वट सावित्री व्रत – Vat Savitri Vrat
वट सावित्री व्रत विधि एवं महत्व – Vat Savitri Vrat Vidhi Evm Mahatv – Vat Savitri Vrat Mathod & Importance
भारत वर्ष में हिन्दू महिलाएं अपने पति की लम्बी आयु के लिए कई व्रत करती है। उन्हीं में से एक है वट सावत्री व्रत। वैसे तो अलग-अलग ग्रंथों एवं पुराणों में इस व्रत को करने की अलग-अलग तिथि बताई गई है। कुछ पुराणों के अनुसार ये व्रत ज्येष्ठ माह की त्रयोदशी से पूर्णिमा तक किया जाता है, तो कुछ पुराणों में इस व्रत को जयेष्ट माह की अमावस्या को करने का विधान है।
उनमे से स्कन्द पुराण, भविष्योत्तर पुराण और निर्णयामृत पुराण आदि पुराणों में इस व्रत के बारे में बताया गया है। अलग-अलग प्रान्तों में यह व्रत दोनों ही तिथियों पर अपनी-अपनी मान्यताओं और विधि-विधान से किया जाता है, लेकिन अधिकतर प्रान्तों में यह व्रत जयेष्ट माह की अमावस्या को ही किया जाता है।
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार जयेष्ट माह की अमावस्या को ही माता सावित्री अपने मृत पति के प्राणों को यमराज से छुड़ाकर वापस जीवित किया और लम्बे समय तक वैवाहिक जीवन का आनंद लिया था। अत: सुहागिन महिलाए इस दिन अपने पति के दीर्घायु व सुखद वैवाहिक जीवन की प्रार्थना व व्रत करती है।
वट सावित्री व्रत का महत्व
वैवाहिक धार्मिक मान्यता है कि इस व्रत को करने से पति दीर्घायु होता है और वैवाहिक जीवन में आने वाली सभी परेशानियाँ दूर होती हैं। पति पर आने वाले सभी संकट दूर होते है तथा सुयोग्य संतान की प्राप्ति होती है।
वट सावित्री व्रत में वट वृक्ष का महत्व
वट सावित्री व्रत में वट वृक्ष का बड़ा महत्व है। वट वृक्ष अर्थात् बरगद के पेड़ की जड़ में ब्रह्मा, तने में विष्णु और ऊपरी भाग डालियों, पत्तों व जटाओं में शिव का निवास माना जाता है। मान्यता है कि वट वृक्ष के नीचे पूजा करने से प्रत्येक मनोकामना पूरी होती है।
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार माता सावित्री ने यमराज के पीछे जाने से पूर्व वट-वृक्ष के तने पर कच्चा सूत बांध कर अपने पति की देह की रक्षा करने की प्रार्थना की थी.
