अंधेर नगरी चौपट राजा – Andher Nagari Choupat Raajaa
सुनी-अनसुनी कहानियाँ – अंधेर नगरी चौपट राजा – Andher Nagari Choupat Raajaa
बहुत समय पहले की बात है, कोशी नदी के किनारे एक साधु नारायण दास अपने शिष्य गंगाधर के साथ रहते थे। दोनों हर समय भगवान का भजन-कीर्तन और ध्यान करते रहते थे।
एक बार उन्होनें सोचा कि देश भ्रमण के लिए चला जाए। देश के सारे तीर्थ स्थलों के दर्शन भी कर लेंगे और सुंदर-सुंदर नगरों का भ्रमण करके उनके बारें में जानकारी भी प्राप्त कर लेंगे। यह सोच दोनों ने जरूरत भर का सामान अपने झोले में डाला और झोला उठाकर निकल पड़े देशाटन के लिए।
वे अलग-अलग नगरों में जाते, वहाँ कुछ दिन रुक कर वहाँ के तीर्थ स्थलों के दर्शन करते और वहाँ लोगों से मिलते और वहाँ के रहन-सहन आदि के बारें में जानकारी प्राप्त करते। फिर दूसरे नगर के लिए निकल पड़ते। लोगों से भिक्षा माँग कर वे अपना गुजारा करते थे।
अंधेर नगरी चौपट राजा
ऐसे ही घूमते-घूमते एक दिन वे एक अनजान नगर में पँहुचे। वहाँ एक बगीचे में दोनों ने अपना डेरा जमा लिया और एक छोटी सी कुटिया बना ली। नारायणदास ने अपने शिष्य गंगाधर को एक टका देकर कहा,
नारायण दास – बेटा गंगाधर, बाजार जाकर एक टके की भाजी लेकर आ जाओं।
गंगाधर – ठीक है गुरुजी।
गंगाधर एक टका लेकर बाजार चला गया। जैसे ही वह बाजार में प्रवेश करता है, उसे वहाँ सामान बेचने वालों की आवाज सुनाई देने लगती है। कबाबवाला हो या चने मसाले वाला, भाजी वाला हो या फल वाला, मिठाई वाला हो या नमकीन वाला, सभी अपना-अपना सामान टके सेर में बेच रहे थे।
टके सेर भाजी टके सेर खाजा
यह सब देख कर गंगाधर को बहुत हैरानी हुई, वहाँ तो सब चीजे एक ही भाव में बिक रही थी। फिर भी तसल्ली करने के लिए वह भाजी वाले के पास गया और भाजी के दाम पूछे,
गंगाधर – भैया, आलू कैसे दिए?
भाजीवाला – टके के एक सेर।
गंगाधर – और टमाटर?
भाजीवाला -टके के एक सेर.
गंगाधर – मिर्च?
भाजीवाला – अरे भाई सारी भाजियाँ टके की एक सेर है, जो चाहे ले लो।
तभी उसे मिठाई की दुकान दिखाई दी। वहाँ स्वादिष्ट मिठाइयाँ बिक रही थी। मिठाइयाँ देखकर उसके मुँह में पानी आ गया। उसने सोचा, “एक बार मिठाइयों का भी भाव पूछ लूँ।” यह सोच कर वह मिठाई वाले के पास गया। वहाँ स्वादिष्ट खाजे, गुलाब जामुन, जलेबी आदि रखे हुए थे उसने मिठाई वाले से खाजे का भाव पूछा,
गंगाधर – भैया, ये खाजे कैसे दिए?
मिठाई वाला – टके के सेर।
गंगाधर – गुलाब जामुन?
मिठाई वाला – टके के सेर।
गंगाधर – बर्फी?
मिठाई वाला – कोई सी भी मिठाई ले जाओं सभी का दाम टके सेर ही है।
गंगाधर – वाह भाई, यह नगर तो बड़ा अजीब है। यहाँ तो सभी चीजे एक ही दाम, टके की सेर बिकती है। इस नगर का नाम क्या है?
