रानी चौबोली – Rani Couboli
सुनी-अनसुनी कहानियाँ – रानी चौबोली – Rani Couboli
एक दिन राजा विक्रमादित्य की अपनी रानी के साथ किसी बात पर बहस हो गई।
रानी ने विक्रमादित्य से कहा, “आप मुझसे बहस कर रहे हो, यदि मैं रूठ गई तो मेरे जैसी रूपवती और गुणवती दूसरी पत्नी नहीं मिलेगी।”
विक्रमादित्य ने भी ऐठ मैं कह दिया, “ऐसी बात नहीं हैं, मैं तुमसे भी ज्यादा रूपवती और गुणवती पत्नी ला सकता हूँ। जिसका तुम तो क्या स्वर्ग की अप्सराएं भी मुकाबला नहीं कर सकती।
तब रानी ने गुस्से में कहा, “बोल तो ऐसे रहे हो, जैसे रानी चौबोली को ही परण कर ले आओगे।”
राजा विक्रमादित्य के दिल में यह बात तीर की तरह चुभ गई। उन्होनें भी गुस्से में कह दिया, “अब तो तुम भी देखना, मैं रानी चौबोली को ही तुम्हारी सौतन बना कर लाऊँगा।”
राजा विक्रमादित्य ने निश्चय कर लिया कि अब तो कुछ भी ही जाए, रानी चौबोली से विवाह करना ही है। उन्हें पता था कि रानी चौबोली अप्सराओं के समान रूपवान, गुणवती और विदुषी स्त्री थी। बड़े से बड़े राजा उससे विवाह करना चाहते थे। लेकिन रानी चौबोली ने अपने विवाह के लिए एक शर्त रख रखी थी कि वह उसी से विवाह करेगी जो उसको रात के चार पहरों में चार बार बुलवा दे।
जो भी ऐसा नहीं कर पाएगा, उसे उसकी कैद में रहना होगा। अब तक एक सौ आठ राजा व राजकुमार अपना भाग्य आजमा चुके थे, लेकिन उनमें से एक भी राजा या राजकुमार उसे चार बार तो क्या एक बार भी नहीं बुलवा सका। सभी एक सौ आठ राजा चौबोली के कैदी बन चुके थे।
रानी चौबोली ने अपने राजमहल के सामने एक ढोल रखवा रखा था। जो कोई भी उससे विवाह करना चाहता, उसे उस ढोल पर डंके की चोट मार कर उसे बजाना पड़ता था।
राजा विक्रमादित्य ने चार ऐसे वीर युवकों को अपने साथ में लिया, जो अदृश्य हो सकते थे और अपना वेश बदल सकते थे, और निकल पड़े रानी चौबोली से विवाह करने। राजा विक्रमादित्य ने रास्ते में ही उन्होनें उन चारों को अपनी पूरी योजना के बारें में समझा दिया। नगर में प्रवेश करने से पहले ही वे चारों युवक अदृश्य हो कर राजा विक्रमादित्य के साथ चलने लगे।
शाम होने से पहले ही वे सभी रानी चौबोली के राजमहल के सामने पहुँच गए। वहाँ पहुँच कर उन्होंने ढोल के पास रखा डंका उठाया और ढोल को बजा दिया। ढोल की आवाज सुनकर रानी चौबोली ने अपने सेवकों को आदेश दिया कि ढोल बजाने वाले को आदर सहित अतिथि गृह में ले जाये और उनका उचित सत्कार करें।
रात का पहला पहर शुरू होने से पहले ही रानी चौबोली सोलह शृंगार करके अपने महल में पलंग पर बैठ गई। फिर उसने अपने सेवकों से राजा विक्रमादित्य को अपने समक्ष प्रस्तुत करने का आदेश दिया। राजा विक्रमादित्य ने चारों अदृश्य युवकों के साथ रानी चौबोली के महल में प्रवेश किया।
योजनानुसार चारों वीर अदृश्य रूप में ही सूक्ष्म रूप धर कर एक-एक कर, पलंग के पाए के पास, मटके के पास, खिड़की के पास और रानी चौबोली के गले के हार के पास बैठ गए।
राजा विक्रमादित्य भी रानी चौबोली के समक्ष एक आसान पर बैठ गए। उन्होनें रानी चौबोली से बात करने का प्रयास किया, लेकिन चौबोली तो बोले ही नहीं, वह तो उनके सामने ऐसे बैठ गई जैसे कोई पत्थर की मूर्ति हो। तब राजा विक्रमादित्य ने पलंग की तरफ देखते हुए कहा, “अरे भाई पलंग, रानी चौबोली तो बोलेगी नहीं, अब तू ही कुछ कह, जिससे रात का एक प्रहर तो कटे।
तब पलंग के पायों के पास छुपा एक वीर बोला, “अरे राजा विक्रमादित्य, आप यहाँ कहाँ आकर फँस गए, रानी चौबोली को तो आज तक कोई एक बार भी नहीं बुलवा सका। लेकिन कोई बात नहीं समय काटने के लिए मैं आपको एक कहानी सुनाता हूँ, आप तो बस हुँकारा देते जाना। पलंग कहानी सुनाने लगा और राजा विक्रमादित्य हुँकारा भरने लगे।
पहली कहानी – किसकी पत्नि?
