मूर्ख और लालची नाई – Murkh Our Lalchi Naai
पंचतंत्र की कहानियाँ – पाँचवाँ तंत्र – अपरीक्षितकारकम – मूर्ख और लालची नाई – Murkh Our Lalchi Naai
दक्षिण प्रदेश के एक प्रसिद्ध नगर पाटलीपुत्र में मणिभद्र नाम का एक बहुत धनी महाजन रहता था। वह अपना धन सदा लोक-सेवा और धर्म के कार्यों में खर्च करता रहता था। कुछ समय बाद उसका संचित धन खत्म हो गया। धन ना होने के कारण समाज में उसका मान घट गया। यह देखकर मणिभद्र को बहुत दुःख हुआ। वह चिंतित रहने लगा। उसके मन में तरह-तरह के विचार आने लगे।
उसने सोचा, “ये दुनियाँ कितनी स्वार्थी हो गई है। यहाँ धनहीन व्यक्ति का कोई सम्मान नहीं करता है, चाहे वह कितना भी गुणी क्यों न हो। यदि दरिद्र व्यक्ति अच्छे चरित्र, उच्च कुल और मृदुल स्वभाव का भी क्यों ना हो समाज के लोग उसका सम्मान करने की बजाय, कुल, चातुर्य और शीलविहीन वाले धनवान का आदर सत्कार करते है। उसी की चाटुकारिता और खुशामद करते है।
ऐसा जीना भी कोई जीना है?
दरिद्रता बहुत बुरी होती है। जिस प्रकार गर्मी की हवा लगते ही बसंत की सारी शोभा खत्म हो जाती है, उसी तरह दरिद्र होने पर घर-परिवार के पोषण की चिन्ता में उसकी कारण व्यक्ति के बुद्धि, ज्ञान और प्रतिभा आदि सभी गुण खत्म होने लगते है। जिस तरह तालाब सूखने पर श्मशान की भांति भयंकर दिखाई देने लगता है उसी तरह धनहीन होने पर सुंदर घर भी श्मशान के समान रूखा और निर्जीव लगने लगता है।
जिस प्रकार जलाशय में उतने वाले बुलबुले उसी में नष्ट ही जाते है, उसी तरह निर्धन होने पर सारी मान-मर्यादा भी नष्ट हो जाती है। जिस तरह पतझड़ के झंझावात में मौलसरी के फूल झड़ जाते हैं, उसी तरह धनहीन होने पर मैं भी दूसरे निर्धनों की तरह घर के घी-तेल-नमक-चावल की निरन्तर चिन्ता में अपनी सारी प्रतिभा खो दूंगा।”
निर्धनता की इतनी भयंकर कल्पना करके मणिभद्र का कलेजा कांप उठा।
उसने फिर सोचा, “हे भगवान, मेरे द्वारा किए गए पुण्य कर्मों का भी मुझे कोई लाभ नहीं हुआ। बिना मान-मर्यादा के अपमानजनक जीवन जीने से अच्छा है, मैं अपने प्राण त्याग दूँ।”
अनोखा सपना
इन्हीं विचारों में डुबे हुए उसे नींद आ गई। गहरी नींद आने पर उसे एक स्वप्न दिखाई दिया। स्वप्न में उसने एक बोद्ध भिक्षु को देखा।
उस भिक्षु ने उससे कहा, “पुत्र, तुम किसी बात की चिंता मत करों। मैं तुम्हारे और तुम्हारे पूर्वजों के पुण्यकर्मों द्वारा उपार्जित पद्मनिधि हूँ। कल सुबह मैं इसी भिक्षु रूप में तुम्हारे द्वार पर आऊँगी। तुम मेरे सिर पर लाठी से प्रहार करना, जिससे मैं सोने में परिवर्तित हो जाऊँगी। यदि तुम इसी तरह पुण्य कर्म करते रहे तो, वह स्वर्ण कभी खत्म नहीं होगा। उस स्वर्ण से तेरी सारी दरिद्रता हमेशा के लिए दूर हो जाएगी।“
इतना कहकर वह भिक्षु अंतर्ध्यान हो गया। सुबह नींद खुलने पर मणिभद्र रात के स्वप्न के बारे में सोचने लगा। उसके मन मैं कई तरह के विचार आने लगे।
उसने सोचा, “यह रात को मुझे कैसा स्वप्न आया? क्या यह सच हो सकता है? नहीं-नहीं यह असंभव है, यह सत्य नहीं हो सकता। मैं सारे दिन धन के ख्यालों में खोया रहता हूँ, इसलिए मुझे इस तरह का स्वप्न आया है। किसी ने सही कहा है कि रोगग्रस्त, शोकातुर, चिंता से व्याकुल, और कामातुर मनुष्य के स्वप्न निरर्थक होते है। उन्हें सच मानकर आशावादी होना मूर्खता है।”