वट वृक्ष ने पंद्रह दिन अर्थात जयेष्ट मास के कृष्ण पक्ष की एकम से अमावस्या तक अपनी जटाओं द्वारा सत्यवान के शरीर की जंगली जानवरों आदि से रक्षा की थी। इसी पेड़ के नीचे सवित्री ने अपने पति सत्यवान को यमराज से वापस पाया था।
वट सावित्री व्रत में चने का महत्व
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार यमराज ने माता सावित्री को सत्यवान के प्राण एक चने के रूप में लौटाए थे, इसलिए इस व्रत की पूजन सामग्री में भीगे चनों का प्रयोग किया जाता है।
वट सावित्री व्रत का में बांस के पंखे का महत्व
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार जब सत्यवान चक्कर खाकर जमीन पर गिर पड़े थे, तब माता सावित्री ने बांस के पत्तों से सत्यवान को पंखा झला था। इसलिए इस व्रत की पूजन सामग्री में बांस के पंखे को भी रखा जाता है और वटवृक्ष को वर स्वरुप मानकर पंखा झाला जाता है।
वट सावित्री व्रत का में सिन्दूर का महत्व
सिन्दूर को सुहाग का प्रतीक माना जाता है। सुहागन महिलाएं इसे अपनी मांग में धारण करती है। वट सावित्री व्रत में सुहागिने वटवृक्ष पर सिन्दूर चढ़ाकर, उससे अपनी मांग भरकर अपने लिए अमर सुहाग की कामना करती है।
वट सावित्री व्रत का में कच्चे सूत का महत्व
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार माता सावित्री ने यमराज के पीछे जाने से पूर्व वट-वृक्ष के तने पर कच्चा सूत बांध कर अपने पति की देह की रक्षा करने की प्रार्थना की थी।
वट वृक्ष ने पंद्रह दिन सत्यवान के शरीर की रक्षा की थी। इसलिए सुहागन महिलाएं एस दिन वटवृक्ष के तने पर कच्चा सूत बांध कर अपने पति के लिए दीर्घायु की प्रार्थना करती है।
वट सावित्री पूजन की सामग्री
- ब्रम्हा जी और देवी सावित्री की मूर्ति
- सावित्री-सत्यवान की मूर्ति
- मिट्टी का बना हुआ घी का दीपक, धुप
- बांस की दो टोकरियाँ
- बांस का पंखा
- लाल धागा और कच्चा सूत
- भीगे हुए चने
- 24 पूरियां और 24 बरगद के फल (आते या गुड़ से बने हुए)
- जल से भरा ताम्बे या मिटटी का लोटा
- हल्दी, रोली, मौली, सिन्दूर और अक्षत
- फल-फूल (खट्टे व अम्ल युक्त न हो)
- 12 कच्चे धागों से बनी दो मालाएं
वट सावित्री व्रत की विधि
वैसे तो अलग-अलग प्रान्तों में इस व्रत को करने की कई विधियां है, परन्तु सामान्यत: निम्नलिखित विधि द्वारा वट सावित्री व्रत किया जाता है :-
- प्रात:काल ब्रह्ममुहर्त में उठकर अपने घर की सफाई करके स्नान करे, साफ-धुले वस्त्र पहनकर सोलह श्रृंगार करें। अपनी श्रद्धानुसार निर्जला उपवास, उपवास या एकासन उपवास का संकल्प लेंवें। अपने सास-ससुर का आशीर्वाद लेकर इस व्रत को प्रारम्भ करें।
- गंगाजल या गो-मूत्र के छिडकाव से अपने घर को शुद्ध करें।
