सूत्रधार कथा – कोकोलूकीयम – Sutradhaar Katha – Kokolukiyam
पंचतंत्र की कहानियाँ – तीसरा तंत्र – सूत्रधार कथा – कोकोलूकीयम – Sutradhaar Katha – Kokolukiyam – कौवे और उल्लुओ का बैर
दक्षिण जनपद में महिलारोप्य नामक एक नगर था। उसके समीप एक विशाल बरगद का पेड़ था। उस पेड़ की घने पत्तों से भरी शाखाओं पर बहुत सारे घोंसले बने हुए थे। इस घोंसलों में कौवों के अनेक परिवार रहते थे। इन सभी कौवों का राजा मेघवर्ण भी वहीं अपने परिवार सहित एक घोंसलें में उन्हीं के साथ रहता था। वह अपने सभी निर्णय अपने मंत्रियों की सलाह मशविरा से करता था।
उस पेड़ से कुछ ही दूर एक पर्वत की गुफा में उल्लुओं का एक दल भी रहता था। उनके राजा का नाम अरिमर्दन था। उल्लुओं और कौवों में स्वाभाविक शत्रुता होती है। इसी शत्रुता के कारण उल्लुओं का राजा अरिमर्दन रात के समय में अपने साथियों के साथ बरगद के पेड़ के चक्कर लगाता रहता। जैसे ही उसे कोई इक्का-दुक्का या अकेला कौवा मिल जाता तो वह उसे मार डालता। इस तरह उसने सैकड़ों कौवों को मौत के घाट उतार दिया था।
कैसे करें रक्षा?
अरिमर्दन से अपने साथियों को बचाने के लिए मेघवर्ण ने अपने साथियों के साथ मिलकर उस पेड़ के चारों और किलेबंदी कर रखी थी। लेकिन फिर भी वह अपने साथियों को अरिमर्दन से बचाने में असमर्थ रहा। तब उसने अपने पाँच अति बुद्धिमान और विश्वासपात्र मंत्रियों उज्जीवि, संजीवी, अनुजीवी, प्रजीवी, चिरंजीवी और अपने खानदानी सलाहकार स्थिरजीवी को गुप्त मंत्रणा के लिए एकांत में बुलाया।
मेघवर्ण – हमारी किलेबंदी के बावजूद भी उल्लुओं के राजा अरिमर्दन ने हमारे कई साथियों को मौत के घाट उतार दिया है। कठिनाई यह है कि हम रात को स्पष्ट देख नहीं पाते और इसका फायदा उठा कर वह हमेशा रात को ही हमला करता है।दिन के समय वह जाने कहाँ जाकर छिप जाते है। उनके रहने के स्थान के बारे में भी हमे कुछ नहीं मालूम है, नहीं तो हम दिन के समय वहाँ जाकर उन पर आक्रमण कर दे।
यदि हमने समय रहते कोई उपाय नहीं किया तो जल्द ही यह पेड़ कौवों विहीन हो जाएगा। शत्रु से छुटकारा पाने के लिए सामान्यत: संधि, विग्रह, यान, आसान, संश्रय और द्वेधी-भाव आदि नीतियों का प्रयोग किया जाता है। इसलिए अपने शत्रु के प्रहारों से बचने का या उसका सामना करने के लिए हमें किस उपाय का प्रयोग करना चाहिए।
संधि या युद्ध?
उज्जीवि इस बारे में तुम्हारा क्या विचार है?
उज्जीवि – महाराज, मेरी राय में तो जहाँ विजय निश्चित ना हो, वहाँ बलवान तो क्या समान बलवाले शत्रु से भी युद्ध ना करके संधि कर लेनी चाहिए। बलवान से युद्ध करने से दुर्बल को जान-माल की हानि ही होती है। नीति भी यहीं कहती है कि जब तक युद्ध से कोई बड़ा लाभ ना होता हो युद्ध नहीं करना चाहिए।
बुद्धिमानी इसी में है कि जहाँ विजय निश्चित ना हो तो एकाएक युद्ध में ना कूद कर कछुए के समान अपना शरीर को सिकोड़कर प्रहार सहने चाहिये और समय आने पर साँप की तरह डट कर खड़े हो जाना चाहिए। नदी की धार के विपरीत जाने वाले डूब जाते है। बादल कभी हवा की दिशा के विरुद्ध नहीं जाता वरन् उसी के साथ बहता रहता है।
मेघवर्ण – हूँ! संजीवी तुम्हारी इस बारे में क्या राय है? क्या तुम उज्जीवि से सहमत हो?
संजीवी – महाराज, मैं शत्रु के साथ संधि करने के पक्ष में नहीं हूँ। जिस प्रकार पानी को कितना ही गरम कर लिया जाए वह आग को बुझा ही देता है, उसी प्रकार अरिमर्दन क्रूर, लालची और अधर्मी के साथ कितनी भी गाढ़ी संधि कर ली जाए, तो भी वह हमें नुकसान पँहुचा ही देगा। उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता।
जिस प्रकार तपे हुए घी में पानी के छींटे डालने से वह ठंडा नहीं होता बल्कि और उछाले मारने लगता है, उसी प्रकार क्रोधित और क्रूर शत्रु के सामने शांति भाव दिखाने से वह हमें कमजोर समझ कर और अधिक क्रूर हो जाता है।
रही बलवान से युद्ध ना करने की बात तो यदि उत्साह और साहस हो तो दुर्बल भी सबल को मार सकता है। जिस तरह सिंह अपने से बड़े भीमकाय हाथी को भी अपने वश में करके जंगल पर राज करता है। उसी तरह जो राजा साहस के साथ शत्रु का सामना करता है, शत्रु उसके वश में हो जाते है।
यदि शत्रु को आमने-सामने की लड़ाई में पराजित ना किया जा सके तो उसे छल-बल से पराजित कर देना चाहिए। जो राजा अपनी प्रजा की रक्षा के लिए अपनी जमीन को शत्रुओं के लहू और उनकी स्त्रियों के आंसुओं से नहीं सींचते उनका यशोगान नहीं होता, वे राजा कहलाने के योग्य नहीं होते। इसलिए मेरी राय में तो हमें युद्ध ही करना चाहिए।
पीछे हटे या डटे रहें?
मेघवर्ण – अनुजीवी तुम क्या कहते हो?
