गोकर्ण और धुँधकारी की कथा – Gokarn Aur Dhundhkari Ki Katha
गोकर्ण और धुँधकारी की कथा – Gokarn Aur Dhundhkari Ki Katha – The Story of Gokarn and Dhundhkari
आत्मदेव और धुंधली
तुंगभद्र नदी के किनारे एक बहुत ही सुन्दर नगर था। वहाँ आत्मदेव नामक एक धनी ब्राह्मण अपनी पत्नी धुंधली के साथ रहते थे। आत्मदेव बहुत ही सज्जन, वेदों के ज्ञाता, और भगवान को मानने वाले थे। वे सूर्य के समान तेजस्वी, महाज्ञानी और धर्मनिष्ठ थे। सदा दान-धर्म, पूजा-पाठ में लगे रहते।
इतने धनी होने के पश्चात भी वे बहुत ही सादा जीवन जीने में विश्वास रखते थे। उनकी पत्नी धुंधली कुलीन और सुन्दर तो थी लेकिन बहुत ही झगडालू, दूसरों में दोष निकालने वाली और आलसी थी। उसे घर का कोई भी काम करना अच्छा नहीं लगता था।
वैसे तो आत्मदेव के घर में धन-धान्य किसी भी चीज कि कोई कमी नहीं थी। लेकिन उसे एक बात का बहुत दुःख था, उसके कोई संतान नहीं थी। यहाँ तक कि वो किसी गाय को भी पालते थे तो उसके भी बच्चे नहीं होते थे। घर में कोई पेड़ लगाते तो उस पर भी फल-फूल नहीं लगते। इसके लिए उसको लोगों के ताने भी सुनने पड़ते थे।
लोग उन्हें अशुभ मानते थे, इसलिए यदि सुबह-सुबह वे किसी के सामने आ जाते, तो लोग अपना रास्ता बदल देते और उन्हें बहुत भला-बुरा कहते। लोगों के ताने आत्मदेव को और भी दुखी कर देते, लेकिन उनकी पत्नी धुंधली पर इसका कोई भी प्रभाव नहीं पड़ता। बल्कि वह तो ताने मारने वालों से ही झगड़ पड़ती।
आत्मदेव चले आत्महत्या करने
आत्मदेव ने संतान प्राप्ति के लिए बहुत प्रयास किया, लेकिन सफल नहीं हुए। जब लोगों के ताने असहनीय हो गए तो एक दिन उसने आत्महत्या का निश्चय कर लिया और वह वन की ओर निकल गए। वे पर्वत से नदी में कूदने वाले थे, तभी वहाँ पर एक साधू महाराज आ गए।
जब उन्होंने यह देखा तो उन्होंने आत्मदेव को रोक लिया और कहाँ, “वेशभूषा से तो तुम ब्राह्मण लगते हो, फिर आत्महत्या जैसा महापाप क्यों करने जा रहे हो? तुम्हारे जैसा धर्मात्मा और तन, मन और आत्मा से पवित्र व्यक्ति इस तरह की मृत्यु के योग्य नहीं है। तुम्हें तो पता है कि आत्महत्या करने वाले को तो नर्क में भी स्थान नहीं मिलता।”
आत्मदेव ने फूट-फूटकर रोते हुए कहा, “हे साधू महाराज, आपकी बात बिल्कुल सही है, लेकिन मैंने कभी किसी का बुरा नहीं किया, सदा सभी का भला करने कि ही कोशिश करता हूँ, नियमित रूप से भगवान् की पूजा करता हूँ, गौ माता की सेवा करता हूँ फिर भी मैं बस एक छोटे से सुख से वंचित हूँ।”
साधू ने कहा, “ये कहा लिखा है कि संतान का सुख ही सब कुछ होता है।” साधू के मुख से यह बात सुन कर आत्मदेव आश्चर्य चकित रह गया और साधू के चरणों में गिरकर बोला, “साधू महाराज, आप तो बहुत ही ज्ञानी और धर्मात्मा है। तभी मेरे बिना कहे ही मेरी व्यथा के बारे में जान गए। तब तो आप ये भी बता सकेंगे कि मेरे भाग्य में संतान सुख है भी या नहीं।”