अवन्ती नगर के राजा अवधेश सिंह के बेटे चक्रधर और साहूकार के बेटे शशीधर में बहुत गहरी मित्रता थी। दोनों ने एक दूसरे से वादा किया था कि दोनों कभी एक-दूसरे से अलग नहीं होंगे। इसलिए दोनों साथ-साथ पढ़ते-खेलते, खाते-पीते, उठते-बैठते, जागते सोते। जहाँ जाते एक साथ जाते, दोनों एक पल भी एक-दूसरे के बिना नहीं रहते।
दोनों का विवाह भी हो चुका था और दोनों की ही पत्नियाँ अभी मायके में ही थी उनका गौना नहीं हुआ था। एक दिन साहूकार ने अपने पुत्र से कहा,
साहूकार – अब तुम और तुम्हारी पत्नी रत्ना दोनों जवान हो गए हो, अब ज्यादा दिनों तक बहु का मायके में रहना ठीक नहीं है। इसलिए अपनी ससुराल जाकर अपनी पत्नी को ले आओ।“
शशीधर – पिताजी, आपकी आज्ञा मेरे सर माथे पर, लेकिन मैंने राजकुमार चक्रधर से वादा कर रखा है कि मैं उसके बिना अकेला कहीं नहीं जाऊँगा।
साहूकार – यदि ऐसी बात है तो तुम राजकुमार चक्रधरको भी अपने साथ अपने ससुराल ले जाओ। लेकिन ध्यान रखना कि तुम्हारे ससुराल में उनकी आवभगत उनकी प्रतिष्ठा के अनुरूप ही हो।
शशीधर ने अपने पिता की बात मान ली। राजकुमार चक्रधर ने भी अपने पिता से आज्ञा ली और शशीधर के साथ जाने के लिए तैयार हो गया।
अगले दिन सुबह-सुबह ही दोनों ने अपनी यात्रा प्रारंभ कर दी। राजकुमार तो रास्ते में हँसी-मजाक करते हुए चल रहा था, लेकिन शशीधर मन ही मन यह सोच कर चिंता में घुला जा रहा था कि “पता नहीं मेरे ससुराल वाले राजकुमार चक्रधर का आदर सत्कार उसकी प्रतिष्ठा के अनुरूप कर पाएंगे या नही। कहीं चक्रधर नाराज ना हो जाए।”
इसी तरह चलते-चलते वे बहुत आगे तक आ गए। रास्ते में एक देवी का मंदिर था। उन्हें पता लगा कि देवी के मंदिर में देवी के सामने जो भो मांगों वह मिल जाता है। रोगियों के रोग दूर हो जाते है, कोढ़ियों का कोढ़ मिट जाता है, अविवाहित का विवाह हो जाता है, नि:संतान को संतान की प्राप्ति हो जाती है। यह सुनकर दोनों मंदिर में देवी के दर्शन के लिए चले गए।
शशीधर ने देवी से प्रार्थना करते हुए कहा, “हे देवी माँ, मेरे ससुराल में मेरे मित्र चक्रधर का आदर सत्कार उसकी प्रतिष्ठा के अनुरूप ही होना चाहिए। यदि मेरे मन की मुराद पूरी हो गई तो वापस लौटते समय मैं आपको अपना सर भेट कर दूँगा।”
देवी माँ से प्रार्थना करने के बाद दोनों फिर आपने मार्ग पर आगे बढ़ चले। थोड़े समय बाद वे शशीधर की ससुराल पहुँच गए। शशीधर की ससुराल वाले बहुत बड़े साहूकार थे, शहर में उनकी बहुत सारी दुकाने थी। उनके खुद के कई जहाज थे। उनका व्यापार देश-विदेश तक फैला हुआ था। पैसे वाले होने के साथ ही साथ वे बड़े दिल वाले भी थे।
उन्होंने शशीधर और राजकुमार चक्रधर का ऐसा स्वागत सत्कार किया कि शशीधर ही नहीं राजकुमार चक्रधरभी आश्चर्यचकित रह गया। ऐसा सत्कार तो उसने भी कभी नहीं देखा था। शशीधर के ससुराल वालों ने उन दोनों को दस दिनों तक जाने नहीं दिया। वे रोज उनकी मनुहार कर के उन्हें रोक लेते। दस दिनों बाद शशीधर के बहुत आग्रह के बाद उन्होनें आदर सहित अपनी कन्या रत्ना को उनके साथ विदा कर दिया।
राजकुमार चक्रधर शशीधर की ससुराल वालों के सत्कार से इतना प्रभावित था कि रास्ते भर उनकी तारीफ करता रहा। चलते-चलते वे तीनों देवी के मंदिर तक पँहुच गये। शशीधर ने कहा,
शशीधर – तुम दोनों यहीं रुको, मैं मंदिर में देवी के दर्शन करके आता हूँ।
चक्रधर – मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूँ।
रत्ना – हाँ, मैं भी आपके साथ चलती हूँ, मैं भी देवी माँ के दर्शन करके उनका आशीर्वाद ले लेती हूँ।
शशीधर – नहीं, मैंने आते वक्त देवी माँ से अकेले दर्शन करने की मन्नत मांगी थी। इसलिए इस बार मैं अकेला ही माँ के दर्शन के लिए जाऊँगा।
चक्रधर – ठीक है, लेकिन जरा जल्दी आ जाना।
सहमति में सर हिलाकर शशीधर मंदिर के अंदर चला गया। वहाँ जाकर उसने अपना शीश काटकर देवी माँ के चरणों में अर्पित कर दिया। जब बहुत देर बाद भी शशीधर वापस नहीं आया तो राजकुमार चक्रधर को चिंता होने लगी उसने रत्ना से कहा,
चक्रधर – भाभी, बहुत देर हो गई, शशीधर अभी तक नहीं आया। आप यहीं रुको मैं मंदिर में जाकर देख कर आता हूँ।
इतना कहकर चक्रधर भी मंदिर के अंदर चला गया। मंदिर में जब उसने अपने मित्र शशीधर कटा हुआ सिर और धड़ देखा तो उसके पैरों तले की जमीन हिल गई। वह विलाप करते हुए बोला,
चक्रधर – मित्र, तुमने यह क्या कर दिया। अब मैं तुम्हारे पिता और तुम्हारी पत्नी को क्या जवाब दूँगा? हम दोनों ने एक दूसरे का साथ निभाने का वादा किया था। लेकिन तुमने अपना वादा तोड़कर मेरा साथ छोड़ दिया। लेकिन मैं अपना वादा जरूर निभाऊँगा। मैं भी यहीं अपनी जान दे दूँगा।
इतना कहकर उसने अपनी तलवार निकाली और अपना सिर काट लिया।
उधर रास्ते में खड़ी रत्ना इंतजार करते-करते थक गई तो वह भी मंदिर के अंदर चली आई। मंदिर के अंदर का दृश्य देखते ही उसकी चीख निकल गई। उसके पति और राजकुमार के सिर उनके धड़ से अलग हुए पड़े थे। यह देख कर वह चीत्कार कर उठी,
रत्ना – हे माँ, यह क्या हो गया। बिना पति के मैं अपनी ससुराल किस मुँह से जाऊँगी? लोग क्या कहेंगे? सब मुझे अभागन और कलमुँही कह कर मेरा अपमान करेंगे। ऐसा अपमानित जीवन जीने से तो अच्छा है, मैं भी अपने प्राण तयाग दूँ।
इतना कहकर उसने जमीन पर पड़ी तलवार को उठाया और अपना सिर काटने लगी, तभी देवी माँ ने प्रकट होकर उसका हाथ पकड़ लिया। तब रत्ना ने कहा,
रत्ना – हे देवी माँ, मेरे पति और उनके मित्र की बलि तो आप ले ही चुकी हैं। आपने इन दोनों को तो अपना बलिदान करने से नहीं रोका, तो अब मुझे क्यों रोक रहीं हैं। अब आप मेरी भी बलि ले लीजिए, वैसे भी अपने पति के बिना, मैं भी जीवित रह कर क्या करूँगी?
देवी ने कहा, “मैं तुम्हारे पति की भक्ति, राजकुमार चक्रधर की दोस्ती और तुम्हारी पति के प्रति निष्ठा और प्रेम से बहुत प्रसन्न हूँ। इसलिए मैं तुम्हारे पति और राजकुमार चक्रधर दोनों को जीवन दान देना चाहती हूँ। तुम ऐसा करों दोनों के शीश उनके-उनके धड़ों के ऊपर रख दो मैं उन्हें पुनर्जीवित कर दूँगी।
रत्ना ने जल्दी-जल्दी से दोनों के सिर उठाए और उनके धड़ों के ऊपर रख दिए। देवी माँ ने अपना हाथ उठाकर एक किरण छोड़ी, और दोनों जने जीवित हो गए। उनको जीवित करने के बाद देवी माँ अंतर्ध्यान हो गई।
लेकिन जल्दबाजी में रत्ना से एक गड़बड़ हो गई उसने शशीधर का सिर राजकुमार चक्रधर के धड़ पर औरराजकुमार चक्रधर का सिर शशीधर के धड़ पर रख दिया था। अब वे दोनों विचार में पड़ गए कि रत्ना किसकी पत्नी है। शशीधर के सिर वाले की या धड़ वाले की!