सपना सच हो गया
यह सोच कर वह अपने नित्य कर्मों में लग गया। उसने अपने बाल कटवाने के लिए नाई को बुलावा भेज दिया। वह द्वार पर नाई की प्रतीक्षा कर रहा था कि उसके द्वार पर वैसा ही भिक्षु या गया जैसा उसने अपने स्वप्न में देखा था। उसे देख कर उसका चेहरा खुशी से खिल गया। उसे स्वप्न की बात याद थी। उसने पास ही रखी लाठी उठाई और भिक्षु के सिर पर मार दी। लाठी की मार से वह भिक्षु सोने में परिवर्तित हो गया। मणिभद्र ने उस स्वर्णमूर्ति को उठाकर अपने घर में छुपा दिया।
यह सारी घटना नाई ने देख ली। यह देख कर वह हक्का-बक्का हो गया। आश्चर्य से उसकी आँखे फटी की फटी रह गई। उसे इस तरह देख मणिभद्र समझ गया कि नाई ने सारी घटना देख ली है। उसने उसे बहुत सारा धन देते हुए कहा, “तुम यह धन ले लों, लेकिन इस घटना को गुप्त रखना। किसी को भी इसके बारें में कुछ मत बताना।”
नाई धन लेकर अपने घर आ गया। उसने यह बात किसी को तो नहीं बताई, लेकिन वह भी इस सरल रीति का प्रयोग करके धन कमाने का विचार करने लगा।
यह तरीका तो बहुत सरल है!
उसने सोचा, “यदि एक भिक्षु सर पर लाठी की चोट से स्वर्ण का बन सकता है, तो दूसरा भी बन सकता होगा। मैं भी इस सरल विधि का प्रयोग करके बहुत धनवान बन जाऊँगा। कल सुबह ही मैं एक-दो नहीं बहुत सारे भिक्षुओं के सर पर लाठी मार-मार बहुत सारा स्वर्ण बना लूँगा और एक ही दिन में बहुत धनवान बन जाऊँगा।”
उसने अगले दिन सुबह ही इस विधि का प्रयोग करके बहुत सारा स्वर्ण प्राप्त करने का निश्चय कर लिया। इसी उत्साह मैं उसे नींद भी नहीं आई, वह बेसब्री से सुबह होने का इंतजार करने लगा। सुबह होते ही वह नगर में भिक्षुओं की खोज में निकाल पड़ा। उसे पता चला कि नगर के पास बने भगवान बुद्ध के एक मंदिर में बहुत सारे भिक्षु रहते है। वह जल्दी से वहाँ गया। उसने मंदिर की तीन परिक्रमा करते हुए भगवान बुद्ध से अपनी मनोरथ सिद्धि के लिए प्रार्थना की।
पधारों म्हारे आँगने
उसके बाद मठ प्रधान के पास जाकर उनका चरण स्पर्श और वंदना की और बड़ी विनम्रता से बोला, “हे देव, आज की भिक्षा के लिए आप मठ के समस्त भिक्षुओं के साथ मेरे घर पर पधारें।”
उसकी बात सुनकर मठ प्रधान ने उससे कहा, “शायद तुम हम बोद्ध भिक्षुओं के भिक्षा के नियमों को नहीं जानते हो। हम लोग ब्राह्मणों के समान किसी के बुलाने पर उसके घर जाकर भोजन नहीं करते। हम रोज भिक्षाटन के लिए घूमते-घूमते किसी भी भक्त के घर चले जाते है और यदि वह श्रद्धा से हमें अपने घर पर भोजन करवाता है, तब भी हम उसके यहाँ पर उतना ही भोजन करते है जितना कि जीवित रहने के लिए आवश्यक होता है।
“अत: हम तुम्हारे निमंत्रण पर नहीं किसी दिन ऐसे ही घूमते-घूमते तुम्हारे घर या जाएंगे। तब तुम हमारा सत्कार कर लेना। अभी तो तुम अपने घर चले जाओं।”
मठ प्रधान की बात सुनकर नाई निराश हो गया, लेकिन उसने हार ना मानते हुए युक्ति से काम लिया।
वह हाथ जोड़कर बोला, “श्रीमान, मैं आपके भिक्षाटन के नियमों से भलीभाँति परिचित हूँ। मैं आपको केवल भिक्षा के लिए नहीं अपितु आप जो पुस्तक लेखन का महान कार्य करते है, उसमें सहयोग करना चाहते हूँ।। मैं आपके इस पुण्य कार्य के लिए धन, वस्त्र और अन्य सामग्री देने के लिए, आपकों अपने घर बुला रहा हूँ। आपके चरण-कमल मेरे घर पर पड़ने से मेरा घर भी पावन हो जाएगा।”
