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एक दिन हनुमानजी जब सीता जी की शरण में आए, नैनों में जल भरा हुआ है बैठ गए शीश झुकाए,
सीता जी ने पूछा उनसे कहो लाडले बात क्या है, किस कारण ये छाई उदासी, नैनों में क्यों नीर भरा है ?
हनुमान जी बोले मैया आपनें कुछ वरदान दिए हैं, अजर अमर की पदवी दी है, और बहुत सम्मान दिए हैं, अब मैं उन्हें लौटानें आया, मुझे अमर पद नहीं चाहिए, दूर रहूं मैं श्री चरणों से, ऐसा जीवन नहीं चाहिए।
सीता जी मुस्काकर बोली बेटा ये क्या बोल रहे हो, अमृत को तो देव भी तरसे, तुम काहे को डोल रहे हो?
इतने में श्रीराम प्रभु आ गए और बोले, क्या चर्चा चल रही है मां बेटे में………….??
तब सीताजी बोली सुनो नाथ जी, ना जाने क्या हुआ हनुमानको, पदवी अजर-अमर लौटानें आया है ये मुझको।
राम जी बोले क्यों बजरंगी ये क्या लीला नई रचाई, कौन भला छोड़ेगा , अमृत की ये अमर कमाई!!
हनुमानजी रोकर बोले, आप साकेत पधार रहे हो, मुझे छोड़कर इस धरती से, आप वैकुंठ सिधार रहे हो, आप बिना क्या मेरा जीवन अमृत का विष पीना होगा, तड़प-तड़प कर विरह अग्नि में जीना भी क्या जीना होगा!!
हनुमान जी बोले प्रभु अब आप ही बताओ, आप के बिना मैं यहां कैसे रहूंगा??
तब इस पर प्रभु श्रीराम बोले….
हनुमान सीता का यह वरदान सिर्फ आपके लिए ही नहीं है, बल्कि यह तो संसार भर के कल्याण के लिए है, तुम यहां रहोगे, और संसार का कल्याण करोगे।
मांगो हनुमान वरदान मांगो:-
इस पर श्री हनुमानजी बोले।
जहां जहां पर आपकी कथा हो, आपका नाम हो, वहां-वहां पर मैं उपस्थित होकर हमेशा आनंद लिया करूं,
सीताजी बोलीं देदो प्रभु देदो,
तब भगवान राम नें हंसकर कहा, तुम नहीं जानती सीता ये क्या मांग रहा है, ये अनगिनत शरीर मांग रहा है, जितनी जगह मेरा पाठ होगा उतनें शरीर मांग रहा है,
तब सीताजी बोलीं, तो दे दो फिर क्या हुआ, आपका लाडला है।
तब इस पर प्रभु श्रीराम बोले ,तुम्हारी इच्छा पूर्ण होगी, वहां विराजोगे बजरंगी, जहां हमारी चर्चा होगी, कथा जहां पर राम की होगी, वहां ये राम दुलारा होगा, जहां हमारा चिंतन होगा, वहां पे जिक्र तुम्हारा होगा।
कलयुग में मुझसे भी ज्यादा पूजा हो हनुमान तुम्हारी, जो कोई तुम्हरी शरण में आए, भक्ति उसको मिले हमारी,, मेरे हर मंदिर की शोभा बनकर आप विराजोगे, मेरे नाम का सुमिरन करके सुधबुध खोकर नाचोगे।।
नाच उठे ये सुन बजरंगी, चरणन शीश नवाया,
दुख-हर्ता सुख-कर्ता प्रभु का, प्यारा नाम ये गाया।।
जय सियाराम जयजय सियाराम,
जय सियाराम जयजय सियाराम।।
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।।”द्रौपदी का कर्ज”।। इस्को पढ कर आप जरूर अपबोट करेंगे
अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा महल में झाड़ू लगा रही थी तो द्रौपदी उसके समीप गई उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए बोली, “पुत्री भविष्य में कभी तुम पर घोर से घोर विपत्ति भी आए तो कभी अपने किसी नाते-रिश्तेदार की शरण में मत जाना। सीधे भगवान की शरण में जाना।” उत्तरा हैरान होते हुए माता द्रौपदी को निहारते हुए बोली, “आप ऐसा क्यों कह रही हैं माता ?”
द्रौपदी बोली, “क्योंकि यह बात मेरे ऊपर भी बीत चुकी है। जब मेरे पांचों पति कौरवों के साथ जुआ खेल रहे थे, तो अपना सर्वस्व हारने के बाद मुझे भी दांव पर लगाकर हार गए। फिर कौरव पुत्रों ने भरी सभा में मेरा बहुत अपमान किया। मैंने सहायता के लिए अपने पतियों को पुकारा मगर वो सभी अपना सिर नीचे झुकाए बैठे थे। पितामह भीष्म, द्रोण धृतराष्ट्र सभी को मदद के लिए पुकारती रही मगर किसी ने भी मेरी तरफ नहीं देखा, वह सभी आँखें झुकाए आँसू बहाते रहे। सबसे निराशा होकर मैंने श्रीकृष्ण को पुकारा, “आपके सिवाय मेरा और कोई भी नहीं है, तब श्रीकृष्ण तुरंत आए और मेरी रक्षा की।”
जब द्रौपदी पर ऐसी विपत्ति आ रही थी तो द्वारिका में श्री कृष्ण बहुत विचलित होते हैं। क्योंकि उनकी सबसे प्रिय भक्त पर संकट आन पड़ा था। रूकमणि उनसे दुखी होने का कारण पूछती हैं तो वह बताते हैं मेरी सबसे बड़ी भक्त को भरी सभा में नग्न किया जा रहा है। रूकमणि बोलती हैं, “आप जाएँ और उसकी मदद करें।” श्री कृष्ण बोले, “जब तक द्रोपदी मुझे पुकारेगी नहीं मैं कैसे जा सकता हूँ। एक बार वो मुझे पुकार लें तो मैं तुरंत उसके पास जाकर उसकी रक्षा करूँगा। तुम्हें याद होगा जब पाण्डवों ने राजसूर्य यज्ञ करवाया तो शिशुपाल का वध करने के लिए मैंने अपनी उंगली पर चक्र धारण किया तो उससे मेरी उंगली कट गई थी। उस समय “मेरी सभी पत्नियाँ वहीं थी। कोई वैद्य को बुलाने भागी तो कोई औषधि लेने चली गई। मगर उस समय मेरी इस भक्त ने अपनी साड़ी का पल्लू फाड़ा और उसे मेरी उंगली पर बाँध दिया। आज उसी का ऋण मुझे चुकाना है, लेकिन जब तक वो मुझे पुकारेगी नहीं मैं जा नहीं सकता।” अत: द्रौपदी ने जैसे ही भगवान कृष्ण को पुकारा प्रभु तुरंत ही दौड़े गए।
।।🚩श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी हे नाथ नारायण बासुदेव🚩।।
गिलहरी का रामसेतु बनाने में योगदान…
माता सीता को वापस लाने के लिए रामसेतु बनाने का कार्य चल रहा था। भगवान राम को काफी देर तक एक ही दिशा में निहारते हुए देख लक्ष्मण जी ने पूछा भैया आप इतनी देर से क्या देख रहें हैं? भगवान राम ने इशारा करते हुए दिखाया कि वो देखो लक्ष्मण एक गिलहरी बार-बार समुद्र के किनारे जाती है और रेत पर लोटपोट करके रेत को अपने शरीर पर चिपका लेती है। जब रेत उसके शरीर पर चिपक जाता है फिर वह सेतु पर जाकर अपना सारा रेत सेतु पर झाड़ आती है। वह काफी देर से यही कार्य कर रही है।
लक्ष्मण जी बोले प्रभु वह समुन्द्र में क्रीड़ा का आनंद ले रही है और कुछ नहीं। भगवान राम ने कहा, नहीं लक्ष्मण तुम उस गिलहरी के भाव को समझने का प्रयास करो। चलो आओ उस गिलहरी से ही पूछ लेते हैं कि वह क्या कर रही है? दोनों भाई उस गिलहरी के निकट गए। भगवान राम ने गिलहरी से पूछा कि तुम क्या कर रही हो? गिलहरी ने जवाब दिया कि कुछ भी नहीं प्रभु बस इस पुण्य कार्य में थोड़ा बहुत योगदान दे रही हूँ। भगवान राम को उत्तर देकर गिलहरी फिर से अपने कार्य के लिए जाने लगी, तो भगवान राम ने उसे टोकते हुए कहा- तुम्हारे रेत के कुछ कण डालने से क्या होगा ?
गिलहरी बोली प्रभु आप सत्य कह रहे हैं। मै सृष्टि की इतनी लघु प्राणी होने के कारण इस महान कार्य हेतु कर भी क्या सकती हूँ? मेरे कार्य का मूल्यांकन भी क्या होगा? प्रभु में यह कार्य किसी आकांक्षा से नहीं कर रही। यह कार्य तो राष्ट्र कार्य है, धर्म की अधर्म पर जीत का कार्य है। राष्ट्र कार्य किसी एक व्यक्ति अथवा वर्ग का नहीं बल्कि योग्यता अनुसार सम्पूर्ण समाज का होता है। जितना कार्य वह कर सके नि:स्वार्थ भाव से समाज को राष्ट्र हित का कार्य करना चाहिए। मेरा यह कार्य आत्म संतुष्टि के लिए है प्रभु। हाँ मुझे इस बात का खेद अवश्य है कि मै सामर्थ्यवान एवं शक्तिशाली प्राणियों की भाँति सहयोग नहीं कर पा रही। भगवान राम गिलहरी की बात सुनकर भाव विभोर हो उठे। भगवान राम ने उस छोटी सी गिलहरी को अपनी हथेली पर बैठा लिया और उसके शरीर पर प्यार से हाथ फेरने लगे। भगवान राम का स्पर्श पाते ही गिलहरी का जीवन धन्य हो गया।
व्यापार समस्या का निवारण
एक समय की बात है, एक छोटे से गांव में दो पंडित रहते थे। वे दोनों बहुत ही बुद्धिमान और ज्ञानी थे और लोगों की समस्याओं का समाधान ढूंढने में निपुण थे। दोनों के बीच मित्रता थी और वे एक-दूसरे की सहायता करते थे।
एक दिन, गांव के एक व्यक्ति ने पहुच कर दोनों पंडितों से मदद मांगी। व्यक्ति बताया कि उसका व्यापार धीरे-धीरे हानि कर रहा है और उसे इसका कारण समझ नहीं आ रहा है। दोनों पंडितों ने उसे सुना और उसे समस्या के निवारण के लिए उन्हें एक-दूसरे के पास भेजा।
पहले पंडित ने व्यक्ति के व्यापार की समस्या को विचार किया और ध्यान से सभी पहलुओं को देखा। उसने ध्यान दिया कि व्यक्ति की दुकान का स्थान एक ऐसे स्थान पर है जहां उसे किसी विशेष समूह या जनसंख्या की अभाव है।
दूसरे पंडित ने एक अलग दृष्टिकोण से मुद्दे को देखा। उसने व्यक्ति से पूछा कि क्या उसने कभी व्यापार के बारे में किसी दूसरे व्यक्ति से सलाह ली है। जब उसने नकारात्मकता दिखाई, तो दूसरे पंडित ने उसे समझाया कि सलाह लेना और एक-दूसरे के विचार सुनना व्यापार को बढ़ावा देने का एक महत्वपूर्ण तरीका हो सकता है।
फिर दोनों पंडितों ने मिलकर व्यक्ति को दिया कि उसे अपने व्यापार की एक अलग जगह पर खोलने की सलाह दी जाए। यह तरीका उसे नए ग्राहकों के साथ जुड़ने और अपने व्यापार को बढ़ावा देने का एक अवसर देता है। उसने उनकी सलाह को माना और नई जगह पर दुकान खोली। धीरे-धीरे, उसके व्यापार बढ़ने लगे और उसने एक सफल व्यापारी की उपाधि हासिल की।
यह कहानी हमें दिखाती है कि दोनों पंडितों ने अपने अलग-अलग दृष्टिकोणों से समस्या का समाधान ढूंढने की कोशिश की। उन्होंने अपने विचारों और ज्ञान का संयोग किया और साथ मिलकर उस व्यक्ति को सबसे अच्छा समाधान प्रदान किया। इस कहानी से हमें यह सिख मिलती है कि जब हम साझा करते हैं और एक-दूसरे की मदद करते हैं, तो हम अपनी समस्याओं का बेहतर समाधान प्राप्त कर सकते हैं।
केदारनाथ को क्यों कहते हैं ‘जागृत महादेव’ ?, दो मिनट की ये कहानी रौंगटे खड़े कर देगी “*
*एक बार एक शिव-भक्त अपने गांव से केदारनाथ धाम की यात्रा पर निकला। पहले यातायात की सुविधाएँ तो थी नहीं, वह पैदल ही निकल पड़ा। रास्ते में जो भी मिलता केदारनाथ का मार्ग पूछ लेता। मन में भगवान शिव का ध्यान करता रहता। चलते चलते उसको महीनो बीत गए।* *आखिरकार एक दिन वह केदार धाम पहुच ही गया। केदारनाथ में मंदिर के द्वार 6 महीने खुलते है और 6 महीने बंद रहते है। वह उस समय पर पहुचा जब मन्दिर के द्वार बंद हो रहे थे। पंडित जी को उसने बताया वह बहुत दूर से महीनो की यात्रा करके आया है। पंडित जी से प्रार्थना की – कृपा कर के दरवाजे खोलकर प्रभु के दर्शन करवा दीजिये । लेकिन वहां का तो नियम है एक बार बंद तो बंद। नियम तो नियम होता है। वह बहुत रोया। बार-बार भगवन शिव को याद किया कि प्रभु बस एक बार दर्शन करा दो। वह प्रार्थना कर रहा था सभी से, लेकिन किसी ने भी नही सुनी।*
*पंडित जी बोले अब यहाँ 6 महीने बाद आना, 6 महीने बाद यहा के दरवाजे खुलेंगे। यहाँ 6 महीने बर्फ और ढंड पड़ती है। और सभी जन वहा से चले गये। वह वही पर रोता रहा। रोते-रोते रात होने लगी चारो तरफ अँधेरा हो गया। लेकिन उसे विस्वास था अपने शिव पर कि वो जरुर कृपा करेगे। उसे बहुत भुख और प्यास भी लग रही थी। उसने किसी की आने की आहट सुनी। देखा एक सन्यासी बाबा उसकी ओर आ रहा है। वह सन्यासी बाबा उस के पास आया और पास में बैठ गया। पूछा – बेटा कहाँ से आये हो ?* *उस ने सारा हाल सुना दिया और बोला मेरा आना यहाँ पर व्यर्थ हो गया बाबा जी। बाबा जी ने उसे समझाया और खाना भी दिया। और फिर बहुत देर तक बाबा उससे बाते करते रहे। बाबा जी को उस पर दया आ गयी। वह बोले, बेटा मुझे लगता है, सुबह मन्दिर जरुर खुलेगा। तुम दर्शन जरुर करोगे।*
*बातों-बातों में इस भक्त को ना जाने कब नींद आ गयी। सूर्य के मद्धिम प्रकाश के साथ भक्त की आँख खुली। उसने इधर उधर बाबा को देखा, किन्तु वह कहीं नहीं थे । इससे पहले कि वह कुछ समझ पाता उसने देखा पंडित जी आ रहे है अपनी पूरी मंडली के साथ। उस ने पंडित को प्रणाम किया और बोला – कल आप ने तो कहा था मन्दिर 6 महीने बाद खुलेगा ? और इस बीच कोई नहीं आएगा यहाँ, लेकिन आप तो सुबह ही आ गये। पंडित जी ने उसे गौर से देखा, पहचानने की कोशिश की और पुछा – तुम वही हो जो मंदिर का द्वार बंद होने पर आये थे ? जो मुझे मिले थे। 6 महीने होते ही वापस आ गए ! उस आदमी ने आश्चर्य से कहा – नही, मैं कहीं नहीं गया। कल ही तो आप मिले थे, रात में मैं यहीं सो गया था। मैं कहीं नहीं गया। पंडित जी के आश्चर्य का ठिकाना नहीं था।*
*उन्होंने कहा – लेकिन मैं तो 6 महीने पहले मंदिर बन्द करके गया था और आज 6 महीने बाद आया हूँ। तुम छः महीने तक यहाँ पर जिन्दा कैसे रह सकते हो ? पंडित जी और सारी मंडली हैरान थी। इतनी सर्दी में एक अकेला व्यक्ति कैसे छः महीने तक जिन्दा रह सकता है। तब उस भक्त ने उनको सन्यासी बाबा के मिलने और उसके साथ की गयी सारी बाते बता दी। कि एक सन्यासी आया था – लम्बा था, बढ़ी-बढ़ी जटाये, एक हाथ में त्रिशुल और एक हाथ में डमरू लिए, मृग-शाला पहने हुआ था। पंडित जी और सब लोग उसके चरणों में गिर गये। बोले, हमने तो जिंदगी लगा दी किन्तु प्रभु के दर्शन ना पा सके, सच्चे भक्त तो तुम हो। तुमने तो साक्षात भगवान शिव के दर्शन किये है। उन्होंने ही अपनी योग-माया से तुम्हारे 6 महीने को एक रात में परिवर्तित कर दिया। काल-खंड को छोटा कर दिया। यह सब तुम्हारे पवित्र मन, तुम्हारी श्रद्वा और विश्वास के कारण ही हुआ है। आपकी भक्ति को प्रणाम जय श्री महाकाल
किस कारण “राम से बड़ा राम का नाम” है ?
