कर्मों का फल – Karmon Ka Phal
सुनी-अनसुनी कहानियाँ – कर्मों का फल – Karmon Ka Phal
विराट नगर में राजा चित्रसेन राज्य करते थे। उनका एक पुत्र था, विद्यादत्त। विद्यादत्त की एक नाई रीछपाल से बहुत अच्छी मित्रता थी। विद्यादत्त खाते-पीते, सोते-जागते, उठते-बैठते हर समय रीछपाल को अपने साथ रखता। रीछपाल स्वभाव से बहुत कुटिल और दुष्ट था। सारा नगर उसकी कुटिलता के बारे में जानते थे।
दोस्त को नहीं छोड़ सकता
विद्यादत्त के दूसरे मित्रों, घर के माता-पिता, राज्य के प्रधान व मंत्रियों सभी ने उसे बहुत समझाया कि यह नाई बहुत दुष्ट प्रवृति का है, इससे इतनी निकटता अच्छी नहीं है। लेकिन विद्यादत्त तो उसके मोह में इतना फँस चुका था कि वह किसी की एक नहीं सुनता था। उसका ज्यादातर समय रीछपाल के साथ ही व्यतीत होता था। वह ना तो राजकाज में कुछ ध्यान देता ना ही अपनी शिक्षा में।
एक बार राजा ने चित्रसेन ने विद्यादत्त खूब समझाया कि वह रीछपाल का साथ छोड़ दे, लेकिन विद्यादत्त कहाँ मानने वाला था उसने कहा,
विद्यादत्त – पिताजी! मैं घर, राज्य, मित्र, कुटुंब सबको छोड़ सकता हूँ पर रीछपाल से मित्रता नहीं तोड़ सकता।
इस बात पर राजा चित्रसेन को बहुत गुस्सा आया और उन्होनें विद्यादत्त को सबकुछ त्याग कर अपने राज्य से बाहर निकल जाने का हुक्म दे दिया।
राजा ने तो विद्यादत्त को देश निकाला दे दिया, लेकिन माँ तो आखिर माँ ही होती है। जब विद्यादत्त रीछपाल के साथ नगर छोड़कर जाने लगा तो उसकी माँ ने उसके साथ चार लड्डू बांध दिए, ताकि रास्ते में भूख लगने पर खा सके। इसके साथ ही उसने उन चारों लड्डुओं में एक-एक रत्न भी दबा दिया, ताकि मुसीबत में विद्यादत्त के काम आ सके।
पकड़ी गई कुटिलता
विद्यादत्त और रीछपाल दोनों अपनी यात्रा पर रवाना हो गए। चलते-चलते दोपहर हो गई, दोनों थक गए थे और उन्हें भूख भी लगी थी इसलिए दोनों एक बावड़ी के पास छायादार पेड़ के नीचे विश्राम करने के लिए रुक गए। विद्यादत्त ने माँ के दिए लड्डू निकाले और दो लड्डू खुद के लिए रखे और दो लड्डू रीछपाल को दे दिए।
विद्यादत्त और रीछपाल ने जब लड्डू खाए तो उनमें से रत्न निकले। रीछपाल ने चुपके से रत्न अपने कमरबंद में छिपा लिए। जब विद्यादत्त के दोनों लड्डुओं से रत्न निकले तो उसने रीछपाल से पूछा,
विद्यादत्त – मित्र, मेरे दोनों लड्डुओं में एक-एक रत्न निकला। क्या तुम्हारे लड्डुओं में भी रत्न निकले है?
रीछपाल – नहीं मित्र, मेरे लड्डुओं मे से तो ना कोई रत्न निकला और ना ही कोई पत्थर।
विद्यादत्त ने मन ही मन सोचा, ऐसा हो ही नहीं सकता कि माँ ने केवल दो लड्डुओं में रत्न रखे और वे दोनों लड्डू मेरे पास ही आ गए हो। हो न हो रीछपाल झूठ बोल रहा है। माँ ने चारों लड्डुओं में रत्न डाले होंगे। यह तो अभी से मेरे साथ बेईमानी कर रहा है, आगे चलकर पता नहीं क्या करेगा।”
कर्मों का फल
विद्यादत्त का दिल टूट गया। लेकिन विद्यादत्त ने रीछपाल से कुछ नहीं कहा। वह पहले के समान ही उसके साथ बातें करते-करते चलता रहा। तभी विद्यादत्त ने रीछपाल से कहा,
विद्यादत्त – मित्र, मैं सोचता हूँ, बुरे कर्मों का फल बुरा ही मिलता है। इस बारे में तुम्हारी क्या राय है?