साधू ने आँखे बंद करके ध्यान लगाया और कहा, “आत्मदेव, तुम्हारे भाग्य में इस जन्म में तो क्या, अगले सात जन्मों तक संतान का सुख नहीं है।लेकिन यह भी तुम्हारे लिए ईश्वर का वरदान ही है। संतान होने से अधिक धन की कामना होती है। इंसान संसार की मोह माया में फँसकर परमात्मा से दूर हो जाता है। तुम्हें अपना मन संतान प्राप्ति की लालसा को छोड़कर भगवान की भक्ति में लगाना चाहिए।”
आत्मदेव ने कहा, “संतान के बिना मेरा मन सदा उदास और अशांत रहता है और अशांत मन से ईश्वर की भक्ति नहीं की जा सकती।”
साधु ने कहा, “शान्ति संतान से नहीं ईश्वर में श्रद्धा व भक्ति से तथा प्रसन्नता संतुष्टि और संतोष से मिलती है।”
आत्मदेव, “लेकिन मैं संतोष कैसे करूँ, जब कि मुझे पता है कि मेरे बाद मेरा तो नाम ही मिट जाएगा। मेरा तो वंश ही समाप्त हो जाएगा।”
साधु, “नाम संतान से नहीं अच्छे कर्मों से होता है और यदि संतान अधर्मी हो तो धर्मात्मा व्यक्ति का वंश भी खत्म हो जाता है और यदि संतान भक्त प्रह्लाद धर्मनिष्ठ हो तो अधर्मी का भी वंश सुधार जाता है। इसलिए वंश भी संतान से नहीं अच्छे कर्मों व धर्मनिष्ठता से ही आगे बढ़ता है।”
आत्मदेव ने दुखी होकर कहा, “हे साधू महाराज, लेकिन संतान के बिना मेरे मरने के बाद मेरा पिंडदान और श्राद्ध नहीं होगा और में अनेकों योनियों में भटकता रहूँगा मेरी आत्मा को मुक्ति नहीं मिलेगी।”
साधु ने उन्हें समझाते हुए कहा, “आत्मदेव, श्राद्ध से मुक्ति नहीं होती केवल पित्तर प्रसन्न होते है। आत्मा रूपी पिंड को ईश्वर को अर्पित करना ही पिंडदान है। मुक्ति के लिए पुत्र की आवश्यकता नहीं होती है, शास्त्रों में भी लिखा है कि मुक्ति तो उसी व्यक्ति को मिलती है जो अपने आपको तन, मन, धन सहित पूर्णरूप से परमात्मा की भक्ति में समर्पित कर दे। ईश्वर भक्ति ही मुक्ति का मार्ग है।”
परंतु आत्मदेव साधु की बातों से संतुष्ट नहीं हुआ और बोला, “महात्मन, मुझे ज्ञान नहीं संतान चाहिए। मेरी पीड़ा से तो मुझे तभी मुक्ति मिलेगी जब मुझे संतान प्राप्ति होगी और यदि मेरे भाग्य में संतान सुख नहीं है तो मुझे मर ही जाना चाहिए।”
साधु ने कहा, “आत्मदेव, मानव जीवन से बड़ा कोई सुख नहीं होता है। ये तो ईश्वर की असीम कृपा और पुण्यों के प्रताप से मिलता है। आत्महत्या इस जीवन का ही नहीं स्वयं ईश्वर का अपमान है।”
आत्मदेव पर साधु के समझाने का कोई प्रभाव नहीं पढ़ा और उसने कहा, “बिना पुत्र के मेरे इस जीवन का कोई अर्थ नहीं है। या तो आप मुझे संतान प्राप्ति का कोई उपाय बात दीजिए नहीं तो मैं आपके सामने ही अपने प्राण त्याग दूंगा।” और आत्मदेव पहाड़ से कूदने लगे।
मिल गया पुत्र-प्राप्ति का वरदान