रानी चौबोली पहली बार बोली
हे राजा मैंने तो तुम्हारे न्याय की बहुत प्रशंसा सुनी है। अब तुम्हीं न्याय करो कि रत्ना किसकी पत्नी है।
राजा विक्रमादित्य ने तपाक से कहा, “इसमें कौन सी बड़ी बात है। रत्ना शशीधर के धड़ वाले की पत्नी होगी।
यह सुनते ही रानी चौबोली चौंक उठी और विक्रमादित्य की तरफ गुस्से से देखते हुए बोली,
चौबोली – वाह-वाह राजन, क्या खूब न्याय है आपका। मैंने भी आपके न्याय के बारें में बहुत चर्चा सुनी थी, लेकिन आप तो एक छोटा सा न्याय भी नहीं कर पाए। रत्ना शशीधर के धड़ वाले की नहीं बल्कि शशीधर के सिर वाले की पत्नी होगी, क्योंकि सिर के बिना धड़ का कोई मोल नहीं होता। इंसान का सिर ही उसकी पहचान होता है, धड़ नही।
चौबोली के बोलते ही राजा विक्रमादित्य ने मुस्कुराते हुए रानी चौबोली से कहा,
विक्रमादित्य – आप बिल्कुल सही कह रहीं है, आपने बिल्कुल सही न्याय किया है। रत्ना सिर वाले की ही पत्नी होगी। (फिर उन्होनें ढोली से कहा) “बजा रे ढोली एक बार ढोल, चौबोली बोली पहलो बोल”
ढोली ने भी ढोल पर जोर से एक डंका बजा दिया।
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रानी चौबोली फिर से पत्थर की मूर्ति बन कर बैठ गई। तब राजा विक्रमादित्य ने पास रखे मटके से कहा,
विक्रमादित्य – ओ रे मटके, एक प्रहर तो पलंग ने काट दिया। लेकिन अभी भी रात के तीन प्रहार बचे हुए है। रानी चौबोली तो अब बोलेगी नहीं और ऐसे बैठे-बैठे रात कटेगी नहीं। अब तो तू ही कुछ बोल कुछ अपनी सुना कुछ दुनियाँ की, ताकि कुछ समय और कट सकें।
मटके ने कहा, “मैं भी समय बिताने के लिए आपको एक कहानी सुनता हूँ, आप हुँकारा देते रहना।”
मटके ने कहानी कहनी शुरू कर दी और राजा विक्रमादित्य ने हुँकारा देना।
दुसरी कहानी – किसका त्याग बड़ा
त्रिलोकपुर नगर नगर के राजा गोपेश्वर का बेटा हर्षवर्धन और साहूकार का बेटा माधव दोनों ही बचपन से पक्के दोस्त थे। साथ-साथ खाते-पीते, सोते-जागते, उठते-बैठे, लड़ते-झगड़ते। लड़कपन की नादानी में उन दोनों ने एक दूसरे को वचन दे दिया कि जिसकी भी शादी पहले होगी वह अपनी सुहागरात वाले दिन अपनी पत्नी दूसरे के पास भेजेगा। धीरे-धीरे समय बीता, बात आई-गई हो गई और दोनों जवान हो गए।
साहूकार ने अपने पुत्र माधव का विवाह एक सुशील, गुणवती और सुन्दर कन्या मोहिनी से कर दिया। सुहागरात वाले दिन मोहिनी सुहाग सेज पर सोलह शृंगार करके बैठ के अपने पति का इंतजार करने लगी। थोड़ी देर बाद माधाव ने कक्ष में प्रवेश किया और मुँह लटकाकर उसके सामने बैठ गया। मोहिनी ने जब अपने पति को ऐसे उदास बैठे देखा तो वह समझ गई कि उसके मन में कोई बात है, जिसे कहने में वह झिझक रहा है।
उसने बड़े प्यार से माधव से पूछा,
मोहिनी – क्या बात है नाथ, क्या आप मुझसे नाराज है या मैं आपको पसंद नहीं हूँ?
माधव – नहीं ऐसी कोई बात नहीं है।
मोहिनी – तो क्या मेरे माता-पिता ने लेन-देन या आपके परिवार की आवभगत में कोई कमी रख दी है?
माधव – नहीं प्रिये, ऐसी भी कोई बात नहीं है।
मोहिनी – तो फिर क्या बात है जो आप मुझे बताने में झिझक रहे है। मैंने आपसे विवाह किया है। आप मेरे परमेश्वर है और मेरा सर्वस्व आपका है। मैं आपकी अर्धांगिनी हूँ, आपका सुख-दुख, अब मेरा भी है। इसलिए आप मुझसे अपने मन की बात बता सकते है।
माधव – प्रिये, मैं एक धर्म संकट में फँस गया हूँ,। मुझे समझ में ही नहीं आ रहा क्या करूँ।
मोहिनी – ऐसी क्या बात है?