रीछपाल – नहीं मित्र, आजकल भलाई का जमाना नहीं है। भलाई का नतीजा भी बुरा ही निकलता है।
विद्यादत्त – जमाना कितना भी बदल जाए लेकिन भले को उसकी भलाई का फल और बुरे को उसकी बुराई का फल देर-सवेर मिल ही जाता है।
रीछपाल – नहीं, आज बुरे का ही बोलबाला है। भले लोग कष्ट भोगते रहते है और बुरे मौज उड़ाते है।
इस बात पर दोनों में बहस छिड़ गयी। दोनों अपनी-अपनी बात पर अड़े रहे, यहाँ तक कि बातों ही बातों में दोनों में शर्त लग गई कि जो भी गलत होगा उसकी आँखे फोड़ दी जाएगी। बहुत देर तक बहस करने पर भी कोई नतीजा नहीं निकला तो रीछपाल ने कहा,
रीछपाल – ऐसे तो हम दोनों बहस करते ही रहेंगे। क्यों ना हम किसी तीसरे से इसका फैसला करवा लेते है।
विद्यादत्त – हाँ, यह ठीक रहेगा।
दोस्त तो दगाबाज निकला
दोनों आगे बढ़ चले। आगे रास्ते में एक बुढ़िया सड़क के किनारे उपले थाप रही थी। दोनों बुढ़िया के पास गए और पूछा,
विद्यादत्त – माई! भले का फल भला होता है या बुरा?
बुढ़िया – (लम्बी साँस छोड़ते हुए) बेटा, आजकल के ज़माने में भले का फल बुरा ही मिलता है। अब देखो मैंने दिन-रात मेहनत मजदूरी कर के अपने बेटे को पाला-पोसा बड़ा किया। अब जब वह कमाने लगा औरर उसकी शादी हो गई तो वह मुझे पूछता तक नहीं है। यहाँ तक कि जब तक ये उपले थापकर घ नहीं ले जाऊँगी, तब तक मेरी बहु मुझे खाना तक नहीं देती और बेटा कुछ नहीं बोलता।
रीछपाल – (खुश होते हुए झट से) लो हो गया फैसला, तुम्हारी बात गलत निकली। तुम हार गए, अब मैं तुम्हारी आँखे फोड़ूँगा।
विद्यादत्त – (समझाते हुए) मित्र, दोस्ती में ऐसा थोड़े ही होता है। दोस्तों में तो बहस और शर्ते लगती ही रहती है। इसे इतनी गम्भीररता से थोड़े ही लिया जाता है।
विद्यादत्त के बहुत समझाने पर भी पर रीछपाल नहीं माना और उसने विद्यादत्त की आँखे फोड़ दी। फिर उसका घोडा, हथियार और चारों रत्न छीनकर वहाँ से चलता बना।
विद्यादत्त के सारे सामान के साथ रीछपाल झालरापाटन नगरी में पँहुच गया। उसने वहाँ चारों रत्न बेच दिए और उन पैसों से उसने एक व्यापार शुरू कर दिया। उसने व्यापार में बहुत अच्छा धन कमाया। कुछ समय बाद वहीँ के एक व्यापारी की पुत्री से विवाह कर के मजे से रहने लगा।
उधर आँखे फोड़ देने के बाद विद्यादत्त कुंवर अँधा हो गया था। विद्यादत्त आँखों की पीड़ा से ज्यादा दुख अपने दोस्त की दगा का था। वह मन ही मन अपने आप को कोसता रहता कि “सभी ने मुझे कितना समझाया था कि नाई दुष्ट है पर मैंने किसी की बात नहीं मानी। अब मुझे पछताना पड़ रहा है। आखिर मुझे गलत संगत का फल मिल ही गया।”
अच्छे कर्मों का फल
एक रात विद्यादत्त एक पेड़ के नीचे बैठ कर अपने मुकद्दर को कोस रहा था तभी उसे पेड़ पर बैठे चकवा व चकवी पक्षी की बातें सुनाई दी।
चकवी – कह रे चकवा कुछ बात, ताकि आसानी से कट जाए रात।
चकवा – बोल री चकवी, घर बीती कहूँ या पर बीती।
चकवी – अरे चकवे, पर बीती कहने का क्या फायदा, अपने तो घर बीती ही बता।
चकवा – तो सुं चकवी, तुम्हें पता है, अपनी बींट एक बहुत अच्छी औषधि है।
चकवी – वह कैसे?