अनुजीवी – महाराज, हमारा शत्रु दुष्ट, बलशाली और मर्यादाहीन होने के साथ-साथ मौका परस्त भी है। ऐसे शत्रु के साथ ना तो संधि करनी चाहिए और ना ही युद्ध। इसके लिए तो यान नीति अर्थात् पीछे हटना ही उपयुक्त रहेगा और इसमें कोई भी ग्लानि वाली बात नहीं है। शेर भी शिकार पर हमला करने से पहले पीछे हटता है। पीछे हटकर अपनी शक्ति को बढ़ाकर और शत्रु के बारें में सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त करने के उपरांत उससे युद्ध करने में समझदारी है।
वीरता का अभिमान करके जो दुर्बल बिना तैयारी के बलवान शत्रु से युद्ध करता है, वह अपना, अपने राज्य और अपने वंश का नाश के बैठता है। एक तरह से वह अपने शत्रु की ही इच्छा पूरी करता है। इसलिए मेरी राय में तो पीछे हटना ही श्रेयस्कर होगा। हमें यह स्थान छोड़कर किसी अन्य स्थान पर चले जाना चाहिए।
मेघवर्ण – प्रजीवी, तुम भी अपनी राय बताओं।
प्रजीवी – महाराज, मुझे तो संधि, युद्ध और पीछे हटना ये तीनों ही उपाय सही नहीं लगते। मेरी राय में तो हमें आसन नीति को काम में लेना चाहिए। अर्थात् अपने स्थान पर रहकर ही दृढ़ता से दुश्मन का सामना करना। मगरमच्छ नदी में रहकर शेर को भी हरा सकता है, हाथी को भी पानी में खींच सकता है। लेकिन यदि वह पानी से बाहर आ जाए तो एक चूहे से भी हार सकता है।
अपने दुर्ग में दृढ़ता से रहकर हम बड़े से बड़े दुश्मन को भी हरा सकते है। जिस तरह बहुत तेज आंधी-तूफान भी दृढ़ता से खड़े छोटे-छोटे पौधों को अपनी जगह से नहीं उखाड़ पाता। उसी तरह यदि हम अपनी जगह पर रहकर ही अपनी शक्ति को बढ़ाकर दृढ़ता से दुश्मन का सामना करे तो हम दुश्मन को आसानी से हरा सकते है।
जिस प्रकार एक अकेला पेड़ चाहे वह कितना ही बड़ा और दृढ़ क्यों न हो तेज आंधी-तूफान में उखड़ जाता है। लेकिन बहुत से पेड़ यदि एक साथ लगे हो तो भयंकर से भयंकर आंधी-तूफान भी उन्हें उखाड़ नहीं पाता। उसी तरह हमें एकत्रित होकर स्वयं को तथा अपने दुर्ग को सशक्त करके दृढ़ता के साथ यहीं रहकर दुश्मन का सामना करना चाहिए।
दोस्त बना लो
मेघवर्ण – चिरंजीवी, तुम इस बारें में क्या सोचते हो?
चिरंजीवी – महाराज, इस स्थिति में तो मुझे सभी नीतियों में संश्रय नीति ही सबसे श्रेष्ट लगती है। अर्थात् किसी बलशाली मित्र को अपने पक्ष में करके शत्रु पर वार कर उसे हरा देना। यदि एक सबल मित्र न भी मिल पाए तो दो या दो से अधिक दुर्बल मित्रों की सहायता से भी हम सबल हो सकते है।
जिस तरह छोटे-छोटे तिनकों से गूँथी हुई रस्सी से हाथी को भी बाँधा जा सकता है, उसी तरह कई निर्बल मिलकर सबल का सामना कर सकते है। जिस तरह बिना हवा के अग्नि भी बुझ जाती है, उसी तरह कोई कितना भी सबल और तेजस्वी क्यों न हो बिना किसी के साथ के वह कुछ नहीं कर सकता। अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता।
शत्रु के डर से जो अपना स्थान छोड़ देता है, उसकी कोई सहायता नहीं करता। वह कभी अपना स्थान वापस नहीं पा सकता। इसलिए मेरी राय तो यही है कि आप यहीं रहकर किसी ऐसे सबल मित्र की खोज करें जो शत्रु को हराने में हमारी मदद कर सके।
रणनीति बनानी पड़ेगी
अपने पांचों मंत्रियों से सलाह मशविरा करने के बाद मेघवर्ण अपने खानदानी सलाहकार स्थिरजीवी के पास गया। उसने उनको प्रणाम किया और एकांत में ले जाकर अपने मंत्रियों के साथ हुई सारी बातें बताई और कहा,
मेघवर्ण – बाबा, आप मेरे आप-दादा के समय से हमारे सलाहकार रहे है। नीति-शास्त्र में आप जैसा पारंगत यहाँ कोई नहीं है। आपने मेरे सभी मंत्रियों द्वारा दी गई सलाह सुनी है। सभी की अपनी अलग-अलग राय है। अब आप मेरा मार्गदर्शन कीजिए और जो मेरे और मेरे राज्य के लिए उचित हो ऐसी सलाह दीजिए।
स्थिरजीवी – वत्स, तुम्हारे मंत्रियों ने अपनी बुद्धि और नीति-शास्त्र के अनुसार सही सलाह दी है, जो समयानुसार काम की है। लेकिन इस समय द्वेधी-भाव नीति का प्रयोग उचित रहेगा। अर्थात् दुतरफी चाल। केवल एक नीति पर निर्भर रहने से काम नहीं चलेगा। आज के समय की मांग के अनुसार हमें दो या दो से अधिक नीतियों को मिलकर अपनी रणनीति बनानी पड़ेगी।
इसलिए हम पहले शत्रु से संधि करके उसे पूर्ण विश्वास में ले लेंगे, परंतु हम उस पर विश्वास नहीं करेंगे। संधिकाल के समय हम युद्ध की तैयारी करेंगे, और भेदनीति द्वारा शत्रु की निर्बलता का पता लगाकर, समय आने पर पूरी तैयारी के साथ उससे युद्ध करके अपना बदला लेंगे।
मेघवर्ण – लेकिन बाबा, हमें तो यह भी नहीं पता कि हमारा शत्रु रहता कहाँ है, तो हम कैसे उससे संधि करेंगे और कैसे उसकी निर्बलता का पता लगाएंगे?