मिठाई वाला – अंधेर नगरी
गंगाधर – और यहाँ का राजा कौन है?
मिठाई वाला – राजा चौपट।
धोती पकड़ के भागों
उसने मन में सोचा भाजी तो रोज ही खाते है, यहाँ इतनी सस्ती मिठाइयाँ मिल रही है। क्यों ना आज मिठाई ही खाई जाए। यह सोच कर उसने एक टके की कुछ मिठाइयाँ ली और “अंधेर नागरी चौपट राजा, टकर सेर भाजी टके सेर खाजा” गाते हुए वापस कुटिया में आ गया। कुटिया में आकर उसने अपने गुरु नारायण दास को बाजार का सारा हाल बताते हुए कहा,
गंगाधर – गुरुजी, यह नगरी तो बड़ी अजीब है। यहाँ तो सभी वस्तुएं एक ही दाम पर बिक रही है। बाजार में मिठाइयाँ इतनी सस्ती मिल रही थी कि मैं भाजी की जगह यह मिठाइयाँ ही ले आया।
गंगाधर की बात सुनकर गुरुजी ने अपनी आँखे बंद करके ध्यान लगाया और गंगाधर से कहा,
नारायण दास – बेटा गंगाधर, हमें जितना जल्दी हो यह नगर छोड़कर चले जाना चाहिए, नहीं तो यहाँ हमारी जान भी जा सकती है।
गंगाधर – वह कैसे गुरुजी?
नारायण दास – यह अंधेर नगरी है, यहाँ पर रहने वाले सभी मूर्ख है और यहाँ का राजा तो महामूर्ख है। जिसे ढंग से ना तो राजकाज आता है और ना ही न्याय करना। हम कभी भी मुसीबत में पड़ सकते है।
गंगाधर – लेकिन गुरुजी, इस नगरी में चीजे कितनी सस्ती मिलती है। यहाँ तो हम कम पैसों में ही अच्छा जीवन जी सकते है। गुरुजी मैं तो अभी यहीं रुक कर खाने-पीने का आनंद लेना चाहता हूँ।
नारायण दास – बेटा, तुम यहाँ रहना चाहते हो तो शौक से रहो और टके सेर की मिठाइयों का लुत्फ उठाओ। लेकिन मैं तो अब यहाँ एक पल भी नहीं रुकूँगा। जब भी तुम किसी मुसीबत में फँसो तब अपने गुरु को जरूर याद कर लेना।
इतना कहर नारायण दास गंगाधर को वहीं छोड़कर चले गए।
गंगाधर की तो वहाँ पर मौज हो गई। रोज सुबह भिक्षा माँगने जाता। एक दो रुपये जो भी मिलते उससे खूब सारी मिठाइयाँ, दूध, दही, फल आदि खरीदता और छक के खाता। कुछ ही दिनों में खा-खा कर वह मुस्टंडा हो गया।
मुझे न्याय चाहिए महाराज!
एक दिन उस नगर के कल्लू बनिए की दीवार गिर पड़ी और उसके नीचे उसी नगर में रहने वाली विधवा कलावती की बकरी दब कर मर गई। कलावती रोते-कलपते फरियाद लेकर राजा चौपट के दरबार में पहुँची।
कलावती – दुहाई हो महाराज, दुहाई हो।
राजा चौपट जी अपने सिंहासन पर बैठे ऊंघ रहे थे। उसकी आवाज से ऐसे हड़बड़ा कर उठे कि सिंहासन से नीचे गिर पड़े। उनका मुकुट सर से निकल कर दूर जा गिरा।
उनके दो सेवकों ने मिलकर उन्हें उठाया और सिंहासन पर बैठाया फिर मुकुट उठाकर उनके सिर पर रखा। अपने अपने हाथ-पैरों को संभालते हुए वे बोले,
राजा चौपट – कौन है, जो दरबार में आकर इतनी जोर से चिल्लाई, उसे सौ कोडे लगाए जाए।
संतरी – महाराज, फरियादी है, फरियाद लेकर आई है।
राजा चौपट – क्या फरियाद है तुम्हारी?