माधव – लड़कपन की नादानी में मैंने अपने मित्र राजकुंवर हर्षवर्धन को एक वचन दिया था, जिसे मैं ना तो तोड़ सकता हूँ और ना ही निभा सकता हूँ।
मोहिनी – ऐसा क्या वचन दिया है आपने? आप मुझे बता सकते है।
माधव – वचन ही कुछ ऐसा है, जिसे तुम्हें बताने में भी मैं झिझक रहा हूँ।
मोहिनी – कैसा भी वचन हो, आप मुझे नि:संकोच बताइए। मैं भी आपका वचन निभाने में आपका पूरा साथ दूँगी। यदि इसके लिए मुझे अपनी जान भी देनी पड़े तो मैं हँसते-हँसते दे दूँगी।
माधव – हम दोनों मित्रों ने एक-दूसरे को वचन दिया था कि जिसकी भी शादी पहले होगी वह अपनी सुहागरात वाले दिन अपनी पत्नी को अपने मित्र के पास भेजेगा। अब यदि मैं वचन को तोड़ता हूँ तो दोस्त के साथ दगा होगी और निभाता हूँ तो तुम्हारी लाज जाती है, जिसको बचाने का मैंने तुम्हें वचन दिया है।
मोहिनी – हे नाथ, आप किसी बात की चिंता मत कीजिए। आप बस मुझे आज्ञा दीजिए, मैं आपका वचन भी निभा लूँगी और अपना धर्म भी बचा लूँगी।
अपनी पत्नी मोहिनी की बात से माधव के मन का बोझ कुछ हल्का हुआ और उसने मोहिनी को राजकुंवर हर्षवर्धन के पास जाने की आज्ञा दे दी। मोहिनी सोलह शृंगार किए हुए ही छम-छम पायल बजाती राजकुंवर हर्षवर्धन के महल की तरफ रवाना हो गई।
रास्ते में कुछ चोर जा रहे थे. जब उन्होनें मोहिनी के पायल की आवाज सुनी तो वे उस तरफ गए जहाँ उन्होनेंमोहिनी को इतने गहने पहने जाते देखा। इतने गहने देख कर उनकी आँखे चौंधिया गई, उन्होनें लूटने के इरादे से मोहिनी को रोक लिया और उसे डराते हुए बोले,
चोर – रुको, चुपचाप अपने सारे गहने उतार कर हमें दे दो, नहीं तो हम तुम्हारी हत्या करके सारे जेवर ले लेंगे।
मोहिनी – (हाथ जोड़ कर) कृपा करके अभी मुझे छोड़ दीजिए अभी मैं किसी बहुत आवश्यक कार्य के लिए जा रही हूँ। वापस आकर मैं स्वयं अपने सारे जेवर उतार कर आपकों दे दूँगी।
चोर – तुम्हारा क्या भरोसा, तुम अपने साथ सिपाहियों को ले आओ और हमें पकड़वा दो। जब बाद में भी तुम अपने गहने हमें दे दोगी तो अभी क्यों नहीं? तुम तो अभी ही ये सारे गहने हमें दे दो।
मोहिनी – इस समय मैं अपने पति का वचन निभाने जा रही हूँ, जिसके लिए मेरे शरीर पर इन गहनों का होना अत्यंत आवश्यक है। मैं आपको वचन देती हूँ, अपने पति का वचन निभाने के बाद मैं आपको दिया हुआ वचन जरूर निभाऊँगी। मैं आपसे विनती करती हूँ, अभी मुझे जाने दीजिए।
चोरों आपस में विचार-विमर्श करने लगे। उन्होंने आपस में सलाह करी कि अभी इसे जाने देते है। यदि यह वापस आएगी तो हम इसे लूट लेंगे नहीं तो किसी दूसरे को ढूँढेंगे।
चोर – ठीक है, हम तुम्हें जाने देते है। लेकिन सुबह होने से पहले ही तुम वापस यहाँ आ जाना।
मोहिनी – ठीक है।
चोरों ने उसे जाने दिया। मोहिनी वहाँ से चल पड़ी और छम-छम पायल छनकाती राजकुंवर हर्षवर्धन के महल की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए उसके कक्ष में पँहुच गई। राजकुंवर हर्षवर्धन अपने शयनकक्ष में अपने पलंग पर गहरी नींद में सो रहा था। मोहिनी ने उसके पैर का अंगूठा मरोड़ कर उसे उठाते हुए कहा,
मोहिनी – जागो कुँवर सा जागो!
राजकुंवर हर्षवर्धन सकपका कर उठ बैठा। अपने सामने सोलह शृंगार किए अप्सरा के समान सुंदर स्त्री को देख कर चौंक गया। उसे लगा वह सपना देख रहा है। उसने अपने हाथों से अपनी आँखों को बार-बार मला और फिर देखा। यह सपना नहीं सच था, एक अप्सरा सी सुन्दर स्त्री उसके सामने खड़ी थी। उसने बड़ी विनम्रता से उससे पूछा,
हर्षवर्धन – हे देवी, आप कौन है? तुम कौन हो ? कहाँ से आई हो? इस तरह रात्री के इस वक्त मेरे शयन कक्ष में आने का आपका प्रयोजन क्या है?
मोहिनी – मैं आपके मित्र माधव की नवविवाहिता पत्नी मोहिनी हूँ, और मैं उनका वचन निभाने के लिए आपके पास आई हूँ।
हर्षवर्धन – वचन! कैसा वचन?
मोहिनी – आपके और आपके मित्र के मध्य लड़कपन में यह तय हुआ था कि जिसकी शादी पहले होगी वह सुहागरात वाले दिन अपनी पत्नी को अपने मित्र के पास भेजेगा। इसलिए उसी वचन को निभाने के लिए आपके मित्र माधव की आज्ञा से मैं यहाँ आपके पास आई हूँ।
राजकुंवर हर्षवर्धन को अपने लड़कपन मैं अपने मित्र के साथ की हुई बातचीत याद आ गई। वह बहुत शर्मिंदा हुआ। उसने हाथ जोड़ कर कहा,
हर्षवर्धन – हे देवी, मुझे माफ कर दीजिए। यह तो हमने लड़कपन की नादानी में एक दूसरे से वादा कर लिया था। यह कोई वचन नहीं, केवल बचपन की नादानी थी। मेरे मित्र की पत्नी तो मेरी भाभी हुई और भाभी तो माँ या बहन के समान होती है। मैं अपने बचपन की नादानी पर बहुत शर्मिंदा हूँ। मैं आज से ही आपको अपनी बहन बनाता हूँ।
इतना कहकर हर्षवर्धन ने मोहिनी को चुनड़ी ओढ़ाई और हीरे-मोतियों से भरा हुआ थाल देकर उसी समय विदा कर दिया।
मोहिनी छम-छम करती वापस अपने घर की तरफ चल पड़ी। रास्ते में चोर उसका इंतजार कर रहे थे। उसके पायाल की आवाज सुनकर वे छुप गए कि कहीं वह अपने साथ सिपाहियों को तो नहीं लेकेर आ गई। जब उन्हें तसल्ली हो गई कि वह अकेली ही है तो उन्होंने आपस में चर्चा करते हुए कहा,
चोर – अरे भाई, यह औरत तो सच में अपने वचन की पक्की है।
इतने में मोहिनी उनके पास पँहुच गई। उसने राजकुंवर हर्षवर्धन का दिया, हीरे-मोतियों का थाल भी उन्हें पकड़ाते हुए कहा,
मोहिनी – यह भी रख लीजिये, यह भी आपके भाग्य में ही था और बस थोड़ा रुकिए मैं अभी अपने सारे गहने उतार कर आपको देती हूँ।
इतना कहकर वह अपने गहने उतारने लगी। चोर आश्चर्य से उसका मुँह देखने लगे। उन्होनें उसे रोकते हुए कहा,
चोर – जरा रुको, पहले तुम हमें यह बताओ कि तुम कहाँ गई थी और यह हीरों का थाल तुम्हें कहाँ से मिला?
तब मोहिनी ने उन चोरों को पूरी कहानी विस्तार से सुनाई। सारी बात सुनने के पश्चात चोरों ने हाथ जोड़ते हुए कहा,
चोर – हे देवी, आप धन्य है, जो अपनी लाज की चिंता ना करके अपने पति का नादानी में दिया हुआ वचन निभाने के लिए राजकुंवर के पास चली गई। वह राजकुंवर भी धन्य है, जिन्होनें आपकी लाज नहीं लूटी बल्कि आपके मान की रक्षा करते हुए आपको अपनी बहन बनाकर आपका मान और बढ़ा दिया। आप जैसी चरित्रवान, पतिव्रता और धर्म का पालन करने वाली स्त्री को तो हम भी अपनी बहन बनाना चाहते है। क्या आप हम जैसे पापियों को अपना भाई बनाने का सम्मान प्रदान करेंगी?