एक दिन की बात है, राम दरबार सजा हुआ था.
हनुमान जी हमेशा की तरह अपने प्रभु राम की सेवा में तल्लीन थे कि इतने में गुरु वशिष्ठ का राम दरबार में आगमन हुआ.
श्री राम समेत सभी लोगों ने अपने स्थान से उठ कर गुरु वशिष्ठ को प्रणाम किया लेकिन हनुमान जी प्रभु राम की सेवा में इतने मगन थे कि उन्हें गुरु वशिष्ठ को प्रणाम करना याद न रहा.
गुरु वशिष्ठ ने इस ओर प्रभु राम का ध्यान दिलवाया और उनसे पूछा कि क्या यह उनके गुरु का अपमान नहीं था कि हनुमान ने उन्हें प्रणाम करना भी उचित नहीं जाना.
प्रभु राम ने माना कि यह गुरु का अपमान था.
इस पर गुरु वशिष्ठ ने राम से पूछा कि गुरु का अपमान करने वाले को क्या सज़ा मिलनी चाहिए?
प्रभु राम ने कहा कि गुरु वशिष्ठ का अपमान करने वाले की सज़ा मृत्यु होनी चाहिए.
गुरु वशिष्ठ ने पूछा कि क्या प्रभु राम अपने अत्यंत प्रिय हनुमान को मृत्यु दंड देंगे?
श्री राम ने उसी समय वचन दिया कि वे अगले दिन अपने अमोघ बाण से हनुमान को मृत्यु दंड देंगे.
सारी सभा हैरान रह गई.
हनुमान जी घर लौटे तो उनके मुख पर उदासी छाई थी. माता अंजनी के पूछने पर उन्होंने माता को सारी बात बताई. माता अंजनी ने कहा कि पुत्र चिंता मत करो मुझे राम नाम का मंत्र मिला हुआ है और वही मंत्र मैंने तुम्हें अपनी घुट्टी में दिया हुआ है. इस मंत्र की ऐसी महिमा है कि स्वयं श्री राम भी चाहें तो इस मंत्र का जप करने वाले का वध नहीं कर सकते. माता ने हनुमान को निश्चिंत रहने को कहा.
अगले दिन श्री राम ने अपनी अमोघ शक्ति से युक्त बाण हनुमान पर छोड़ा मगर उसका हनुमान पर कोई असर नहीं हुआ. बार बार चलाए गए सब बाण व्यर्थ गए.
गुरु वशिष्ठ ने राम से कहा कि वे जानबूझ कर अपने प्रिय हनुमान को नहीं मार रहे थे.
तब श्री राम ने कहा कि हनुमान पर जब वो अपना अमोघ बाण छोड़ते हैं तो हनुमान राम नाम के मंत्र के जप में लगे होते हैं इसलिए बाण का कोई असर नहीं होता क्योंकि इस शरीर धारी राम से कहीं बड़ा राम का नाम है.
इतनी बात सुन कर गुरु वशिष्ठ प्रभु राम से बोले कि हे राम अब मैं सब कुछ त्याग कर अपने आश्रम को जा रहा हूँ और वहाँ रह कर राम नाम का जाप करूँगा.
एक दिन हनुमानजी जब सीता जी की शरण में आए, नैनों में जल भरा हुआ है बैठ गए शीश झुकाए,
सीता जी ने पूछा उनसे कहो लाडले बात क्या है, किस कारण ये छाई उदासी, नैनों में क्यों नीर भरा है ?
हनुमान जी बोले मैया आपनें कुछ वरदान दिए हैं, अजर अमर की पदवी दी है, और बहुत सम्मान दिए हैं, अब मैं उन्हें लौटानें आया, मुझे अमर पद नहीं चाहिए, दूर रहूं मैं श्री चरणों से, ऐसा जीवन नहीं चाहिए।
सीता जी मुस्काकर बोली बेटा ये क्या बोल रहे हो, अमृत को तो देव भी तरसे, तुम काहे को डोल रहे हो?
इतने में श्रीराम प्रभु आ गए और बोले, क्या चर्चा चल रही है मां बेटे में………….??
तब सीताजी बोली सुनो नाथ जी, ना जाने क्या हुआ हनुमानको, पदवी अजर-अमर लौटानें आया है ये मुझको।
राम जी बोले क्यों बजरंगी ये क्या लीला नई रचाई, कौन भला छोड़ेगा , अमृत की ये अमर कमाई!!
हनुमानजी रोकर बोले, आप साकेत पधार रहे हो, मुझे छोड़कर इस धरती से, आप वैकुंठ सिधार रहे हो, आप बिना क्या मेरा जीवन अमृत का विष पीना होगा, तड़प-तड़प कर विरह अग्नि में जीना भी क्या जीना होगा!!
हनुमान जी बोले प्रभु अब आप ही बताओ, आप के बिना मैं यहां कैसे रहूंगा??
तब इस पर प्रभु श्रीराम बोले….
हनुमान सीता का यह वरदान सिर्फ आपके लिए ही नहीं है, बल्कि यह तो संसार भर के कल्याण के लिए है, तुम यहां रहोगे, और संसार का कल्याण करोगे।
मांगो हनुमान वरदान मांगो:-
इस पर श्री हनुमानजी बोले।
जहां जहां पर आपकी कथा हो, आपका नाम हो, वहां-वहां पर मैं उपस्थित होकर हमेशा आनंद लिया करूं,
सीताजी बोलीं देदो प्रभु देदो,
तब भगवान राम नें हंसकर कहा, तुम नहीं जानती सीता ये क्या मांग रहा है, ये अनगिनत शरीर मांग रहा है, जितनी जगह मेरा पाठ होगा उतनें शरीर मांग रहा है,
तब सीताजी बोलीं, तो दे दो फिर क्या हुआ, आपका लाडला है।
तब इस पर प्रभु श्रीराम बोले ,तुम्हारी इच्छा पूर्ण होगी, वहां विराजोगे बजरंगी, जहां हमारी चर्चा होगी, कथा जहां पर राम की होगी, वहां ये राम दुलारा होगा, जहां हमारा चिंतन होगा, वहां पे जिक्र तुम्हारा होगा।
कलयुग में मुझसे भी ज्यादा पूजा हो हनुमान तुम्हारी, जो कोई तुम्हरी शरण में आए, भक्ति उसको मिले हमारी,, मेरे हर मंदिर की शोभा बनकर आप विराजोगे, मेरे नाम का सुमिरन करके सुधबुध खोकर नाचोगे।।
नाच उठे ये सुन बजरंगी, चरणन शीश नवाया,
दुख-हर्ता सुख-कर्ता प्रभु का, प्यारा नाम ये गाया।।
जय सियाराम जयजय सियाराम,
जय सियाराम जयजय सियाराम।।
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।।”द्रौपदी का कर्ज”।। इस्को पढ कर आप जरूर अपबोट करेंगे
अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा महल में झाड़ू लगा रही थी तो द्रौपदी उसके समीप गई उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए बोली, “पुत्री भविष्य में कभी तुम पर घोर से घोर विपत्ति भी आए तो कभी अपने किसी नाते-रिश्तेदार की शरण में मत जाना। सीधे भगवान की शरण में जाना।” उत्तरा हैरान होते हुए माता द्रौपदी को निहारते हुए बोली, “आप ऐसा क्यों कह रही हैं माता ?”
द्रौपदी बोली, “क्योंकि यह बात मेरे ऊपर भी बीत चुकी है। जब मेरे पांचों पति कौरवों के साथ जुआ खेल रहे थे, तो अपना सर्वस्व हारने के बाद मुझे भी दांव पर लगाकर हार गए। फिर कौरव पुत्रों ने भरी सभा में मेरा बहुत अपमान किया। मैंने सहायता के लिए अपने पतियों को पुकारा मगर वो सभी अपना सिर नीचे झुकाए बैठे थे। पितामह भीष्म, द्रोण धृतराष्ट्र सभी को मदद के लिए पुकारती रही मगर किसी ने भी मेरी तरफ नहीं देखा, वह सभी आँखें झुकाए आँसू बहाते रहे। सबसे निराशा होकर मैंने श्रीकृष्ण को पुकारा, “आपके सिवाय मेरा और कोई भी नहीं है, तब श्रीकृष्ण तुरंत आए और मेरी रक्षा की।”
जब द्रौपदी पर ऐसी विपत्ति आ रही थी तो द्वारिका में श्री कृष्ण बहुत विचलित होते हैं। क्योंकि उनकी सबसे प्रिय भक्त पर संकट आन पड़ा था। रूकमणि उनसे दुखी होने का कारण पूछती हैं तो वह बताते हैं मेरी सबसे बड़ी भक्त को भरी सभा में नग्न किया जा रहा है। रूकमणि बोलती हैं, “आप जाएँ और उसकी मदद करें।” श्री कृष्ण बोले, “जब तक द्रोपदी मुझे पुकारेगी नहीं मैं कैसे जा सकता हूँ। एक बार वो मुझे पुकार लें तो मैं तुरंत उसके पास जाकर उसकी रक्षा करूँगा। तुम्हें याद होगा जब पाण्डवों ने राजसूर्य यज्ञ करवाया तो शिशुपाल का वध करने के लिए मैंने अपनी उंगली पर चक्र धारण किया तो उससे मेरी उंगली कट गई थी। उस समय “मेरी सभी पत्नियाँ वहीं थी। कोई वैद्य को बुलाने भागी तो कोई औषधि लेने चली गई। मगर उस समय मेरी इस भक्त ने अपनी साड़ी का पल्लू फाड़ा और उसे मेरी उंगली पर बाँध दिया। आज उसी का ऋण मुझे चुकाना है, लेकिन जब तक वो मुझे पुकारेगी नहीं मैं जा नहीं सकता।” अत: द्रौपदी ने जैसे ही भगवान कृष्ण को पुकारा प्रभु तुरंत ही दौड़े गए।
।।🚩श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी हे नाथ नारायण बासुदेव🚩।।
गिलहरी का रामसेतु बनाने में योगदान…
माता सीता को वापस लाने के लिए रामसेतु बनाने का कार्य चल रहा था। भगवान राम को काफी देर तक एक ही दिशा में निहारते हुए देख लक्ष्मण जी ने पूछा भैया आप इतनी देर से क्या देख रहें हैं? भगवान राम ने इशारा करते हुए दिखाया कि वो देखो लक्ष्मण एक गिलहरी बार-बार समुद्र के किनारे जाती है और रेत पर लोटपोट करके रेत को अपने शरीर पर चिपका लेती है। जब रेत उसके शरीर पर चिपक जाता है फिर वह सेतु पर जाकर अपना सारा रेत सेतु पर झाड़ आती है। वह काफी देर से यही कार्य कर रही है।
लक्ष्मण जी बोले प्रभु वह समुन्द्र में क्रीड़ा का आनंद ले रही है और कुछ नहीं। भगवान राम ने कहा, नहीं लक्ष्मण तुम उस गिलहरी के भाव को समझने का प्रयास करो। चलो आओ उस गिलहरी से ही पूछ लेते हैं कि वह क्या कर रही है? दोनों भाई उस गिलहरी के निकट गए। भगवान राम ने गिलहरी से पूछा कि तुम क्या कर रही हो? गिलहरी ने जवाब दिया कि कुछ भी नहीं प्रभु बस इस पुण्य कार्य में थोड़ा बहुत योगदान दे रही हूँ। भगवान राम को उत्तर देकर गिलहरी फिर से अपने कार्य के लिए जाने लगी, तो भगवान राम ने उसे टोकते हुए कहा- तुम्हारे रेत के कुछ कण डालने से क्या होगा ?