कलावती – महाराज, मेरा तो जीने का सहारा छिन गया।
राजा चौपट – वो कैसे?
कलावती – महाराज, कल्लू बनिए की दीवार गिर गई जिसके नीचे मेरी बकरी दब कर मर गई। मेरा तो गुजरा उसका दूध बेच कर चलता था। मुझे इंसाफ चाहिए महाराज।
अनोखा मुकदमा
राजा चौपट – इंसाफ तो होगा, जान के बदले जान मिलेगी। सेवक जाओं कल्लू बनिए की दीवार को पकड़ कर लाओ।
संतरी – महाराज, दीवार तो गिर गई।
राजा चौपट -तो उसके किसी भाई-बंधु या रिश्तेदार को पकड़कर लाओ.
संतरी – महाराज, दीवार तो ईंट-चुने की बनी होती है, उसका कोई भाई-बंधु या रिश्तेदार नहीं होता। बस मालिक होता है।
राजा चौपट -उस दीवार का मालिक कौन है?
संतरी – कल्लू बनिया महाराज।
राजा चौपट -तो कल्लू बनिए को पकड़कर लाओ।
सेवक कल्लू बनिए को पकड़ कर लाते है।
राजा चौपट – क्यों रे बनिए, इस औरत की लरकी, लरकी नहीं बरकी तुम्हारी दीवार के नीचे दब कर मर गई?
संतरी – बरकी नहीं, बकरी महाराज.
राजा चौपट -हाँ वही, मर गई। बता क्यों मर गई, नहीं तो तुझे अभी फांसी पर चढ़ा देंगे।
कल्लू बनिया – महाराज, इसमें मेरा कोई दोष नहीं है, कारीगर का है। उसने दीवार ही ऐसी बनाई थी कि वह गिर गई।
राजा चौपट – यह सही कह रहा है। इसे छोड़ दो कारीगर को पकड़ कर लाओ।
सेवक कारीगर को पकड़कर लाते है.
राजा चौपट -क्यों रे कारीगर, तूने दीवार ऐसी क्यों बनाई, जिससे वह गिर गई और बकरी को मार डाला?
कारीगर – दुहाई हे महाराज, इसमें मेरा कोई दोष नहीं, चूनेवाले ने मसाला सही नहीं तैयार किया था। इस कारण दीवार सही नहीं बनी।
राजा चौपट -इस कारीगर को छोड़ दो। पान-सुपारी वाले को पकड़पर लाओ।
संतरी – पान-सुपारी वाला नहीं चूनेवाला महाराज।
राजा चौपट – हाँ-हाँ, उसी को पकड़कर लाओ।
सेवक चूनेवाले को पकड़कर लाते है।
राजा चौपट -क्यों रे चुने वाले तूने मसाला ऐसा क्यों बनाया कि दीवार ने बकरी को मार डाला?