आत्मदेव के हठ और दुराग्रह को देखकर साधु ने उन्हें रोका। फिर अपने मंत्रों की शक्ति से उत्पन्न आम का एक फल देते हुए कहा, “मैं नियति के विपरीत जाकर ये फल आपके दे रहा हूँ, इस फल को तुम अपनी पत्नी को खिला देना, आपको पुत्र की प्राप्ति अवश्य हो जाएगी। लेकिन इसके लिए आपकी पत्नी को एक वर्ष तक सात्विक जीवन जीना होगा। सदा सत्य बोलना होगा, दया और दान के धर्म का पालन करना होगा। एक समय पर एक अन्न खाने का नियम का पालन और धरती पर सोना होगा। तभी आपकी संतान का स्वभाव शुद्ध व सात्विक होगा और वह आपको सुख प्रदान करेगा।” इतना कहकर साधु वहाँ से चले गए।
आत्मदेव खुशी-खुशी घर आया और वह फल अपनी पत्नी को देकर उसे सारी बात बताई और कहा, “साधु महाराज की कृपा से अब हमें भी संतान प्राप्त हो जाएगी।”
ये सब मुझसे नहीं होगा
लेकिन फल पाकर धुंधली बिल्कुल खुश नहीं हुई और उसके मन में तरह-तरह के तर्क-कुतर्क चलने लगे, “बच्चा पैदा करना तो कितना झंझट का काम है, गर्भावस्था में कितनी कठिनाई होती है और प्रसव के समय कितनी वेदना सहन करनी पड़ती है। और तो और बच्चे का लालन-पालन करने में कितना काम करना पड़ता है।”
“और कहीं इस फल के प्रभाव से शुकदेव जी जैसा बालक मेरे गर्भ में आ गया तो मैं तो मर ही जाऊँगी। एक वर्ष तक सात्विक जीवन जीना मेरे बस की बात नहीं है। ना रे बाबा ना, ये सब झंझट मेरे बस की बात नहीं है।” उसने यह सोच कर फल नहीं खाया, और उसे घर में ही रख लिया।
लेकिन फिर उसने सोचा, “यदि मैने यह फल नहीं खाया तो मैं गर्भ धारण नहीं कर पाऊँगी और मेरे पति को सब पता चल जाएगा। फिर पता नहीं वे मेरे साथ कैसा व्यवहार करेंगे। कहीं उन्होनें मुझे इस घर से ही बाहर निकाल दिया तो।” यह सोच कर वह डर गईं।
धुंधली का कपट
वह असमंजस में थी तभी उसकी बहन उसके घर में आई। उसने धुंधली से उसकी चिंता का कारण पुछा तो उसने उसे पूरी बात बता दी। तब उसकी बहन ने उसे एक युक्ति सुझाई, “मैं अभी गर्भवती हूँ, कुछ दिनों बाद तुम अपने पति से कह देना कि तुम गर्भवती हो गई हो और अपने मायके चली जाना। मैं भी वहीं आ जाऊँगी। बच्चा होने पर मैं अपना बच्चा तुम्हें दे दूँगी। तुम उसे लेकर वापस यहाँ आ जाना और हम तुम्हारे पति को कह देंगे की मेरा बच्चा मरा हुआ पैदा हुआ था। इसके बदले में तुम मुझे थोड़ा धन दे देना।”
धुंधली को अपनी बहन की योजना बहुत पसंद आई। उसने खुश होकर कहा, “बड़ी अच्छी योजना है, इस तरह मुझे गर्भावस्था के कष्ट भी नहीं झेलने पड़ेंगे, मुझे पुत्र भी मिल जाएगा और पति का प्रेम भी और तुम्हें भी धन मिल जाएगा। लेकिन इस फल का क्या करूँ?” उसकी बहन ने कहा, “तुम इस फल को अपनी गाय को खिला दो।” धुंधली ने उस फल को गाय को खिला दिया। और गर्भवती होने का नाटक कर अपनी बहन के साथ मायके चली गई।
गोकर्ण और धुँधुकारी का जन्म
समय बीतने पर वह अपनी बहन के पुत्र को लेकर वापस आ गई। आत्मदेव की तो खुशी का ठिकाना ही नहीं था। उसने पूरे नगर में मिठाइयाँ बँटवाई। बड़े धूमधाम से उसके नामकरण का उत्सव मनाया गया | आत्मदेव अपने पुत्र का नाम ब्रह्मदेव रखना चाहते थे लेकिन धुंधली ने कहा, “नहीं, यह मेरा पुत्र है इसलिए इसका नाम मैं अपने नाम से रखूंगी। मेरा नाम धुंधली है तो इसका नाम होगा धुँधकारी।” आत्मदेव ने इसे स्वीकार कर लिया।