अपनी आँखे चारों ओर फैलाओ
स्थिरजीवी – किसी भी राज्य की आँखे उसके गुप्तचर होते है। वे ही गुप्त रूप से सूचनाएं एकत्रित कर अपने राजा तक पँहुचाते है। हम भी अपने गुप्तचरों द्वारा उनके रहने की जगह और उनकी कमियों का पता लगाएंगे।
मेघवर्ण – आप सही कह रहे है, हमें ऐसा ही करना चाहिए। लेकिन उससे पहले मैं यह जानना चाहता हूँ बाबा कि कौवों और उल्लुओं में स्वाभाविक बैर कब और किस कारण से हुआ। आप तो इस बारे में जानते ही होंगे। मुझे बताने की कृपा करें।
स्थिरजीवी – हाँ। आज मैं तुम्हें कौवों और उल्लुओं के बैर की कथा “उल्लू का अभिषेक” सुनाता हूँ, सुनो! (इसी कहानी के मध्य हाथी और खरगोश और बिल्ली का न्याय कहानियाँ है।)
स्थिरजीवी – उसी दिन से कौवों और उल्लुओं के बीच स्वाभाविक बैर चला आ रहा है।
मेघवर्ण – तो अब हमें क्या करना चाहिए।
स्थिरजीवी – हमें छल द्वारा शत्रु पर विजय पानी होगी। जिस प्रकार तीन ठगों ने चल करके अत्यंत बुद्धिमान ब्राह्मण को भी ठग लिया था।
मेघवर्ण – वह कैसे?
तब स्थिरजीवी ने मेघवर्ण को मित्रशर्मा नामक ब्राह्मण को तीन ठगों द्वारा ठगे जाने की कहानी “ब्राह्मण और तीन ठग” सुनाई।
स्थिरजीवी – अब तो तुम सनझ ही गए होंगे कि कहा छल के द्वारा बुद्धिमान और बलवान शत्रु को भी पराजित किया जा सकता है। लेकिन एक बात और है।
मेघवर्ण – वह क्या?
स्थिरजीवी – किसी सबल को बहुत सारे दुर्बलों का विरोध भी नहीं करना चाहिए, नहीं तो वे मिल कर उसका नाश कर देते हैं, जिस प्रकार चींटियों ने सांप को मार डाला था।
मेघवर्ण – (आश्चर्य से) ऐसा कैसे हुआ?
स्थिरजीवी – मैं तुम्हें साँप और चींटियों की वह कहानी सुनाता हूँ जिसमें साँप ने चींटियों का विरोध किया और मारा गया।
इसीलिए बहुतों का विरोध नहीं करना चाहिए। क्योंकि कोई कितना ही बलशाली क्यों ना हो वह एक साथ कई दुश्मनों का सामना नहीं कर सकता। दुर्बल यदि एक हो जाए तो बलवान से बलवान दुश्मन का भी सफाया कर सकते है।
मेघवर्ण – बाबा, आप ही बताएं कि अब हमें क्या करना चाहिए?
स्थिरजीवी – हमें हमारे दुश्मन के बारे में कुछ नहीं पता है वह कहाँ रहता है, क्या करता है, और उनकी संख्या कितनी है। बस वह हमें नुकसान पँहुचाने के लिए यहाँ अवश्य आता है। इसलिए हम उसे यहीं पर अपने जाल में फँसाएंगे। तुम चिंता मत करों, मैं स्वयं गुप्तचर का काम करूँगा। बस मैं तुम्हें जैसा कहूँ वैसा करों।
मेघवर्ण – तात, आप जैसा आदेश देंगे, मैं वैसा ही करूँगा।
गद्दार में तुझे मार डालूँगा
स्थिरजीवी – तुम मुझसे लड़ाई करके मुझे घायल करके यहीं पेड़ के नीचे फेंक कर अपने परिवार और प्रजा समेत यह वृक्ष छोड़कर ऋष्यमुख पर्वत पर चले जाओं। मैं तुम्हारे शत्रु उल्लुओं का विश्वासपात्र बनकर उनसे घुल-मिल जाऊंगा। शीघ्र ही उनके बारे में सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त कर लूँगा और अवसर आने पर उन सभी दिवान्ध उल्लुओं का नाश कर दूँगा। उसके बाद तुम सब वापस यहाँ आ जाना।
मेघवर्ण – लेकिन इसमें तो आपके प्राण भी जा सकते है।
स्थिरजीवी – अपने वंश की रक्षा के लिए मुझे अपने प्राण न्यौछावर करने पड़े, यह तो मेरे लिए सौभाग्य की बात है।
मेघवर्ण – पर इसके लिए मुझे आपसे लड़ाई करकर आपको घायल करने की क्या जरूरत है। मैँ आपको यहीं छोड़कर यहाँ से चला जाता हूँ।
स्थिरजीवी – मेघवर्ण, तुम्हारा शत्रु बहुत ही चालाक है। उसने हम पर नजर रखने की लिए अपने गुप्तचर छोड़ रखे होंगे। यदि तुम मुझे अकारण ही यहाँ छोड़ कर चले जाओगे तो मैं उन्हें विश्वास में नहीं ले पाऊँगा।
मेघवर्ण – हाँ, ये बात तो सही है।
स्थिरजीवी – इसलिए कल सुबह तुम मुझे दुश्मन का गुप्तचर कहते हुए कठोर शब्दों से मेरा तिरस्कार करना। फिर मुझसे लड़ाई करके मुझे लहूलुहान कर देना और यहाँ से चले जाना। आगे मुझे पता है कि मुझे क्या करना है।
मेघवर्ण – ठीक है, तात।
अगले दिन मेघवर्ण ने स्थिरजीवी के सलाह पर अमल करना शुरू कर दिया। उसने उसका तिरस्कार करते हुए कहा,
मेघवर्ण – स्थिरजीवी, मैं तुम्हें अपना सबसे विश्वासपात्र समझता था। लेकिन तुम तो शत्रुओं से जाकर मिल गए। तूमने हमारी सारी सूचनाएं शत्रु तक पँहुचा दी। अब वे यहाँ आकर हमारा नाश कर देंगे।
यह कहकर मेघवर्ण ने स्थिरजीवी पर हमला कर दिया। यह देख कर अन्य कौवे भी उसका साथ देने के लिए स्थिरजीवी को मारने दौड़े। मेघवर्ण ने उन्हें रोकते हुए कहा,