चकवा – यदि अपनी बींट को किसी अंधे के आँख ने डाल दी जाए तो उसकी आँखों में रौशनी आ जाये।
चकवी – अच्छा! मुझे और बताओ कि अपनी बींट और इंसानों के किस-किस रोग को ठीक करने के काम आती है?
चकवा – यदि अपनी बींट को चंदन में मिलाकर लेप बनाकर कोढ़ी के शरीर लगा दिया जाए तो उसका कोढ़ (कुष्ठ रोग) ठीक हो जाता है। चौरासी तरह के घाव हमारी बींट के लेप से ठीक हो जाते है।
उम्मीद की किरण
विद्यादत्त बड़े ध्यान से उनकी बात सुन रहा था। उसने तुरंत इधर-उधर टटोलकर जमीन पर गिरी उनकी बींट उठाई और अपनी आँखों में डाल ली। बींट आँखों में डालते ही उसकी आँखों की रौशनी वापस आ गयी। विद्यादत्त ने पेड़ के नीचे गिरी सारी बींटे भी इकठ्ठा कर के अपने पास रख ली।
अगले दिन सुबह ही विद्यादत्त आगे की यात्रा के लिए रवाना हो गया। भाग्यवश वह भी झालरापाटन नगरी में पहुँच गया। वहां के राजा बलदेव को कुष्ठ रोग हो गया था। बहुत सारे वैद्यों से इलाज करवाने पर भी वह ठीक नहीं हुआ तो उसने अपने राज्य में मुनादी करवा दी कि “जो कोई भी उसे कुष्ठ रोग से मुक्ति दिला देगा, उसके साथ वह अपनी पुत्री का विवाह कर आधा राज्य दे देगा।”
विद्यादत्त ने भी वह मुनादी सुनी और वह सीधा राजा के पास चला गया। वहाँ पँहुच कर उसने राजा से कहा,
विद्यादत्त – राजन, यदि आप मुझे एक मौका दें तो मैं आपके रोग का इलाज कर सकता हूँ।
राजा बलदेव – क्या तुम वैद्य हो?
विद्यादत्त – नहीं। मैं तो एक साधारण सा युवक हूँ। मेरा नाम विद्यादत्त है।
राजा बलदेव – बड़े से बड़े वैद्य भी हमारा रोग दूर नहीं कर सके, और तुम तो एक वैद्य भी नहीं हो।
विद्यादत्त – लेकिन मैं कुष्ठ रोग और कुछ छोटे-मोटे रोगों का इलाज जानता हूँ। मैं वादा करता हूँ कुछ ही दिनों में आपके इस रोग को दूर कर दूँगा। यदि मैं ऐसा नहीं कर सका तो आप जो चाहे वह सजा मुझे दे सकते है।
राजा बलदेव – ठीक है, तुम भी कोशिश करकर देख लो।
विद्यादत्त ने चकवे की बींट को चन्दन में घिस कर लेप बनाकर राजा के शरीर पर लगाया। तीन-चार दिनों के लेप से ही राजा का कुष्ठ रोग ठीक हो गया। राजा ने खुश हो कर अपने वादे के मुताबिक अपनी पुत्री शशिकला का विवाह विद्यादत्त के साथ करके उसे आधा राज्य दे दिया। अब विद्यादत्त अपनी पत्नी शशिकला के साथ आराम से महलों में रहने लगा।
ऐसा कैसे हो गया?
ये संयोग की ही बात थी कि रीछपाल भी उसी नगर में व्यापार कर रहा था और विद्यादत्त भी उसी नगरी में रह रहा था। लेकिन फिर भी वे एक दूसरे के बारें में नहीं जानते थे। एक दिन विद्यादत्त अपनी पत्नी के साथ नगर की सैर पर निकला। रीछपाल ने विद्यादत्त को देख लिया लेकिन विद्यादत्त उसे नहीं देख पाया। रीछपाल को विद्यादत्त की आँखों में रौशनी देख कर बड़ा आश्चर्य हुआ।
वह सोचने लगा, “विद्यादत्त की आँखों की रोशनी कैसे आ गई? इसका विवाह राजकुमारी शशिकला के साथ कैसे हो गया?