धुंधली ने साधु का दिया फल अपनी गाय को खिला दिया था, जिससे वह गर्भवती हो गई थी। नौ माह बीतने पर उस गाय ने भी एक अनोखे बच्चे को जन्म दिया। बच्चे का पूरा शरीर तो मनुष्य का था, लेकिन कान गाय के जैसे थे। इसलिए आत्मदेव ने उसका नाम गोकर्ण रखा।
आत्मदेव ने गोकर्ण को धुंधली को देते हुए कहा, “हम इसका पालन-पोषण भी अपने पुत्र के समान करेंगे।” आत्मदेव तो गोकर्ण और धुँधकारी दोनों को ही एक समान प्रेम करते थे। लेकिन धुंधली अपने पुत्र धुँधकारी को ही ज्यादा प्रेम करती थी। वह उनके खाने-पीने, कपड़ों आदि सभी में भेदभाव करती थी।
आत्मदेव धुंधली को बहुत समझाते लेकिन उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वह अपने पुत्र की गलतियों को भी नजरंदाज कर देती थी। वह धुँधकारी पर अत्यधिक लाड़-प्यार लुटाती और गोकर्ण का तिरस्कार करती।
धुंधली के लाड़-प्यार के कारण जहाँ धुँधकारी जिद्दी और शरारती हो गया था, वहीं दूसरी ओर गोकर्ण ने अपना सारा समय पढ़ने, घर के कामों और आत्मदेव के साथ बीतता था। शीघ्र ही उसने वेदों, उपनिषदों व शास्त्रों का अध्ययन कर लिया। उसे आत्मदेव से ज्ञान, धर्म की शिक्षा के साथ-साथ अच्छे संस्कार भी मिले।
धीरे-धीरे समय का चक्र चलता रहा और दोनों वयस्क हो गए। अत्यधिक लाड़-प्यार और रोक-टोक ना होने के कारण धुँधकारी दुराचारी और अधर्मी हो गया था। वह कोई काम-काज नहीं करता, बस मदिरापान करने, जुआ खेलने में घर की संपत्ति लुटाता रहता।
आत्मदेव जब भी धुँधकारी को समझाने का प्रयास करता धुंधली बीच में आ जाती। यह सब देख कर धुँधकारी के दुराचार, उद्दंडता और अधर्म और बढ़ने लगे। अब तो वह वैश्याओं के पास भी जाने लगा, दूसरों का अपमान करें और सताने में उसे आनंद आने लगा।
आत्मदेव का सन्यास और मुक्ति
आत्मदेव के पास उसकी उद्दंडता की शिकायते आने लगी। एक दिन जब आत्मदेव से रहा नहीं गया तो उन्होनें धुँधकारी को समझाने का प्रयास किया, लेकिन उसने आत्मदेव का ही अपमान कर दिया।
अपने पुत्र के इस दुराचरण से आत्मदेव का मन बहुत ही आहत हो गया। वे सोचने लगे की साधु महाराज ने बिल्कुल सही कहा था। इससे तो वह पुत्रहीन ही अच्छा था। यह सोच-सोच कर वह बहुत ही दुखी रहने लगा।
उन्हें दुखी देखकर गोकर्ण ने उन्हे बहुत समझाने की बहुत कोशिश की। लेकिन उनके मन को संतोष नहीं हुआ। तब गोकर्ण ने कहा, “पिताजी, धुँधकारी का विचार करके अपने आप को दुखी ना करें। ये संसार ही मोह-माया का जंजाल है। जिससे मुक्त होना अत्यंत कठिन है।”
गोकर्ण की बाते सुन आत्मदेव ने कहा, “पुत्र, तुमने तो शास्त्रों का अध्ययन किया है। इसलिए अब तुम्हीं मुझे बताओं इस मोह-माया के बंधन से मुक्त होने के लिए मुझे क्या करना चाहिए?”