मोहिनी की सहमति मिलने पर उन्होंने उससे अपनी कलाइयों पर रक्षा सूत्र बँधवाया और उसे उसका हीरों का थाल वापस दे दिया। इसके साथ ही उनके पास जो भी लूटा हुआ धन था, वह भी उसे दे दिया और उसे ससम्मान और सुरक्षित उसके घर तक पँहुचा दिया।
रानी चौबोली बोली दूसरा बोल
इतनी कहानी कहकर मटके में छिपे वीर ने राजा विक्रमादित्य से पूछा, “राजा विक्रमादित्य तुम तो अपने न्याय के लिए प्रसिद्ध हो, तो तुम्हीं बताओं किसकी भलमनसाहत और त्याग बड़ा था, राजकुंवर हर्षवर्धन का या चोरों का?
विक्रमादित्य – यह तो बिल्कुल साफ है कि राजकुंवर की ही भलमनसाहत और त्याग बड़ा था। वह चाहता तो मोहिनी की लाज लूट सकता था, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया बल्कि मोहिनी को अपनी बहन बनाकर उसका मान और बढ़ा दिया, साथ ही उसे हीरों का थाल भी भेंट में दिया।
राजा विक्रमादित्य की बात सुनकर रानी चौबोली गुस्से से उबल पड़ी, और वह गुस्से में राजा से बोली,
चौबोली – वाह राजा विक्रमादित्य! वाह, क्या न्याय किया है। क्या ऐसे ही न्याय करके तुम इतने प्रसिद्ध हुए हो? बड़ी भलमनसाहत और त्याग राजकुंवर हर्षवर्धन की नहीं चोरों की थी। राजकुंवर ने तो उसे बहन बना कर अपनी अथाह संपत्ति में से बस जरा से हीरे ही उसे दिए थे। जबकि चोरों ने ना केवल उसके जेवर और हीरों का थाल लौटाया, बल्कि उसे अपनी बहन बनाते हुए अपने पास जो कुछ भी था, वह भी दे दिया। फिर उन्होनें उसे सुरक्षित उसके घर तक भी पँहुचाया।
विक्रमादित्य – (शरारत भरी मुस्कान के साथ) अरे वाह चौबोली जी, आप तो बहुत बुद्धिमान भी निकली, आपने तो बिल्कुल खरा न्याय किया है। चोरों की ही भलमनसाहत बड़ी थी। मैं आपके न्याय से सहमत हूँ।
रानी चौबोली दूसरी बार बोल चुकी थी इसलिए विक्रमादित्य ने हँसते हुए ढोली से कहा,
विक्रमादित्य – बजा रे ढोली दो बार ढोल, चौबोली बोली दूजों बोल!
और ढोली ने ढोल पर दो डंके दे मारे। ढोल जोर से बजा – ढम-ढम
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रानी चौबोली तो अब ज़्यादा सतर्क होकर फिर से पाषाण बन कर बैठ गई। तब राजा विक्रमादित्य ने खिड़की की तरफ देखते हुए कहा,
विक्रमादित्य – ओ रे खिड़की, अब तो रानी चौबोली बोलेगी नहीं। दो घडी रात तो कट गयी है, लेकिन बिना बोले-सुने बाकी की रात कैसे कटेगी? अब तो तू ही कुछ बोल, कोई राज खोल।
खिड़की में बैठे वीर ने कहा, ठीक है राजा! आपका हुक्म सिर माथे, समय काटने के लिए मैं भी आपको एक कहानी सुनाती हूँ, आप हुंकारा देते जाना।
खिड़की में बैठे वीर ने कहानी सुनानी शुरू कर दी और राजा विक्रमादित्य भी जोर-जोर से हुँकारा भरने लगे।
तीसरी कहानी – महान कौन?
केशवगढ़ में एक ब्राह्मण काशीनाथ और एक साहूकार बंशीधर रहते थे। दोनों में बहुत गहरी मित्रता थी। दोनों का विवाह बचपन में ही हो चुका था, लेकिन गौना नहीं हुआ था। जवान होने पर दोनों एक साथ अपनी-अपनी पत्नी को लाने के लिए रवाना हुए। बंशीधर ने अपने साथ अपने नाई को भी ले लिया।
बहुत दूर तक साथ चलने के बाद वे एक ऐसी जगह पर पँहुच गए जहाँ से उन दोनों के ससुराल जाने का रास्ता अलग-अलग था। इसलिए अब यहाँ से उन्हें अलग-अलग मार्ग पर जाना था।
इसलिए दोनों ने यह तय करते हुए एक-दूसरे से विदा ली कि “वापस आते वक्त वे इसी जगह पर दुबारा मिलेंगे। जो भी पहले यहाँ पँहुचेगा वह यहीं रुककर दूसरे का इंतजार करेगा।”
यह तय करके दोनों अपने-अपने मार्ग पर चल दिए। कुछ समय बाद बंशीधर अपने नाई के साथ अपने ससुराल पँहुच गया। बंशीधर के साथ उसके नाई को साथ देखकर उसके ससुराल की एक बुजुर्ग महिला ने अपनी बहुओं को सलाह दी,
बुढ़िया – अरी छोरियों, जंवाई-सा के साथ, गाँव का नाई भी आया है। उसकी बहुत अच्छे से खातिर करना। कहीं कोई कमी ना रह जाए। नहीं तो वह अंबिका के ससुराल जाकर हमारे और हमारी बेटी के बारे में उलटी-सीधी बातें करेगा। अच्छी खातिर की तो यह अपने गाँव में हमारे बारे में अच्छी-अच्छी बातें करेगा और हमारी तारीफ भी करेगा जिससे हमारी बेटी अंबिका का मान उसके ससुराल में बढ़ जाएगा।
बस फिर क्या था, सारी बहूएं नाई की खातिरदारी में जुट गई। अब कोई जंवाई बंशीधर को पूछे ना पूछे नाई की खातिर में कोई कमी ना होने दे। खाना खिलाना हो या नाश्ता, बिस्तर लगाना हो या पंखा झलना, हर काम में पहले नाई की पूछ होने लगी।