मेघवर्ण – तुम सब दूर हट जाओं। हमारे दुश्मन का साथ देने वाले इस दुराचारी और पापी को उसके कर्मों की सजा मैं स्वयं दूँगा।
बिन मांगे मोती मिले
इसके बाद मेघवर्ण ने स्थिरजीवी से लड़ाई करते हुए उसे जमीन पर गिरा दिया। फिर उसके ऊपर चढ़ गया और अपनी चोंच से धीरे-धीरे मारते हुए उसे लहूलुहान कर दिया। उसके बाद उसने उसे वहीं फैंक दिया और अपने साथियों से कहा,
मेघवर्ण – स्थिरजीवी ने हमारी सारी सूचनाएं शत्रु तक पँहुच दी है। वे कभी भी यहाँ आकर हमारा नाश कर देंगे। इससे पहले वे यहाँ आए हमें यह स्थान छोड़कर किसी दूसरे सुरक्षित स्थान पर चले जाना चाहिए।
सभी कौवों ने उसकी बात मान ली और वे सब मेघवर्ण के साथ वहाँ से चलें गए।
कृकालिका, जो उल्लुओं के लिए गुप्तचरी का कार्य कर रही थी, ने यह सब देखा। वह जल्दी से उल्लुओं के राजा अरिमर्दन के पास गई और मेघवर्ण की उसके मंत्री के साथ लड़ाई और वृक्ष को छोड़कर चले जाने की सारी घटना बताते हुए कहा,
कृकालिका – बधाई हो महाराज, आपका दुश्मन आपसे डरकर अपना स्थान छोड़कर चला गया है।
अरिमर्दन – यह तो तुमने बहुत अच्छी सूचना दी है, कृकालिका।
अरिमर्दन – (अपने साथियों से) साथियों हमारा दुश्मन हमसे डरकर भाग रहा है। भागते दुश्मन पर हमला करना और भी ज्यादा आनंददायक होता है। हम आज सूर्यास्त होते ही उन भागते हुए कौवों पर हमला करेंगे और उन्हें मारकर उनके दुर्ग पर कब्जा कर लेंगे।
सूर्यास्त होते ही अरिमर्दन अपने साथियों के साथ बरगद के पेड़ के पास पँहुच गया, लेकिन उन्हें पेड़ पर एक भी कौवा दिखाई नहीं दिया। उसने अपने साथियों से कहा,
अरिमर्दन – सारे कौवे यहाँ से भाग गए है इससे पहले कि वे किसी सुरक्षित स्थान पर पँहुच जाएँ उन्हें ढूंढो जिससे मैं उनका नाश कर सकूँ।
यह देख स्थिरजीवी ने सोचा, “यदि ये लोग कौवों को ढूँढने निकल जाएंगे तो शीघ्र ही उन्हें ढूंढ कर मार देंगे। इन्हें ऐसा करने से रोकना होगा।” यह सोच वह कराहने लगा। उसके कराहने की आवाज सुनकर उनका ध्यान नीचे गिरे हुए घायल स्थिरजीवी पर गया। उसे देख कर सभी उसको मारने के लिए झपटे। तभी स्थिरजीवी ने कहा,
स्थिरजीवी- मुझे मारने से पहले मेरी बात सुन लों। मैं मेघवर्ण का मंत्री स्थिरजीवी हूँ। मुझे घायल करके यहाँ से चला गया है। मैं मरने से पहले तुम्हारे राजा से मिलना चाहता हूँ। मुझे उन्हें बहुत सारी बातें बतानी है।
मुझकों अपने गले लगा लो
उसकी बात सुनकर कुछ उल्लू अरिमर्दन के पास गए और उसे सारी बात बताई। उनकी बात सुनकर अरिमर्दन अचंभित सा स्थिरजीवी के पास आया और बोला,
अरिमर्दन – अरे, मेघवर्ण ने तुम्हारी ऐसी हालत क्यों की?
स्थिरजीवी – श्रीमान्, अपने साथियों की हत्या का बदला लेने के लिए मेघवर्ण अपनी सेना सहित आपके ऊपर आक्रमण करना चाहता था। मैंने उसे रोकते हुए कहा कि अरिमर्दन बहुत शक्तिशाली हैं, उनसे युद्ध मत करो। उनसे सुलह कर लो। बलशाली शत्रु से संधि कर लेना ही उचित होता है। यदि शत्रु को अपना सब कुछ देकर भी यदि अपने प्राणों की रक्षा कर ली जाए तो कर लेनी चाहिए।
मेरी बात सुनकर मेघवर्ण ने ने समझा कि मैं आपका हितचिंतक हूं। उस दुष्ट ने मुझ पर हमला कर दिया और मुझ वृद्ध को अपनी चोंच से मार-मार कर घायल कर दिया। अब मैं आपकी शरण में हूँ, अब आप ही मेरे स्वामी हैं। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि जब मेरे घाव भर जाएंगे तो मैं स्वयं आपके साथ जाकर उस दुष्ट मेघवर्ण को ढूँढने में आपकी मदद करूंगा और उसके सर्वनाश में आपका सहायक बनूँगा।
उसकी बात सुनकर अरिमर्दन ने अपने पुराने मंत्रियों को सलाह लेने के लिए बुलाया। उसके पाँच पास मंत्री थे; रक्ताक्ष, क्रूराक्ष, दीप्ताक्ष, वक्रनाश और प्राकारकर्ण। उनके आने के बाद अरिमर्दन ने उन्हे सारी बात बताई और रक्ताक्ष से पूछा,
मार दिया जाए या छोड़ दिया जाए
अरिमर्दन – रक्ताक्ष, हमारे शत्रु का एक मंत्री हमारे हाथ में आ गया है। वह हमारी शरण में है। शरणागत शत्रु मंत्री के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए?
रक्ताक्ष – महाराज, इसमें सोचने वाली क्या बात है, इसे अविलंब मार दिया जाना चाहिए। शत्रु को निर्बल अवस्था में ही मार देना चाहिए नहीं तो वह सबल होकर दुर्जय हो जाता है। ऐसे मौके बार-बार नहीं मिलते। वैसे भी एक बार प्रीत टूट जाने के बाद वह वापस नहीं जुड़ती। चाहे फिर कितना ही प्रेम प्रदर्शन क्यों ना कर लिया जाए।
अरिमर्दन – वह कैसे?