गोकर्ण ने कहा, “पिताजी, आप अपनी गृहस्थी की पूरी जिम्मेदारी निभा चुके है। शास्त्रों के अनुसार आपका गृहस्थ आश्रम समाप्त हो चुका है। अब आप मोह-माया को छोड़कर वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश में प्रवेश करने के लिए वैराग्य ले लीजिये। अपना ध्यान केवल भगवान के चरणों में लगाइये। जिनके स्मरण मात्र से हर दुख मिट जाता है और मुक्ति मिलती है।”
गोकर्ण की बात मानकर आत्मदेव ने सन्यास लेने का निश्चय कर लिया और अपनी पत्नी धुंधली से अपने साथ चलने के लिए कहा। लेकिन उसकी आँखों पर तो पुत्र मोह का पर्दा पड़ा हुआ था। उसने आत्मदेव के साथ जाने से मन कर दिया।
तब आत्मदेव ने धुंधली को समझाना चाहा कि धुँधकारी की उद्दंडता और दुराचरण इतना बढ़ चुका है कि एक दिन वह उसके साथ भी गलत व्यवहार करेगा। लेकिन धुंधली को पुत्र मोह में आत्मदेव की बात समझ नहीं आई और वह उनके साथ वन में नहीं गई।
आत्मदेव ने गोकर्ण से अपनी माता की मृत्यु होने तक का ध्यान रखने का वचन लिया और अकेले ही सब-कुछ त्याग कर गंगा किनारे चले गए। वहाँ पर वे रोज भागवत के दशम अध्याय का पाठ करने लगे और भगवान की भक्ति में लीन हो गए। जिसके पुण्य प्रभाव से उन्हें मोक्ष प्राप्त हुआ और वे भगवान कृष्ण में समाहित हो गए।
धुंधली और धुँधकारी की मृत्यु
उनकी मृत्यु का समाचार धुंधली, धुँधकारी और गोकर्ण तक भी पँहुचा। लेकिन इस बात का धुँधकारी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उसका दुराचरण तो अब इतना बढ़ चुका था कि वह पाँच वैश्याओं को अपने घर में ही ले आया और अपनी माँ को उनकी सेवा में लगा दिया।
गोकर्ण ने धुँधकारी को समझाने का प्रयास किया, लेकिन उस पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। धुंधली को भी अब अपनी गलती का एहसास हो गया था। इसलिए अपने पुत्र के कर्मों से दुखी होकर उसने कुएं मे कूदकर अपनी जान दे दी। धुंधली की मृत्यु के पश्चात गोकर्ण भी तीर्थ यात्रा के लिए चले गए।
अब तो धुँधकारी के ऊपर हर अंकुश खत्म हो गया। वह दोनों हाथों से वैश्याओं, मदिरापान और जुए में धन लुटाता रहा। संचित संपत्ति कितने दिन चलती है? शीघ्र ही उसकी सारी संपत्ति खत्म हो गई। अब वह अपने व्यसनों को और वैश्याओं की मांगों को पूरा करने के लिए चोरी करने लगा और डाका डालने लगा।
लेकिन उन वैश्याओं की मांगे बढ़ती गई और एक दिन उसने राज्य के महल से बहुत सारा धन चुरा लिया। राज्य के सैनिक उसके पीछे पड़ गए। तब वैश्याओं ने सोचा कि कहीं राजा के सैनिक धुँधकारी के साथ-साथ उन्हें भी ना पकड़ ले इसलिए उसे मारकर ये सारा धन लेकर यहाँ से भाग जाते है।
इसलिए एक रात को उन्होंने धुँधकारी को खूब सारा मदिरा पान करवाया। जब वह बेहोश हो गया तो उसका गला दबाया लेकिन वह नहीं मरा। तब उन्होंने उसे डंडों से बहुत पीटा। लेकिन उसके पाप-कर्मों का बोझ इतना था कि इतना पीटने के बाद भी उसकी मृत्यु नहीं हुई। तब वैशयाओं ने उसे पलंग से बांध दिया और उसके मुख में गर्म–गर्म अंगारे डाल दिए और उसे तड़पा-तड़पा कर मार डाला और सारा धन लेकर वहाँ से चली गईं।
धुँधकारी बना पिशाच
धुँधकारी को मृत्यु के बाद नर्क लोक में भी स्थान नहीं मिला और वह पिशाच बन गया और उसी घर में रहने लगा। जब गोकर्ण को धुँधकारी की मृत्यु का समाचार मिला तो उसने गया में जाकर उसका पिंडदान व श्राद्ध किया।
इसके बाद गोकर्ण वापस अपने घर लौट आया। तब धुँधकारी उसे तरह-तरह के रूप धर कर डराने लगा। लेकिन गोकर्ण के तप की शक्ति के कारण वह उसके समीप नहीं आ सका। गोकर्ण को अपने तप की शक्ति से पता लग गया कि ये धुँधकारी ही है।
गोकर्ण ने धुँधकारी को पुकारा तो वह रोते हुए उसके समक्ष आ गया। गोकर्ण ने उससे पूछा, “भ्राता धुँधकारी, क्या पिशाच के रूप में तुम ही हो?