यह देखकर बंशीधर तो मायूस होकर मन ही मन चिढ़े और नाई अपनी मूछों पर ताव देता हुआ अपनी और खातिरदारी करवाए। यह देख कर बंशीधर वापस अपने घर जाने की जल्दी मचाने लगा।
खैर तीन-चार दिन खातिर करने के बाद बंशीधर के ससुराल वालों ने अपनी बेटी अंबिका को उसके के साथ विदा कर दिया। उन्होंने उनके साथ एक घोडा गाड़ी पर बहुत सारा धन और समान भी दिया। घोडा गाड़ी में बैठ कर बंशीधर, अंबिका और नाई अपने घर के लिए रवाना हो गए। रास्ते में नाई बंशीधर के ससुराल वालों की तारीफ करते हुए बोले जा रहा था कि उसके ससुराल वालों ने तो अपने जंवाई से भी ज्यादा खातिर मेरी की।
उसकी बात सुन-सुन कर बंशीधर के मन में चिढ़न और गुस्सा बढ़ता जा रहा था। लेकिन नाई तो था कि चुप होने का नाम ही नहीं ले रहा था। उसके मुँह से उसकी मनुहार और खातिर की बात सुनकर वह इतना गुस्सा हो गया कि उसने अपनी पत्नी और नाई को वहीं रास्ते में छोड़ दिया ओर खुद अकेला ही अपने घर की तरफ निकल पड़ा। उसके जाने के बाद नाई ने भी अपने गाँव की राह पकड़ ली।
पति द्वारा बीच रास्ते में छोड़े जाने पर अंबिका भी क्या करती? वह भी दुखी मन से घोडा गाड़ी पर वापस अपने मायके जाने के लिए रवाना हो गई। लेकिन रास्ता भटक कर वह किसी अन्य नगर में पँहुच गई। नगर में घुसते ही एक मालिन का घर था। अंबिका ने उसे कुछ धन दिया और कुछ दिनों तक उसके साथ रहने के लिए उसे मना लिया।
अब अंबिका मालिन के साथ उसके घर पर ही रहने लगी। मालिन बगीचे से फूल तोड़कर उनकी मालाएं और गुलदस्ते बना कर राजा भानुप्रताप के महल में पँहुचाया करती थी। अंबिका भी इस काम में उसकी मदद करने लगी। मालिन बगीचे से फूल चुन-चुन कर लाती और अंबिका उनसे बहुत ही सुंदर-सुन्दर और अलग-अलग तरह की मालाएं और गुलदस्ते बना देती। जिन्हें मालिन राजमहल तक पँहुचा देती।
रोज नए-ने तरह के सुंदर और मनमोहक गुलदस्ते देखकर एक दिन राजा ने मालिन से पूछा,
राजा भानुप्रताप – आजकल तुम बहुत सुंदर और मनमोहक कारीगरी के गुलदस्ते और मालाएं बना-बना कर लाती हो। इतनी सुन्दर कारीगरी तो तुम नहीं कर सकती। सच-सच बताना, ये गुलदस्ते और मालाएं कौन बनाता है?
मालिन – महाराज, मेरे घर पर कुछ दिनों से एक स्त्री आकर ठहरी हुई है। वह बहुत ही गुणवान और बहुत अच्छी कारीगर है। वहीं रोज इतने सुंदर गुलदस्ते और मालाएं बनाती है।
राजा भानुप्रताप – तुम अभी अपने घर जाओ और उस स्त्री को मेरे सामने हाजिर करों।
मालिन अंबिका के पास गई और उसेराजा भानुप्रताप का हुक्म सुनाया। मालिन ने राजा के सामने जाने से मना किया, लेकिन मालिन मरती क्या ना करती अपनी जान बचाने के लिए राजा का हुक्म तो बजाना ही था, सो विनती करके वह अंबिका को राजमहल राजा के सामने ले आई। अंबिका के रूप और सौन्दर्य को देख कर राजा भानुप्रताप अंबिका पर मोहित हो गया।
उसके महल में उसके जैसी सुन्दर और गुणवान एक भी स्त्री नहीं थी। उसने उसे अपने महल में भिजवाने का हुक्म दे दिया। अंबिका ने विनती करते हुए राजा से कहा,
अंबिका – राजन, आप तो इस नगर के मालिक हो, इस नाते से आप तो मेरे पिता के समान हुए, फिर आप मुझे अपने महल में कैसे रख सकते है?
राजा भानुप्रताप – तुम हमारे नगर की नहीं हो, इसलिए हम तुम्हारे पिता नहीं हो सकते। तुम्हें हमारे महल में रहना ही पड़ेगा।
जब बहुत समझाने पर भी राजा भानुप्रताप नहीं माना तो अंबिका ने कहा,
अंबिका – महाराज, मैं एक ब्याहता हूँ, मेरे पति ने मेरा त्याग कर दिया था। एक ब्याहता स्त्री के साथ रहने से आपको भी पाप लगेगा। आप मुझे छह माह का समय दीजिए। यदि इस बीच मेरा पति मुझे लेने नहीं आया तो मैं अपने को अविवाहित ही समझूँगी और आपके महल में आ जाऊँगी।
यह सुनकर राजा भानुप्रताप ने उसे छह माह का समय दे दिया लेकिन उसे नगर के बाहर एक एकांत महल में नजर बंद कर दिया। अंबिका रोज महल के झरोखे से मार्ग पर देखती रहती कि कभी कोई भूले से ही उसके मायके या ससुराल से उस ओर आ जाए तो वह उसके साथ अपने हाल का संदेशा भिजवा सके।
उधर बंशीधर अपनी पत्नी का परित्याग करके उसी जगह पँहुच गया, जहाँ उसने काशीनाथ से मिलने का वादा किया था। काशीनाथ उससे पहले ही वहाँ पँहुच चुका था और अपनी पत्नी गौरी के साथ उसी का इंतजार कर रहा था। जब उसने बंशीधर को अकेले ही आया देखा तो पूछा,
काशीनाथ – अरे मित्र, तुम अकेले कैसे चले आ रहे हो? मेरी भाभी को कहाँ छोड़ आए? या मेरी भाभी ने तुम्हारे साथ आने से मना कर दिया।?
