सूत्रधार कथा – अपरीक्षितकारकम – Sutradhar Katha – Aprikshitkarkam
पंचतंत्र की कहानियाँ – पाँचवाँ तंत्र – सूत्रधार कथा – अपरीक्षितकारकम – Sutradhar Katha – Aprikshitkarkam
दक्षिण प्रदेश के एक प्रसिद्ध नगर पाटलीपुत्र में मणिभद्र नाम का एक बहुत धनी महाजन रहता था। वह बहुत ही दानवीर था। वह अपना धन सदा लोक-सेवा और धर्म के कार्यों में खर्च करता रहता था। एक दिन उसको उस नगर के न्यायाधीश ने न्यायालय में बुलाया। वह न्यायालय में गया, तो न्यायाधीश ने उससे पूछा,
👨🏽⚖️ न्यायाधीश – यह व्यक्ति कह रहा है कि तुमने एक भिक्षु की हत्या की है। तुमसे ही प्रेरित होकर ही इसने इतना बड़ा हत्याकांड किया है। क्या यह सही है?
मणिभद्र ने उस व्यक्ति को देखा तो उसने उसे पहचान लिया। यह वही नाई था, जिसे उसने अपना राज छुपाने के लिए धन दिया था। तब उसने न्यायाधीश को नाई द्वारा भिक्षु के स्वर्ण में परिवर्तित होते हुए देखने की कहानी सुनाई। इसके आगे क्या हुआ, वह नाई न्यायाधीश को बता चुका था।
बिना विचारे जो करे, वो पाछे पछताए
बिना विचार किए नकल करने वाले नाई की कहानी “मूर्ख और लालची नाई”।
सारी बात जानने के बाद न्यायाधीश ने नाई से कहा,
👨🏽⚖️ न्यायाधीश – तुमने बात की पूर्ण सच्चाई को जाने और समझे बिना, बस आँखों देखी पर विश्वास करके कितने सारे भिक्षुओं को मौत के घाट उतार दिया और कितनों के सर फोड़ डाले। इसलिए तुम्हें मृत्यु दंड दिया जाता है। (सैनिकों से) इसे अभी यहाँ से ले जाओं और कल सुबह इसे फाँसी पर चढ़ा देना।
सैनिक नाई को लेकेर चले गए। उसके बाद न्यायाधीश ने मणिभद्र से कहा,
👨🏽⚖️ न्यायाधीश – कुपरीक्षितकारी अर्थात् बिना सोचे समझे काम करने वाले के लिए यहीं दंड उचित है। ऐसा करने वाले को उसी तरह पछताना पड़ता है, जिस प्रकार नेवले को मारने वाली ब्राह्मणी को।
👳🏻♂️ मणिभद्र – नेवले को मारने पर ब्राह्मणी क्यों पछताई?
तब न्यायाधीश ने मणिभद्र को वफादार नेवले और बिना विचारे काम करने वाली ब्राह्मणी की कहानी “ब्राह्मणी और नेवला” सुनाई।
न्यायाधीश ने आगे कहा,
👨🏽⚖️ न्यायाधीश – ब्राह्मण को पछताते देख ब्राह्मणी ने कहा, “मैं तुम्हें यहीं रहकर दोनों की देखरेख करने के लिए कह कर गई थी। लेकिन तुम भिक्षा के लालच में चले गए ये उसी का परिणाम है। मनुष्य को अतिलोभ नहीं करना चाहिए। अतिलोभ से कई बार मस्तक पर चक्र लग जाता है।
👳🏻♂️ मणिभद्र – वह कैसे?
👨🏽⚖️ न्यायाधीश – रमाकांत ने भी ब्राह्मणी उर्मिला से यही प्रश्न किया तब उसने उसे ज़्यादा के लालच में कष्ट भोगने वाले ब्राह्मण की कहानी “मस्तक पर चक्र” सुनाई।
जब बहुत दिन हो गए चक्रधर वापस घर नहीं आया तो स्वर्णसिद्धि उसे खोजेने के लिए वापस गया। बहुत ढूँढने पर वह वहाँ पँहुच गया जहाँ चक्रधर अपने माथे पर चक्र लिए कष्ट भोग रहा था। उसकी ऐसी हालत देखकर स्वर्णसिद्धि ने उससे पूछा,
🧖♂️ स्वर्णसिद्धि – मित्र ये तुम्हारा क्या हाल हो गया? ये तुम्हारे मस्तक पर चक्र कैसे आ गया?