चूनेवाला – जान की माफी हो सरकार, इसमें मेरा नहीं भिश्ती का दोष है, उसने चुने में पानी ज्यादा डाल दिया था, जिस कारण मसाला कमजोर बना और दीवार गिर गई।
राजा चौपट -इसको छोड़ दो और चिश्ती, नहीं-नहीं भिश्ती को पकड़कर लाओ।
भिश्ती को पकड़कर दरबार में लाया जाता है।
राजा चौपट -क्यों रे भिश्ती, तूने चूने में इतना पानी क्यों डाल दिया कि बकरी दीवार पर गिर पड़ी और मर गई।
संतरी – दीवार बकरी पर गिरी महाराज।
राजा चौपट – हाँ वहीं।
भिश्ती – इसमें इस गुलाम का कोई दोष नहीं महाराज, वह तो कसाई ने मसक ही बड़ा बना दिया था। जिससे उसमें पानी ज्यादा आ गया।
राजा चौपट – ठीक है, ठीक है। भिश्ती को छोड़ दो, कसाई को पकड़कर लाओ।
तो भाई, अब कसाई को पकड़ कर दरबार में लाया जाता है।
राजा चौपट – क्यों बे कसाई, तूने मसक इतनी बड़ी क्यों बनाई कि उसकी वजह से दीवार ने बकरी को मार डाला।
कसाई – जान की माफी हुजूर, यह तो गड़रिये का कसूर है, उसने मुझे बड़ी भेड़ बेची जिससे मसक बड़ी बन गई।
राजा चौपट – इसको छोड़ो गड़रिये को पकड़ो।
तो बेचारे सैनिक भागे-भागे जाते है और गड़रिये कोपकड़ कर दरबार में लाते है।
राजा चौपट – अरे गंवार गड़रिये, तूने कसाई को बड़ी भेड़ क्यों बेची कि उसने बकरी को मार डाला।
कसाई – महाराज, इसमें मेरा कोई कुसूर नहीं है. जब मैं भेद छांट रहा था तो कोतवाल साहब की सवारी आ गई। उसे देख कर मैँ घबरा गया और मुझे छोटी बड़ी भेड़ का ध्यान नहीं रहा।
राजा चौपट – इसको छोड़ो और कोतवाल को हाजिर करों।
कोतवाल को दरबार में बुलाया जाता है।
राजा चौपट – क्यों रे कोतवाल, तुमने ऐसी धूम-धाम से अपनी सवारी क्यों निकाली, जिस कारण गड़रिया घबरा गया, जिससे उसने कसाई को बड़ी भेड़ बेच दी और बकरी मर गई।
कोतवाल – महाराज, मैं तो पूरे नगर के लोगों की सुरक्षा के लिए सवारी निकाली थी।
और फैसला हो गया?
संतरी – (मन-ही-मन सोच कर, “कहीं ऐसा ना हो राजा पूरे शहर को ही आग ना लगवा दे या सभी को फाँसी पर चढ़ाने का हुक्म दें दे।”) नगर की सुरक्षा के लिए तो बिना धूम-धाम के भी सवारी निकाली जा सकती थी। यह सब तुम्हारी ही गलती है।
राजा चौपट – राजा – हाँ-हाँ, सब कोतवाल की ही गलती है, इसे फाँसी पर चढ़ा दो।
कोतवाल – महाराज-महाराज, इसमें मेरा कोई कुसूर नहीं है महाराज। मुझ पर दया कीजिए।
राजा चौपट – फैसला हो गया। दरबार समाप्त।
कोतवाल को फाँसी के लिए फाँसी स्थल पर ले जाया जाता है। जल्लाद को बुलाया जाता है। जल्लाद हाथ में फाँसी का फंदा लेकर आता है और कोतवाल के गले में डालता है। अब कोतवाल मियाँ तो दुबले पतले और फाँसी का फंदा बड़ा। फंदा कोतवाल जी के गले में ढीला रह जाता है।
तो भाई, अब जल्लाद जी हैरान-परेशान! अब कोतवाल को फाँसी पर कैसे चढ़ाएं, सो पँहुच गए राजा चौपट जी के पास।
जल्लाद – महाराज-महाराज, गजब हो गया, फाँसी का फंदा तो कोतवाल के गले में ढीला पड़ रहा है।
राजा चौपट – तो क्या किया जाए?
जल्लाद – महाराज आप ही कुछ फैसला करें।
न्याय तो करना ही होगा!
