भाग्य बलवान है – Bhagy Balwan Hai
पंचतंत्र की कहानियाँ – दूसरा तंत्र – मित्रसंप्राप्ति – भाग्य बलवान है – Bhagy Balwan Hai – The Luck is Strong
माणिकपुर नगर में सागरदत्त नामक एक व्यापारी रहता था। वह बहुत ही धनवान और कंजूस था। एक-एक पाई का हिसाब रखता था। उसका एक पुत्र था जिसका नाम रविदत्त था। एक बार रविदत्त बाजार से एक किताब खरीदी जिसमें केवल एक ही श्लोक लिखा हुआ था,
“प्राप्तव्यमर्थ लभते मनुष्यों, देवोsपि तं लंघयितुं न शक्य:, तस्मान्न शोचामि न विस्मयो मे, यदस्मदीयं न हि तत्परेषाम्।”
अर्थात “जो भाग्य में लिखा होता है वह उसे अवश्य मिलता है, देवता भी उसे रोकने में समर्थ नहीं है। इसलिए इसमें कोई शोक या आश्चर्य नहीं है कि जो मेरा है वह किसी दूसरे ना नहीं हो सकता।”
जब सागरदत्त ने अपने पुत्र के हाथ में वह पुस्तक देखी तो उन्होंने उससे पूछा,
👳🏻♂️ सागरदत्त – यह पुस्तक तुम कहाँ से लाए हो?
👦🏻 रविदत्त – पिताजी, मैंने इस पुस्तक को बाजार में एक पुस्तकों की दुकान से खरीदी है।
👳🏻♂️ सागरदत्त – इसका मूल्य क्या है?
👦🏻 रविदत्त – सौ रुपये पिताजी।
👳🏻♂️ सागरदत्त – (गुस्से में) मूर्ख, तुमने केवल एक ही श्लोक की पुस्तक के लिए सौ रुपये खर्च कर दिए। तुममे जरा भी समझ नहीं है इस तरह तुम कैसे व्यापार करोगे और कैसे धन कमाओगे? मैं तुम जैसे मूर्ख को अपने घर में नहीं रख सकता। तुम अभी इसी वक्त मेरे घर से निकल जाओ।
क्या है मेरे भाग्य में?
👦🏻 रविदत्त – (श्लोक बोलते हए) पिताजी, जो मेरे भाग्य में है उसे आप तो क्या देवता भी मुझसे नहीं छीन सकते। जो कुछ मेरे भाग्य में लिखा है वह मुझे मिलकर ही रहेगा। इसलिए मैं ना मुझसे कुछ छिन जाने पर दुखी हूँ और ना ही अनायास खजाना मिलने पर प्रसन्न होऊँगा।
इतना कहकर रविदत्त वहाँ निकल पड़ा और चलते-चलते सोनपुर नगर में पँहुच गया। वह वहीं रहने लगा। जब भी कोई उससे उसका नाम और पता पूछता तो वह केवल “प्राप्तव्यमर्थ लभते मनुष्यों, देवोsपि तं लंघयितुं न शक्य:, तस्मान्न शोचामि न विस्मयो मे, यदस्मदीयं न हि तत्परेषाम्।” बोल देता।
इस तरह लोग उसे प्राप्तव्यमर्थ नाम से पुकारने लगे। पूरे नगर में वह प्राप्तव्यमर्थ नाम से प्रसिद्ध हो गया। एक बार नगर में कोई उत्सव मनाया जा रहा था। उस नगर की राजकुमारी चंद्रवती, जो चंद्रमा के समान ही रूपवती थी, अपनी सखी कलावती के साथ उस उत्सव को देखने के लिए नगर में आई।
उत्सव में आए एक बहुत ही सुंदर और सजीले नवयुवक को देखकर राजकुमारी चंद्रवती उस पर मोहित हो गई। उसने अपनी सखी कलावती से कहा,
👸🏻 चंद्रवती – कलावती, मैं उस सजीले युवक पर मोहित हो गई हूँ। तू किसी भी तरह से उसे मुझसे मिलवाने का प्रयत्न कर।
कलावती तत्काल उस युवक के पास पहुंची और उससे बोली,
🧝 कलावती – मुझे राजकुमारी चंद्रवती ने आपके पास भेजा है। आपको देखते ही वे आपसे प्रेम करने लगी है। उन्होंने संदेश भजा है कि शीघ्र-अतिशीघ्र आप उनसे नहीं मिले तो वे अपने प्राण त्याग देंगी।