तब बंशीधर ने काशीनाथ को सारी घटना विस्तार से बाताई। तब काशीनाथ ने उसे धिक्कारते हुए कहा,
काशीनाथ – धिक्कार है मित्र, किसी और के अपराध का दंड तुमने अपनी निर्दोष पत्नी को दे दिया। यदि उसके घर वालों ने तुम्हारे नाई की खातिर तुमसे ज़्यादा कर दी तो इसमें भाभी का क्या दोष था? इतनी सी बात पर क्या कोई अपनी पत्नी को छोड़ देता है? मेरी राय में तो हमें अभी वापस चलकर भाभी को ले आना चाहिए।
बंशीधर ने काशीनाथ की बात मान ली। काशीनाथ ने अपनी पत्नी गौरी को पास ही एक गाँव में ठहरा दिया और स्वयं बंशीधर के साथ उसकी पत्नी अंबिका को लाने के लिए निकल पड़ा। बंशीधर ने अपनी ससुराल में लोगों से पता किया तो उसे मालूम हुआ कि उसकी पत्नी अपने मायके नहीं पहुँची थी। इसलिए वह अपनी ससुराल ना जाकर काशीनाथ के साथ अंबिका की तलाश में निकल पड़ा।
अंबिका को ढूंढते-ढूंढते वे दोनों भी उसी नगर में पँहुच गए। अंबिका ने महल के झरोखे से उन्हें आते देखा। उसने अपने पति को पहचान लियाआ और महल के सेवकों से कह कर उन्हें महल में बुला लिया।
महल में पँहुचने पर काशीनाथ ने अंबिका को अपना परिचय दिया और कहा,
काशीनाथ – भाभी, मेरे मित्र से गुस्से में आपको छोड़ने का अपराध हो गया। वह अपनी करनी पर शर्मिंदा है। अब आप भी बीती बातें भूल जाओ और हमारे साथ अपने घर चलों।
बंशीधर ने भी अंबिका से माफी मांगी और उसे अपने साथ घर चलने के लिए कहा। तब अंबिका ने उन दोनों को अपने साथ घटी सारी बातें विस्तार से बाताई और कहा,
अंबिका – पहले हम दोनों को राजा के सामने जाकर उनसे आज्ञा लेनी होगी।
दोनों राजा के सामने गए। अंबिका ने राजा से कहा,
अंबिका – मेरे पति मुझे लेने के लिए आ गए है, इसलिए कृपया अब आप हमें जाने की इजाजत दे दीजिए।
राजा भानुप्रताप ने भी अपने वचन का पालन करते हुए अंबिका को अपने पति के साथ जाने की इजाजत दे दी। वे तीनों वहाँ से निकल पड़े रास्ते में काशीनाथ ने अपनी पत्नी गौरी को भी अपने साथ ले लिया और सभी अपने नगर में आ गए और सुख से रहने लगे।
रानी चौबोली तीन बार बोली
कहानी सुनाने के बाद खिड़की में बैठे वीर ने कहा, ” हे राजा विक्रमादित्य, मैंने आपके न्याय की बहुत चर्चा सुनी है। अब आप ही मुझे बताए कि बंशीधर और अंबिका में से कौन ज्यादा महान था?
विक्रमादित्य – इसमें पूछना क्या है, यह तो बिल्कुल साफ है कि महानता तो बंशीधर की थी, जिसने अपनी त्यागी हुई पत्नी को दुबारा अपना लिया।
यह सुनकर रानी चौबोली के तन-बदन में आग लग गई। उससे चुप ना रहा गया। वह अंगारों भरी निगाहों से विक्रमादित्य को देखते हुए बोली,
चौबोली – अरे अधर्मी राजा, क्या ऐसा न्याय करके ही तू प्रसिद्ध हुआ है? इसमें बंशीधर की कौन सी महानता थी। उसने तो अपनी निर्दोष पत्नी को त्याग दिया था। अपने मित्र काशीनाथ के समझाने पर उसने अपनी पत्नी को वापस अपनाया था। महानता तो अंबिका की थी जिसे निर्दोष होते हुए भी उसके पति ने उसे त्याग दिया था। उसके पास रानी बनने का पूरा मौका था लेकिन फिर भी वह अपने पातिव्रत धर्म पर अडिग रही और अपना धर्म नहीं छोड़ा। ऐसी स्त्री तो पूजने लायक है, उसे अपनाने में कौन सी महानता?
राजा विक्रमादित्य ने शरारती मुस्कान से चौबोली की तरफ में देखते हुए कहा,
विक्रमादित्य – वाह रानी चौबोली, क्या न्याय किया है आपने! मैं तो आपके न्याय का कायल हो गया।
रानी चौबोली तीसरी बार बोल चुकी थी, इसलिए विक्रमादित्य ने ढोली से कहा,
विक्रमादित्य – बजा रे ढोली तीन बार ढोल, चौबोली बोली तीजो बोल!
और ढोली ने ढोल पर तीन डंके बजा दिए। ढोल बोल पड़ा – ढम-ढम-ढम!
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राजा विक्रमादित्य चौबोली की तरफ मुस्कुरा के देखने लगे। चौबोली भी उनकी चाल समझ गई थी। अब वह ज्यादा सतर्क होकर बैठ गई। उसने मन में निश्चय कर लिया कि अब चाहे कुछ भी हो जाए उसे चौथी बार नहीं बोलना है। ।
अब राजा विक्रमादित्य ने रानी चौबोली के गले के हार की तरफ देखते हुए कहा,
विक्रमादित्य – भाई हार, रात के तीन प्रहार तो मजे से कट गए। अब तो बस एक ही प्रहर बचा है। अब तू ही कुछ बात कर जिससे यह प्रहर भी जल्दी बीत जाए।
हार में बैठे चौथे वीर ने कहा, “ठीक है राजन, मैं भी आपको एक कहानी सुनाता हूँ। आप बस हुंकारे देते जाना।
हार में बैठे चौथे वीर ने कहानी कहनी शुरू जी और विक्रमादित्य ने हुंकारे देना!
चौथी कहानी – पति कौन?
एक नगर में एक ब्राहमण सचिदानन्द, एक सुनार पन्नामल, एक दर्जी रामभरोसे और एक खाती गोपीनाथ रहते थे। चारों बहुत अच्छे मित्र थे। एक बार उन्होनें आपस में सलाह की कि धन कमाने के लिए किसी दूसरे नगर में चला जाए।
यह सोच कर चारों अगले दिन सूरज निकालने से पहले ही अपने-अपने औजार लेकर कमाने के लिए दूसरे नगर के लिए निकल पड़े। पूरे दिन चलने के बाद वे एक जंगल में पँहुच गए। वहाँ पँहुच के उन्होंने रात को वहीं रुकने का निश्चय किया। चारों ने अपना डेरा वहीं डाल लिया।
भोजन पानी के बाद चारों ने आपस में सलाह की, “यदि हम सभी सो गए तो हो सकता है कोई हमारा सामान चुरा कर ले जाए। इसलिए हमें एक-एक करके एक-एक प्रहर तक जाग कर पहरा देना चाहिए।
सबसे पहले खाती गोपीनाथ की बारी आई। वह पहरा देने लगा। उसके तीनों मित्र सो गए। पूरे दिन पैदल चलने के कारण वह भी थका हुआ था, इसलिए उसे भी नींद आने लगी। लेकिन वह सो कैसे सकता था? इसलिए उसने पानी से अपना मुँह धोया, अपनी आँखों पर पानी के छींटे मारे। लेकिन इतने जतन करने पर भी उसकी आँखो से नींद नहीं गई।
तब उसने इधर-उधर देखा तो उसे लकड़ी का एक बड़ा लट्ठा दिखाई दिया। समय बिताने और नींद उड़ाने के लिए उसने अपने औजार निकाले और उस लट्ठे को तराशने लगा। प्रहर पूरा होने से पहले ही उसने उस लट्ठे को एक सुंदर पुतली में बदल दिया था। उसने उसके हाथों में चूड़ियाँ भी बना कर पहना दी।
एक प्रहर बीत चुका था। अगले प्रहर में पहरा देने के लिए उसने दर्जी रामभरोसे को उठा दिया और खुद सो गया। रामभरोसे ने उठ कर हाथ मुँह धोए और पहरा देने के लिए बैठ गया। तभी उसे वहाँ पर खाती के द्वारा बनाई गई लकड़ी की पुतली दिखाई दी। उसने उसे उठाकर अपने औजार और कपड़े निकाले। फिर सुई-धागे की मदद से उस पुतली को सुंदर कपड़े सिलकर पहना दिए। इसी काम में एक प्रहर और बीत गया।
तब उसने सुनार पन्नामल को उठाया और खुद सो गया। पन्नामल ने भी उठकर अपना मुँह धोया और पहरा देते हुए इधर से उधर घूमने लगा। तभी उसकी नजर लकड़ी की पुतली पर पड़ी। उसने भी अपने औजार निकाले और उसके लिए गहने बनाने लगा। तीसरा प्रहर समाप्त होते-होते उसने पुतली को सुंदर-सुंदर गहने बना कर पहना दिए।
अब चौथे प्रहर का पहरा देने की बारी ब्रह्मण सचिदानन्द की थी। इसलिए पन्नामल ने सचिदानंद को उठा दिया और खुद सो गया। सचिदानन्द भी हाथ-मुँह धोकर पहरा देने लगा। उसकी नजर भी सुंदर कपड़े और गहने पहने लकड़ी की पुतली पर पड़ी।
उसने पुतली को उठाया और उसे अपने सामने रख कर कुछ मंत्र पढ़ने लगा। मंत्र पढ़ते हुए उसने पुतली में प्राण डाल दिए। पुतली अब एक सुन्दर नवयुवती में बदल चुकी थी। तब तक एक प्रहार और बीत गया और सुबह हो गई। बाकी तीनों मित्र भी उठ गए। अपने सामने इतनी सुंदर युवती को देख कर उन्होंने सचिदानन्द से उसके बारे में पूछा,
पन्नमल – यह सुंदरी कौन है मित्र, और यहाँ कहाँ से आई है?