धुँधकारी ने रोते हुए कहा, “हाँ गोकर्ण, मैं तुम्हारा भाई धुँधकारी ही हूँ। मेरे पाप कर्मों के कारण मृत्यु के बाद मुझे नर्क में भी स्थान नहीं मिला। तब से बस मैं पिशाच बन कर इसी जगह में कैद हूँ।”
गोकर्ण ने आश्चर्यचकित होते हुए कहा, “लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है? मैंने स्वयं गया में जाकर तुम्हारा पिंडदान करवाया था।”
धुँधकारी ने पश्चाताप करते हुए कहा, “मैंने अपने जीवन में इतने पाप-कर्म किए है कि गया में पिंडदान करने से भी मुझे मुक्ति नहीं मिलने वाली। तुम तो बहुत विद्वान और शास्त्रों के ज्ञाता हो। मुझे इस प्रेत योनि से मुक्ति दिलाने में मेरी सहायता करों।”
गोकर्ण ने कहा, “भ्राता, तुम्हें अपनी गलती का एहसास हो गया है और तुम्हें इसका पश्चाताप भी है। सच्चा पश्चाताप ही मुक्ति की दिशा में पहला कदम है। मैं तुम्हें इस प्रेत योनि से मुक्ति अवश्य दिलवाऊँगा।”
मिल गया धुँधकारी की मुक्ति का उपाय
गोकर्ण ने कई विद्वानों से अपने भाई की मुक्ति का उपाय पूछा, लेकिन सभी उन्हें इसका उपाय बताने में असमर्थ रहे। गोकर्ण सदा त्रिकाल साधन करते थे। इसलिए उन्होंने सूर्यदेव से ही इसका उपाय पूछने का निश्चय किया और अगले दिन सुबह सूर्योदय से पूर्व से ही वे सूर्यदेव की उपासना करने लगे। उनकी उपासना ने खुश होकर सूर्यदेव ने उन्हें दर्शन दिए।
तब गोकर्ण ने सूर्यदेव से अपने भाई को प्रेतयोनि से मुक्ति दिलवाने का उपाय पूछते हुए कहा, “हे सूर्यदेव, आप और चंद्रमा भगवान के दो नेत्र हो। आपकी दृष्टि से कोई भी छुप नहीं सकता है, इसलिए आप दोनों सभी जीवों के कर्मों के साक्षी होते हो। आप मेरे भाई धुँधकारी के सभी कर्मों व दुष्कर्मों को जानते हो। इसलिए आप ही मुझे बताइए कई धुँधकारी को प्रेतयोनि से मुक्ति कैसे मिलेगी?”
उसकी बात सुनकर सूर्यदेव ने कहा, “तुम्हारे भाई धुँधकारी ने आजीवन बुरे कर्म किए है। केवल भागवत गीता के पाठ के श्रवण से ही तुम्हारे भाई धुँधकारी को प्रेतयोनि से मुक्ति मिल सकती है। इसके लिए तुम सप्ताह पारायण भागवत गीता का पाठ करों। धुँधकारी को मुक्ति अवश्य मिलेगी।”
सूर्यदेव की आज्ञानुसार गोकर्ण भागवत गीता का पाठ करवाने का निश्चय करते है तथा नगरवासियों को कथा सुनने के लिए आमंत्रित करते है। तब धुँधकारी कहता है, “गोकर्ण तुमने कथा का आयोजन तो कर लिया है, लेकिन तुम तो जानते ही हो कि मैं प्रेतयोनि में हूँ और प्रेत तो हवा के झोंके की तरह होता है। मैं एक जगह कैसे बैठ पाऊँगा और कैसे पूरी कथा सुन पाऊँगा?”