👳🏼 नवयुवक – यदि ये बात है तो मैं भी राजकुमारी चंद्रवती से मिलने के लिए उत्सुक हूँ। तुम्हीं बताओं मैं उनके पास कैसे और किस समय पँहुच सकता हूँ।
🧝 कलावती – आज रात्रि के समय आप राजमहल के पश्चिमी भाग की तरफ आना। राजकुमारी का कक्ष उसी तरफ है। मैं उनके कक्ष की खिड़की से एक चमड़े की रस्सी लटका दूँगी। आप उस रस्सी के सहारे चढ़ कर ऊपर उनके कक्ष तक पँहुच जाना।
👳🏼 नवयुवक – ठीक है, मैं आज रात्रि को राजकुमारी चंद्रवती से भेंट करने अवश्य आऊँगा।
कलावती ने लौटकर राजकुमारी चंद्रवती को राजपुत्र के साथ हुई सारी बात बता दी। रात्रि में राजकुमारी चंद्रवती बेसब्री से राजपुत्र के आने की प्रतीक्षा करने लगी।
उधर उस नवयुवक ने किसी सोचा, “कोई भी ऐसा काम नहीं करना चाहिए, जिससे अपयश मिले या नीचा देखना पड़े। राजा की पुत्री से चोरी छिपे मिलना, राजद्रोह के समान ही है। ऐसा करने वाले को नरक में भी जगह नहीं मिलती। मुझे वहाँ नहीं जाना चाहिए।” यह सोच कर उसने राजकुमारी के कक्ष में जाना स्थगित कर दिया।
ये कैसा संयोग?
संयोगवश व्यापारी पुत्र रविदत्त (प्राप्तव्यमर्थ) उधर से ही निकल रहा था। उसने महल के कक्ष से रस्सी लटकती देखी तो उत्सुकतावश वह उस पर चढ़कर राजकुमारी के कक्ष में पहुंच गया। कक्ष में अंधेरा होने के कारण चंद्रवती ने उसे वहीं युवक समझ कर उसका खूब स्वागत– सत्कार किया।
फिर उसने उसे अपनी शय्या पर बैठाया, वह उसके स्पर्श से रोमांचित होते हुए बोली,
👸🏻 चंद्रवती – उत्सव मैं आपका दर्शन करने मात्र से मैं आपको अपना दिल दे बैठी हूँ। अब आपका स्पर्श पाकर मुझे बहुत रोमांच हो रहा है। क्या आप भी मेरे लिए ऐसा ही महसूस करते है?
व्यापारीपुत्र रविदत्त कुछ नहीं बोला। तब चंद्रावती ने अपनी बात जारी रखी और कहा,
👸🏻 चंद्रवती – मैं अपना तन-मन सब आप पर न्यौछावर करना चाहती हूँ। मैं आपको छोड़कर और किसी का भी वरण नहीं करूंगी। क्या आप भी मुझसे विवाह करने के लिए तैयार है?
रविदत्त इस बार भी कुछ नहीं बोला। उसे इस प्रकार चुप देख कर चंद्रावती ने कहा,
👸🏻 चंद्रवती – आर्य, आप मेरी बात का कोई जवाब क्यों नहीं दे रहे हो? क्या बात है?
👦🏻 रविदत्त (प्राप्तव्यमर्थ) – “प्राप्तव्यमर्थ लभते मनुष्यों, देवोsपि तं लंघयितुं न शक्य:, तस्मान्न शोचामि न विस्मयो मे, यदस्मदीयं न हि तत्परेषाम्।”
यह सुनकर राजपुत्री को संदेह हो गया। उसने तत्काल उसे अपने शयनकक्ष से बाहर निकाल दिया। व्यापारीपुत्र वहां से निकलकर एक जीर्ण–शीर्ण मंदिर में जाकर सो गया। थोड़ी देर बाद एक दंडपाशक (जल्लाद) अपनी प्रेमिका से मिलने उसी मंदिर में आया।
उसने व्यापारीपुत्र रविदत्त को वहाँ सोए देखकर उसने सोचा कि कहीं मेरा भेद इसके सामने ना खुल जाए इसलिए उसने उसे जगाया और उससे पूछा,
💂♂️ दंडपाशक – तुम कौन हो?