अब रीछपाल को दिन-रात यह भय सताने लगा कि विद्यादत्त को मेरा पता चलते ही वह मेरी सारी पोल खोल देगा। ना केवल पोल खोलेगा बल्कि राजा से मुझे सजा भी दिला देगा। आखिर अब वह राजा का जवाई जो बन गया है।
पर रीछपाल बहुत ही चालाक और कुटिल था। उसने पूरे नगर में यह अफवाह फैला दी कि “राजा का जंवाई तो मेरे बाप का नाई था।”
थोड़े ही समय में यह अफवाह आग की तरह पूरे नगर में फ़ैल गयी। जितना मुँह उतनी बातें कोई कहता, “अरे कितना बुरा हुआ कि राजा की पुत्री की शादी एक नाई के साथ हो गयी।” कोई कहता “हमारे राजा को अपनी पुत्री के विवाह के लिए एक नाई ही मिला था।”
धीरे-धीरे फैलती हुई यह बात राजा के कानों तक भी पँहुच गई। राजा को बहुत दुःख पहुंचा कि उसके कारण उसकी पुत्री की शादी एक नाई से हो गयी। साथ ही उसे विद्यादत्त पर बही बहुत गुस्सा आया कि उसने अपने बारे में उसे क्यों नहीं बताया। उसने सच्चाई जानने के लाइ रीछपाल को अपने पास बुलवाया और पूछा,
राजा बलदेव – यह जो नगर में अफवाह फैली हुई है, क्या वह सही है?
रीछपाल ने भी जाकर राजा के कान भरने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
रीछपाल – बिल्कुल सही है महाराज, मैंमेरे पिता जब सुंदर नगर में रहते थे, तब विद्यादत्त मेरे पिताजी का नाई था।
राजा बलदेव – ओह, ये हमसे क्या हो गया। हमने अपनी पुत्री का विवाह एक नाई से करवा दिया। अब हम क्या करें?
धूर्त की धूर्तता
रीछपाल विद्यादत्त के खिलाफ कान भरते हुए राजा को सलाह दी,
रीछपाल – महाराज , आप किसी तरह चुपके से विद्यादत्त को मरवा दीजिये।
राजा बलदेव – तुम ठीक कहते हो। हमें ऐसा ही करना चाहिए।
राजा बलदेव को भी रीछपाल की सलाह जँच गयी और उसने रीछपाल के साथ मिलकर विद्यादत्त को मारने की योजना बना ली। राजा ने एक चांडाल को बुलाकर कहा,
राजा बलदेव – तुम रात्री में तेल का कडाह गर्म कर कर रखना। रात को तुम्हारे पास एक आदमी आकर पूछेगा कि राजा तुम्हे जो हुक्म दिया था, वह काम हो गया है या नहीं? तुम उसे पकड़कर गर्म तेल के कड़ाह में डालकर मार देना।
चांडाल – जो आज्ञा महाराज!
इतना कहकर चांडाल वहाँ से चला गया। रात होते ही राजा ने विद्यादत्त को बुलाकर कहा,
राजा बलदेव – बेटा, मैंने श्मशान के पास रहने वाले चांडाल को एक काम करने का हुक्म दिया था। आप जरा उसके घर जाकर पूछकर आओ कि मैंने उसे जो काम बताया था वो हुआ कि नहीं? काम बहुत ही गुप्त और जरूरी है इसलिए मैं यह काम किसी सेवक को ना सौंप कर आपको सौंप रहा हूँ।
विद्यादत्त – ठीक है पिताजी, मैं अभी जा कर पता लगा कर आता हूँ।
विद्यादत्त पाने कक्ष में आकर तैयार हुआ और चांडाल के यहाँ जाने के लिए निकल ही रहा था कि उसकी पत्नी शशिकला ने उसे रोक लिया और बोली,
शशिकला – इतनी भी क्या जल्दी है प्रिये, दो पल बैठ कर मुझसे बात कर लो फिर चले जाना।
विद्यादत्त शशिकला के पास बैठ गया, तभी उसके ऊपर मदिरा का पात्र गिर गया।
शशिकला – प्रिये, आपके कपड़े गंदे हो गए है। आप ये कपड़े बदलकर दूसरे कपड़े पहनकर चले जाओ।
उल्टा पड़ गया दाँव
इस तरह विद्यादत्त को चांडाल के घर जाने में काफी देर लग गयी। उधर रीछपाल के मन में खलबली मची हुई थी कि पता नहीं चांडाल ने विद्यादत्त की हत्या कर दी है या नहीं। उसे बहुत बेचैनी होनी लगी। इसी बेचैनी नें वह खुद चांडाल के घर पहुँच गया और वहाँ जाकर उसने जाकर चांडाल से पूछा,
रीछपाल – राजा ने जो हुक्म दिया था वो काम हुआ कि नहीं?