सचिदानन्द – मुझे तो यहाँ एक गहने और कपड़े पहने लकड़ी की पुतली मिली थी, मैंने अपने मंत्रों की शक्ति से इसमें प्राण डाल दिए। इसलिए अब यह मेरी पत्नी बनेगी।
तब खाती गोपीनाथ ने कहा,
गोपीनाथ – नहीं मित्र, इसे मैंने बनाया है, इसलिए इस पर मेरा अधिकार है। यह मेरी पत्नी बनेगी।
दर्जी रामभरोसे – मैंने इसको इतने सुंदर कपड़े सिल कर पहनाएं है, इसलिए इस पर तो मेरा हक है।
पणणंल – ऐसा कैसे हो सकता है? मैंने इसे सुंदर-सुंदर आभूषण बना कर पहनाए है, इसलिए यह तो मेरी ही पत्नी बनेगी।
इस प्रकार चारों उस युवती पर अपना-अपना हक जताते हुए एक-दूसरे से झगड़ने लगे।
रानी चौबोली चार बार बोली
इतनी कहानी सुनाने के बाद हार मं बैठे वर ने राजा विक्रमादित्य से पूछा, “हे राजन, आपका न्याय तो जग प्रसिद्ध है। अब आप ही न्याय करो कि उस पुतली का पति कौन होगा?
विक्रमादित्य – यह तो सीधी सी बात है, ब्राह्मण सचिदानंद ने उसमें प्राण डाल कर उसे जीवित किया है। इसलिए वह उसी की पत्नी बनेगी।
रानी चौबोली को गुस्सा तो आया लेकिन उसने तय कर लिया था कि इस बार कुछ नहीं बोलना है, इसलिए वह कुछ नहीं बोली। उसे इस तरह चुप देखकर राजा विक्रमादित्य ने हार से कहा,
विक्रमादित्य – अरे भाई हार, रानी चौबोली इस बार कुछ नहीं बोली। लगता है इस बार मैंने सही न्याय किया है।
हार मैं बैठा वीर – हाँ राजन, क्या खूब न्याय किया है आपने! आपकी तो जय-जयकार होनी चाहिए। बोलो राजा विक्रमादित्य की जय!
बाकी तीनों वीर – राजा विक्रमादित्य की जय! वाह-वाह क्या न्याय है।
इतना सुनते ही रानी चौबोली से रहा नहीं गया। वह गुस्से से बोल उठी,
चौबोली – इस गलत न्याय पर जय-जयकार कैसी? राजा विक्रमादित्य बड़े न्यायप्रिय बनते हो। लानत है तुम्हारे न्याय पर। पता नहीं तुम्हारा न्याय जग प्रसिद्ध कैसे हो गया! तुमको तो न्याय करना आता ही नहीं है। तुमने तो बिल्कुल धर्म विरुद्ध न्याय किया है। ब्राह्मण सचिदानंद ने उस पुतली में प्राण डाले थे अर्थात एक तरह से उसने उसे जन्म दिया था। इस तरह से तो वह उसका पिता हुआ। एक पिता अपनी पुत्री से विवाह करे इससे बड़ा नीच कर्म क्या हो सकता है।
कोई भी स्त्री केवल उसी की पत्नी होती है, जो उसको चूड़ियाँ पहनाता है। पुतली को चूड़ियाँ खाती गोपीनाथ ने पहनाई थी, इसलिए पुतली गोपीनाथ की पत्नी हुई।
राजा विक्रमादित्य ने शरारत से हँसते हुए रानी चौबोली की आँखों में आँखे डालते हुए कहा,
विक्रमादित्य – वाह-वाह! बहुत खूब, रानी चौबोली, आपने बिल्कुल धर्मोचित न्याय किया है। पुतली का पति खाती गोपीनाथ ही हो सकता है। लेकिन आप चार बार बोल चुकी हैं, अब तो बस मेरे साथ चलने की तैयारी कर लो।
रानी चौबोली ने शरमाकर अपनी आँखे झुका ली। रानी चौबोली चार बार बोल चुकी थी इसलिए राजा विक्रमादित्य ने ढोली से कहा,
विक्रमादित्य – बजा रे ढोली चार बार ढोल, चौबोली बोली चौथो बोल!
और ढोली ने चार डंके मार कर ढोल को चार बार बजा दिया – ढम-ढम-ढम-ढम!
रानी चौबोली चार बार बोल चुकी थी और वह शर्त हार गई थी। शर्त के मुताबिक उसका विवाह राजा विक्रमादित्य के साथ हो गया। राजा विक्रमादित्य ने रानी चौबोली से सभी बंदी राजाओं को आजाद करने के लिए कहा। रानी चौबोली ने सभी राजाओं को सम्मान सहित उनका राजपाट लौटाते हुए मुक्त कर दिया और खुद राजा विक्रमादित्य के साथ उनकी नगरी के लिए चल पड़ी।
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तो दोस्तों, कैसी लगी रानी चौबोली की कहानी! मजा आया ना, आशा करती हूँ आप लोगों ने खूब enjoy किया होगा। फिर मिलेंगे कुछ सुनी और कुछ अनसुनी कहानियों के साथ। तब तक के लिए इजाजत दीजिए।
पिछली कहानी – अपने भाग्य पर विश्वास करने वाली राजकुमारी की कहानी – बाप भागी या आप भागी
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