 300 सोने की मोहरें संचित कर ली। उसने सोचा, “अब उसके पास पर्याप्त धन हो गया है। अब उसे अपने देश वापस लौट जाना चाहिए।” यह सोच अगले दिन सुबह ही वह अपने घर की ओर रवाना हो गया।
भाग्य में इतना ही है
रास्ता बहुत ही लंबा था। आधे रास्ते तक पँहुचने में ही दिन ढल गया और शाम हो गई। आस-पास कोई घर नहीं था। इसलिए वह एक मोटे वृक्ष की शाखा के ऊपर चढ़कर सो गया। सोते-सोते उसे स्वप्न आया कि भयंकर आकृति के दो पुरुष आपस में बात कर रहे हैं। उनमें एक भाग्य और दूसरा पौरुष था।
🧚♂️ भाग्य – हे पौरुष, क्या तुम्हें मालूम नहीं है कि सोमिलक के भाग्य में भोजन-वस्त्र से अधिक धन नहीं है, जो तुमने इसे 300 सोने की मोहरें दे दीं?
🧚🏻♂️ पौरुष – हे भाग्य, मेरा कार्य पुरुषार्थ करने वाले को उसका फल प्रदान करना है। सोमिलक ने पुरुषार्थ किया था इसलिए मैंने उसे उसके फलस्वरूप 300 सोने की मोहरें प्रदान कर दी है। अब यह उसके पास रहेगी या नहीं यह देखना तेरा काम है।
🧚♂️ भाग्य – उसके भाग्य में धन नहीं है इसलिए मैं यह धन उसके पास नहीं रहने दे सकता।
इतना स्वप्न देखते ही सोमलिक की आँख खुल गई। उसने जल्दी से अपनी पोटली संभाली तो देखा कि वह तो बिल्कुल खाली थी। यह देख कर वह बहुत दुखी हुआ। उसने सोचा, “खाली हाथ पाने देश जाऊँगा तो अपनी पत्नि को क्या मुँह दिखाऊँगा, मेरे मित्र क्या कहेंगे? मैं उपहास का पात्र बन जाऊँगा।“
अभागा बुनकर
यह सोचकर वह वर्धमानपुर को ही वापिस आ गया। इस बार उसने दिन-रात घोर परिश्रम किया और एक वर्ष में ही 500 स्वर्ण मुद्राएं संचित कर ली। स्वर्ण मुद्राएं एक पोटली में डालकर वह फिर अपने घर की तरफ रवाना हो गया।
इस बार भी वह आधे रास्ते तक ही पँहुचा था कि रात हो गई। लेकिन बहुत थका हुआ होने पर भी वह सोने के लिए नहीं रुका और आगे चलता गया। वह जल्दी से जल्दी मोहरों के साथ अपने घर पँहुचना चाहता था।
तभी उसे आकाश में पहले की भांति भाग्य और पौरुष दिखाई दिए। उसे उनकी बातचीत सुनाई पड़ रही थी। उसने सुना भाग्य पौरुष से कह रहा था,
🧚♂️ भाग्य – हे पौरुष, तुम्हें तो यह पता था कि सोमिलक के भाग्य में भोजन-वस्त्र से अधिक धन नहीं है, तब भी तुमने इसे 500 सोने की मोहरें क्यों दे दीं?