यह शब्द सुनते ही चांडाल ने उसे उठाकर गर्म तेल के खौलते कड़ाह में डाल दिया। रीछपाल उस गर्म खौलते तेल में तड़पते हुए जल कर मर गया। थोड़ी देर में ही विद्यादत्त भी चांडाल के घर पँहुच गया और उससे पूछा,
विद्यादत्त – राजा ने जो काम बताया था, वो हुआ कि नहीं?
चांडाल – हाँ, हो गया।
विद्यादत्त राजा के पास गया और उसे बताया,
विद्यादत्त – पिताजी, चांडाल ने आपका बताया कार्य कर दिया है।
राजा विद्यादत्त को जीवित देखकर बहुत आश्चर्य चकित हुआ। वह उसी समय चांडाल के यहाँ गया। उसने जब तेल के कड़ाह में देखा तो उसमें रीछपाल मरा हुआ पड़ा था। विद्यादत्त भी पीछे-पीछे वहीं पँहुच गया। रीछपाल को कड़ाह में देखकर वह बोल पड़ा,
विद्यादत्त – अरे रीछपाल, यह यहाँ कहाँ से आ गया?
राजा – (आश्चर्य से) क्या आप इसे जानते है?
तब विद्यादत्त ने राजा को पूरी बात विस्तार से बताई। विद्यादत्त की बात सुन कर राजा को एक तरफ तो बहुत खुशी हुई कि उसका दामाद एक नाई नहीं एक राजकुंवर है, लेकिन साथ ही साथ शर्मिंदगी भी हुई कि उसने एक नाई की बातों में आकर अपने दामाद को ही मारने की साजिश कर ली थी।
उसने विद्यादत्त से अपने व्यवहार के लिए माफी मांगी। विद्यादत्त ने राजा को माफ करते हुए कहा,
विद्यादत्त – मैं बिल्कुल सही था, देर-सबेर अपने अच्छे-बुरे कर्मों का फल मिल ही जाता है। अच्छे कर्मों का फल अच्छा ओर बुरे कर्मों का फल बुरा ही होता है। मेरे अच्छे कर्मों के कारण मेरी जान बच गई और इसके बुरे कर्मों के कारण यह अपने ही बिछाये जाल में फँस कर मारा गया।
तब राजा ने विद्यादत्त के माता-पिता को उसकी कुशलता और विवाह की सूचना भिजवाई। अपने पुत्र की कुशलक्षेम जानकर राजा चित्रसेन और रानी बहुत खुश हुए और लाव-लश्कर लेकर अपने पुत्र और पुत्रवधू को लेने के लिए झालरापाटन नगरी में पँहुच गए। राजा बलदेव ने उनका बहुत स्वागत सत्कार किया और बहुत सारे सामान, दास-दासियों के साथ अपनी पुत्री को उनके साथ विदा कर दिया।
अपने नगर पँहुचकर विद्यादत्त ने भी अपने माता-पिता और सबसे अपनी गलती माफ़ी मांगते हुए कहा,
विद्यादत्त – मुझे माफ कर दीजिए, मैंने आप लोगों की सलाह नहीं मानी। मैंने बुरी संगत का फल भुगत लिया है, अब भविष्य में मैं कभी अपने बड़ों की सलाह नहीं टालूंगा।”
राजा चित्रसेन – कोई बात नहीं बेटा, सुबह का भूला यदि शाम को घर आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते!
राजा की बाट सुनकर सभी हँस पड़े। उसके बाद से विद्यादत्त हर कार्य अपने बड़ों से सलाह मशविरा करके करने लगा।
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तो दोस्तों, कैसी लगी कहानी कर्मों का फल? आशा करती हूँ अच्छी लगी होगी और आपका खूब मनोरंजन हुआ होगा। फिर मिलेंगे कुछ सुनी और कुछ अनसुनी कहानियों के साथ। तब तक के लिए अलविदा !
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