गिलहरी बोली प्रभु आप सत्य कह रहे हैं। मै सृष्टि की इतनी लघु प्राणी होने के कारण इस महान कार्य हेतु कर भी क्या सकती हूँ? मेरे कार्य का मूल्यांकन भी क्या होगा? प्रभु में यह कार्य किसी आकांक्षा से नहीं कर रही। यह कार्य तो राष्ट्र कार्य है, धर्म की अधर्म पर जीत का कार्य है। राष्ट्र कार्य किसी एक व्यक्ति अथवा वर्ग का नहीं बल्कि योग्यता अनुसार सम्पूर्ण समाज का होता है। जितना कार्य वह कर सके नि:स्वार्थ भाव से समाज को राष्ट्र हित का कार्य करना चाहिए। मेरा यह कार्य आत्म संतुष्टि के लिए है प्रभु। हाँ मुझे इस बात का खेद अवश्य है कि मै सामर्थ्यवान एवं शक्तिशाली प्राणियों की भाँति सहयोग नहीं कर पा रही। भगवान राम गिलहरी की बात सुनकर भाव विभोर हो उठे। भगवान राम ने उस छोटी सी गिलहरी को अपनी हथेली पर बैठा लिया और उसके शरीर पर प्यार से हाथ फेरने लगे। भगवान राम का स्पर्श पाते ही गिलहरी का जीवन धन्य हो गया।
व्यापार समस्या का निवारण
एक समय की बात है, एक छोटे से गांव में दो पंडित रहते थे। वे दोनों बहुत ही बुद्धिमान और ज्ञानी थे और लोगों की समस्याओं का समाधान ढूंढने में निपुण थे। दोनों के बीच मित्रता थी और वे एक-दूसरे की सहायता करते थे।
एक दिन, गांव के एक व्यक्ति ने पहुच कर दोनों पंडितों से मदद मांगी। व्यक्ति बताया कि उसका व्यापार धीरे-धीरे हानि कर रहा है और उसे इसका कारण समझ नहीं आ रहा है। दोनों पंडितों ने उसे सुना और उसे समस्या के निवारण के लिए उन्हें एक-दूसरे के पास भेजा।
पहले पंडित ने व्यक्ति के व्यापार की समस्या को विचार किया और ध्यान से सभी पहलुओं को देखा। उसने ध्यान दिया कि व्यक्ति की दुकान का स्थान एक ऐसे स्थान पर है जहां उसे किसी विशेष समूह या जनसंख्या की अभाव है।
दूसरे पंडित ने एक अलग दृष्टिकोण से मुद्दे को देखा। उसने व्यक्ति से पूछा कि क्या उसने कभी व्यापार के बारे में किसी दूसरे व्यक्ति से सलाह ली है। जब उसने नकारात्मकता दिखाई, तो दूसरे पंडित ने उसे समझाया कि सलाह लेना और एक-दूसरे के विचार सुनना व्यापार को बढ़ावा देने का एक महत्वपूर्ण तरीका हो सकता है।
फिर दोनों पंडितों ने मिलकर व्यक्ति को दिया कि उसे अपने व्यापार की एक अलग जगह पर खोलने की सलाह दी जाए। यह तरीका उसे नए ग्राहकों के साथ जुड़ने और अपने व्यापार को बढ़ावा देने का एक अवसर देता है। उसने उनकी सलाह को माना और नई जगह पर दुकान खोली। धीरे-धीरे, उसके व्यापार बढ़ने लगे और उसने एक सफल व्यापारी की उपाधि हासिल की।
यह कहानी हमें दिखाती है कि दोनों पंडितों ने अपने अलग-अलग दृष्टिकोणों से समस्या का समाधान ढूंढने की कोशिश की। उन्होंने अपने विचारों और ज्ञान का संयोग किया और साथ मिलकर उस व्यक्ति को सबसे अच्छा समाधान प्रदान किया। इस कहानी से हमें यह सिख मिलती है कि जब हम साझा करते हैं और एक-दूसरे की मदद करते हैं, तो हम अपनी समस्याओं का बेहतर समाधान प्राप्त कर सकते हैं।
केदारनाथ को क्यों कहते हैं ‘जागृत महादेव’ ?, दो मिनट की ये कहानी रौंगटे खड़े कर देगी “*
*एक बार एक शिव-भक्त अपने गांव से केदारनाथ धाम की यात्रा पर निकला। पहले यातायात की सुविधाएँ तो थी नहीं, वह पैदल ही निकल पड़ा। रास्ते में जो भी मिलता केदारनाथ का मार्ग पूछ लेता। मन में भगवान शिव का ध्यान करता रहता। चलते चलते उसको महीनो बीत गए।* *आखिरकार एक दिन वह केदार धाम पहुच ही गया। केदारनाथ में मंदिर के द्वार 6 महीने खुलते है और 6 महीने बंद रहते है। वह उस समय पर पहुचा जब मन्दिर के द्वार बंद हो रहे थे। पंडित जी को उसने बताया वह बहुत दूर से महीनो की यात्रा करके आया है। पंडित जी से प्रार्थना की – कृपा कर के दरवाजे खोलकर प्रभु के दर्शन करवा दीजिये । लेकिन वहां का तो नियम है एक बार बंद तो बंद। नियम तो नियम होता है। वह बहुत रोया। बार-बार भगवन शिव को याद किया कि प्रभु बस एक बार दर्शन करा दो। वह प्रार्थना कर रहा था सभी से, लेकिन किसी ने भी नही सुनी।*
*पंडित जी बोले अब यहाँ 6 महीने बाद आना, 6 महीने बाद यहा के दरवाजे खुलेंगे। यहाँ 6 महीने बर्फ और ढंड पड़ती है। और सभी जन वहा से चले गये। वह वही पर रोता रहा। रोते-रोते रात होने लगी चारो तरफ अँधेरा हो गया। लेकिन उसे विस्वास था अपने शिव पर कि वो जरुर कृपा करेगे। उसे बहुत भुख और प्यास भी लग रही थी। उसने किसी की आने की आहट सुनी। देखा एक सन्यासी बाबा उसकी ओर आ रहा है। वह सन्यासी बाबा उस के पास आया और पास में बैठ गया। पूछा – बेटा कहाँ से आये हो ?* *उस ने सारा हाल सुना दिया और बोला मेरा आना यहाँ पर व्यर्थ हो गया बाबा जी। बाबा जी ने उसे समझाया और खाना भी दिया। और फिर बहुत देर तक बाबा उससे बाते करते रहे। बाबा जी को उस पर दया आ गयी। वह बोले, बेटा मुझे लगता है, सुबह मन्दिर जरुर खुलेगा। तुम दर्शन जरुर करोगे।*
*बातों-बातों में इस भक्त को ना जाने कब नींद आ गयी। सूर्य के मद्धिम प्रकाश के साथ भक्त की आँख खुली। उसने इधर उधर बाबा को देखा, किन्तु वह कहीं नहीं थे । इससे पहले कि वह कुछ समझ पाता उसने देखा पंडित जी आ रहे है अपनी पूरी मंडली के साथ। उस ने पंडित को प्रणाम किया और बोला – कल आप ने तो कहा था मन्दिर 6 महीने बाद खुलेगा ? और इस बीच कोई नहीं आएगा यहाँ, लेकिन आप तो सुबह ही आ गये। पंडित जी ने उसे गौर से देखा, पहचानने की कोशिश की और पुछा – तुम वही हो जो मंदिर का द्वार बंद होने पर आये थे ? जो मुझे मिले थे। 6 महीने होते ही वापस आ गए ! उस आदमी ने आश्चर्य से कहा – नही, मैं कहीं नहीं गया। कल ही तो आप मिले थे, रात में मैं यहीं सो गया था। मैं कहीं नहीं गया। पंडित जी के आश्चर्य का ठिकाना नहीं था।*
*उन्होंने कहा – लेकिन मैं तो 6 महीने पहले मंदिर बन्द करके गया था और आज 6 महीने बाद आया हूँ। तुम छः महीने तक यहाँ पर जिन्दा कैसे रह सकते हो ? पंडित जी और सारी मंडली हैरान थी। इतनी सर्दी में एक अकेला व्यक्ति कैसे छः महीने तक जिन्दा रह सकता है। तब उस भक्त ने उनको सन्यासी बाबा के मिलने और उसके साथ की गयी सारी बाते बता दी। कि एक सन्यासी आया था – लम्बा था, बढ़ी-बढ़ी जटाये, एक हाथ में त्रिशुल और एक हाथ में डमरू लिए, मृग-शाला पहने हुआ था। पंडित जी और सब लोग उसके चरणों में गिर गये। बोले, हमने तो जिंदगी लगा दी किन्तु प्रभु के दर्शन ना पा सके, सच्चे भक्त तो तुम हो। तुमने तो साक्षात भगवान शिव के दर्शन किये है। उन्होंने ही अपनी योग-माया से तुम्हारे 6 महीने को एक रात में परिवर्तित कर दिया। काल-खंड को छोटा कर दिया। यह सब तुम्हारे पवित्र मन, तुम्हारी श्रद्वा और विश्वास के कारण ही हुआ है। आपकी भक्ति को प्रणाम जय श्री महाकाल
किस कारण “राम से बड़ा राम का नाम” है ?
एक दिन की बात है, राम दरबार सजा हुआ था.
हनुमान जी हमेशा की तरह अपने प्रभु राम की सेवा में तल्लीन थे कि इतने में गुरु वशिष्ठ का राम दरबार में आगमन हुआ.
श्री राम समेत सभी लोगों ने अपने स्थान से उठ कर गुरु वशिष्ठ को प्रणाम किया लेकिन हनुमान जी प्रभु राम की सेवा में इतने मगन थे कि उन्हें गुरु वशिष्ठ को प्रणाम करना याद न रहा.
गुरु वशिष्ठ ने इस ओर प्रभु राम का ध्यान दिलवाया और उनसे पूछा कि क्या यह उनके गुरु का अपमान नहीं था कि हनुमान ने उन्हें प्रणाम करना भी उचित नहीं जाना.
प्रभु राम ने माना कि यह गुरु का अपमान था.
इस पर गुरु वशिष्ठ ने राम से पूछा कि गुरु का अपमान करने वाले को क्या सज़ा मिलनी चाहिए?
प्रभु राम ने कहा कि गुरु वशिष्ठ का अपमान करने वाले की सज़ा मृत्यु होनी चाहिए.
गुरु वशिष्ठ ने पूछा कि क्या प्रभु राम अपने अत्यंत प्रिय हनुमान को मृत्यु दंड देंगे?
श्री राम ने उसी समय वचन दिया कि वे अगले दिन अपने अमोघ बाण से हनुमान को मृत्यु दंड देंगे.
सारी सभा हैरान रह गई.
हनुमान जी घर लौटे तो उनके मुख पर उदासी छाई थी. माता अंजनी के पूछने पर उन्होंने माता को सारी बात बताई. माता अंजनी ने कहा कि पुत्र चिंता मत करो मुझे राम नाम का मंत्र मिला हुआ है और वही मंत्र मैंने तुम्हें अपनी घुट्टी में दिया हुआ है. इस मंत्र की ऐसी महिमा है कि स्वयं श्री राम भी चाहें तो इस मंत्र का जप करने वाले का वध नहीं कर सकते. माता ने हनुमान को निश्चिंत रहने को कहा.
अगले दिन श्री राम ने अपनी अमोघ शक्ति से युक्त बाण हनुमान पर छोड़ा मगर उसका हनुमान पर कोई असर नहीं हुआ. बार बार चलाए गए सब बाण व्यर्थ गए.
गुरु वशिष्ठ ने राम से कहा कि वे जानबूझ कर अपने प्रिय हनुमान को नहीं मार रहे थे.
तब श्री राम ने कहा कि हनुमान पर जब वो अपना अमोघ बाण छोड़ते हैं तो हनुमान राम नाम के मंत्र के जप में लगे होते हैं इसलिए बाण का कोई असर नहीं होता क्योंकि इस शरीर धारी राम से कहीं बड़ा राम का नाम है.
इतनी बात सुन कर गुरु वशिष्ठ प्रभु राम से बोले कि हे राम अब मैं सब कुछ त्याग कर अपने आश्रम को जा रहा हूँ और वहाँ रह कर राम नाम का जाप करूँगा.
एक दिन हनुमानजी जब सीता जी की शरण में आए, नैनों में जल भरा हुआ है बैठ गए शीश झुकाए,
सीता जी ने पूछा उनसे कहो लाडले बात क्या है, किस कारण ये छाई उदासी, नैनों में क्यों नीर भरा है ?
हनुमान जी बोले मैया आपनें कुछ वरदान दिए हैं, अजर अमर की पदवी दी है, और बहुत सम्मान दिए हैं, अब मैं उन्हें लौटानें आया, मुझे अमर पद नहीं चाहिए, दूर रहूं मैं श्री चरणों से, ऐसा जीवन नहीं चाहिए।
सीता जी मुस्काकर बोली बेटा ये क्या बोल रहे हो, अमृत को तो देव भी तरसे, तुम काहे को डोल रहे हो?
इतने में श्रीराम प्रभु आ गए और बोले, क्या चर्चा चल रही है मां बेटे में………….??
तब सीताजी बोली सुनो नाथ जी, ना जाने क्या हुआ हनुमानको, पदवी अजर-अमर लौटानें आया है ये मुझको।
राम जी बोले क्यों बजरंगी ये क्या लीला नई रचाई, कौन भला छोड़ेगा , अमृत की ये अमर कमाई!!
हनुमानजी रोकर बोले, आप साकेत पधार रहे हो, मुझे छोड़कर इस धरती से, आप वैकुंठ सिधार रहे हो, आप बिना क्या मेरा जीवन अमृत का विष पीना होगा, तड़प-तड़प कर विरह अग्नि में जीना भी क्या जीना होगा!!
हनुमान जी बोले प्रभु अब आप ही बताओ, आप के बिना मैं यहां कैसे रहूंगा??
तब इस पर प्रभु श्रीराम बोले….
हनुमान सीता का यह वरदान सिर्फ आपके लिए ही नहीं है, बल्कि यह तो संसार भर के कल्याण के लिए है, तुम यहां रहोगे, और संसार का कल्याण करोगे।
मांगो हनुमान वरदान मांगो:-
इस पर श्री हनुमानजी बोले।
जहां जहां पर आपकी कथा हो, आपका नाम हो, वहां-वहां पर मैं उपस्थित होकर हमेशा आनंद लिया करूं,
सीताजी बोलीं देदो प्रभु देदो,
तब भगवान राम नें हंसकर कहा, तुम नहीं जानती सीता ये क्या मांग रहा है, ये अनगिनत शरीर मांग रहा है, जितनी जगह मेरा पाठ होगा उतनें शरीर मांग रहा है,
तब सीताजी बोलीं, तो दे दो फिर क्या हुआ, आपका लाडला है।
तब इस पर प्रभु श्रीराम बोले ,तुम्हारी इच्छा पूर्ण होगी, वहां विराजोगे बजरंगी, जहां हमारी चर्चा होगी, कथा जहां पर राम की होगी, वहां ये राम दुलारा होगा, जहां हमारा चिंतन होगा, वहां पे जिक्र तुम्हारा होगा।
कलयुग में मुझसे भी ज्यादा पूजा हो हनुमान तुम्हारी, जो कोई तुम्हरी शरण में आए, भक्ति उसको मिले हमारी,, मेरे हर मंदिर की शोभा बनकर आप विराजोगे, मेरे नाम का सुमिरन करके सुधबुध खोकर नाचोगे।।
नाच उठे ये सुन बजरंगी, चरणन शीश नवाया,
दुख-हर्ता सुख-कर्ता प्रभु का, प्यारा नाम ये गाया।।
जय सियाराम जयजय सियाराम,
जय सियाराम जयजय सियाराम।।
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।।”द्रौपदी का कर्ज”।। इस्को पढ कर आप जरूर अपबोट करेंगे
अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा महल में झाड़ू लगा रही थी तो द्रौपदी उसके समीप गई उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए बोली, “पुत्री भविष्य में कभी तुम पर घोर से घोर विपत्ति भी आए तो कभी अपने किसी नाते-रिश्तेदार की शरण में मत जाना। सीधे भगवान की शरण में जाना।” उत्तरा हैरान होते हुए माता द्रौपदी को निहारते हुए बोली, “आप ऐसा क्यों कह रही हैं माता ?”