- बांस की एक टोकरी में धान रखकर दाएं ब्रह्मा जी की तथा बाएं देवी सावित्री की मूर्ति की स्थापना करें तथा इसी तरह दूसरी टोकरी में सावित्री-सत्यवान की मूर्ति की स्थापना करें और दोनों टोकरियों को वट वृक्ष के नीचे रखें। (कई लोग इस व्रत को सावित्री – सत्यवान से जोड़कर केवल पतिव्रता सावित्री और सत्यवान की ही पूजा करते है। जबकि पुरानों के अनुसार इस दिन पहले ब्रह्मा जी और उनकी पत्नी देवी सावित्री (गायत्री या माता सरस्वती) की पूजा की जानी चाहिए, क्योंकि देवी सावित्री की कृपा से ही राजा अश्वपति को सावित्री के रूप में एक विलक्षण और पतिव्रता पुत्री की प्राप्ति हुई थी।)
- ब्रह्मा जी व देवी सावित्री का पूजन करते हुए निम्न श्लोक का उच्चारण करें :-
- “अवैध्यं च सौभाग्यं देहि, त्वं मम सुव्रते। पुत्रं पौत्रान्श्च सौख्यं च, गृहाणार्ध्य नमोऽस्तुते।।”
- तत्पश्चात सावित्री-सत्यवान की पूजा करके निम्न श्लोक का उच्चारण करें :-
- “अवैध्यं च सौभाग्यं देहि, त्वं मम सुव्रते। पुत्रान् पौत्रान्श्च सौख्यं च, गृहाणार्ध्य नमोऽस्तुते।।”
- तत्पश्चात सावित्री-सत्यवान की पूजा करके वट वृक्ष की जड़ में जल चढ़ाये और निम्न श्लोक का उच्चारण करें :-
- “यथा शाखाप्रशाखाभिर्वृद्धोऽसि, त्वं महीतले। तथा पुत्रैश्च पौत्रैश्च सम्पन्नं कुरु मा सदा।।”
- हल्दी, रोली, मौली, सिन्दूर व अक्षत से पूजन करे।
- 24 पूरियां और 24 बरगद के फल तथा फल-फूल चढ़ाकर दीपक व धूप जलाएं।
- वट वृक्ष को वर स्वरूप मानकर बांस के पंखे से हवा झले। (कई जगह पूजा होने के बाद घर जाकर पति को पानी पिलाकर पंखा झलने की भी प्रथा है। )
- तत्पश्चात वट वृक्ष के तने पर कच्चा सूत लपेटते हुए तीन, सात, ग्यारह, इक्कीस या एक सौ आठ परिक्रमा करें, हर परिक्रमा के पश्चात एक भीगा चना वट वृक्ष पर चढ़ाते जाएँ।
- 12 कच्चे धागे वाली एक माला वृक्ष पर चढ़ाएं और दूसरी खुद पहन लें। फिर 6 बार माला को वृक्ष से बदलें और अंत में एक माला वृक्ष को चढ़ाएं और एक अपने गले में पहन लें।
- अपनी सास को भीगे चने व नकद रुपयों का बायना देकर चरण स्पर्श करें। सास उपस्थित ना हो तो बायना अपनी श्रद्धानुसार वस्त्र व नकद रुपयों का बायना निकालकर रखे, जो कि बाद में उन्हें दे देवें। सास न हो तो किसी सुहागन स्त्री को यह बायना दे देवें।
- इसके बाद वट सावित्री की कथा सुने।
- अंत में निम्न संकल्प लेकर पूरे दिन का उपवास रखें : –
- “मम वैधव्यादिसकलदोषपरिहारार्थं, ब्रह्मसावित्रीप्रीत्यर्थं। सत्यवत्सावित्रीप्रीत्यर्थं च, वटसावित्रीव्रतमहं करिष्ये।।”
- पूजा समाप्त होने पर यथा शक्ति ब्राह्मण को वस्त्र, फल व नकद रुपयों को बांस की टोकरी में रखकर दान देवें।
- वट वृक्ष की लाल कली को पानी से निगलकर और ११ भीगे चने खाकर अपना व्रत तोड़े।
- कई स्त्रियाँ तीन, सात, ग्यारह, इक्कीस या एक सौ आठ की संख्या में पान, सुपारी, धन, फल आदि चढाने का संकल्प भी लेती है। वट-वृक्ष की परिक्रमा करते हुए संकल्पित संख्या की वस्तुए वट-वृक्ष चढाई जाती है। अर्थात् यदि 108 पान चढाने का संकल्प लिया है तो वट-वृक्ष की 108 परिक्रमा करते हुए प्रत्येक परिक्रमा पूरी होने पर एक पान का पत्ता वट-वृक्ष पर चढ़ाया जाता है।