👳🏻 चक्रधर – ये मेरे लालच का परिणाम है मित्र। इतना कहकर उसने सारी घटना उसे बता दी।
पुस्तकीय ज्ञान से ऊँची बुद्धि!
🧖♂️ स्वर्णसिद्धि – मैंने तुम्हें आगे जाने से मना किया था, लेकिन तुमने मेरी बात नहीं मानी। ब्राह्मण कुल में जन्म होने के कारण तुम्हें कुल और विद्या तो मिल गई लेकिन भले बुरे को पहचानने वाली बुद्धि नहीं। विद्या होते हुए भी जिनके पा बुद्धि नहीं होती वे सिंहकारकों के समान मारे जाते है?
👳🏻 चक्रधर – कौन से सिंहकारक?
तब स्वर्णसिद्धि ने उसे अपनी विद्या से शेर को जीवित करने वाले मूर्ख ब्राह्मणों की कहानी “शेर जी उठा“ सुनाई।
🧖♂️ स्वर्णसिद्धि – इसीलिए कहता हूँ बुद्धि का स्थान विद्या से ऊँचा होता है। केवल शास्त्रों में कुशल होना ही पर्याप्त नहीं होता है, लोक-व्यवहार को समझने और लोकाचार के अनुसार काम करने की समझ भी होनी चाहिए। लोकाचार नहीं जानने वाले उन मूर्ख पंडितों की तरह उपहास का पात्र ही बनते है।
👳🏻 चक्रधर – किन पंडितों की तरह?
तब स्वर्णसिद्धि ने उसे श्लोकों के अर्थ का अनर्थ करने वाले ब्राह्मणों की कहानी “चार मूर्ख पंडित“ सुनाई।
🧖♂️ स्वर्णसिद्धि – इसलिए कहता हूँ, केवल पुस्तकीय ज्ञान अर्जित करने से ही कुछ नहीं होता, उस ज्ञान को यथार्थ जीवन में काम लेने की बुद्धि भी होनी चाहिए।
👳🏻 चक्रधर – तुम सही कह रहे हो, लेकिन यह बात हर जगह लागू नहीं होती। यदि भाग्य साथ दे तो जंगल में छोड़ा हुआ अनाथ भी जीवित रह जाता है, नहीं तो घर में रक्षित भी मारा जाता है। कई बार ऐसा भी होता है ज्यादा चतुर भी दुख पाते है और कम बुद्धि वाला भी मजे करता है। जैसा कि शतबुद्धि, सहस्त्रबुद्धि और एकबुद्धि के साथ हुआ।
🧖♂️ स्वर्णसिद्धि – क्या हुआ था उनके साथ?
तब चक्रधर ने स्वर्णसिद्धि को अपनी ज्यादा बुद्धियों पर अभिमान वाली मछलियों की कहानी “दो मछलियाँ और मेंढक” सुनाई।
मित्र की सलाह मानों
👳🏻 चक्रधर – इसलिए केवल ज्यादा बुद्धि होना ही पर्याप्त नहीं होता।
🧖♂️ स्वर्णसिद्धि – उनके साथ ऐसा इसलिए हुआ कि उन्हें अपनी बुद्धि पर अभिमान था, वे सोचती थी कि बुद्धि के दम पर वे कुछ भी कर सकती है। इस घमंड में उन्होंने अपने मित्र की सलाह पर भी ध्यान नहीं दिया। यदि वे अपने मित्र की सलाह मानती तो उनका यह अंत नहीं होता। मैंने भी तुम्हें सलाह दी थी लेकिन तुमने मेरे एक ना मानी और अब तुम्हारी यह हालत है।
👳🏻 चक्रधर – तो क्या मित्र की सलाह सदा माननी चाहिए?
🧖♂️ स्वर्णसिद्धि – हाँ, मित्र का कहा कभी नहीं टालना चाहिए क्योंकि वे तुम्हारे भले के लिए ही कहते है। जो अपनी बुद्धि के अहंकार वश या लोभवश अपने मित्र की सलाह को अनसुना कर देते है, उनको अपने मित्र गीदड़ की बात ना माने वाले गधे की तरह कष्ट उठाना पड़ता है।
👳🏻 चक्रधर – वह कैसे?