द्रौपदी बोली, “क्योंकि यह बात मेरे ऊपर भी बीत चुकी है। जब मेरे पांचों पति कौरवों के साथ जुआ खेल रहे थे, तो अपना सर्वस्व हारने के बाद मुझे भी दांव पर लगाकर हार गए। फिर कौरव पुत्रों ने भरी सभा में मेरा बहुत अपमान किया। मैंने सहायता के लिए अपने पतियों को पुकारा मगर वो सभी अपना सिर नीचे झुकाए बैठे थे। पितामह भीष्म, द्रोण धृतराष्ट्र सभी को मदद के लिए पुकारती रही मगर किसी ने भी मेरी तरफ नहीं देखा, वह सभी आँखें झुकाए आँसू बहाते रहे। सबसे निराशा होकर मैंने श्रीकृष्ण को पुकारा, “आपके सिवाय मेरा और कोई भी नहीं है, तब श्रीकृष्ण तुरंत आए और मेरी रक्षा की।”
जब द्रौपदी पर ऐसी विपत्ति आ रही थी तो द्वारिका में श्री कृष्ण बहुत विचलित होते हैं। क्योंकि उनकी सबसे प्रिय भक्त पर संकट आन पड़ा था। रूकमणि उनसे दुखी होने का कारण पूछती हैं तो वह बताते हैं मेरी सबसे बड़ी भक्त को भरी सभा में नग्न किया जा रहा है। रूकमणि बोलती हैं, “आप जाएँ और उसकी मदद करें।” श्री कृष्ण बोले, “जब तक द्रोपदी मुझे पुकारेगी नहीं मैं कैसे जा सकता हूँ। एक बार वो मुझे पुकार लें तो मैं तुरंत उसके पास जाकर उसकी रक्षा करूँगा। तुम्हें याद होगा जब पाण्डवों ने राजसूर्य यज्ञ करवाया तो शिशुपाल का वध करने के लिए मैंने अपनी उंगली पर चक्र धारण किया तो उससे मेरी उंगली कट गई थी। उस समय “मेरी सभी पत्नियाँ वहीं थी। कोई वैद्य को बुलाने भागी तो कोई औषधि लेने चली गई। मगर उस समय मेरी इस भक्त ने अपनी साड़ी का पल्लू फाड़ा और उसे मेरी उंगली पर बाँध दिया। आज उसी का ऋण मुझे चुकाना है, लेकिन जब तक वो मुझे पुकारेगी नहीं मैं जा नहीं सकता।” अत: द्रौपदी ने जैसे ही भगवान कृष्ण को पुकारा प्रभु तुरंत ही दौड़े गए।
।।🚩श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी हे नाथ नारायण बासुदेव🚩।।
गिलहरी का रामसेतु बनाने में योगदान…
माता सीता को वापस लाने के लिए रामसेतु बनाने का कार्य चल रहा था। भगवान राम को काफी देर तक एक ही दिशा में निहारते हुए देख लक्ष्मण जी ने पूछा भैया आप इतनी देर से क्या देख रहें हैं? भगवान राम ने इशारा करते हुए दिखाया कि वो देखो लक्ष्मण एक गिलहरी बार-बार समुद्र के किनारे जाती है और रेत पर लोटपोट करके रेत को अपने शरीर पर चिपका लेती है। जब रेत उसके शरीर पर चिपक जाता है फिर वह सेतु पर जाकर अपना सारा रेत सेतु पर झाड़ आती है। वह काफी देर से यही कार्य कर रही है।
लक्ष्मण जी बोले प्रभु वह समुन्द्र में क्रीड़ा का आनंद ले रही है और कुछ नहीं। भगवान राम ने कहा, नहीं लक्ष्मण तुम उस गिलहरी के भाव को समझने का प्रयास करो। चलो आओ उस गिलहरी से ही पूछ लेते हैं कि वह क्या कर रही है? दोनों भाई उस गिलहरी के निकट गए। भगवान राम ने गिलहरी से पूछा कि तुम क्या कर रही हो? गिलहरी ने जवाब दिया कि कुछ भी नहीं प्रभु बस इस पुण्य कार्य में थोड़ा बहुत योगदान दे रही हूँ। भगवान राम को उत्तर देकर गिलहरी फिर से अपने कार्य के लिए जाने लगी, तो भगवान राम ने उसे टोकते हुए कहा- तुम्हारे रेत के कुछ कण डालने से क्या होगा ?
गिलहरी बोली प्रभु आप सत्य कह रहे हैं। मै सृष्टि की इतनी लघु प्राणी होने के कारण इस महान कार्य हेतु कर भी क्या सकती हूँ? मेरे कार्य का मूल्यांकन भी क्या होगा? प्रभु में यह कार्य किसी आकांक्षा से नहीं कर रही। यह कार्य तो राष्ट्र कार्य है, धर्म की अधर्म पर जीत का कार्य है। राष्ट्र कार्य किसी एक व्यक्ति अथवा वर्ग का नहीं बल्कि योग्यता अनुसार सम्पूर्ण समाज का होता है। जितना कार्य वह कर सके नि:स्वार्थ भाव से समाज को राष्ट्र हित का कार्य करना चाहिए। मेरा यह कार्य आत्म संतुष्टि के लिए है प्रभु। हाँ मुझे इस बात का खेद अवश्य है कि मै सामर्थ्यवान एवं शक्तिशाली प्राणियों की भाँति सहयोग नहीं कर पा रही। भगवान राम गिलहरी की बात सुनकर भाव विभोर हो उठे। भगवान राम ने उस छोटी सी गिलहरी को अपनी हथेली पर बैठा लिया और उसके शरीर पर प्यार से हाथ फेरने लगे। भगवान राम का स्पर्श पाते ही गिलहरी का जीवन धन्य हो गया।
व्यापार समस्या का निवारण
एक समय की बात है, एक छोटे से गांव में दो पंडित रहते थे। वे दोनों बहुत ही बुद्धिमान और ज्ञानी थे और लोगों की समस्याओं का समाधान ढूंढने में निपुण थे। दोनों के बीच मित्रता थी और वे एक-दूसरे की सहायता करते थे।
एक दिन, गांव के एक व्यक्ति ने पहुच कर दोनों पंडितों से मदद मांगी। व्यक्ति बताया कि उसका व्यापार धीरे-धीरे हानि कर रहा है और उसे इसका कारण समझ नहीं आ रहा है। दोनों पंडितों ने उसे सुना और उसे समस्या के निवारण के लिए उन्हें एक-दूसरे के पास भेजा।
पहले पंडित ने व्यक्ति के व्यापार की समस्या को विचार किया और ध्यान से सभी पहलुओं को देखा। उसने ध्यान दिया कि व्यक्ति की दुकान का स्थान एक ऐसे स्थान पर है जहां उसे किसी विशेष समूह या जनसंख्या की अभाव है।
दूसरे पंडित ने एक अलग दृष्टिकोण से मुद्दे को देखा। उसने व्यक्ति से पूछा कि क्या उसने कभी व्यापार के बारे में किसी दूसरे व्यक्ति से सलाह ली है। जब उसने नकारात्मकता दिखाई, तो दूसरे पंडित ने उसे समझाया कि सलाह लेना और एक-दूसरे के विचार सुनना व्यापार को बढ़ावा देने का एक महत्वपूर्ण तरीका हो सकता है।
फिर दोनों पंडितों ने मिलकर व्यक्ति को दिया कि उसे अपने व्यापार की एक अलग जगह पर खोलने की सलाह दी जाए। यह तरीका उसे नए ग्राहकों के साथ जुड़ने और अपने व्यापार को बढ़ावा देने का एक अवसर देता है। उसने उनकी सलाह को माना और नई जगह पर दुकान खोली। धीरे-धीरे, उसके व्यापार बढ़ने लगे और उसने एक सफल व्यापारी की उपाधि हासिल की।
यह कहानी हमें दिखाती है कि दोनों पंडितों ने अपने अलग-अलग दृष्टिकोणों से समस्या का समाधान ढूंढने की कोशिश की। उन्होंने अपने विचारों और ज्ञान का संयोग किया और साथ मिलकर उस व्यक्ति को सबसे अच्छा समाधान प्रदान किया। इस कहानी से हमें यह सिख मिलती है कि जब हम साझा करते हैं और एक-दूसरे की मदद करते हैं, तो हम अपनी समस्याओं का बेहतर समाधान प्राप्त कर सकते हैं।
केदारनाथ को क्यों कहते हैं ‘जागृत महादेव’ ?, दो मिनट की ये कहानी रौंगटे खड़े कर देगी “*
*एक बार एक शिव-भक्त अपने गांव से केदारनाथ धाम की यात्रा पर निकला। पहले यातायात की सुविधाएँ तो थी नहीं, वह पैदल ही निकल पड़ा। रास्ते में जो भी मिलता केदारनाथ का मार्ग पूछ लेता। मन में भगवान शिव का ध्यान करता रहता। चलते चलते उसको महीनो बीत गए।* *आखिरकार एक दिन वह केदार धाम पहुच ही गया। केदारनाथ में मंदिर के द्वार 6 महीने खुलते है और 6 महीने बंद रहते है। वह उस समय पर पहुचा जब मन्दिर के द्वार बंद हो रहे थे। पंडित जी को उसने बताया वह बहुत दूर से महीनो की यात्रा करके आया है। पंडित जी से प्रार्थना की – कृपा कर के दरवाजे खोलकर प्रभु के दर्शन करवा दीजिये । लेकिन वहां का तो नियम है एक बार बंद तो बंद। नियम तो नियम होता है। वह बहुत रोया। बार-बार भगवन शिव को याद किया कि प्रभु बस एक बार दर्शन करा दो। वह प्रार्थना कर रहा था सभी से, लेकिन किसी ने भी नही सुनी।*
*पंडित जी बोले अब यहाँ 6 महीने बाद आना, 6 महीने बाद यहा के दरवाजे खुलेंगे। यहाँ 6 महीने बर्फ और ढंड पड़ती है। और सभी जन वहा से चले गये। वह वही पर रोता रहा। रोते-रोते रात होने लगी चारो तरफ अँधेरा हो गया। लेकिन उसे विस्वास था अपने शिव पर कि वो जरुर कृपा करेगे। उसे बहुत भुख और प्यास भी लग रही थी। उसने किसी की आने की आहट सुनी। देखा एक सन्यासी बाबा उसकी ओर आ रहा है। वह सन्यासी बाबा उस के पास आया और पास में बैठ गया। पूछा – बेटा कहाँ से आये हो ?* *उस ने सारा हाल सुना दिया और बोला मेरा आना यहाँ पर व्यर्थ हो गया बाबा जी। बाबा जी ने उसे समझाया और खाना भी दिया। और फिर बहुत देर तक बाबा उससे बाते करते रहे। बाबा जी को उस पर दया आ गयी। वह बोले, बेटा मुझे लगता है, सुबह मन्दिर जरुर खुलेगा। तुम दर्शन जरुर करोगे।*
*बातों-बातों में इस भक्त को ना जाने कब नींद आ गयी। सूर्य के मद्धिम प्रकाश के साथ भक्त की आँख खुली। उसने इधर उधर बाबा को देखा, किन्तु वह कहीं नहीं थे । इससे पहले कि वह कुछ समझ पाता उसने देखा पंडित जी आ रहे है अपनी पूरी मंडली के साथ। उस ने पंडित को प्रणाम किया और बोला – कल आप ने तो कहा था मन्दिर 6 महीने बाद खुलेगा ? और इस बीच कोई नहीं आएगा यहाँ, लेकिन आप तो सुबह ही आ गये। पंडित जी ने उसे गौर से देखा, पहचानने की कोशिश की और पुछा – तुम वही हो जो मंदिर का द्वार बंद होने पर आये थे ? जो मुझे मिले थे। 6 महीने होते ही वापस आ गए ! उस आदमी ने आश्चर्य से कहा – नही, मैं कहीं नहीं गया। कल ही तो आप मिले थे, रात में मैं यहीं सो गया था। मैं कहीं नहीं गया। पंडित जी के आश्चर्य का ठिकाना नहीं था।*
*उन्होंने कहा – लेकिन मैं तो 6 महीने पहले मंदिर बन्द करके गया था और आज 6 महीने बाद आया हूँ। तुम छः महीने तक यहाँ पर जिन्दा कैसे रह सकते हो ? पंडित जी और सारी मंडली हैरान थी। इतनी सर्दी में एक अकेला व्यक्ति कैसे छः महीने तक जिन्दा रह सकता है। तब उस भक्त ने उनको सन्यासी बाबा के मिलने और उसके साथ की गयी सारी बाते बता दी। कि एक सन्यासी आया था – लम्बा था, बढ़ी-बढ़ी जटाये, एक हाथ में त्रिशुल और एक हाथ में डमरू लिए, मृग-शाला पहने हुआ था। पंडित जी और सब लोग उसके चरणों में गिर गये। बोले, हमने तो जिंदगी लगा दी किन्तु प्रभु के दर्शन ना पा सके, सच्चे भक्त तो तुम हो। तुमने तो साक्षात भगवान शिव के दर्शन किये है। उन्होंने ही अपनी योग-माया से तुम्हारे 6 महीने को एक रात में परिवर्तित कर दिया। काल-खंड को छोटा कर दिया। यह सब तुम्हारे पवित्र मन, तुम्हारी श्रद्वा और विश्वास के कारण ही हुआ है। आपकी भक्ति को प्रणाम जय श्री महाकाल
किस कारण “राम से बड़ा राम का नाम” है ?
एक दिन की बात है, राम दरबार सजा हुआ था.
हनुमान जी हमेशा की तरह अपने प्रभु राम की सेवा में तल्लीन थे कि इतने में गुरु वशिष्ठ का राम दरबार में आगमन हुआ.
श्री राम समेत सभी लोगों ने अपने स्थान से उठ कर गुरु वशिष्ठ को प्रणाम किया लेकिन हनुमान जी प्रभु राम की सेवा में इतने मगन थे कि उन्हें गुरु वशिष्ठ को प्रणाम करना याद न रहा.
गुरु वशिष्ठ ने इस ओर प्रभु राम का ध्यान दिलवाया और उनसे पूछा कि क्या यह उनके गुरु का अपमान नहीं था कि हनुमान ने उन्हें प्रणाम करना भी उचित नहीं जाना.
प्रभु राम ने माना कि यह गुरु का अपमान था.
इस पर गुरु वशिष्ठ ने राम से पूछा कि गुरु का अपमान करने वाले को क्या सज़ा मिलनी चाहिए?
प्रभु राम ने कहा कि गुरु वशिष्ठ का अपमान करने वाले की सज़ा मृत्यु होनी चाहिए.
गुरु वशिष्ठ ने पूछा कि क्या प्रभु राम अपने अत्यंत प्रिय हनुमान को मृत्यु दंड देंगे?
श्री राम ने उसी समय वचन दिया कि वे अगले दिन अपने अमोघ बाण से हनुमान को मृत्यु दंड देंगे.
सारी सभा हैरान रह गई.
हनुमान जी घर लौटे तो उनके मुख पर उदासी छाई थी. माता अंजनी के पूछने पर उन्होंने माता को सारी बात बताई. माता अंजनी ने कहा कि पुत्र चिंता मत करो मुझे राम नाम का मंत्र मिला हुआ है और वही मंत्र मैंने तुम्हें अपनी घुट्टी में दिया हुआ है. इस मंत्र की ऐसी महिमा है कि स्वयं श्री राम भी चाहें तो इस मंत्र का जप करने वाले का वध नहीं कर सकते. माता ने हनुमान को निश्चिंत रहने को कहा.
अगले दिन श्री राम ने अपनी अमोघ शक्ति से युक्त बाण हनुमान पर छोड़ा मगर उसका हनुमान पर कोई असर नहीं हुआ. बार बार चलाए गए सब बाण व्यर्थ गए.
गुरु वशिष्ठ ने राम से कहा कि वे जानबूझ कर अपने प्रिय हनुमान को नहीं मार रहे थे.
तब श्री राम ने कहा कि हनुमान पर जब वो अपना अमोघ बाण छोड़ते हैं तो हनुमान राम नाम के मंत्र के जप में लगे होते हैं इसलिए बाण का कोई असर नहीं होता क्योंकि इस शरीर धारी राम से कहीं बड़ा राम का नाम है.