तब रक्ताक्ष ने अरिमर्दन को सोने की मोहरे देने वाले सांप की कहानी “ब्राह्मण और साँप” सुनाई।
रक्ताक्ष – इसीलिए कहता हूँ, एक बार टूटी हुई प्रीत दुबारा नहीं जुड़ती और यदि जुड़ती भी है तो वह ज़्यादा दिनों तक स्थिर नहीं रह सकती।
रक्ताक्ष की सलाह लेने के बाद अरिमर्दन ने क्रूराक्ष से पूछा,
अरिमर्दन – क्रूराक्ष, तुम्हारी क्या राय है, हमें स्थिरजीवी के साथ क्या करना चाहिए?
क्रूराक्ष – महाराज, मेरी राय में तो शरणागत की हत्या करना महापाप है। शरणागत की रक्षा तो अपने प्राण देकर ठीक उसी तरह करनी चाहिए, जिस तरह कबूतर ने अपने शरणागत शिकारी की रक्षा के लिए अपने प्राणों को न्यौछावर कर दिया।
अरिमर्दन – वह कैसे?
तब क्रूराक्ष ने अरिमर्दन को शरणागत की रक्षा करने के लिए अपने प्राण न्यौछावर करने वाले कबूतर की कहानी “कबूतरों का जोड़ा और शिकारी” सुनाई।
क्रूराक्ष – इसीलिए कहता हूँ, अपने शरणागत की रक्षा अपने प्राणों का बलिदान देकर भी करनी चाहिए। चाहे वह आपका शत्रु ही क्यों ना हो।
अरिमर्दन – तुम क्या कहते हो दीप्ताक्ष?
दीप्ताक्ष – मेरी भी यही राय है, महारज! हमें अपनी शरण में आए हुए शत्रु को भी क्षमादान दे देना चाहिए, क्योंकि कई बार शत्रु भी हित का काम कर देते है। जैसा कि उस चोर ने बूढ़े बनिए के लिए किया।
अरिमर्दन – चोर ने बूढ़े बनिए का क्या हित किया।
तब दीप्ताक्ष ने अरिमर्दन को बूढ़े बनिए, उसकी युवा पत्नि और चोर की कहानी “बूढ़ा बनिया और चोर” सुनाई।
दीप्ताक्ष – इसीलिए यदि शत्रु को क्षमा करने से अपना हित होता हो तो उसे क्षमा कर देना चाहिए।
अरिमर्दन – तुम क्या कहते हो वक्रनास, क्या हमें स्थिरजीवी पर विश्वास करना चाहिए?
वक्रनास – देव, मेरी भी यहीं राय है कि शरणागत शत्रु की भी हत्या नहीं करनी चाहिए। शत्रु का शत्रु मित्र होता है। यदि दो शत्रुओं में विवाद हो जाए तो एक शत्रु दूसरे शत्रु को स्वयं नष्ट कर देता है। जैसे चोर और राक्षस की आपस की शत्रुता में ब्राह्मण को लाभ ही हुआ।
अरिमर्दन – वह ब्राह्मण कौन था, जिसको दो शत्रुओं की शत्रुता का लाभ हुआ।
तब वक्रनास ने अरिमर्दन को दो मित्रों में विवाद से ब्राह्मण के हित की कहानी “ब्राह्मण, चोर और राक्षस” की कहानी सुनाई।
वक्रनास – इसलिए कहता हूँ। शत्रु के शत्रु को मित्र बना लेना चाहिए। स्थिरजीवी और मेघवर्ण एक दूसरे के शत्रु बन गए है। अपने आपसी विवाद में वे दोनों ही एक-दूसरे को नष्ट कर देंगे। इसलिए हमें स्थिरजीवी को जीवनदान देकर अपना मित्र बना लेना चाहिए।
वक्रनास की राय सुनने के बाद अरमर्दन ने प्राकारकर्ण से पूछा,
अरमर्दन – प्राकारकर्ण, क्या तुम इस बार पर सहमति देते हो?
प्राकारकर्ण – हाँ, महाराज मैं इस बात से पूरी तरह से सहमत हूँ। जो मित्र एक-दूसरे के रहस्य दूसरों के सामने प्रकट कर देते है, वे पेट में बिल बनाकर रहने वाले सर्प और स्वर्ण कलश की रक्षा करने वाले सर्प की तरह नष्ट हो जाते है।
अरमर्दन – कौन से सर्प? कौन किसके पेट में रहता था? उसके साथ क्या हुआ?
प्राकारकर्ण – महाराज, आपकी जिज्ञासा को शांत करने के लिए मैं आपको पेट में बिल बनाकर रहने वाले और स्वर्ण कलश की रक्षा करने वाले दो सर्पों की कहानी “घर का भेदी” सुनाता हूँ।
महाराज, स्थिरजीवी और मेघवर्ण एक दूसरे के मित्र थे। किसी कारणवश उनमें शत्रुता हो गई है। वह उसके बहुत सारे भेद जानता होगा। हम उसका फायदा उठा सकते है। उसे शरण देने से हमें अपने दुश्मन के सारे भेद पता चल जाएंगे। इससे हम अपने शत्रु को आसानी से खत्म कर पाएंगे।
सबकी बात सुनने के बाद अरिमर्दन ने स्थिरजीवी को ना मारकर उसे अपनी शरण में रखने का निश्चय कर लिया। लेकिन रक्ताक्ष इस बात से अब भी सहमत नहीं था। उसे स्थिरजीवी की मृत्यु में ही उल्लुओं का हित दिखाई देता था। उसने मंत्रियों से कहा,
रक्ताक्ष – मैं अब भी आप लोगों के विचार से सहमत नहीं हूँ। जहाँ अपूज्यों की पूजा की जाती है वहाँ भुखमरी, भय और मृत्यु का वास होता है। अपने सामने पाप होता हुआ देख कर भी जो केवल बातों से संतुष्ट हो जाए, वह मूर्ख रथकार की तरह अपनी पत्नि और उसके यार को अपने कंधों पर उठाकर खुश होता है।
प्राकारकर्ण – वह कैसे?