🧚🏻♂️ पौरुष – हे भाग्य, मैंने तुम्हें पहले भी कहा था कि मेरा कार्य पुरुषार्थ करने वाले को उसका फल प्रदान करना है। इसलिए मैंने सोमिलक द्वारा किए गए पुरुषार्थ के फलस्वरूप 500 सोने की मोहरें प्रदान की है। अब ये तुम्हारे अधीन है कि तुम ये मोहरे उसके पास रहने देते हो या छिन लेते हो।
🧚♂️ भाग्य – जो धन उसके भाग्य में नहीं है वह मैं उसके पास नहीं रहने दे सकता।
इतना सुनते ही सोमलिक ने अपनी पोटली संभाली। इस बार भी उसकी पोटली से सारी मोहरें गायब हो गई थी।
दो बार अपनी मेहनत से कमाया हुआ धन इस तरह से गायब हो जाने से सोमलिक बहुत दुखी हुआ। उसने मन ही मन विचार किया, “इस धन विहीन जीवन से तो मृत्यु ही अच्छी है। मैं आज ही अपने प्राण त्याग दूंगा।
वरदान माँग लो
इतना सोचकर उसने घास की एक रस्सी बनाकर उसका एक छोर एक वृक्ष की शाखा पर बांधा और दूसरे छोर से फंदा बना लिया। फंदा अपने गले में डाल कर लटकने ही वाला था कि आकाश से भाग्य ने कहा,
🧚♂️ भाग्य – सोमलिक, ऐसा दुःसाहस मत कर। मैंने ही तेरे धन को गायब किया है क्योंकि तेरे भाग्य में भोजन-वस्त्र मात्र से अधिक एक कौड़ी धन का उपभोग भी नहीं लिखा है। इसलिए धन-संचय में अपनी शक्तियों को व्यर्थ में ही नष्ट मत कर। अपने घर लौट जा और अपनी पत्नि के साथ सुख से रह।
मैं तेरे साहस और पुरुषार्थ से प्रसन्न हूँ। मेरा दर्शन व्यर्थ नहीं जाता, इसलिए मैं तुझे एक वरदान देना चाहता हूँ। तू तेरी जो भी इच्छा हो वह मुझसे मांग ले।
🧖🏻♂️ सोमलिक – यदि ऐसी ही बात है तो मुझे बहुत सारा धन दे दीजिए।
🧚♂️ भाग्य – तुम धन का क्या करोगे? तुम्हारे भाग्य में भोजन-वस्त्र से अधिक धन की प्राप्ति और भोग नहीं लिखा हुआ है। जिस धन का तू भोग ही नहीं कर सकें, ऐसे भोग-रहित धन को लेकर तुम क्या करोगे?
🧖🏻♂️ सोमलिक – मैं भोग कर सकूँ या नहीं लेकिन मुझे धन ही चाहिए, क्योंकि संसार में धन की बड़ी महिमा है। संसार में कोई कितना ही कृपण और अकुलीन क्यों ना हो यदि उसके जिसके पास बहुत सारा धन हो तो लोग उनकी भी पूजा करते है। धनी व्यक्ति का आश्रय पाने के लिए लोग उसी तरह आशा लगाए बैठे रहते है जिस तरह एक गीदड़ एक बैल के पीछे 15 वर्षों तक घूमता रहा।
🧚♂️ भाग्य – वह कैसे?
तब सोमलिक ने भाग्य को बैल और गीदड़ की कथा सुनाई।
मुझे तो धन ही चाहिए
कहानी सुनाकर सोमलिक ने कहा,
🧖🏻♂️ सोमलिक – जिस तरह गीदड़ और गीदड़ी माँस के लालच में उसके पीछे-पीछे घूमते रहे मैं चाहता हूँ कि मेरे धन को देखकर संसार के लोग भी मेरे आगे-पीछे डोले।
🧚♂️ भाग्य – ठीक है, यदि तुम्हारी धन प्राप्ति की इच्छा इतनी ही प्रबल है, तो तुम एक बार वापस वर्धमानपुर जाओं। वहाँ बनिए के दो पुत्र रहते है; पहला गुप्तधन और दूसरा उपभुक्तधन। तुम वहाँ जाकर दोनों से मिलना और उन दोनों के बारे में जानकर मुझे बताना कि तुम उन दोनों में से किसकी तरह बनना चाहते हो।
यदि तुम्हें ऐसे धन की आवश्यकता होगी जिसका तुम उपभोग ना करों तो मैं तुम्हें गुप्तधन बनाऊँगा और यदि तुम दान और धर्म में खर्च करने के लिए धन चाहते हो तो मैं तुम्हें उपभुक्तधन बनाऊँगा। इतना कह कर भाग्य पुरुष अदृश्य हो गया।
सोमिलक को उसकी बात समझ में नहीं आई और वह चकित होकर वर्धमानपुर की तरफ रवाना हो गया। वर्धमानपुर पँहुचते-पँहुचते उसे शाम हो गई। उसने पहले गुप्तधन के घर जाने का निश्चय किया। गुप्तधन का पता पूछकर उसके घर तक पँहुचने तक सूरज ढल चुका था। गुप्तधन और उसकी पत्नि ने उसका तिरस्कार करते हुए उसे अपने घर में आने से मना कर दिया।
कैसा धन चाहिए?