इतनी बात सुन कर गुरु वशिष्ठ प्रभु राम से बोले कि हे राम अब मैं सब कुछ त्याग कर अपने आश्रम को जा रहा हूँ और वहाँ रह कर राम नाम का जाप करूँगा.
एक दिन हनुमानजी जब सीता जी की शरण में आए, नैनों में जल भरा हुआ है बैठ गए शीश झुकाए,
सीता जी ने पूछा उनसे कहो लाडले बात क्या है, किस कारण ये छाई उदासी, नैनों में क्यों नीर भरा है ?
हनुमान जी बोले मैया आपनें कुछ वरदान दिए हैं, अजर अमर की पदवी दी है, और बहुत सम्मान दिए हैं, अब मैं उन्हें लौटानें आया, मुझे अमर पद नहीं चाहिए, दूर रहूं मैं श्री चरणों से, ऐसा जीवन नहीं चाहिए।
सीता जी मुस्काकर बोली बेटा ये क्या बोल रहे हो, अमृत को तो देव भी तरसे, तुम काहे को डोल रहे हो?
इतने में श्रीराम प्रभु आ गए और बोले, क्या चर्चा चल रही है मां बेटे में………….??
तब सीताजी बोली सुनो नाथ जी, ना जाने क्या हुआ हनुमानको, पदवी अजर-अमर लौटानें आया है ये मुझको।
राम जी बोले क्यों बजरंगी ये क्या लीला नई रचाई, कौन भला छोड़ेगा , अमृत की ये अमर कमाई!!
हनुमानजी रोकर बोले, आप साकेत पधार रहे हो, मुझे छोड़कर इस धरती से, आप वैकुंठ सिधार रहे हो, आप बिना क्या मेरा जीवन अमृत का विष पीना होगा, तड़प-तड़प कर विरह अग्नि में जीना भी क्या जीना होगा!!
हनुमान जी बोले प्रभु अब आप ही बताओ, आप के बिना मैं यहां कैसे रहूंगा??
तब इस पर प्रभु श्रीराम बोले….
हनुमान सीता का यह वरदान सिर्फ आपके लिए ही नहीं है, बल्कि यह तो संसार भर के कल्याण के लिए है, तुम यहां रहोगे, और संसार का कल्याण करोगे।
मांगो हनुमान वरदान मांगो:-
इस पर श्री हनुमानजी बोले।
जहां जहां पर आपकी कथा हो, आपका नाम हो, वहां-वहां पर मैं उपस्थित होकर हमेशा आनंद लिया करूं,
सीताजी बोलीं देदो प्रभु देदो,
तब भगवान राम नें हंसकर कहा, तुम नहीं जानती सीता ये क्या मांग रहा है, ये अनगिनत शरीर मांग रहा है, जितनी जगह मेरा पाठ होगा उतनें शरीर मांग रहा है,
तब सीताजी बोलीं, तो दे दो फिर क्या हुआ, आपका लाडला है।
तब इस पर प्रभु श्रीराम बोले ,तुम्हारी इच्छा पूर्ण होगी, वहां विराजोगे बजरंगी, जहां हमारी चर्चा होगी, कथा जहां पर राम की होगी, वहां ये राम दुलारा होगा, जहां हमारा चिंतन होगा, वहां पे जिक्र तुम्हारा होगा।
कलयुग में मुझसे भी ज्यादा पूजा हो हनुमान तुम्हारी, जो कोई तुम्हरी शरण में आए, भक्ति उसको मिले हमारी,, मेरे हर मंदिर की शोभा बनकर आप विराजोगे, मेरे नाम का सुमिरन करके सुधबुध खोकर नाचोगे।।
नाच उठे ये सुन बजरंगी, चरणन शीश नवाया,
दुख-हर्ता सुख-कर्ता प्रभु का, प्यारा नाम ये गाया।।
जय सियाराम जयजय सियाराम,
जय सियाराम जयजय सियाराम।।
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।।”द्रौपदी का कर्ज”।। इस्को पढ कर आप जरूर अपबोट करेंगे
अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा महल में झाड़ू लगा रही थी तो द्रौपदी उसके समीप गई उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए बोली, “पुत्री भविष्य में कभी तुम पर घोर से घोर विपत्ति भी आए तो कभी अपने किसी नाते-रिश्तेदार की शरण में मत जाना। सीधे भगवान की शरण में जाना।” उत्तरा हैरान होते हुए माता द्रौपदी को निहारते हुए बोली, “आप ऐसा क्यों कह रही हैं माता ?”
द्रौपदी बोली, “क्योंकि यह बात मेरे ऊपर भी बीत चुकी है। जब मेरे पांचों पति कौरवों के साथ जुआ खेल रहे थे, तो अपना सर्वस्व हारने के बाद मुझे भी दांव पर लगाकर हार गए। फिर कौरव पुत्रों ने भरी सभा में मेरा बहुत अपमान किया। मैंने सहायता के लिए अपने पतियों को पुकारा मगर वो सभी अपना सिर नीचे झुकाए बैठे थे। पितामह भीष्म, द्रोण धृतराष्ट्र सभी को मदद के लिए पुकारती रही मगर किसी ने भी मेरी तरफ नहीं देखा, वह सभी आँखें झुकाए आँसू बहाते रहे। सबसे निराशा होकर मैंने श्रीकृष्ण को पुकारा, “आपके सिवाय मेरा और कोई भी नहीं है, तब श्रीकृष्ण तुरंत आए और मेरी रक्षा की।”
जब द्रौपदी पर ऐसी विपत्ति आ रही थी तो द्वारिका में श्री कृष्ण बहुत विचलित होते हैं। क्योंकि उनकी सबसे प्रिय भक्त पर संकट आन पड़ा था। रूकमणि उनसे दुखी होने का कारण पूछती हैं तो वह बताते हैं मेरी सबसे बड़ी भक्त को भरी सभा में नग्न किया जा रहा है। रूकमणि बोलती हैं, “आप जाएँ और उसकी मदद करें।” श्री कृष्ण बोले, “जब तक द्रोपदी मुझे पुकारेगी नहीं मैं कैसे जा सकता हूँ। एक बार वो मुझे पुकार लें तो मैं तुरंत उसके पास जाकर उसकी रक्षा करूँगा। तुम्हें याद होगा जब पाण्डवों ने राजसूर्य यज्ञ करवाया तो शिशुपाल का वध करने के लिए मैंने अपनी उंगली पर चक्र धारण किया तो उससे मेरी उंगली कट गई थी। उस समय “मेरी सभी पत्नियाँ वहीं थी। कोई वैद्य को बुलाने भागी तो कोई औषधि लेने चली गई। मगर उस समय मेरी इस भक्त ने अपनी साड़ी का पल्लू फाड़ा और उसे मेरी उंगली पर बाँध दिया। आज उसी का ऋण मुझे चुकाना है, लेकिन जब तक वो मुझे पुकारेगी नहीं मैं जा नहीं सकता।” अत: द्रौपदी ने जैसे ही भगवान कृष्ण को पुकारा प्रभु तुरंत ही दौड़े गए।
।।🚩श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी हे नाथ नारायण बासुदेव🚩।।
गिलहरी का रामसेतु बनाने में योगदान…
माता सीता को वापस लाने के लिए रामसेतु बनाने का कार्य चल रहा था। भगवान राम को काफी देर तक एक ही दिशा में निहारते हुए देख लक्ष्मण जी ने पूछा भैया आप इतनी देर से क्या देख रहें हैं? भगवान राम ने इशारा करते हुए दिखाया कि वो देखो लक्ष्मण एक गिलहरी बार-बार समुद्र के किनारे जाती है और रेत पर लोटपोट करके रेत को अपने शरीर पर चिपका लेती है। जब रेत उसके शरीर पर चिपक जाता है फिर वह सेतु पर जाकर अपना सारा रेत सेतु पर झाड़ आती है। वह काफी देर से यही कार्य कर रही है।
लक्ष्मण जी बोले प्रभु वह समुन्द्र में क्रीड़ा का आनंद ले रही है और कुछ नहीं। भगवान राम ने कहा, नहीं लक्ष्मण तुम उस गिलहरी के भाव को समझने का प्रयास करो। चलो आओ उस गिलहरी से ही पूछ लेते हैं कि वह क्या कर रही है? दोनों भाई उस गिलहरी के निकट गए। भगवान राम ने गिलहरी से पूछा कि तुम क्या कर रही हो? गिलहरी ने जवाब दिया कि कुछ भी नहीं प्रभु बस इस पुण्य कार्य में थोड़ा बहुत योगदान दे रही हूँ। भगवान राम को उत्तर देकर गिलहरी फिर से अपने कार्य के लिए जाने लगी, तो भगवान राम ने उसे टोकते हुए कहा- तुम्हारे रेत के कुछ कण डालने से क्या होगा ?
गिलहरी बोली प्रभु आप सत्य कह रहे हैं। मै सृष्टि की इतनी लघु प्राणी होने के कारण इस महान कार्य हेतु कर भी क्या सकती हूँ? मेरे कार्य का मूल्यांकन भी क्या होगा? प्रभु में यह कार्य किसी आकांक्षा से नहीं कर रही। यह कार्य तो राष्ट्र कार्य है, धर्म की अधर्म पर जीत का कार्य है। राष्ट्र कार्य किसी एक व्यक्ति अथवा वर्ग का नहीं बल्कि योग्यता अनुसार सम्पूर्ण समाज का होता है। जितना कार्य वह कर सके नि:स्वार्थ भाव से समाज को राष्ट्र हित का कार्य करना चाहिए। मेरा यह कार्य आत्म संतुष्टि के लिए है प्रभु। हाँ मुझे इस बात का खेद अवश्य है कि मै सामर्थ्यवान एवं शक्तिशाली प्राणियों की भाँति सहयोग नहीं कर पा रही। भगवान राम गिलहरी की बात सुनकर भाव विभोर हो उठे। भगवान राम ने उस छोटी सी गिलहरी को अपनी हथेली पर बैठा लिया और उसके शरीर पर प्यार से हाथ फेरने लगे। भगवान राम का स्पर्श पाते ही गिलहरी का जीवन धन्य हो गया।
व्यापार समस्या का निवारण
एक समय की बात है, एक छोटे से गांव में दो पंडित रहते थे। वे दोनों बहुत ही बुद्धिमान और ज्ञानी थे और लोगों की समस्याओं का समाधान ढूंढने में निपुण थे। दोनों के बीच मित्रता थी और वे एक-दूसरे की सहायता करते थे।
एक दिन, गांव के एक व्यक्ति ने पहुच कर दोनों पंडितों से मदद मांगी। व्यक्ति बताया कि उसका व्यापार धीरे-धीरे हानि कर रहा है और उसे इसका कारण समझ नहीं आ रहा है। दोनों पंडितों ने उसे सुना और उसे समस्या के निवारण के लिए उन्हें एक-दूसरे के पास भेजा।
पहले पंडित ने व्यक्ति के व्यापार की समस्या को विचार किया और ध्यान से सभी पहलुओं को देखा। उसने ध्यान दिया कि व्यक्ति की दुकान का स्थान एक ऐसे स्थान पर है जहां उसे किसी विशेष समूह या जनसंख्या की अभाव है।
दूसरे पंडित ने एक अलग दृष्टिकोण से मुद्दे को देखा। उसने व्यक्ति से पूछा कि क्या उसने कभी व्यापार के बारे में किसी दूसरे व्यक्ति से सलाह ली है। जब उसने नकारात्मकता दिखाई, तो दूसरे पंडित ने उसे समझाया कि सलाह लेना और एक-दूसरे के विचार सुनना व्यापार को बढ़ावा देने का एक महत्वपूर्ण तरीका हो सकता है।
फिर दोनों पंडितों ने मिलकर व्यक्ति को दिया कि उसे अपने व्यापार की एक अलग जगह पर खोलने की सलाह दी जाए। यह तरीका उसे नए ग्राहकों के साथ जुड़ने और अपने व्यापार को बढ़ावा देने का एक अवसर देता है। उसने उनकी सलाह को माना और नई जगह पर दुकान खोली। धीरे-धीरे, उसके व्यापार बढ़ने लगे और उसने एक सफल व्यापारी की उपाधि हासिल की।
यह कहानी हमें दिखाती है कि दोनों पंडितों ने अपने अलग-अलग दृष्टिकोणों से समस्या का समाधान ढूंढने की कोशिश की। उन्होंने अपने विचारों और ज्ञान का संयोग किया और साथ मिलकर उस व्यक्ति को सबसे अच्छा समाधान प्रदान किया। इस कहानी से हमें यह सिख मिलती है कि जब हम साझा करते हैं और एक-दूसरे की मदद करते हैं, तो हम अपनी समस्याओं का बेहतर समाधान प्राप्त कर सकते हैं।
केदारनाथ को क्यों कहते हैं ‘जागृत महादेव’ ?, दो मिनट की ये कहानी रौंगटे खड़े कर देगी “*
*एक बार एक शिव-भक्त अपने गांव से केदारनाथ धाम की यात्रा पर निकला। पहले यातायात की सुविधाएँ तो थी नहीं, वह पैदल ही निकल पड़ा। रास्ते में जो भी मिलता केदारनाथ का मार्ग पूछ लेता। मन में भगवान शिव का ध्यान करता रहता। चलते चलते उसको महीनो बीत गए।* *आखिरकार एक दिन वह केदार धाम पहुच ही गया। केदारनाथ में मंदिर के द्वार 6 महीने खुलते है और 6 महीने बंद रहते है। वह उस समय पर पहुचा जब मन्दिर के द्वार बंद हो रहे थे। पंडित जी को उसने बताया वह बहुत दूर से महीनो की यात्रा करके आया है। पंडित जी से प्रार्थना की – कृपा कर के दरवाजे खोलकर प्रभु के दर्शन करवा दीजिये । लेकिन वहां का तो नियम है एक बार बंद तो बंद। नियम तो नियम होता है। वह बहुत रोया। बार-बार भगवन शिव को याद किया कि प्रभु बस एक बार दर्शन करा दो। वह प्रार्थना कर रहा था सभी से, लेकिन किसी ने भी नही सुनी।*
*पंडित जी बोले अब यहाँ 6 महीने बाद आना, 6 महीने बाद यहा के दरवाजे खुलेंगे। यहाँ 6 महीने बर्फ और ढंड पड़ती है। और सभी जन वहा से चले गये। वह वही पर रोता रहा। रोते-रोते रात होने लगी चारो तरफ अँधेरा हो गया। लेकिन उसे विस्वास था अपने शिव पर कि वो जरुर कृपा करेगे। उसे बहुत भुख और प्यास भी लग रही थी। उसने किसी की आने की आहट सुनी। देखा एक सन्यासी बाबा उसकी ओर आ रहा है। वह सन्यासी बाबा उस के पास आया और पास में बैठ गया। पूछा – बेटा कहाँ से आये हो ?* *उस ने सारा हाल सुना दिया और बोला मेरा आना यहाँ पर व्यर्थ हो गया बाबा जी। बाबा जी ने उसे समझाया और खाना भी दिया। और फिर बहुत देर तक बाबा उससे बाते करते रहे। बाबा जी को उस पर दया आ गयी। वह बोले, बेटा मुझे लगता है, सुबह मन्दिर जरुर खुलेगा। तुम दर्शन जरुर करोगे।*
*बातों-बातों में इस भक्त को ना जाने कब नींद आ गयी। सूर्य के मद्धिम प्रकाश के साथ भक्त की आँख खुली। उसने इधर उधर बाबा को देखा, किन्तु वह कहीं नहीं थे । इससे पहले कि वह कुछ समझ पाता उसने देखा पंडित जी आ रहे है अपनी पूरी मंडली के साथ। उस ने पंडित को प्रणाम किया और बोला – कल आप ने तो कहा था मन्दिर 6 महीने बाद खुलेगा ? और इस बीच कोई नहीं आएगा यहाँ, लेकिन आप तो सुबह ही आ गये। पंडित जी ने उसे गौर से देखा, पहचानने की कोशिश की और पुछा – तुम वही हो जो मंदिर का द्वार बंद होने पर आये थे ? जो मुझे मिले थे। 6 महीने होते ही वापस आ गए ! उस आदमी ने आश्चर्य से कहा – नही, मैं कहीं नहीं गया। कल ही तो आप मिले थे, रात में मैं यहीं सो गया था। मैं कहीं नहीं गया। पंडित जी के आश्चर्य का ठिकाना नहीं था।*
*उन्होंने कहा – लेकिन मैं तो 6 महीने पहले मंदिर बन्द करके गया था और आज 6 महीने बाद आया हूँ। तुम छः महीने तक यहाँ पर जिन्दा कैसे रह सकते हो ? पंडित जी और सारी मंडली हैरान थी। इतनी सर्दी में एक अकेला व्यक्ति कैसे छः महीने तक जिन्दा रह सकता है। तब उस भक्त ने उनको सन्यासी बाबा के मिलने और उसके साथ की गयी सारी बाते बता दी। कि एक सन्यासी आया था – लम्बा था, बढ़ी-बढ़ी जटाये, एक हाथ में त्रिशुल और एक हाथ में डमरू लिए, मृग-शाला पहने हुआ था। पंडित जी और सब लोग उसके चरणों में गिर गये। बोले, हमने तो जिंदगी लगा दी किन्तु प्रभु के दर्शन ना पा सके, सच्चे भक्त तो तुम हो। तुमने तो साक्षात भगवान शिव के दर्शन किये है। उन्होंने ही अपनी योग-माया से तुम्हारे 6 महीने को एक रात में परिवर्तित कर दिया। काल-खंड को छोटा कर दिया। यह सब तुम्हारे पवित्र मन, तुम्हारी श्रद्वा और विश्वास के कारण ही हुआ है। आपकी भक्ति को प्रणाम जय श्री महाकाल
किस कारण “राम से बड़ा राम का नाम” है ?