तब रक्ताक्ष ने उन्हें रथकार और उसकी पत्नि की कहानी “रथकार की स्त्री और उसका प्रेमी” सुनाई।
मुँह में राम बगल में छुरी
रक्ताक्ष – इसीलिए कहता हूँ, सच्चाई अपने सामने होते हुए भी जो मीठे शब्दों के जाल में फँस जाते है उनसे बड़ा मूर्ख कोई नहीं होता है। शत्रु की मीठी बातों में आकर उसे शरण देना मूर्खता है। कहीं ऐसा ना हो कि सम्पूर्ण उलूकवंश का नाश हो जाए।
लेकिन किसी ने भी उसकी बातों पर ध्यान नहीं दिया। बल्कि उलूकराज अरिमर्दन ने तो उसे अपने साथ लेकर अपने पर्वतीय दुर्ग की ओर कूच कर दिया। दुर्ग के पास पँहुचने पर स्थिरजीवी ने हाथ जोड़कर निवेदन करते हुए कहा,
स्थिरजीवी – महाराज, मैं आपकी इतनी कृपा के योग्य नहीं हूँ। घायल होने के कारण मैं आपके किसी काम का नहीं हूँ। मुझ जैसे असमर्थ को अपने पास रखने से तो अच्छा है कि आप मुझे जलती आग में डाल दें।
अरिमर्दन – स्थिरजीवी, तुम आग में जलना क्यों चाहते हो?
स्थिरजीवी – स्वामी, मैंने दुष्ट मेघवर्ण का हितैषी बन कर जो पाप किया उसका प्रायश्चित्त आग में जलकर ही हो सकता है। मैं चाहता हूँ कि मेरा वायसत्व आग में नष्ट हो जाय और मुझ में उलूकत्व आ जाय, जिससे मैं उस पापी मेघवर्ण से अपनी इस हालत का प्रतिकार ले सकूँ।
रक्ताक्ष राजनीति में कुशल था। वह स्थिरजीवी की इस पाखंडभरी चालों को खूब समझ रहा था। उसने स्थिरजीवी से कहा,
रक्ताक्ष – स्थिरजीवी! तुम बड़े चतुर और कुटिल हो। मैं जानता हूँ कि उल्लू बनकर भी तुम कौवों का ही हित सोचोगे। जिस प्रकार मानव देह पाने के बाद भी चुहिया ने पति के रूप में चूहे को ही चुना।
स्थिरजीवी – वह कैसे?
तब रक्ताक्ष ने उसे मानव देह पाने के बाद भी चूहे को अपना पति चुनने वाली चुहिया की कहानी “चुहिया का स्वयंवर” सुनाई।
कहानी सुनाने के बाद रक्ताक्ष ने कहा,
रक्ताक्ष – मानव देह पाने के बाद भी चुहिया अपने वंश से ही प्रेम करती रही। जाति का मोह सरलता से नहीं जाता। इसलिए स्थिरजीवी उल्लू बन कर भी कौवों के हित का ही सोचेगा।
चीनी से मीठी तेरी बोली
रक्ताक्ष से कहानी सुनने के बाद भी सैनिक उलूकराज के आज्ञानुसार उसे दुर्ग में ले जाने लगे। दुर्ग के द्वार पर पँहुच कर उलूकराज अरमर्दन ने स्थिरजीवी से कहा,
अरिमर्दन – स्थिरजीवी, तुम किस स्थान पर रहना चाहते हो? मैं तुम्हारे रहने की व्यवस्था वहीं करवा देता हूँ।
स्थिरजीवी ने मन ही मन सोचा, “मुझे इन सब को मारने का उपाय करना है, जो इन सब के बीच में रहकर करना संभव नहीं होगा। इसलिए मुझे दुर्ग के द्वार पर ही रहना चाहिए। यहाँ से मुझे बिना रोक-टोक बाहर आने-जाने का अवसर भी मिलता रहेगा और मैं अपनी योजनानुसार कार्य कर सकूँगा। यह सोचकर उसने कहाँ,
स्थिरजीवी – हे देव, आपने मुझे जो आदर दिया है उसके लिए मैं आपका बहुत आभारी हूँ। लेकिन मैं तो आपका सेवक ही हूँ और सेवक को तो उसके स्थान पर ही रहना चाहिए। मुझे तो आपके द्वार पर रहने की अनुमति दीजिए। द्वार की जो धूल आपके चरण-कमलों से पवित्र होगी, उसे अपने मस्तक पर रख कर ही मैं अपने आपको सौभाग्यशाली समझूँगा।
उसके चाशनी में डूबे शब्दों को सुन कर उलूकराज अरिमर्दन खुशी से फुले नहीं समाए। उन्होनें अपने साथियों को आदेश दिया।
अरिमर्दन – स्थिरजीवी को वही स्थान दिया जाय जहाँ वह रहना चाहता है। उसके रहने की व्यवस्था यहीं द्वार पर कर दी जाए। उसके भोजन-पानी और दवा को उचित प्रबंध किया जाए।
यह महफिल हमारे काम की नहीं
इतना कहकर अरिमर्दन अपने दुर्ग में चला गया। प्रतिदिन स्वादिष्ट भोजन खाकर स्थिरजीवी कुछ ही दिनों में हृष्ट-पृष्ट और बलवान हो गया। अपने लोगों को स्थिरजीवी की इस तरह आव-भगत करते देख रक्ताक्ष बहुत चितित हुआ। वह उन सभी को समझाते हुए बोला,
रक्ताक्ष – मुझे लगता है, यहाँ सभी मूर्ख है। जिस प्रकार सोने की बीट करने वाला पक्षी, उसे पकड़ कर राजा को उपहार में देने वाला शिकारी, उस पक्षी को उपहार में मिलने के बाद भी उसे छोड़ने की सलाह देने वाले मंत्री और उनकी सलाह मानने वाला राजा भी।
साथियों ने पूछा, “वह कैसे?”