लेकिन सोमलिक हट पूर्वक जबरदस्ती उसके घर में घुस गया। घर में जाने पर किसी ने भी उसका सत्कार नहीं किया। रात के भोजन के समय भी उसका अनादर करते हुए केवल एक सूखी रोटी खाने के लिए दे दी। उसके सोने के लिए भी उन्होनें कोई व्यवस्था नहीं की। सोमलिक वहीं फर्श पर चादर बिछा कर सो गया। स्वप्न में उसे फिर से वे दो दिव्य पुरुष दिखाई दिए। वे आपस में बातें करने लगे,
🧚♂️ भाग्य – हे पौरुष, तुमने गुप्तधन को इतना अधिक धन क्यों दे रखा है कि आज उसने अपने भोग्य धन से अधिक धन खर्च करकर सोमलिक को सूखी रोटी दे दी। अब इसकी क्षतिपूर्ति कैसे होगी?
🧚🏻♂️ पौरुष – इसमें मेरा कोई दोष नहीं है। मनुष्य के कर्म का फल प्रदान करना ही मेरा काम है। उसने जो धन अपने भोग्य धन से अधिक खर्च किया है, उसकी क्षतिपूर्त्ति कैसे करनी है वह तू जाने।
दूसरे दिन गुप्तधन पेचिश से बीमार हो गया। बीमारी की वजह से वह पूरे दिन कुछ नहीं खा पाया। इस तरह उसकी क्षतिपूर्त्ति हो गई ।
इसके अगले दिन सोमलिक उपभुक्तधन के घर गया। उपभुक्तधन ने उसका भोजनादि द्वारा बहुत सत्कार किया। उसको सोने के लिए सुन्दर शय्या भी दी। जब सोमलिक शय्या पर सो रहा था तो स्वप्न में उसने पुन: उन दोनों देवों को बाते करते सुन।
🧚♂️ भाग्य – हे पौरुष, उपभुक्तधन ने बनिए से उधार लाकर सोमिलक के सत्कार में बहुत धन व्यय कर दिया है। अब इसकी क्षतिपूर्त्ति कैसे होगी?
🧚🏻♂️ पौरुष – हे भाग्य, सत्कार के लिये धन व्यय करके उसने अपना कर्म कर दिया है। उसे इसका फल देना मेरा काम है, लेकिन यह इसे कैसे मिलेगा वह कार्य तेरे अधीन है।
अगले दिन सुबह जब सोमिलक उठा तो उसने देखा कि राज-दरबार से एक राज-पुरुष उपभुक्तधन के यहाँ आया और उसने उसे राज-प्रसाद के रुप में धन भेंट में दे दिया।
यह सब देखकर उसने सोचा कि धन ना होने पर भी उपभुक्तधन ही गुप्तधन से श्रेष्ठ है। जिस धन को दान और सत्कार्यों में व्यय किया जाए, वह धन संचित धन की अपेक्षा बहुत अच्छा होता है। उसने भाग्य से कहा,
🧖🏻♂️ सोमलिक – हे भाग्य देवता, मुझे गुप्तधन नहीं उपभुक्तधन जैसा बनना है। ऐसे संचित धन का क्या फायदा जिसका मैं उपभोग ही ना के सकूँ। मैं दान और धर्म करते हुए पुण्य अर्जित करना चाहता हूँ। इसलिए आप मुझे उपभुक्तधन जैसा बना दो।
🧚♂️ भाग्य – जैसी तुम्हारी इच्छा, “तथास्तु”।
इतना कह कर भाग्य पुरुष अदृश्य हो गया। इसके पश्चात सोमलिक अपने नगर लौट गया और अपने धन का खुद भोग ना करके दान-धर्म और सत्कार्यों में व्यय करने लगा।
सीख
- भाग्य में ना हो तो हाथ में आए धन का भी उपयोग नहीं किया जा सकता।
- धन को हमेशा सद्कार्यों में ही खर्च करना चाहिए।
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पिछली कहानी – व्यापारी के पुत्र की कहानी – भाग्य बलवान है
तो दोस्तों, कैसी लगी पंचतंत्र की कहानियों के रोचक संसार में डुबकी। मजा आया ना, तो हो जाइए तैयार लगाने अगली डुबकी, .. .. .. ..
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