एक दिन की बात है, राम दरबार सजा हुआ था.
हनुमान जी हमेशा की तरह अपने प्रभु राम की सेवा में तल्लीन थे कि इतने में गुरु वशिष्ठ का राम दरबार में आगमन हुआ.
श्री राम समेत सभी लोगों ने अपने स्थान से उठ कर गुरु वशिष्ठ को प्रणाम किया लेकिन हनुमान जी प्रभु राम की सेवा में इतने मगन थे कि उन्हें गुरु वशिष्ठ को प्रणाम करना याद न रहा.
गुरु वशिष्ठ ने इस ओर प्रभु राम का ध्यान दिलवाया और उनसे पूछा कि क्या यह उनके गुरु का अपमान नहीं था कि हनुमान ने उन्हें प्रणाम करना भी उचित नहीं जाना.
प्रभु राम ने माना कि यह गुरु का अपमान था.
इस पर गुरु वशिष्ठ ने राम से पूछा कि गुरु का अपमान करने वाले को क्या सज़ा मिलनी चाहिए?
प्रभु राम ने कहा कि गुरु वशिष्ठ का अपमान करने वाले की सज़ा मृत्यु होनी चाहिए.
गुरु वशिष्ठ ने पूछा कि क्या प्रभु राम अपने अत्यंत प्रिय हनुमान को मृत्यु दंड देंगे?
श्री राम ने उसी समय वचन दिया कि वे अगले दिन अपने अमोघ बाण से हनुमान को मृत्यु दंड देंगे.
सारी सभा हैरान रह गई.
हनुमान जी घर लौटे तो उनके मुख पर उदासी छाई थी. माता अंजनी के पूछने पर उन्होंने माता को सारी बात बताई. माता अंजनी ने कहा कि पुत्र चिंता मत करो मुझे राम नाम का मंत्र मिला हुआ है और वही मंत्र मैंने तुम्हें अपनी घुट्टी में दिया हुआ है. इस मंत्र की ऐसी महिमा है कि स्वयं श्री राम भी चाहें तो इस मंत्र का जप करने वाले का वध नहीं कर सकते. माता ने हनुमान को निश्चिंत रहने को कहा.
अगले दिन श्री राम ने अपनी अमोघ शक्ति से युक्त बाण हनुमान पर छोड़ा मगर उसका हनुमान पर कोई असर नहीं हुआ. बार बार चलाए गए सब बाण व्यर्थ गए.
गुरु वशिष्ठ ने राम से कहा कि वे जानबूझ कर अपने प्रिय हनुमान को नहीं मार रहे थे.
तब श्री राम ने कहा कि हनुमान पर जब वो अपना अमोघ बाण छोड़ते हैं तो हनुमान राम नाम के मंत्र के जप में लगे होते हैं इसलिए बाण का कोई असर नहीं होता क्योंकि इस शरीर धारी राम से कहीं बड़ा राम का नाम है.
इतनी बात सुन कर गुरु वशिष्ठ प्रभु राम से बोले कि हे राम अब मैं सब कुछ त्याग कर अपने आश्रम को जा रहा हूँ और वहाँ रह कर राम नाम का जाप करूँगा.
सच ही है कि राम से बड़ा राम का नाम.
सच ही है कि राम से बड़ा राम का नाम.
सच ही है कि राम से बड़ा राम का नाम.
सच ही है कि राम से बड़ा राम का नाम.
आचरण का महत्व
एक बार एक राज्य के राजा अपने राज्य के राजा पुरोहित का बहुत सम्मान करते थे। जब भी वह आते राजा स्वयं अपने सिंहासन से उठकर उनका सम्मान करते थे। एक दिन राजा कहने लगे कि मेरे मन में एक प्रश्न है गुरु देव मुझे बताएं कि किसी व्यक्ति का आचरण बड़ा होता है या फिर उसका ज्ञान बड़ा होता है।
राज पुरोहित कहने लगे कि राजन् मुझे कुछ दिनों का समय दे फिर मैं आपको इस प्रश्न का उत्तर दूंगा। राजा बोला गुरुदेव ठीक है।
राज पुरोहित अगले दिन राजा के कोषागार में गए और वहां से कुछ सोने की मोहरें उठा कर अपनी पोटली में रख ली। कोषाध्यक्ष चुपचाप सब कुछ देख रहा था लेकिन वह राजा के पुरोहित है ऐसा सोच मौन रहे। राज पुरोहित कुछ दिन तक लगातार ऐसा करते रहे। कोषागार में जाते सोने की मोहरें पोटली में रखते और वापिस आ जाते।
कोषाध्यक्ष ने सारा वृत्तांत राजा को सुना दिया। राज पुरोहित एक दिन राजा महल में पहुंचे आज ना तो राजा स्वयं उन्हें लेने गया और ना ही सम्मान में सिंहासन से उठा। राज पुरोहित समझ गए कि मेरी स्वर्ण मुद्राएं चोरी करने की बात राजा तक पहुंच गई है।
राजा ने भौंहें तान कर पूछा क्या आपने कोषागार से स्वर्ण मुद्राएं चोरी की है ? राज पुरोहित ने कहा कि हां राजन् यह बात सत्य है। राजा ने क्रोधित होकर पूछा आपने ऐसा क्यों किया?
राज पुरोहित कहने लगे कि मैंने जानबूझ कर स्वर्ण मुद्राएं चुराई थी क्योंकि मैं आप को प्रत्यक्ष दिखाना चाहता था कि किसी व्यक्ति का आचरण बड़ा होता है या फिर ज्ञान।
राजन् जब आपको पता चला कि मैंने स्वर्ण मुद्राएं चोरी की है आप मेरे सम्मान में खड़े नहीं हुए उल्टा क्रोध से आपकी भौंहें मुझ पर तन गई। मेरा ज्ञान तो स्वर्ण मुद्राएं उठाने से पहले भी मेरे पास था और उठाने के बाद भी मेरे साथ ही था। लेकिन जैसे ही मेरे चोर होने की बात आपको ज्ञात हुई मेरे प्रति आपका जो सम्मान था वह लगभग समाप्त हो गया।
राजन् अब शायद आपको अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया होगा। मेरा जो आप सम्मान करते हैं वो मेरे आचरण के कारण करते थे जैसे ही मेरा आचरण बदला आपने मेरा सम्मान नहीं किया।
इसलिए हमें सदैव अपना आचरण अच्छा रखना चाहिए। क्योंकि अगर हमारा आचरण अच्छा नहीं है तो हमारी शिक्षा,पद और धन भी हमें सम्मान नहीं दिला सकती है।
प्रकाण्ड विद्वान #अष्टावक्र
अष्टावक्र इतने प्रकाण्ड विद्वान थे कि माँ के गर्भ से ही अपने पिताजी “कहोड़” को अशुद्ध वेद पाठ करने के लिये टोंक दिए जिससे क्रुद्ध होकर पिताजी ने आठ जगह से टेड़ें हो जाने का श्राप दे दिया था।
पौराणिक_कथा
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अष्टावक्र अद्वैत वेदान्त के महत्वपूर्ण ग्रन्थ अष्टावक्र गीता के ऋषि हैं। अष्टावक्र गीता अद्वैत वेदान्त का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है।
‘अष्टावक्र’ का अर्थ ‘आठ जगह से टेढा’ होता है।
कहते हैं कि अष्टावक्र का शरीर आठ स्थानों से टेढ़ा था।
उद्दालक ऋषि के पुत्र का नाम श्वेतकेतु था। उद्दालक ऋषि के एक शिष्य का नाम कहोड़ था। कहोड़ को सम्पूर्ण वेदों का ज्ञान देने के पश्चात् उद्दालक ऋषि ने उसके साथ अपनी रूपवती एवं गुणवती कन्या सुजाता का विवाह कर दिया। कुछ दिनों के बाद सुजाता गर्भवती हो गई। एक दिन कहोड़ वेदपाठ कर रहे थे तो गर्भ के भीतर से बालक ने कहा कि पिताजी! आप वेद का गलत पाठ कर रहे हैं। यह सुनते ही कहोड़ क्रोधित होकर बोले कि तू गर्भ से ही मेरा अपमान कर रहा है इसलिये तू आठ स्थानों से वक्र (टेढ़ा) हो जायेगा।
हठात् एक दिन कहोड़ राजा जनक के दरबार में जा पहुँचे। वहाँ बंदी से शास्त्रार्थ में उनकी हार हो गई। हार हो जाने के फलस्वरूप उन्हें जल में डुबा दिया गया। इस घटना के बाद अष्टावक्र का जन्म हुआ। पिता के न होने के कारण वह अपने नाना उद्दालक को अपना पिता और अपने मामा श्वेतकेतु को अपना भाई समझता था। एक दिन जब वह उद्दालक की गोद में बैठा था तो श्वेतकेतु ने उसे अपने पिता की गोद से खींचते हुये कहा कि हट जा तू यहाँ से, यह तेरे पिता का गोद नहीं है। अष्टावक्र को यह बात अच्छी नहीं लगी और उन्होंने तत्काल अपनी माता के पास आकर अपने पिता के विषय में पूछताछ की। माता ने अष्टावक्र को सारी बातें सच-सच बता दीं।
अपनी माता की बातें सुनने के पश्चात् अष्टावक्र अपने मामा श्वेतकेतु के साथ बंदी से शास्त्रार्थ करने के लिये राजा जनक के यज्ञशाला में पहुँचे। वहाँ द्वारपालों ने उन्हें रोकते हुये कहा कि यज्ञशाला में बच्चों को जाने की आज्ञा नहीं है। इस पर अष्टावक्र बोले कि अरे द्वारपाल! केवल बाल श्वेत हो जाने या अवस्था अधिक हो जाने से कोई बड़ा व्यक्ति नहीं बन जाता। जिसे वेदों का ज्ञान हो और जो बुद्धि में तेज हो वही वास्तव में बड़ा होता है। इतना कहकर वे राजा जनक की सभा में जा पहुँचे और बंदी को शास्त्रार्थ के लिये ललकारा।
राजा जनक ने अष्टावक्र की परीक्षा लेने के लिये पूछा कि वह पुरुष कौन है जो तीस अवयव, बारह अंश, चौबीस पर्व और तीन सौ साठ अक्षरों वाली वस्तु का ज्ञानी है? राजा जनक के प्रश्न को सुनते ही अष्टावक्र बोले कि राजन्! चौबीस पक्षों वाला, छः ऋतुओं वाला, बारह महीनों वाला तथा तीन सौ साठ दिनों वाला संवत्सर आपकी रक्षा करे। अष्टावक्र का सही उत्तर सुनकर राजा जनक ने फिर प्रश्न किया कि वह कौन है जो सुप्तावस्था में भी अपनी आँख बन्द नहीं रखता? जन्म लेने के उपरान्त भी चलने में कौन असमर्थ रहता है? कौन हृदय विहीन है? और शीघ्रता से बढ़ने वाला कौन है? अष्टावक्र ने उत्तर दिया कि हे जनक! सुप्तावस्था में मछली अपनी आँखें बन्द नहीं रखती। जन्म लेने के उपरान्त भी अंडा चल नहीं सकता। पत्थर हृदयहीन होता है और वेग से बढ़ने वाली नदी होती है।
अष्टावक्र के उत्तरों को सुकर राजा जनक प्रसन्न हो गये और उन्हें बंदी के साथ शास्त्रार्थ की अनुमति प्रदान कर दी। बंदी ने अष्टावक्र से कहा कि एक सूर्य सारे संसार को प्रकाशित करता है, देवराज इन्द्र एक ही वीर हैं तथा यमराज भी एक है। अष्टावक्र बोले कि इन्द्र और अग्निदेव दो देवता हैं। नारद तथा पर्वत दो देवर्षि हैं, अश्वनीकुमार भी दो ही हैं। रथ के दो पहिये होते हैं और पति-पत्नी दो सहचर होते हैं। बंदी ने कहा कि संसार तीन प्रकार से जन्म धारण करता है। कर्मों का प्रतिपादन तीन वेद करते हैं। तीनों काल में यज्ञ होता है तथा तीन लोक और तीन ज्योतियाँ हैं। अष्टावक्र बोले कि आश्रम चार हैं, वर्ण चार हैं, दिशायें चार हैं और ओंकार, आकार, उकार तथा मकार ये वाणी के प्रकार भी चार हैं। बंदी ने कहा कि यज्ञ पाँच प्रकार के होते हैं, यज्ञ की अग्नि पाँच हैं, ज्ञानेन्द्रियाँ पाँच हैं, पंच दिशाओं की अप्सरायें पाँच हैं, पवित्र नदियाँ पाँच हैं तथा पंक्ति छंद में पाँच पद होते हैं। अष्टावक्र बोले कि दक्षिणा में छः गौएँ देना उत्तम है, ऋतुएँ छः होती हैं, मन सहित इन्द्रयाँ छः हैं, कृतिकाएँ छः होती हैं और साधस्क भी छः ही होते हैं। बंदी ने कहा कि पालतू पशु सात उत्तम होते हैं और वन्य पशु भी सात ही, सात उत्तम छंद हैं, सप्तर्षि सात हैं और वीणा में तार भी सात ही होते हैं। अष्टावक्र बोले कि आठ वसु हैं तथा यज्ञ के स्तम्भक कोण भी आठ होते हैं। बंदी ने कहा कि पितृ यज्ञ में समिधा नौ छोड़ी जाती है, प्रकृति नौ प्रकार की होती है तथा वृहती छंद में अक्षर भी नौ ही होते हैं। अष्टावक्र बोले कि दिशाएँ दस हैं, तत्वज्ञ दस होते हैं, बच्चा दस माह में होता है और दहाई में भी दस ही होता है। बंदी ने कहा कि ग्यारह रुद्र हैं, यज्ञ में ग्यारह स्तम्भ होते हैं और पशुओं की ग्यारह इन्द्रियाँ होती हैं। अष्टावक्र बोले कि बारह आदित्य होते हैं बारह दिन का प्रकृति यज्ञ होता है, जगती छंद में बारह अक्षर होते हैं और वर्ष भी बारह मास का ही होता है। बंदी ने कहा कि त्रयोदशी उत्तम होती है, पृथ्वी पर तेरह द्वीप हैं।…… इतना कहते कहते बंदी श्लोक की अगली पंक्ति भूल गये और चुप हो गये। इस पर अष्टावक्र ने श्लोक को पूरा करते हुये कहा कि वेदों में तेरह अक्षर वाले छंद अति छंद कहलाते हैं और अग्नि, वायु तथा सूर्य तीनों तेरह दिन वाले यज्ञ में व्याप्त होते हैं।
इस प्रकार शास्त्रार्थ में बंदी की हार हो जाने पर अष्टावक्र ने कहा कि राजन्! यह हार गया है, अतएव इसे भी जल में डुबो दिया जाये। तब बंदी बोला कि हे महाराज! मैं वरुण का पुत्र हूँ और मैंने सारे हारे हुये ब्राह्मणों को अपने पिता के पास भेज दिया है। मैं अभी उन सबको आपके समक्ष उपस्थित करता हूँ। बंदी के इतना कहते ही बंदी से शास्त्रार्थ में हार जाने के पश्चात जल में डुबोये गये सार ब्राह्मण जनक की सभा में आ गये जिनमें अष्टावक्र के पिता कहोड़ भी थे।
अष्टावक्र ने अपने पिता के चरणस्पर्श किये। तब कहोड़ ने प्रसन्न होकर कहा कि पुत्र! तुम जाकर समंगा नदी में स्नान करो, उसके प्रभाव से तुम मेरे शाप से मुक्त हो जाओगे। तब अष्टावक्र ने इस स्थान में आकर समंगा नदी में स्नान किया और उसके सारे वक्र अंग सीधे हो गये।।
धन्य है हमारी सनातन संस्कृति
लोहार की ईमानदारी
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, एक बढ़ई किसी गांव में काम करने गया, लेकिन वह अपना हथौड़ा साथ ले जाना भूल गया। उसने गांव के लोहार के पास जाकर कहा, ‘मेरे लिए एक अच्छा सा हथौड़ा बना दो।
,