राजा चौपट – (इधर-उधर टहल कर कुछ सोचते है) किसी ऐसे व्यक्ति को ढूंढा जाए, जिसके गले में यह फंदा बिल्कुल सही आ जाए और उसे ही फाँसी पर चढ़ा दिया जाए।
जल्लाद – हाँ-हाँ, यही सही रहेगा महाराज।
राजा चौपट – जल्लाद, तुम कोतवाल के साथ जाओ और ऐसे व्यक्ति को तलाश कर के लाओ, जिसके गले में यह फंदा सही आ जाये और उसे ही फाँसी पर चढ़ा दो। बकरी मरी है तो न्याय तो करना पड़ेगा। किसी ना किसी को तो फाँसी देनी ही होगी।
तो भैया, जल्लाद जी फंदा हाथ में ले कोतवाल जी के साथ निकल पड़े सही व्यक्ति की तलाश में। वे नगर में सबके गले में फंदा डाल-डाल कर देखते, लेकिन फंदा किसी के भी गले में नहीं सही नहीं आया। किसी के ढीला रह जाता तो किसी के गले में ही नहीं आता।
खोज करते-करते वे दोनों गंगाधर की कुटिया पर पँहुच गए। गंगाधर जी मस्त मिठाई खा कर खटिया पर पसरे हुए थे। जल्लाद ने उसके गले में फंदा डाल कर देखा, उसके गले में फंदा बिल्कुल सही आ गया।
कोतवाल – चलो, हमारे साथ.
गंगाधर – कहाँ?
कोतवाल – तुम्हें फाँसी पर चढ़ाना है।
गंगाधर – फाँसी पर? लेकिन मैंने तो कोई अपराध नहीं किया।
कोतवाल – हाँ, तुमने तो कोई अपराध नहीं किया, लेकिन यह फंदा तुम्हारे गले की नाप का है, इसलिए फाँसी तुम्हें ही लगेगी। यही राजा की आज्ञा है।
गंगाधर चिल्लाता रहा लेकिन जल्लाद और कोतवाल ने उसकी एक ना सुनी और उसे पकड़ कर फाँसी स्थल पर ले गए।
जब उसे फाँसी पर लटकाने लगे तो वह राजा से बोला,
गंगाधर – दुहाई हो महाराज! मैंने तो कोई अपराध नहीं किया है, फिर मुझे फाँसी पर क्यों लटका रहे हो?
राजा चौपट – कलावती की बकरी कल्लू की दीवार के नीचे दब कर मर गई। उसे न्याय देने के लिए किसी को तो फाँसी पर लटकाना पड़ेगा। फंदा तुम्हारे नाप का है, इसलिए तुम्हें फाँसी पर लटका रहे है।
गुरुजी बचा लो
गंगाधर को अपने गुरुजी की बात याद आ गई। वह पछताने लगा कि उसने अपने गुरुजी की बात क्यों नहीं मानी। हे गुरुजी अब तो बस आपका ही आसरा है। उसने राजा चौपट से कहा,
गंगाधर – महाराज, मरने वाले की अंतिम इच्छा को जरूर पूरा किया जाता है। मेरी भी एक इच्छा है, जिसे मैं मरने से पहले पूरी करना चाहता हूँ।
राजा चौपट – क्या इच्छा है तुम्हारी। हम तुम्हारी आखिरी इच्छा जरूर पूरी करेंगे।
महाराज कोशी नदी के तट पर मेरे गुरुजी नारायण दास जी रहते है। मरने से पहले एक बार मैं अपने गुरुजी से मिलना चाहता हूँ।
राजा चौपट – ठीक है, गंगाधर के गुरुजी को यहाँ लाया जाए।
नारायण दास को वहाँ लाया जाए। गंगाधर को फाँसी स्थल पर खड़ा देखकर गुरुजी सारी बात समझ गए। वे गंगाधर के पास जाकर उसे अपने गले से लगा लेते है। गंगाधर रोते हुए उनसे बोला,
गंगाधर – गुरुजी, मुझे माफ कर दो, मैंने आपकी बात नहीं मानी, मुझे उसी की सजा मिली है। अब आप ही मुझे बचा सकते है।
स्वर्ग तो मैं ही जाऊँगा!