- कई स्त्रियाँ इस दिन से एक वर्ष तक प्रतिदिन पान-सुपारी, बिंदी और सिंदूर से सौभाग्यवती स्त्री के पूजन करने का व्रत भी लेती हैं।
कैसा हो वट सावित्री व्रत में खान पान
सुहागिन स्त्रियाँ इस दिन अपनी श्रद्धानुसार निर्जला उपवास, उपवास या एकासन उपवास का संकल्प ले सकती है। इस व्रत में जहाँ तक हो नमक व खट्टे पदार्थो का प्रयोग न करें, मीठा भोजन करना चाहिए। यदि किसी कारणवश जैसे बीमारी आदि में उपवास या व्रत रखने का सामर्थ्य न हो तो दोनों समय भी भोजन कर सकते है।
वट सावित्री व्रत कथा का महात्मन
कहा जाता है जब माता पार्वती ने भगवान् शिव से माता सावित्री के चरित्र और उनसे जुड़े ऐसे व्रत के बारे में बताने के लिए कहा जो सुहागिन स्त्रियों को अखंड सौभाग्य, सुयोग्य संतान और सुखद वैवाहिक जीवन प्रदान करने वाला हो। तब भगवान् शंकर ने उन्हें देवी सावत्री से जुडी सावित्री-सत्यवान की कथा का वर्णन किया।
माना जाता है की महाभारत काल में जब युधिष्ठिर ने मार्कंडेय ऋषि से पूछा कि क्या संसार में कोई दूसरी एसी स्त्री है जो द्रौपदी के सामान ही पतिव्रता हो और जिसने राजकुल में पैदा होने के बाद भी पतिव्रत धर्म का पालन करने के लिए उसने अपना सब कुछ त्याग दिया हो। तब ऋषि मार्कंडेय ने भी इसी कथा का वर्णन किया था।
वट सावित्री व्रत कथा
सावित्री का जन्म मद्रदेश के राजा अश्वपति व उनकी पत्नी के यहाँ देवी सावित्री (गायत्री) के आशीर्वाद से हुआ था। वे बहुत ही असाधारण तेजस्विनी व गुणवान कन्या थी और देवी सावित्री की अनन्य भक्त थी।
सावित्री के बड़े होने पर राजा अश्वपति को उनके विवाह की चिंता हुई बहुत खोजने के बाद भी उन्हें अपनी पुत्री के समान तेजस्वी व योग्य वर नहीं मिल पा रहा था। तब एक दिन उन्होंने सावित्री को ही अपने लिए योग्य वर का चुनाव करने के लिए विश्व भ्रमण के लिए भेज दिया।
वर का चुनाव
सावित्री ने अपने पति के रूप मे शाल्व देश के राजा द्युमसेन के पुत्र सत्यवान को चुना, जो कि राजपाट छिन जाने के कारण वन में अपने अंधे माता-पिता के साथ वास कर रहे थे।
जब नारद जी को इस बात का पता चला तो वे राजा अश्वपति के पास गए और उन्हें बताया कि सत्यवान सावित्री के सर्वथा योग्य है, लेकिन उसमे एक दोष है कि वह अल्प आयु है। आज से एक वर्ष पश्चात् उसकी मृत्यु हो जाएगी।
यह सुनकर राजा अश्वपति चिंता में पढ़ गए और उन्होंने दुबारा विश्व भ्रमण पर जाकर कोई दूसरा वर ढूंढने के लिए कहा।
लेकिन सावित्री सत्यवान ने कहा, “पिताजी, मैंने सत्यवान को अपने पति के रूप में चुन लिया है, और अब उनकी आयु कम हो या ज्यादा मैं उनके सिवा किसी दुसरे का वरण नहीं करुँगी।” सावित्री के बहुत समझाने पर वे सावित्री का विवाह सत्यवान से करवाने के लिए तैयार हो गए।
सत्यवान-सावित्री का विवाह
राजा अश्वपति ने शुभ महूर्त देखकर सावित्री का विवाह सत्यवान से करवा दिया। और सत्यवान के साथ देवी सावित्री को विदा कर दिया।