, मेरा हथौड़ा घर पर ही छूट गया है।’ लोहार ने कहा, ‘बना दूंगा पर तुम्हें दो दिन इंतजार करना पड़ेगा। हथौड़े के लिए मुझे अच्छा लोहा चाहिए। वह कल मिलेगा।’
,
, दो दिनों में लोहार ने बढ़ई को हथौड़ा बना कर दे दिया। हथौड़ा सचमुच अच्छा था। बढ़ई को उससे काम करने में काफी सहूलियत महसूस हुई। बढ़ई की सिफारिश पर एक दिन एक ठेकेदार लोहार के पास पहुंचा।
,
, उसने हथौड़ों का बड़ा ऑर्डर देते हुए यह भी कहा कि ‘पहले बनाए हथौड़ों से अच्छा बनाना।’ लोहार बोला, ‘उनसे अच्छा नहीं बन सकता। जब मैं कोई चीज बनाता हूं तो उसमें अपनी तरफ से कोई कमी नहीं रखता, चाहे कोई भी बनवाए।’
,
, धीरे-धीरे लोहार की शोहरत चारों तरफ फैल गई। एक दिन शहर से एक बड़ा व्यापारी आया और लोहार से बोला, ‘मैं तुम्हें डेढ़ गुना दाम दूंगा, शर्त यह होगी कि भविष्य में तुम सारे हथौड़े केवल मेरे लिए ही बनाओगे। हथौड़ा बनाकर दूसरों को नहीं बेचोगे।’
,
, लोहार ने इनकार कर दिया और कहा, ‘मुझे अपने इसी दाम में पूर्ण संतुष्टि है। अपनी मेहनत का मूल्य मैं खुद निर्धारित करना चाहता हूं। आपने फायदे के लिए मैं किसी दूसरे के शोषण का माध्यम नहीं बन सकता।
,
, आप मुझे जितने अधिक पैसे देंगे, उसका दोगुना गरीब खरीदारों से वसूलेंगे। मेरे लालच का बोझ गरीबों पर पड़ेगा, जबकि मैं चाहता हूं कि उन्हें मेरे कौशल का लाभ मिले। मैं आपका प्रस्ताव स्वीकार नहीं कर सकता।’
,
, सेठ समझ गया कि सच्चाई और ईमानदारी महान शक्तियां हैं। जिस व्यक्ति में ये दोनों शक्तियां मौजूद हैं, उसे किसी प्रकार का प्रलोभन अपने सिद्धांतों से नहीं डिगा सकता।
एक दिन कृष्ण की तरह पोशाक की इच्छा रखते हुए, भगवान बलराम ने कृष्ण से पूछा कि क्या वह अपना मोर पंख पहन सकते हैं और सिर्फ एक दिन के लिए कृष्ण की बांसुरी बजा सकते हैं।
कृष्ण जो अपने बड़े भाई से बहुत प्यार करते थे, सहमत हुए और व्यक्तिगत रूप से बलराम को अपना मोर पंख और बांसुरी दी।
कृष्ण और बलराम ने गर्मजोशी से गले लगाया और फिर बलराम खुशी से हंसते हुए, कृष्ण की बांसुरी बजाते हुए भाग गए।
इस बीच, मथुरा में, दुष्ट राजा कंस कृष्ण को मारने के लिए अश्व दानव, केशी को वृंदावन भेजने वाला था।
केशी राक्षस ने राजा कंस से पूछा, “मैं कृष्ण को कैसे पहचानूंगा?”
कंस ने उनसे कहा कि यह बताना आसान होगा, क्योंकि कृष्ण मोर पंख पहने और बांसुरी बजाने वाले एकमात्र व्यक्ति होंगे।
जबकि बलरामजी दिन के लिए कृष्ण होने के अपने मनोरंजन का पूरी तरह से आनंद ले रहे थे, भयंकर घोड़ा राक्षस, केशी, वृंदावन में घुस गया।
बलराम को अपने मुकुट में एक मोर पंख पहने और एक बांसुरी बजाते हुए देखकर, राजा कंस ने कृष्ण को जो वर्णन दिया था, उससे मेल खाते हुए, केशी दानव ने गर्जना की और बलराम को एक शक्तिशाली लात दी जो एक पूर्ण विकसित हाथी को मार सकती थी।
इस लात ने बलराम की हवा को पूरी तरह से खदेड़ दिया, और उन्हें राक्षस की दृष्टि से बाहर कर दिया।
यह सोचकर कि उसने कृष्ण को मार डाला है, केशी राक्षस सरपट दौड़ पड़ा।
बलरामजी स्वयं को उठाकर रोने लगे।
राक्षस की लात से बलराम की छाती अभी भी चोटिल थी और उनका दम घुट रहा था।
बलराम भूखे थे, बहुत थके हुए थे और इतनी दूर तक लड़खड़ाने के कारण उनके पूरे शरीर में दर्द हो रहा था।
घर पहुँचकर, बलराम तुरंत कृष्ण के पास गए और अपनी बांसुरी और मोर पंख लौटा दिए।
बलराम ने कृष्ण से कहा कि वह उन्हें फिर कभी नहीं पहनना चाहते हैं, और यह कि एक विशाल अश्व दानव ने अभी-अभी उन्हें हिंसक रूप से लात मारी है;
सोच रहा था कि वह कृष्ण था।
तब बलरामजी अपनी माता रोहिणी से मिले और उनकी गोद में सो गए।
कृष्ण ने मोर पंख को अपने मुकुट में बदल दिया, बांसुरी को वापस अपनी कमर में बांध लिया और गांव में चले गए।
तब श्रीकृष्ण भयानक अश्व दैत्य से मिले और अनायास ही उसका वध कर दिया।
कहानी की नीति:
कोई भी, कभी भी कृष्ण, भगवान का स्थान नहीं ले सकता।
जब कोई कोशिश करता है तो कई
परेशानियां हो सकती हैं।
भगवान बलराम जो कृष्ण की शक्तियों और गुणों में सृष्टि के सबसे करीब हैं, एक दिन के लिए भी कृष्ण नहीं हो सकते थे।
हम जीवात्माओं के बारे में क्या कहना है जो प्रतिदिन भोक्ता और नियंत्रक बनने की कोशिश करते हुए भगवान की नकल करने की कोशिश करते हैं।
ऐसा करने से हमारा विनाश निश्चित है।
भगवान कृष्ण भगवद गीता में कहते हैं:
अध्याय 5. पाठ 29
भोक्ताराम यज्ञ-तपासम
सर्व-लोक-महेश्वरम
सुहृदम सर्व-भूतानाम
ज्ञात्वा माम संतिम रचति
मुनि, मुझे इस रूप में जानकर:
1) सभी बलिदानों और तपस्याओं का अंतिम उद्देश्य;
2) सभी ग्रहों और देवताओं के सर्वोच्च भगवान;
3) सभी जीवों के दाता और शुभचिंतक;
…भौतिक दुखों की पीड़ा से शांति प्राप्त करें।
एक दिन कृष्ण की तरह पोशाक की इच्छा रखते हुए, भगवान बलराम ने कृष्ण से पूछा कि क्या वह अपना मोर पंख पहन सकते हैं और सिर्फ एक दिन के लिए कृष्ण की बांसुरी बजा सकते हैं।
कृष्ण जो अपने बड़े भाई से बहुत प्यार करते थे, सहमत हुए और व्यक्तिगत रूप से बलराम को अपना मोर पंख और बांसुरी दी।
कृष्ण और बलराम ने गर्मजोशी से गले लगाया और फिर बलराम खुशी से हंसते हुए, कृष्ण की बांसुरी बजाते हुए भाग गए।
इस बीच, मथुरा में, दुष्ट राजा कंस कृष्ण को मारने के लिए अश्व दानव, केशी को वृंदावन भेजने वाला था।
केशी राक्षस ने राजा कंस से पूछा, “मैं कृष्ण को कैसे पहचानूंगा?”
कंस ने उनसे कहा कि यह बताना आसान होगा, क्योंकि कृष्ण मोर पंख पहने और बांसुरी बजाने वाले एकमात्र व्यक्ति होंगे।
जबकि बलरामजी दिन के लिए कृष्ण होने के अपने मनोरंजन का पूरी तरह से आनंद ले रहे थे, भयंकर घोड़ा राक्षस, केशी, वृंदावन में घुस गया।
बलराम को अपने मुकुट में एक मोर पंख पहने और एक बांसुरी बजाते हुए देखकर, राजा कंस ने कृष्ण को जो वर्णन दिया था, उससे मेल खाते हुए, केशी दानव ने गर्जना की और बलराम को एक शक्तिशाली लात दी जो एक पूर्ण विकसित हाथी को मार सकती थी।
इस लात ने बलराम की हवा को पूरी तरह से खदेड़ दिया, और उन्हें राक्षस की दृष्टि से बाहर कर दिया।
यह सोचकर कि उसने कृष्ण को मार डाला है, केशी राक्षस सरपट दौड़ पड़ा।
बलरामजी स्वयं को उठाकर रोने लगे।
राक्षस की लात से बलराम की छाती अभी भी चोटिल थी और उनका दम घुट रहा था।
बलराम भूखे थे, बहुत थके हुए थे और इतनी दूर तक लड़खड़ाने के कारण उनके पूरे शरीर में दर्द हो रहा था।
घर पहुँचकर, बलराम तुरंत कृष्ण के पास गए और अपनी बांसुरी और मोर पंख लौटा दिए।
बलराम ने कृष्ण से कहा कि वह उन्हें फिर कभी नहीं पहनना चाहते हैं, और यह कि एक विशाल अश्व दानव ने अभी-अभी उन्हें हिंसक रूप से लात मारी है;
सोच रहा था कि वह कृष्ण था।
तब बलरामजी अपनी माता रोहिणी से मिले और उनकी गोद में सो गए।
कृष्ण ने मोर पंख को अपने मुकुट में बदल दिया, बांसुरी को वापस अपनी कमर में बांध लिया और गांव में चले गए।
तब श्रीकृष्ण भयानक अश्व दैत्य से मिले और अनायास ही उसका वध कर दिया।
कहानी की नीति:
कोई भी, कभी भी कृष्ण, भगवान का स्थान नहीं ले सकता।
जब कोई कोशिश करता है तो कई
परेशानियां हो सकती हैं।
भगवान बलराम जो कृष्ण की शक्तियों और गुणों में सृष्टि के सबसे करीब हैं, एक दिन के लिए भी कृष्ण नहीं हो सकते थे।
हम जीवात्माओं के बारे में क्या कहना है जो प्रतिदिन भोक्ता और नियंत्रक बनने की कोशिश करते हुए भगवान की नकल करने की कोशिश करते हैं।
ऐसा करने से हमारा विनाश निश्चित है।
भगवान कृष्ण भगवद गीता में कहते हैं:
अध्याय 5. पाठ 29
भोक्ताराम यज्ञ-तपासम
सर्व-लोक-महेश्वरम
सुहृदम सर्व-भूतानाम
ज्ञात्वा माम संतिम रचति
मुनि, मुझे इस रूप में जानकर:
1) सभी बलिदानों और तपस्याओं का अंतिम उद्देश्य;
2) सभी ग्रहों और देवताओं के सर्वोच्च भगवान;
3) सभी जीवों के दाता और शुभचिंतक;
…भौतिक दुखों की पीड़ा से शांति प्राप्त करें।
उससे पहले भी लक्ष्मी ही उनकी पत्नी थीं शायद आपको पता हो कि ये त्रिदेवों की जिन पत्नियों के बारे में शास्त्रों में बताया गया है वे सभी इनकी शक्तियां हैं भागवत में या शिव पुराण में शिव की जिन 11 रुद्राणियों का विवरण मिलता है वे सभी रुद्र (शिव ) की शक्ति स्वरूपा पत्नियां हैं (धी , वृत्ति ,उशना , उमा , नियुत , सर्पि , इला, अम्बिका , इरावती , सुना और दीक्षा ये रुद्र की 11 पत्नियां हैं इसी प्रकार कहीं शिव रूप में तो कहीं शंकर रूप में तो कहीं भोले के रूप में तथा शिव के अन्य अनेक रूपों के हिसाब से उनकी पत्नियों के भी नाम और स्थान बदल जाते हैं लेकिन वास्तव में तो ये एक ही पत्नी पार्वती के अनन्त रूप हैं जो परिस्थित के अनुरूप बदलते रहते हैं। भागवत , तृतीय स्कन्ध 12वां अध्याय )। इसी प्रकार विष्णु जी की पत्नी लक्ष्मी हैं चूंकि विष्णु को पालनकर्ता नियुक्त किया गया है इसलिये उनके पास धनदायक वैभवशाली शक्ति का होना अति आवश्यक था क्योंकि इस शक्ति के बिना विष्णु अपना कार्य पूर्ण कर ही नहीं सकते, इसीलिये लक्ष्मी उनकी अर्धांगिन हैं । ये विष्णु से कभी अलग हो ही नहीं सकतीं । भागवत की एक कथनानुसार एक बार ब्रह्मा , विष्णु और महेश की इन पत्नियों को अपनी शक्ति होने का घमंड हो गया । और इसी बात को लेकर वे अपने अपने पतियों को छोड़कर विलुप्त हो गईं इनमें जिसका जो मूलस्थान था वहीं वापस चलीं गईं ।अब अगर सबके बारे में बताऊं तो ये जबाब बहुत लम्बा हो जायेगा इसलिए सिर्फ लक्ष्मी के बारे में बताती हूं । कि लक्ष्मी अपने मूल स्थान समुद्र में निवास करने लगीं ( समुद्र का एक नाम रत्नाकर भी है जो उसे वैभव यानी लक्ष्मी से जोड़ता है ) उस समय त्रिदेव सहित समस्त सृष्टि श्री हीन हो गई थी , जिससे प्रकृति का संतुलन ही बिगड़ गया । तब समुद्र मंथन के बहाने लक्ष्मी को निकाला गया जिससे संसार में दुबारा संपन्नता और वैभव की स्थापना हो सकी ।
तो शायद आपको अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया हो, शिव का उदाहरण इसलिए दिया जिससे आप शक्तियों की विशेषता समझ सकें ।
इसीप्रकार ब्रह्मा की पत्नी ब्रह्माणी हैं यानी ब्रह्मा की वाणी, सरस्वती नहीं सरस्वती तो उनकी पुत्री है इन्हें शारदा भी कहते हैं ( भागवत , तृतीय स्कन्ध, 12 वां अध्याय) के अनुसार ब्रह्मा जब अपनी पुत्री सरस्वती पर मोहित हो गये थे तब उनके पुत्रों मरीचि आदि ऋषियों ने ब्रह्मा को बहुत धिक्कारा और समझाया जिसके कारण उन्हें अपनी देह का त्याग करना पड़ा ।
ब्रह्माणी और शारदा या सरस्वती में अन्तर क्या है ये किसी और प्रश्न के उत्तर में बताऊंगी
राधे राधे
दरअसल रावण की बेटी और हनुमान जी की ये कथा थाईलैंड के रामकियेन नामक रामायण में मिलती है जिसके अनुसार रावण की एक बेटी थी। जिसका नाम सुवर्णमछा था। वो देखने में बहुत ही सुंदर थी। उसे सोने की जलपरी कहां गया है। राम सेतु निर्माण के समय हनुमान जी और वानर सेना समुद्र में पत्थर फेंक कर जमाते थे, लेकिन कुछ समय बाद वे गायब हो जाते थे। जब हनुमान जी को इस घटना का पता चला तो वे समुद्र में उतर कर देखने लगे कि आखिरी चट्टान कहां गायब हो रही है। उन्होंने देखा कि पानी के अंदर रहने वाले लोग उन्हें कहीं ले जा रहे हैं। तब उन लोगों के पीछे हनुमान जी गए और देखते हैं कि एक मत्स्यकन्या उन सबकी नेता है तो उसे चुनौती देते हैं, परंतु वो कन्या हनुमान जी को देखकर ही उनके प्रेम में पड़ जाती है। हनुमान जी ये समझ जाते हैं और तब वापस समुद्र के तल पर ले आते हैं और उससे पूछते हैं। तुम कौन हो वह बताती है कि मैं रावण की बेटी हूं, फिर हनुमान जी कन्या को समझाते हैं कि रावण ने कितने बुरे कार्य किए हैं और क्यों हम यह पुल बना रहे हैं तब वह कन्या समझ जाती है और सभी चट्टान लौटा देती है। इस जानकारी के लिए कमेंट में जय श्री राम जरूर लिखें
रामकथा का एक प्रसंग……..