नारायण दास ने गंगाधर के कान में धीरे से कुछ कहा। फिर गंगाधर को खींचते हुए कहा,
नारायण दास – तुम हटो फाँसी हम चढ़ेंगे।
गंगाधर – नहीं गुरुजी नहीं अब तो फाँसी हम ही चढ़ेंगे।
नारायण दास – तुमने आज तक हमें हमारी गुरु दक्षिणा नहीं दी, आज हम गुरु दक्षिणा में मांगते है कि तुम मुझे फाँसी पर चढ़ने दो।
गंगाधर – नहीं गुरुजी, हमें गुरु दक्षिणा नहीं देने का पाप मंजूर है लेकिन फाँसी तो अब हम ही चढ़ेंगे।
अब अब कभी गुरुजी गंगाधर को हटाकर फांसी का फंदा अपने गले में डाले तो कभी गंगाधर!
ये तमाशा देखकर राजा चौपट सहित सभी आश्चर्य में पड़ गए। राजा ने कहा,
राजा चौपट – फाँसी के नाम से तो बड़े-बड़ों के होश उड़ जाते है। और तुम दोनों इसके लिए झगड़ रहे हो? इसका क्या रहस्य है?
नारायण दास – अरे महाराज, आप जान कर क्या करेंगे, बस आप तो मेरे शिष्य की जगह मुझे फाँसी पर चढ़ाने का हुक्म दे दीजिए।
अब तो राजा के पेट में मरोड़े उठने लगे। उसने कहा,
राजा चौपट – यदि आपने हमें नहीं बताया तो हम यह फाँसी रोक देंगे।
नारायण दास – नहीं-नहीं महाराज, फाँसी मत रोकिए। यदि शुभ मुहूर्त निकल गया तो बहुत बुरा होगा।
गुरुजी ने बोलते-बोलते अपने मुँह पर हाथ लगा लिया।
राजा चौपट – मुहूर्त! कैसा मुहूर्त?
नारायण दास – महाराज, मैंने ज्योतिष के अध्ययन से गणना की है कि आज का यह मुहूर्त हजारों वर्षों में आता है। आज के इस मुहूर्त में जो भी फाँसी पर चढ़ेगा, उसे स्वर्ग मिलेगा और अगले जन्म में इस राज्य से भी पाँच गुणा बड़ा राज्य प्राप्त होगा।
गुरुजी की बात सुनते ही क्या कोतवाल क्या सिपाही, क्या मंत्री क्या सेवक सभी फाँसी स्थल की तरफ दौड़ पड़े और लगे एक दूसरे को खींच-खींच कर फाँसी का फंदा अपने गले में डालने। तभी राजा चौपट ने चिल्लाते हुए कहा,
राजा चौपट – सभी वहाँ से हट जाओ। मैं राजा हूँ, स्वर्ग में जाने का सबसे पहला अधिकार मेरा है। इसलिए मैं फाँसी पर चढ़ूँगा।
सभी हट जाते है। राजा चौपट जी सीना तान कर फाँसी स्थल तक आते है और फंदा अपने गले में डाल कर जल्लाद से कहते है।
राजा चौपट – मुझे फाँसी पर चढ़ा दो। जल्दी करो, कहीं मुहूर्त ना निकल जाए।
जल्लाद राजा चौपट को फाँसी पर चढ़ा देता है। इस बीच गंगाधर और नारायण दास चुपके से वहाँ से खिसक जाते है।
और दोस्तों तभी से “अंधेर नगरी चौपट राजा” कहावत प्रचलित हो गई।
“अंधेर नगरी चौपट राजा” नाटक प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार भारतेन्दु हरिशचंद द्वारा लिखा गया था। भारतेंदु ने इसकी रचना बनारस के हिंदू नेशनल थियेटर के लिए एक ही दिन में की थी।
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तो दोस्तों, कैसी लगी कहानी अंधेर नगरी चौपट राजा! मजा आया ना, आशा करती हूँ आप लोगों ने खूब enjoy किया होगा। फिर मिलेंगे कुछ सुनी और कुछ अनसुनी कहानियों के साथ। तब तक के लिए इजाजत दीजिए।
पिछली कहानी – किसान की पत्नि के अपराध के दंड की कहानी – देर है पर अंधेर नहीं
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