तृष्णा कभी नहीं मरती
मठ प्रधान ने उसकी बात मानते हुए कहा, “ठीक है, हम आज दोपहर भोजन के बाद तुम्हारे घर पर आ जाएंगे। तुम हमें लेने आ जाना।”
मठ प्रधान से आश्वासन पाकर नाई खुशी-खुशी अपने घर आ गया और तैयारी करने लगा। उसने जल्दी-जल्दी एक मोटी सी लाठी लाकर दरवाजे के पास रख दी, घर के आँगन को भिक्षुओं के लिए खाली कर दिया, और स्वर्ण को छुपाकर रखने के लिए एक कमरा खाली कर दिया। दोपहर होने पर वह फिर से मंदिर में गया और सारे भिक्षुओं को लेकर अपने घर आ गया।
भिक्षु भी धन और वस्त्र के लोभ में उसके साथ उसके घर आ गए। तृष्णा कभी नहीं मरती, सब कुछ छोड़ देने पर भी मन के किसी कोने में दबी रहती है। व्यक्ति बूढ़ा हो जाता है, उसके सभी अंग शिथिल हो जाते है, बाल रूखे हो जाते है, दाँत टूट कर गिर जाते है, आँखों से दिखना और कानों से सुनाई देना बंद हो जाता है, लेकिन तृष्णा अंतिम श्वास तक जवान रहती है।
अपनी तृष्णा के वश में आकर वे सब नाई के हाथों ठगे गए। नाई उन्हें घर के अंदर आँगन में ले गया। उसने अंदर से द्वार बंद कर दिया और लाठी से उनके सर पर मारने लगा। उसके मारने से कुछ तो वहीं धराशायी हो गए तो कुछ के सिर फूट गए। कुछ चिल्लाते हुए इधर से उधर भागने लगे।
उनका कोलाहल सुनकर नाई के घर के सामने लोग एकत्रित हो गए। नगर के द्वारपाल भी वहाँ आ पँहुचे। उन्होंने मिलकर दरवाजे को तोड़ा और अंदर आ गए। अंदर का नज़ारा बड़ा वीभत्स था। कुछ भिक्षु जमीन पर मरे हुए पड़े थे, कुछ लहूलुहान होकर अपना सिर पकड़ कर बैठे थे और कुछ अपनी रक्षा के लिए चिल्लाते हुए इधर से उधर भाग रहे थे।
बिना विचारे जो करे, वो पाछे पछताए
द्वारपालों ने नाई को पकड़कर राजा के समक्ष पेश किया। राजा ने नाई से इस रक्तपात का कारण पूछा, तो उसने मणिभद्र के घर हुई सारी घटना बताते हुए कहा, “मैं भी मणिभद्र के समान बहुत सारा स्वर्ण जमा करना चाहता था।”
नाई के मुख से सारी बात सुनकर राजा ने मणिभद्र को दरबार में बुलाया और पूछा, “तुमने एक बोद्ध भिक्षु की हत्या क्यों की है?”
मणिभद्र ने राजा को अपने स्वप्न से लेकर भिक्षु के स्वर्ण बनने की सारी कहानी बात दी। सारी कहानी सुनने के बाद राजा ने नाई को मृत्युदंड की सजा देते हुए कहा, “तुमने बात की पूर्ण सच्चाई को जाने और समझे बिना, बस आँखों देखी पर विश्वास करके कितने सारे भिक्षुओं को मौत के घाट उतार दिया और कितनों के सर फोड़ डाले। इसलिए तुम्हें मृत्यु दंड दिया जाता है।
कुपरीक्षितकारी अर्थात् बिना सोचे समझे काम करने वाले के लिए यहीं दंड उचित है।
सीख
- हमें कभी भी किसी बात की पूर्ण सच्चाई को जाने, समझे और उचित परीक्षण किए बिना कोई भी कार्य नहीं करना चाहिए। नहीं तो उसका परिणाम घातक हो सकता है।
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पिछली कहानी – सूत्रधार कथा – अपरीक्षितकारकम
तो दोस्तों, कैसी लगी पंचतंत्र की कहानियों के रोचक संसार में डुबकी। मजा आया ना, तो हो जाइए तैयार लगाने अगली डुबकी, .. .. .. ..
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