सावित्री सारे राजसी ठाठ-बाट छोड़कर अपने पति सत्यवान के साथ उनकी कुटिया में आ गयी। वे पुरे तन-मन से अपने पति व उनके माता-पिता की सेवा करने लगी। दिन बीतते जा रहे थे और उनके पति की मृत्यु का समय नजदीक आता जा रहा था।
वे एक-एक दिन गिनती जाती और माता गायत्री से अपने पति की लम्बी आयु के लिए प्रार्थना करती रहती साथ में ही अपने गृहस्थ जीवन के सभी कर्तव्यों का निर्वाह भी करती रहीं।
जब सत्यवान के जीवन के चार दिन ही शेष रह गए तो उन्होंने अखंड सुहाग की प्राप्ति के लिए जयेष्ट माह के शुक्ल पक्ष की तेरस, चौदस और पूर्णिमा को वटवृक्ष के सामने अखंड निराहार तीन दिन का व्रत सम्पूर्ण किया।
सत्यवान की मृत्यु
चौथे दिन जब सत्यवान लकड़ी काटने वन में जाने लगे तो उन्होंने सत्यवान से कहा कि आज वे भी उनके साथ जंगले में जाना चाहती है। उनके आग्रह पर सत्यवान उन्हें अपने साथ वन में ले गए। जंगल में पेड़ पर लकड़ी काटते-काटते उन्हें एक सर्प ने ड़स लिया और वे नीचे गिर पड़े।
सत्यवान के सर में दर्द होने लगा और उन्हें बहुत प्यास लगने लगी। तब देवी ने उन्हें जल पिलाया और उनका सर अपनी गोद में रखकर उन्हें हवा झलने लगी।
तभी उन्होंने देखा कि भयानक एकदम सांवले, पीतवस्त्रधारी पुरुष को देखा जो एक भैसे पर बैठा हुआ था और उसके एक हाथ में पाश और दुसरे हाथ में गदा थी।
देवी सावित्री ने उनसे पूछा, “आप कौन है?, उस पुरुष ने कहा, “तुम एक पतिव्रता स्त्री हो इसलिए तुम मुझे देख और सुन पा रही हो। मैं यमराज हूँ और तुम्हारे पति के प्राण ले जाने के लिए आया हूँ।” और उन्होंने अपने पाश से सत्यवान के प्राण लिए और यमलोक की तरफ प्रस्थान कर दिया।
सावित्री का यमराज के पीछे जाना
सावित्री ने अपने पति के शरीर को वटवृक्ष के नीचे रखा और एक सूत वटवृक्ष पर बांध कर अपने पति के शरीर की रक्षा करने की प्रार्थना की। फिर वे देवी गायत्री से प्रार्थना की कृपा से सशरीर यमराज के पीछे जाने लगी।
जब यमराज ने उन्हें अपने पीछे आते देखा तो उन्होंने उसे वापस लौटने के लिए कहा। लेकिन सावत्री ने कहा, “यदि आप मेरे पति के प्राण ले जायेंगे तो आपको मेरे भी प्राण ले जाने होंगे। मैं अपने पति के बिना संसार में नहीं रह सकती।
पहला वरदान
यमराज के बहुत समझाने पर भी सावित्री नहीं रुकी और उनके पीछे वैतरणी तक पार के ली।
तब यमराज ने सावित्री पति के प्रति प्रेम, भक्ति और निष्ठा से बहुत प्रसन्न होकर उनसे पति के प्राणों के अलावा कोई भी वरदान मांगने के लिए कहा। तब सावित्री ने कहा, “मेरे सास-ससुर को दृष्टि प्रदान करें।” यमराज के “तथास्तु” कहते ही देवी सावित्री के सास-ससुर की आँखों की ज्योति वापस लौट आई।
यमराज आगे बढ़ गए। सावित्री फिर यमराज के पीछे चलने लगी।
दूसरा वरदान
यमराज ने देवलोक में प्रवेश कर लिया। देवी सावित्री भी यमराज के पीछे-पीछे देवलोक तक पंहुच गयी। यह देखकर यमराज ने उनसे एक और वरदान मांगने के लिए कहा। तब देवी सावित्री ने अपने सास-ससुर का राजपाट वरदान में माँगा और यमराज ने उन्हें तथास्तु कहा और आगे चल दिए।