तब स्वर्णसिद्धि ने चक्रधर ने अपने मित्र गीदड़ की सलाह को अनसुना करने वाले गधे की कहानी “संगीत विशारद गधा” सुनाई।
🧖♂️ स्वर्णसिद्धि – जो अपने मित्रों की सलाह को अनसुना करते है, उनका हाल उस गधे की तरह ही होता है। इसलिए मित्रों की सलाह का तिरस्कार करना उचित नहीं होता है।
👳🏻 चक्रधर – तुमने सही कहा मित्र, जिनके पास अपनी बुद्धि नहीं होती और जो अपने मित्रों की सलाह नहीं मानते वे मन्थरक जुलाहे की तरह दो सिर वाले होकर नष्ट हो जाते है।
🧖♂️ स्वर्णसिद्धि – वह कैसे?
तब चक्रधर ने स्वर्णसिद्धि को अपने मित्रों की जगह अपनी पत्नी की मूर्खता भरी सलाह मानने वाले जुलाहे की कहानी “दो सिर वाला जुलाहा” सुनाई।
🧖♂️ स्वर्णसिद्धि – इसलिए जिसके पास अपनी बुद्धि नहीं होती उसे अपने मित्र की सलाह मान लेनी चाहिए।
कोरी कल्पनाओं से भविष्य नहीं बनता
👳🏻 चक्रधर – मन्थरक ने अपने मित्र का कहा ना मानकर अपनी पत्नी का कहा माना। वह अपनी पत्नी के द्वारा दिखाई गई कोरी कल्पनाओं में बह गया। सच ही है जो भविष्य के लिए असंभव सी कल्पनाएं करता है, वह समाज में हंसी का पात्र बनता है। उसकों वह भी गंवाना पड़ जाता है जो उसके पास संचित होता है। जैसा कि कोरी कल्पना करने वाले ब्राह्मण के साथ हुआ।
🧖♂️ स्वर्णसिद्धि – क्या और किस ब्राह्मण के साथ?
तब चक्रधर ने स्वर्णसिद्धि को कोरी कल्पनाओं में खोए रहने वाले ब्राह्मण की कहानी “ब्राह्मण का सपना“ सुनाई।
👳🏻 चक्रधर – जो लोग काम ना करके भविष्य की कोरी कल्पनाओं में खोए रहते है उनका परिणाम यहीं होता है। वे जो उनके पास होता है उसे भी खो देते है।
लालच बुरी बला
🧖♂️ स्वर्णसिद्धि – इसमें उसका भी कोई दोष नहीं है। लोभ के कारण लोग अपने कर्मों का परिणाम नहीं सोचते है। लोभ उनकी बुद्धि पर पर्दा डाल देता है। लोभ के कारण व्यक्ति अपना नुकसान तो करवाता ही है, साथ में उसकी जग हँसाई भी होती है। लोभी व्यक्ति को लोभ का परिणाम वैसा ही भुगतना पड़ता है, जैसा पहले बंदरों को और बाद में राजा चंद्र को भुगतना पड़ा था।
👳🏻 चक्रधर – कौन राजा चन्द्र? उसे उसके किस लोभ का परिणाम भुगतना पड़ा ?
तब स्वर्णसिद्धि ने चक्रधर को अपने कुल के सर्वनाश का बदला लेने वाले बंदर की कहानी “वानरराज का बदला“ सुनाई।
कहानी सुनाने के बाद स्वर्णसिद्धि ने कहा,
🧖♂️ स्वर्णसिद्धि – अब मुझे अपने घर चले जाना चाहिए।
👳🏻 चक्रधर – मित्र, तुम मुझे इस विपत्ति में छोड़ कर कैसे जा सकते हो? विपत्ति में काम आना ही तो सच्ची मित्रता है।
समझदारी इसी में है
🧖♂️ स्वर्णसिद्धि – मित्र, तुम सही कह रहे हो। यदि तुम्हें यहाँ से छुड़ा पाना मेरे बस में होता तो मैं अवश्य प्रयत्न करता। मैं ना तो तुम्हारा कष्ट दूर कर सकता हूँ और ना ही तुम्हें दर्द सहते हुए देख सकता हूँ। मुझे यह भी भय है कई यहाँ ज्यादा देर रुकने पर तुम्हारी यह बला मेरे माथे पर ना आ जाए, इसलिए मेरा यहाँ से चला जाना ही श्रेयस्कर है। नहीं तो मेरी भी वही अवस्था हो जाएगी जो विकाल राक्षस के पंजे में फँसे वानर की हो गई थी।
👳🏻 चक्रधर – कौन वानर? वह किस राक्षस के चंगुल में फँस गया था?