उसकी बात सुनकर गोकर्ण एक सात गांठ वाला बांस मँगवाते है और उससे कहते है, “भाई धुँधकारी, “कल जब मैं कथा प्रारंभ करूँ तब तुम इस बांस की एक गांठ में घुसकर बैठ जाना, जिससे तुम एक जगह पर बैठकर कथा का श्रवण कर सकोगे।”
धुँधकारी को मिली प्रेतयोनि से मुक्ति
निश्चित समय पर गोकर्ण व्यास गद्दी पर बैठकर कथा प्रारंभ करते है। धुँधकारी वायु रूप में बांस की एक गांठ में जाकर बैठ जाता है। थोड़ी ही देर में वहाँ कथा सुनने के लिए कई लोग पँहुच जाते है। गोकर्ण पहले दिन की कथा का वाचन करते है। बांस की गांठ में धुँधकारी पूर्ण भक्तिभाव से उस कथा को सुनता है। पहले दिन की कथा समाप्त होने पर बांस की वह गांठ फट जाती है। तब धुँधकारी बांस की दूसरी गांठ में जाकर बैठ जाता है।
गोकर्ण दूसरे दिन की कथा कहते है और दूसरे दिन की कथा समाप्त होने पर बांस की दूसरे गांठ भी फट जाती है और धुँधकारी बांस की तीसरी गांठ में जाकर बैठ जाता है। इस तरह से हर दिन की कथा समाप्त होने पर बांस की एक गांठ फट जाती और धुँधकारी अगली गांठ में जाकर बैठ जाता।
इस तरह सातवें दिन वह बांस की आखरी गांठ में बैठ जाता है। जैसे ही सातवें दिन की कथा समाप्त होती है, तड़-तड़ करती वह सातवीं गांठ भी फट जाती है और धुंधकारी पवित्र होकर एक दिव्य रूप धारण करके गोकर्ण के सामने खड़ा होकर उसे प्रणाम करता है।
तभी वहाँ एक विमान आया जिसमें भगवान के पार्षद बैठे हुए थे। उन्होंने धुँधकारी को विमान में बैठने के लिए कहा। धुँधकारी विमान में चढ़ गया।
भागवत कथा श्रवण के पुण्य फल में पक्षपात क्यों?
धुँधकारी के विमान बैठते ही विमान जाने लगा तो गोकर्ण ने भगवान के पार्षदों से कहा, “हे पार्षदों, यहाँ इस पांडाल में धुँधकारी के साथ-साथ कई लोगों ने भी भागवत कथा का श्रवण किया है। धुँधकारी के लिए तो भगवान का विमान आ गया लेकिन बाकी अन्य लोगों के विमान कहाँ है? मेरी भागवत कथा तो इन सभी ने भी समान रूप से सुनी है तो उन्हें इस कथा के श्रवण का फल क्यों नहीं मिला?”
तब भगवान के पार्षदों ने कहा, “हे महात्मन, धुँधकारी और इनके कथा के सुनने और इन सबके कथा सुनने में श्रवण और मनन का भेद है। जहाँ ये सभी कथा समाप्त होने पर अपने-अपने घर जाकर सांसारिक कार्यों में लग जाते थे, वहीं दूसरी ओर धुँधकारी बांस की गांठ में बैठा-बैठा पूरे दिन की कथा की विषयवस्तु का स्थिरचित्त मन से मनन करता था। दूसरा इन सभी ने इस कथा का श्रवण सांसारिक सुखों को प्राप्त करने की लिए किया लेकिन धुँधकारी ने इस कथा का श्रवण संसार से मुक्ति प्राप्त करने के लिए किया। इसलिए धुँधकारी को लेने के लिए भगवान का विमान आया है और इन लोगों के लिए नहीं।” इतना कहकर भगवान के पार्षद, धुँधकारी सहित योगियों के लिए भी दुर्लभ गोलोक धाम चले गए।
भगवान के पार्षदों की बात सुनकर गोकर्ण ने अगले श्रावण माह में सभी के लिए सप्ताह परायण भागवत कथा रखी और सभी भक्तों को भागवत कथा के महात्मन को बताते हुए फिर से उसी प्रकार भागवत कथा कही। जिसे सभी भक्तों ने पूर्ण श्रद्धा भाव से सुना। कथा समाप्त होने पर भगवान के पार्षद कई विमानों के साथ वहाँ आ गए। उस गांव के सभी जीव कुत्ते और चाण्डाल आदि जितने भी जीव थे, सभी ने दिव्य देह धारण की और विमानों में चढ़ कर गोलोक धाम में चले गए।
सीख
हिन्दू मान्यताओं के अनुसार अपने माता-पिता को कष्ट देने वाला, शराब पीने वाले, चोरी-डाका डालने वाले, वेश्यागमन करने वाले जीव प्रेतयोनी प्राप्त कर अनंतकाल तक इसी संसार में भटकते रहते हैं। जिससे मुक्ति पाने का एकमात्र उपाय प्रेम, श्रद्धा व भक्ति भाव से भागवत कथा का श्रवण करना ही है।
इसिलए बहुत से लोग भागवत कथा के पाठ के समय अपने साथ सात गाँठ का बाँस रखते हैं। जिससे यदि परिवार का कोई भी सदस्य प्रेतयोनि ने चला गया हो तो उसको मुक्ति मिल जाए।
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