देवी सावित्री फिर यमराज के पीछे चल दी। यमराज ने यह देखा तो उन्हे इसका कारण पूछा।
तब सावित्री ने कहा, “अब तो मेरे धरती पर लौटने का कोई कारण भी नहीं बचा। आपकी कृपा से मेरे सास-ससुर के आँखों की रौशनी भी वापस आ गयी हे और उन्हें उनका राजपाट भी वापस मिल गया है। अब मुझे उनकी भी कोई चिंता नहीं रहीं। अब तो मैं आपके साथ ही चलूंगी और आप मेरे पति की आत्मा को जहाँ रखेंगे मैं भी वहीं रहूंगी।”
तीसरा वरदान
यमराज ने कहा, “मैं और तुम तथा संसार के सभी प्राणी नियमों से बंधे हुए है। कोई भी प्राणी सशरीर यमलोक में नहीं रह सकता। इसलिए यहाँ से लौट जाओं और ये व्यर्थ का प्रयास मत करों।”
जब बहुत समझाने पर भी सावित्री नहीं मानी तो यमराज ने सावित्री से एक वरदान मांगने के लिए कहा। तब सावित्री ने अपने माता-पिता के लिए पुत्र का वरदान मांग लिया। यमराज ने उन्हे यह वरदान भी दे दिया और आगे चल दिए।
चौथा वरदान
लेकिन सावित्री ने उनका पीछा नहीं छोड़ा और यमलोक तक पँहुच गई। यमलोक में सावित्री और यमराज के मध्य धर्म और कर्तव्य पर चर्चा हुई। उनके ज्ञान को देखकर यमराज ने उन्हें एक वरदान और मांगने के लिए कहा तो उन्होंने सौ पुत्रों का वरदान मांगा।
यमराज ने तुरंत कहा, “तथास्तु”। धर्मराज के तथास्तु कहने के बाद भी देवी सावित्री वहीं खड़ी रही, तो यमराज ने कहा, “पुत्री, तुम अब भी यहीं खड़ी हो, अब तो मैंने तुम्हारा मनचाहा वरदान भी दे दिया है, अब तो तुम लौट जाओं।”
तब देवी सावित्री ने कहा, “हे देव, आपने मुझे सौ पुत्र होने का वरदान दिया है। मैं एक पतिव्रता स्त्री हूँ और मेरे पति के प्राण आप हर चुके है। बिना पति के मैं सौ पुत्रों की माँ कैसे बनूँगी। इसलिए अपने वरदान को पूर्ण करने के लिए आपको मेरे पति के प्राण मुझे लौटाने पड़ेंगे।”
मिला अमर सुहाग
तब यमराज ने एक चने के रूप में सत्यवान के प्राण सावित्री को वापस लौटा दिए और उन्हें 400 वर्ष की आयु प्रदान क। साथ ही साथ सावित्री को यह आशीर्वाद दिया कि आज के दिन अर्थात् जयेष्ट मास की अमावस्या के दिन जो भी विवाहिता स्त्री तुम्हारी कथा सुनकर व्रत करेगी, यदि उसके पति के भाग्य में अकाल मृत्यु भी लिखी होगी तो वह टल जायेगी।
इस व्रत का नाम होगा “वट सावित्री व्रत”।
तत्पश्चात यमराज की कृपा से देवी सावत्री तत्काल अपने पति की देह के पास लौट आई और अपने पति के प्राण वापस अपने पति में डाल दिए और 400 वर्षों तक सत्यवान के साथ वैवाहिक व राजपाट का सुख भोगकर मोक्ष को प्राप्त हुई।
हे वटवृक्ष देवता, हे माँ सावित्री जैसे सावित्री को अमर सुहाग मिला, वैसे ही हमें भी अमर सुहाग मिले।
बोलो गायत्री माता की जय, वटवृक्ष की जय, देवी सावित्री के जय
वट सावित्री व्रत पूजा और कथा के बाद आरती जरूर करनी चाहिए।
- वट सावित्री व्रत की आरती
- पतिव्रता सावित्री की कथा विस्तार से पढ़ने के लिए – Click Here
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