👦🏻 रविदत्त (प्राप्तव्यमर्थ) – “प्राप्तव्यमर्थ लभते मनुष्यों, देवोsपि तं लंघयितुं न शक्य:, तस्मान्न शोचामि न विस्मयो मे, यदस्मदीयं न हि तत्परेषाम्।”
💂♂️ दंडपाशक – यह स्थान तो निर्जन है। यहाँ से थोड़ी दूर मेरा घर है, तुम वहाँ पर जाकर सो जाओं।
गंधर्व विवाह
उसने रविदत्त को अपने घर का पता बता दिया। रविदत्त उसकी बात मानकर वहाँ से चला गया। लेकिन अर्द्धनिंद्रा में होने के कारण वह सही समझ नहीं पाया और किसी दूसरे घर में पँहुच गया। उस दंडपाशक की रूपवती कन्या विनयवती किसी पुरुष के मोहपाश में बंधी हुई थी।
विनयवती ने अपने प्रेमी को गंधर्व विवाह करने के लिए उसी घर में आने का संकेत दिया था। वह वहाँ सोई हुई उसी का इंतजार कर रही थी। जब उसने रविदत्त को वहाँ आते देखा तो उसने सोचा कि उसका प्रेमी आ गया है। उसने प्रसन्न होकर उसका स्वागत किया और उसके साथ गंधर्व विवाह कर लिया। विवाह के पश्चात् वह उसके साथ शय्या पर सोई और बोली,
🧟♀️ विनयवती – क्या बात है, आज तुम हमेशा की तरह मुझसे निश्चिंत होकर बात क्यों नहीं कर रहे हो?
रविदत्त कुछ नहीं बोला। तब विनयवती ने आगे कहा,
🧟♀️ विनयवती – अब तो हमारा विवाह भी हो गया है। अब तो तुम मुझसे नि:संकोच होकर बात के सकते हो। क्या तुम मेरे साथ विवाह करके प्रसन्न नहीं हो?
👦🏻 रविदत्त (प्राप्तव्यमर्थ) – “प्राप्तव्यमर्थ लभते मनुष्यों, देवोsपि तं लंघयितुं न शक्य:, तस्मान्न शोचामि न विस्मयो मे, यदस्मदीयं न हि तत्परेषाम्।”
विनयवती ने जब यह सुन तो उसने सोचा कि उसने जल्दबाजी में बिना विचार करे किसी अन्य से विवाह कर लिया है। वह बहुत दुखी हुई और उसने रविदत्त को बाहर निकाल दिया। रविदत्त बाहर निकल कर गली में चलने लगा।
तभी उसने सामने से गाजे बाजों के साथ धूमधाम से आती बारात को आते देखा। वह बारात वरकीर्ति नामक युवक की थी, जिसका विवाह उसी नगर ने एक बड़े सेठ की कन्या तारामती से होने वाला था। रविदत्त भी उसी बारात के साथ हो लिया।
जब बारात सेठ के राजमहल की तरह सजे घर के द्वार पर पँहुची, तो उसका बहुत आदर-सत्कार हुआ। विवाह का शुभ मुहूर्त होने पर तारामती सज-धज कर विवाह वेदी के समीप पहुँची ही थी कि एक मतवाला हाथी अपने महावत को मारकर चिंघाड़ता हुआ उधर ही आ गया।
कौन होगा मेरा पति?
हाथी से अपनी जान बचाने के लिए वरकीर्ति सभी बरातियों के साथ वहाँ से भाग गया। सेठ भी अपने भाई बंधुओं के साथ भाग कर घर में घुस गया। लेकिन तारामती इतनी डर गई कि उसके पैर जड़ हो गए और वह वही खड़ी रह गई। रविदत्त भयभीत कन्या को देखकर वहीं रूक गया और सांत्वना देते हुए उससे बोला,
👦🏻 रविदत्त (प्राप्तव्यमर्थ) – डरो मत। मैं तुम्हारी रक्षा करूँगा।
यह कहकर उसने वहाँ पड़ा एक डंडा उठाया और उस तारामती का दाहिना हाथ पकड़ कर हाथी को ललकारने लगा।
👦🏻 रविदत्त (प्राप्तव्यमर्थ) – “प्राप्तव्यमर्थ लभते मनुष्यों, देवोsपि तं लंघयितुं न शक्य:, तस्मान्न शोचामि न विस्मयो मे, यदस्मदीयं न हि तत्परेषाम्।”
डर के मारे तारामती ने रविदत्त का हाथ कस कर पकड़ लिया और उससे सट कर खड़ी हो गई। देवयोग से कुछ ऐसा संयोग हुआ कि वह हाथी अचानक से पलटा और वहाँ से चला गया।