तब स्वर्णसिद्धि ने चक्रधर को विकाल राक्षस के पंजे में फँसे वानर की कहानी “भय का भूत” सुनाई।
🧖♂️ स्वर्णसिद्धि – इसलिए अब मुझे यहाँ से जाने दो। तुम यहाँ रहकर अपने लोभरूपी वृक्ष का फल चखो।
👳🏻 चक्रधर – भाई, अब ताने मारने से क्या लाभ किसी के साथ भी शुभ-अशुभ भाग्य के कारण ही होता है। यदि भाग्य प्रतिकूल हो तो रावण जैसे महाबली का भी नाश हो जाता है और यदि भाग्य अनुकूल होतो अंधे, कुबड़े और त्रिस्तनी की तरह अन्याय से भी कार्य सिद्ध हो जाते है।
🧖♂️ स्वर्णसिद्धि – वह कैसे?
तकरार विनाश की जड़
तब चक्रधर ने स्वर्णसिद्धि को बुरे कर्म करते हुए भी अच्छा फल पाने वाले अंधे, कुबड़े और त्रिस्तनी की कहानी “अंधा, कुबड़ा ओर त्रिस्तनी“ सुनाई। (इसी कहानी में “जिज्ञासु बनों” भी है।)
चक्रधर – इस प्रकार अन्याय करने के बावजूद भी तीनों का भला हो गया क्योंकि भाग्य उनके अनुकूल था।
स्वर्णसिद्धि – तुम्हारी बात सही है। भाग्य अनुकूल हो तो सबका कल्याण होता है और सभी कार्य सिद्ध होते है। लेकिन फिर भी मनुष्य को अच्छे मित्रों और सत्पुरुषों की सलाह माननी चाहिए। कभी उनसे तोड़कर उनके विरुद्ध नहीं चलना चाहिए। जो अपनों से तोड़कर उनकी बात ना मानते हुए उनके विरुद्ध कार्य करता है, उनका विनाश हो जाता है।
आपस में सलाह करके मिलजुल कर एक-दूसरे का भला चाहते हुए काम करना चाहिए। जो ऐसा ना करते हुए स्वेच्छा से काम करते है उनका विनाश उस दो मुँह वाले पक्षी की तरह ही हो जाता है।
चक्रधर – कौन सा पक्षी? क्या हुआ था उसके साथ?
तब स्वर्णसिद्धि ने चक्रधर को दो मुँह वाले पक्षी, जिसके दोनों मुँह एक-दुसरे के विरुद्ध काम करते थे, की कहानी “दो सिर वाला पक्षी“ सुनाई।
जा अब लौट जा
चक्रधर – मैं तुम्हारा अभिप्राय समझ गया। जिस तरह दूसरे मुख के कर्मों के फल पहले मुख ने भोगा, उसी तरह मेरे कर्मों का फल तुम क्यों भोगों। इसलिए तुम वापस घर लौट जाओं। लेकिन अकेले मत जाना। क्योंकि संसार में कुछ काम ऐसे होते है, जिन्हें अकेले नहीं करना चाहिए। स्वादिष्ट भोजन अकेले नहीं करना चाहिए, सोने वालों के बीच में अकेले जागना नहीं चाहिए।
जटिल समस्या का हल अकेले नहीं निकालना चाहिए। अनजान और सुनसान मार्ग पर अकेले नहीं चलना चाहिए। मार्ग में कोई साथ हो तो वह जीवन की रक्षा कर सकता है। जैसे केकड़े ने ब्राह्मण की साँप से रक्षा की थी।
स्वर्णसिद्धि – वह कैसे?
तब चक्रधर ने स्वर्णसिद्धि को ब्राह्मण के प्राणों की रक्षा करने वाले केकड़े की कहानी “मार्ग का साथी” सुनाई।
चक्रधर – इसलिए कहता हूँ, यात्रा में कोई ना कोई साथी जरूर साथ में होना चाहिए। एक तो रास्ता आराम से कट जाता है और समय पड़ने पर वह सहायता भी कर सकता है।
स्वर्णसिद्धि – ठीक है, रास्ते में मैं किसी को अपने साथ ले लूँगा।
इतना कहकर स्वर्णसिद्धि ने चक्रधर से विदा ली और लौट पड़ा।
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पिछली कहानी – परदेस में अपने ही जाति भाइयों का विरोध सहने वाले कुत्ते की कहानी “कुत्ते का बैरी कुत्ता”
तो दोस्तों, कैसी लगी पंचतंत्र की कहानियों के रोचक संसार में डुबकी। मजा आया ना, तो हो जाइए तैयार लगाने अगली डुबकी, .. .. .. ..
अगली कहानी – बिना विचार किए नकल करने वाले नाई की कहानी “मूर्ख और लालची नाई”
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