तब रक्ताक्ष बने उन्हें सोने को विष्ठा करने वाले पक्षी की कहानी “मूर्ख-मंडली” सुनाई।
रक्ताक्ष – उस राज्य के सभी वासियों की तरह यहाँ भी सभी मूर्ख है। हमारा राजा भी, उसे गलत सलाह देने वाले मंत्री भी और मैं भी जो इस का विरोध नहीं कर पा रहा हूँ। अब भी देर नहीं हुई है। अभी भी इस स्थिरजीवी को मारकर हम अपनी रक्षा कर सकते है।
रक्ताक्ष के इतना समझाने पर भी उन लोगों ने उसकी बात नहीं मानी और वे पहले की तरह स्थिरजीवी की आव-भगत करते रहे। यह सब देख कर उसने अपने परिवार जनों को बुलाया और कहा,
रक्ताक्ष – अभी तक तो ईश्वर की दया से हम और हमारा दुर्ग सकुशल है। मैंने अपने राजा और मंत्रियों को समझाने की बहुत कोशिश की लेकिन असफल रहा। ऐसे मूर्ख समुदाय में रहना विपत्ति को आमंत्रित करना ही है इसलिए अब हमें यहाँ नहीं रहना चाहिए। हमें भी उस बुद्धिमान गीदड़ की तरह ही इस स्थान को छोड़ देना चाहिए, जिसने आने वाले संकट को पहचान कर अपनी गुफा छोड़ दी थी।
उसके साथियों ने आश्चर्य से पूछा, “कौन सा गीदड़? उसके साथ ऐसा क्या हुआ जो उसे अपनी गुफा छोड़नी पड़ी?
तब रक्ताक्ष ने उन्हें मूर्ख शेर और बुद्धिमान गीदड़ की कहानी “बोलती गुफा” सुनाई।
कहानी सुनाकर रक्ताक्ष ने अपने साथियों से कहा,
रक्ताक्ष – मुझे स्थिरजीवी के रूप में संकट साफ नजर आ रहा है। इसलिए हमें भी गीदड़ की तरह बुद्धिमानी दिखाते हुए इस स्थान को छोड़ कर किसी दूसरे पर्वत की कन्दरा में अपना दुर्ग बना लेना चाहिए।
अब मुझे कोई नहीं रोक सकता
रक्ताक्ष उसी दिन अपने परिवार के साथ उस स्थान को छोड़कर कहीं और रहने चला गया। रक्ताक्ष के जाने से स्थिरजीवी बहुत प्रसन्न हुआ। उसने सोचा, “इस राज्य में एक रक्ताक्ष ही चतुर, दूरदर्शी और नीति-शास्त्र का ज्ञाता था। उसकी बात ना मानकर इन मूर्खों ने मेरी राह आसान कर दी है। अच्छा ही हुआ रक्ताक्ष यहाँ से चला गया। अब मैं निष्कंटक होकर अपनी योजना को अंजाम दे सकूँगा।”
रक्ताक्ष के जाने के बाद स्थिरजीवी बिना किसी भय के उल्लुओं के नाश की तैयारी पूरे जोश-खरोश से करने लगा। वह जंगल से छोटी-छोटी लकड़ियाँ चुनकर गुफा के दरवाजे के चारों ओर रखने लगा। कोई पूछता तो वह कहता कि “अपना घर बनाने के लिए वह इन लकड़ियों को जमा कर रहा है।” उल्लू उसकी चाल को समझ नहीं सके। शीघ्र ही उसने गुफा के दरवाजे बहुत सारी लकड़ियाँ इकट्ठी कर ली।
जब पर्याप्त मात्रा में लकड़ियाँ एकत्रित हो गई तो एक दिन सूरज निकलने के बाद जब सब उल्लू अंधे हुए अपने दुर्ग में बैठे हुए थे वह जल्दी से उड़ कर मेघवर्ण के पास गया और बोला,
स्थिरजीवी – महाराज, मैंने उन दुष्ट उल्लुओं के नाश की पूरी तैयारी कर ली है। अब तुम अपने साथियों के साथ अपनी चोंचों में एक-एक जलती हुई लकड़ी लेकर वहाँ जाओं और दुर्ग के चारों ओर पड़े लकड़ियों के ढेर को जला दो। थोड़ी ही देर में सारे उल्लू अपने ही दुर्ग में जलकर राख हो जाएंगे।
लंका को जला दो
यह बात सुनकर मेघवर्ण बहुत प्रसन्न हुआ। वह स्थिरजीवी से बोला,
मेघवर्ण – बाबा, आप कैसे है? बहुत दिनों बाद आपके दर्शन हुए है। वहाँ पर आपको ज्यादा कष्ट तो नहीं हुआ। मेरे पास बैठ कर अपनी कुशल-क्षेम कहिए।
स्थिरजीवी – वत्स, यह समय बातें करने का नहीं कर्म करने का है। यदि किसी ने मुझे यहाँ देख कर शत्रु तक सूचना पँहुचा दी तो सारा बना-बनाया खेल बिगड़ जाएगा। शत्रु सूचना पाकर भाग ना जाए उससे पहले जल्दी से वहाँ जाओं और शत्रु का नाश कर दो। जो काम शीघ्रता से करने योग्य हो, उसे करने में विलंब नहीं करना चाहिए। जब तुम शत्रु का खात्मा करके वापस आओगे तो मैं भयमुक्त होकर शांति से सारी बातें विस्तार से बताऊँगा। अभी तुम देर मत करों।
स्थिरजीवी की बात मानकर मेघवर्ण ने तुरंत अपने कुछ साथियों के साथ जलती हुई एक-एक लकड़ी अपनी चोंचों में रखकर शत्रु के दुर्ग की तरफ कुछ कर दिया। वहाँ पँहुच कर उन्होंने दुर्ग की गुफा पर और उसके चारों ओर रखी हुई लकड़ियों में आग लगा दी।
जब तक आग की गर्मी दिवान्ध उल्लुओं तक पहुँची, आग ने विकराल रूप ले लिया। उल्लू अपनी जान बचाने के लिए दुर्ग के द्वार की ओर भागने लगे। लेकिन गुफा के द्वार पर भी भीषण आग होने के कारण भाग नहीं पाए और सारे उल्लू अपने ही दुर्ग में आग से तड़प-तड़प कर भस्म हो गए।
कैसे चले तलवार की धार पर?