हाथी के जाते ही सेठ अपने घर से बाहर निकल आया और वरकीर्ति भी अपनी बारात के साथ वापस आ गया। वरकीर्ति ने तारामती को किसी दूसरे पुरुष का हाथ पड़कर उससे सट कर खड़े हुए देखा। यह देखकर उसे क्रोध आ गया और क्रोधित स्वर से सेठ से बोला,
👳 वरकीर्ति – ससुर जी, आपने तारामती का हाथ मुझे देने का वचन दिया था लेकिन आपने तारामती का हाथ इस युवक को देकर आपने उचित नहीं किया।
👳♂️ सेठ – मैं भी तुम्हारी तरह हाथी के डर से यहाँ से भाग गया था। उसके बाद यहाँ क्या हुआ मुझे कुछ नहीं पता। तारामती तुम्हीं मुझे पूरी बात बताओं।
👩🏼🦱 तारामती – पिताजी, वरकीर्ति तो मुझे छोड़कर भाग गए थे। इस युवक ने अपनी जान जोखिम में डाल कर मेरी जान बचाई है। इसलिए अब मैं इसी युवक से विवाह करूँगी।
👳 वरकीर्ति – लेकिन तुम्हारा विवाह मेरे साथ तय हुआ था। इसलिए तुम्हें मुझसे हि विवाह करना पड़ेगा।
👩🏼🦱 तारामती – मैंने इस युवक को अपने मन से अपना पति मान लिया है। इसलिए इस जन्म में तो कोई अन्य मेरा हाथ नहीं पकड़ सकता।
इस प्रकार पूरी रात उनमें वाद-विवाद चलता रहा। सुबह होने पर उनके विवाद को देख कर भीड़ इकट्टी हो गई। थोड़ी देर में ही इस विवाद की खबर पूरे नगर में फैल गई। खबर सुनकर राजकुमारी चंद्रवती और विनयवती भी तमाशा देखने वहाँ पँहुच गई।
इस अनोखे विवाद की खबर जब उस नगर के राजा को मिली तो वह भी उस स्थान पर आ गया। उसने सभी को रोका और रविदत्त (प्राप्तव्यमर्थ) से पूछा,
🤴🏻 राजा – युवक ! तुम निश्चिंत होकर मुझे सारा घटनाक्रम सच-सच बताओ।
👦🏻 रविदत्त (प्राप्तव्यमर्थ) – “प्राप्तव्यमर्थ लभते मनुष्यों।”
👸🏻 चंद्रवती – (याद करते हुए) “देवोsपि तं लंघयितुं न शक्य:।”
🧟♀️ विनयवती – “तस्मान्न शोचामि न विस्मयो मे।”
👩🏼🦱 तारामती – “यदस्मदीयं न हि तत्परेषाम्।”
प्राप्तव्यमर्थ के बोले श्लोक को उन कन्याओं द्वारा पूरा किए जाने से राजा अचंभित हो गया। फिर उसने तीनों कन्याओं को अभयदान देते हुए अलग-अलग बुलाकर उनसे सारी बात बताने को कहा।
पूरी बात पता लगने पर उसने कहा,
🤴🏻 राजा – प्राप्तव्यमर्थ ने तारामती की रक्षा की है, इसलिए वहीं उसका पति होगा।
सेठ ने अपनी कन्या का विवाह बड़े धूम-धाम से प्राप्तव्यमर्थ के साथ कर दिया। इसके बाद राजा ने भी अत्यंत आदरपूर्वक अपनी कन्या चंद्रवती का हाथ गहनों, दास-दासियों व एक हजार ग्रामों सहित प्राप्तव्यमर्थ को सौंप दिया। इतना ही नहीं उसने प्राप्तव्यमर्थ को अपना पुत्र मानकर उस नगर का युवराज घोषित कर दिया।
दंडपाशक ने भी अपनी सामर्थ्य के अनुसार भेंट देकर विनयवती का विवाह प्राप्तव्यमर्थ के साथ कर दिया। तीनों कन्याओं से विवाह करने के पश्चात उसने अपने समस्त परिवार को भी वहां बुला लिया और आनंदपूर्वक राजमहल में रहने लगा।
सीख
जिसके भाग्य में जो लिखा होता है वह उसे अवश्य मिलता है। लेकिन उसके लिए भी कर्म करना पड़ता है। कोई वस्तु छिन जाने पर उसका शोक नहीं करना चाहिए और किसी वस्तु के मिलने पर ज़्यादा प्रसन्न भी नहीं होना चाहिए। ईश्वर में विश्वास रखते हुए फल की चिंता किए बिना बस अपना कर्म करते रहना चाहिए।
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