उल्लुओं के वश का नाश करके मेघवर्ण फिर अपने साथियों के साथ पुराने बरगद के पेड़ पर आ गया। विजय के उपलक्ष्य में उसने सभा बुलाई। सभा में उसने स्थिरजीवी का उचित आदर-सम्मान करते हुए उसे पुरस्कार दिया। फिर उन्हें सभा में ऊंचे आसन पर बैठा कर पूछा,
मेघवर्ण – तात, दुश्मन के साथ रहना तलवार की धार पर चलने के समान ही है। पग-पग पर प्राण जाने का खतरा बना रहता है। आपकों वहाँ रहने में बहुत कष्ट हुआ होगा।
स्थिरजीवी – आप सही कहते है महाराज, दुश्मन के साथ एक क्षण रहने से कहीं ज़्यादा अच्छा जलती आग में कूद जाना होता है। लेकिन जब सुनहरा भविष्य सामने हो तो कष्टों की परवाह नहीं करनी चाहिए।
मेघवर्ण – तात, आप इतने दिनों तक शत्रु के दुर्ग में रहें। आपने ना जाने कितने संकटों का सामना किया होगा, हर समय प्राण गले में ही अटके रहते होंगे। कृपया मुझे बताइए कि आपने इतने दिन शत्रु की दुर्ग में कैसे व्यतीत किए?
स्थिरजीवी – आपकी बात बिल्कुल सही है। लेकिन पहली ही मुलाकात में मैं जान गया था कि हमारे शत्रु उलूकराज के मंत्री महामूर्ख है। जिस राजा के मंत्री शत्रु की पहचान ना कर सके, उसका उलूकराज के समान ही नाश हो जाता है। उसके सभी मंत्रियों में बस एक रक्ताक्ष ही बुद्धिमान, दूरदर्शी और नीतिज्ञ था। उसने मेरी चाल को पहचान लिया था।
लेकिन शत्रु के बीच विचरने वाले गुप्तचर को मान-अपमान, स्वार्थ और प्राणों की चिन्ता छोड़नी ही पड़ती है। उसे केवल अपने लक्ष्य पर ध्यान देना होता है। बुद्धिमान व्यक्ति समय के अनुरूप कार्य कर अपनी स्वार्थ सिद्धि करता है। समय आने पर वह अपने शत्रु को अपने कंधे पर भी बैठा लेता है। जिस प्रकार मन्दविष नामक काले साँप ने मेंढकों को अपना भोजन बनाने के लिए उन्हें अपनी सवारी करवाई थी।
मेघवर्ण – यह सब कैसे हुआ?
तब स्थिरजीवी ने मेढकों को अपनी सवारी करवाने वाले सर्प की कहानी “स्वार्थ सिद्धि परम लक्ष्य” सुनाई।
स्थिरजीवी – महाराज, मन्दविष की ही तरह मैंने उलूकराज को अपनी मीठी-मीठी बातों में उलझा लिया था। उन्हें अपना स्वामी मानकर उनका सेवक बन गया और घी से अंधे हुए ब्राह्मण की तरह उचित समय की प्रतीक्षा करता रहा।
मेघवर्ण – (आश्चर्य से) ऐसा कौनसा ब्राहमण था जो घी से अंधा हो गया?
तब स्थिरजीवी ने उसे घी से अंधे होने वाले ब्राह्मण की कहानी “घृतान्ध ब्राह्मण” सुनाई।
कहानी सुना कर स्थिरजीवी ने कहा,
स्थिरजीवी – बुद्धिमानी इसी में है कि शत्रु को हराने के लिए अवसर की प्रतीक्षा करनी चाहिए। जिस तरह यज्ञदत्त ने अपनी पत्नि और उसके प्रेमी की दृष्टता का सबक सिखाने के लिए उचित अवसर का इंतजार किया। मैं भी अवसर की तलाश करते हुए अरिमर्दन की सेवा करने लगा।
रक्ताक्ष ने अपने साथियों को बहुत समझाने का प्रयास किया, लेकिन उन्होनें उसकी बात नहीं मानी। तब दुखी होकर वह उन्हें छोड़ कर चला गया। मुझे इसी अवसर की तलाश थी। उसके जाने के बाद मैंने बिना किसी भय के पूरे जोश के साथ तैयारी करके उल्लुओं का समूल नाश करवा दिया।
अब राज तुम्हारा है
मेघवर्ण – तात, आप बड़े दूरदर्शी और पुरुषार्थी है। जो व्यक्ति विपत्ति के भय से कार्य प्रारंभ ही नहीं करता, वह नीचतम प्रकृति का होता है, और जो कार्य प्रारंभ करके विपत्ति के भय से उसे बीच में ही छोड़ देते है, वे मध्यम प्रकृति के होते है, और जो प्रारंभ किए गए कार्य को विपत्ति आने पर भी अधूरा नहीं छोड़ते वे उच्चतम प्रकृति के होते है। यहीं सच्चे पुरुषार्थी व्यक्ति की पहचान है। आपका बहुत-बहुत धन्यवाद, आपने मेरे शत्रुओं का समूल नाश करके मेरे राज्य को निष्कंटक बना दिया है।
स्थिरजीवी – महाराज, मैंने अपने धर्म और कर्तव्य का पालन किया है। इस कार्य में ईश्वर ने भी आपका साथ दिया है। माना पुरुषार्थ उत्तम होता है, लेकिन यदि ईश्वर का साथ ना हो तो पुरुषार्थ भी फलित नहीं होता। अब आपको आपका राज्य मिल गया है, लेकिन यह बात हमेशा स्मरण रखियेगा, राज्य स्थायी नहीं होते, बड़े-बड़े विशाल राज्य भी क्षणों में बनते और समाप्त होते रहते हैं।
शाम के रंगीन बादलों की तरह उनकी आभा भी क्षणभर की होती है। बांस के पेड़ पर चढ़ने में समय लगता है, लेकिन गिरने में क्षण भर भी नहीं। इसलिये राज्य के मद में आकर कभी किसी के साथ अन्याय मत करना। हमेशा न्यायपूर्वक प्रजा का पालन और रक्षा करना। राजा प्रजा का स्वामी नहीं, सेवक होता है।
इसके बाद मेघवर्ण ने स्थिरजीवी की सहायता से न्यायपूर्वक प्रजा का पालन करते हुए बहुत वर्षों तक सुखपूर्वक राज्य किया।
सीख
धैर्य और उचित रणनीति से सबल शत्रु पर भी विजय पाई जा सकती है।
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पिछली कहानी – मंथरक, लघुपतनक, हिरण्यक और चित्रांग की मित्रता की कहानी – सच्ची मित्रता
तो दोस्तों, कैसी लगी पंचतंत्र की कहानियों के रोचक संसार में डुबकी। मजा आया ना, तो हो जाइए तैयार लगाने अगली डुबकी, .. .. .. ..
अगली कहानी – कौवों और उल्लुओं के बैर की कथा “उल्लू का अभिषेक”
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