!! महाराज अज और रावण!!
महाराज दशरथ का जन्म बहुत ही एक अद्भुत घटना है पौराणिक धर्म ग्रंथों के आधार पर बताया जाता है कि
एक बार राजा अज दोपहर की वंदना कर रहे थे।
उस समय लंकापति रावण उनसे युद्ध करने के लिए आया और दूर से उनकी वंदना करना देख रहा था। राजा अज ने भगवान शिव की वंदना की और जल आगे अर्पित करने की जगह पीछे फेंक दिया।
यह देखकर रावण को बड़ा आश्चर्य हुआ। और वह युद्ध करने से पहले राजा अज के सामने पहुंचा तथा पूछने लगा कि हमेशा वंदना करने के पश्चात जल का अभिषेक आगे किया जाता है,
ना कि पीछे, इसके पीछे क्या कारण है। राजा अज ने कहा जब मैं आंखें बंद करके ध्यान मुद्रा में भगवान शिव की अर्चना कर रहा था।
तभी मुझे यहां से एक योजन दूर जंगल में एक गाय घास चरती हुई दिखी और मैंने देखा कि एक सिंह उस पर आक्रमण करने वाला है तभी मैंने गाय कि रक्षा के लिए जल का अभिषेक पीछे की तरफ किया।
रावण को यह बात सुनकर बड़ा ही आश्चर्य हुआ।
रावण ऐक योजन दूर वहाँ गया और उसने देखा कि एक गाय हरी घास चर रही है जबकि शेर के पेट में कई वाण लगे हैं अब रावण को विश्वास हो गया कि जिस महापुरुष के जल से ही बाण बन जाते हैं।
और बिना किसी लक्ष्य साधन के लक्ष्य बेधन हो जाता है ऐसे वीर पुरुष को जीतना बड़ा ही असंभव है और वह उनसे बिना युद्ध किए ही लंका लौट जाता है।
एक बार राजा अज जंगल में भ्रमण करने के लिए गए थे तो उन्हें एक बहुत ही सुंदर सरोवर दिखाई दिया उस सरोवर में एक कमल का फूल था जो अति सुंदर प्रतीत हो रहा था।
उस कमल को प्राप्त करने के लिए राजा अज सरोवर में चले गए किंतु यह क्या राजा अज कितना भी उस कमल के पास जाते वह कमल उनसे उतना ही दूर हो जाता और राजा अज ने उस कमल को नहीं पकड़ पाया।
अंततः आकाशवाणी हुई कि हे राजन आप नि:संतान हैं आप इस कमल के योग्य नहीं है इस भविष्यवाणी ने राजा अज के हृदय में एक भयंकर घात किया था।
राजा अज अपने महल में लौट आए और चिंता ग्रस्त रहने लगे क्योंकि उन्हें संतान नहीं थी जबकि वह भगवान शिव के परम भक्त थे।
भगवान शिव उनकी इस चिंता को ध्यान में लिया। और उन्होंने धर्मराज को बुलाया और कहा तुम किसी ब्राह्मण को अयोध्या नगरी पहुचावो जिससे राजा अज को संतान की प्राप्ति के आसार हो।
तब दूर पार से एक गरीब ब्राह्मण और ब्राह्मणी सरयू नदी के किनारे कुटिया बनाकर रहने लगे।
एक दिन वे ब्राह्मण राजा अज के दरबार में गए और उनसे अपनी दुर्दशा का जिक्र कर भिक्षा मांगने लगे।
राजा अज ने अपने खजाने में से उन्हें सोने की अशर्फियां देनी चाही लेकिन ब्राह्मण नहीं कहते हुए मना कर दिया कि यह प्रजा का है आप अपने पास जो है।
उसे दीजिए तब राजा अज ने अपने गले का हार उतारा और ब्राह्मण को देने लगे किंतु ब्राह्मण ने मना कर दिया कि यह भी प्रजा की ही संपत्ति है
इस प्रकार राजा अज को बड़ा दुख हुआ कि आज एक गरीब ब्राह्मण उनके दरबार से खाली हाथ जा रहा है तब राजा अज शाम को एक मजदूर का बेश बनाते हैं और नगर में किसी काम के लिए निकल जाते हैं।
चलते – चलते वह एक लौहार के यहाँ पहुंचते हैं और अपना परिचय बिना बताए ही वहां विनय कर काम करने लग जाते हैं पूरी रात को हथौड़े से लोहे का काम करते हैं जिसके बदले में उन्हें सुबह एक् टका मिलता है।
राजा एक टका लेकर ब्राह्मण के घर पहुंचते हैं लेकिन वहां ब्राह्मण नहीं था उन्होंने वह एक टका ब्राह्मण की पत्नी को दे दिया और कहा कि इसे ब्राह्मण को दे देना जब ब्राह्मण आया तो
ब्राह्मण की पत्नी ने वह टका ब्राह्मण को दिया और ब्राह्मण ने उस टका को जमीन पर फेंक दिया तभी एक आश्चर्यजनक घटना हुई ब्राह्मण ने जहां टका फेंका था वहां गड्ढा हो गया ब्राह्मण ने उस गढ्ढे को और खोदा तो उसमें से सोने का एक रथ निकला तथा आसमान में चला गया इसके पश्चात ब्राह्मण ने और खोदा तो दूसरा सोने का रथ निकला और आसमान की तरफ चला गया इसी प्रकार से, नौ सोने के रथ निकले
और आसमान की तरफ चले गए और जब दसवाँ रथ निकला तो उस पर एक बालक था और वह रथ जमीन पर आकर ठहर गया।
ब्राह्मण उस बालक को लेकर राजा अज के दरबार में पहुंचे और कहा राजन – इस पुत्र को स्वीकार कीजिए यह आपका ही पुत्र है जो एक टका से उत्पन्न हुआ है
तथा इसके साथ में सोने के नौ रथ निकले जो आसमान में चले गए जबकि
यह बालक दसवें रथ पर निकला इसलिए यह रथ तथा पुत्र आपका है। इस प्रकार से दशरथ जी का जन्म हुआ था।
महाराज दशरथ का असली नाम मनु था। ये दसों दिशाओं में अपना रथ लेकर जा सकते थे
जामवंत रामायण के एक ऐसे पात्र हैं जिनके विषय में बहुत विस्तार से नहीं लिखा गया है। हालाँकि रामायण में ही उनके विषय में केवल एक-दो चीजें ऐसी बताई गयी है जिनसे आप उनके बल के बारे में अनुमान लगा सकते हैं। आइये उन्हें देखते हैं।
- पहली बात तो जामवंत सतयुग के व्यक्ति थे। अब सतयुग में निःसंदेह योद्धा अन्य युगों की अपेक्षा बहुत अधिक शक्तिशाली होते थे। उनकी उत्पत्ति सीधे ब्रह्माजी से बताई गयी है। अब परमपिता ब्रह्मा से जो जन्मा हो उसकी शक्ति के बारे में तो केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है।
- रामचरितमानस में उनके पराक्रम के बारे में दो घटना विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उन दोनों स्थानों पर जामवंत का युद्ध रावण और मेघनाद के साथ हुआ था जिसमें दोनों को जामवंत ने अपने पाद प्रहार से मूर्छित कर दिया था। मेघनाद की शक्ति तो उन्होंने अपने हाथों से ही पकड़ कर पलट दी थी। अत्यंत वृद्धावस्था में भी जो रावण और मेघनाद जैसे योद्धाओं को अपने घात से मूर्छित कर दे, जरा सोचिये युवावस्था में उसका बल क्या होगा।
- जब द्वापर आया और जामवंत और अधिक बूढ़े हो गए, उस समय उनका युद्ध श्रीकृष्ण से हुआ था। जनमवंत को परास्त करने के लिए श्रीकृष्ण को उनसे एक-दो नहीं बल्कि 28 दिनों तक युद्ध करना पड़ा। स्वयं परमेश्वर कृष्ण को जिसे परास्त करने में अट्ठाइस दिन लग गए हों, वो भी वृद्धावस्था में, जवानी में उनके बल के बारे में हम केवल अनुमान ही लगा सकते हैं।
- जब सीता माता को खोजने के लिए समुद्र लांघने की बात चल रही थी उस समय जामवंत कहते हैं कि “मैं तो अब बहुत बूढ़ा हो गया हूँ, फिर भी इस समुद्र में मैं 90 योजन तक जा सकता हूँ।” हनुमान जी अपनी युवावस्था में 100 योजन छलांग गए, जामवंत की आयु उस समय 6 मन्वन्तर की बताई गयी है। एक मन्वन्तर तीस करोड़ सड़सठ लाख बीस हजार वर्षों का होता है, फिर भी वे 90 योजन तक जाने की क्षमता रखते थे, इसी से उनके बल का पता चलता है।
- इस वार्तालाप के दौरान उन्होंने युवावस्था में अपने बल के बारे में दो बातें बताई जिसे ध्यान से सुनना आवश्यक है। इससे आपको जामवंत की वास्तविक शक्ति का पता चलेगा।
- पहली घटना तब की है जब समुद्र मंथन चल रहा था जिसे देवता और दैत्य मिलकर बड़ी मुश्किल से कर पा रहे थे। उस समय जामवंत ने अपनी जवानी के जोश में एक बार अकेले ही सम्पूर्ण मंदराचल पर्वत को घुमा दिया था। मंदराचल को अकेले घुमाने के लिए कितनी शक्ति चाहिए होगी, क्या आपको अंदाजा है?
- दूसरी घटना भगवान विष्णु के वामन अवतार की है। जब श्रीहरि ने विराट स्वरुप लिया और एक पैर से स्वर्ग को नाप लिया। फिर जब उन्होंने अपना पैर पृथ्वी को नापने के लिए उठाया, उस दौरान जामवंत ने केवल 7 पल में पृथ्वी की सात परिक्रमा कर ली थी। जरा सोचिये महावीर हनुमान एक ही रात में लंका से सैकड़ों योजन दूर से पर्वत शिखर उखाड़ कर ले आये लेकिन जामवंत ने केवल सात पल में पृथ्वी की सात परिक्रमा कर ली थी। एक पल लगभग 24 सेकंड का होता है। क्या आप उनकी गति का अनुमान लगा सकते हैं?
- उस उनके बल का ऐसा वर्णन सुनकर जब अंगद उनसे पूछते हैं कि उनका बल क्षीण कैसे हुआ? तब वे बताते हैं कि जब वे पृथ्वी की परिक्रमा कर रहे थे तो अंतिम परिक्रमा के समय उनके पैर के अंगूठे का नाख़ून महामेरु पर्वत से छू गया, जिससे उसका शिखर खंडित हो गया। इसे अपना अपमान मानते हुए मेरु ने जामवंत को ये श्राप दे दिया कि वो सदा के लिए बूढ़ा हो जाएगा और उसका बल क्षीण हो जाएगा।
आशा है आपको जामवंत की शक्ति का कुछ अंदाजा हो गया होगा। किन्तु इतने शक्तिशाली होने के बाद भी उनमें लेश मात्र भी घमंड नहीं था। जय श्रीराम।
रामचरितमानस क्यों लिखी गई थी?
एक घटना है तुलसीदास जी रामचरित्र मानस लिख रहे थे संस्कृत में।
तब वह दिन में जितने भी पेज लिखे थे तो अगले दिन उठकर जब वह दोबारा लिखने के लिए बैठे तो पहले दिन उन्होंने जितना भी लिखा था वह सब गायब हो गया था।
फिर उन्होंने लिखना शुरू किया और जब अगले दिन देखा तो फिर से वह गायब हो गए तीन-चार दिन तक यही सब होता रहा तो उन्होंने परेशान होकर महादेव का ध्यान किया उन्होंने कहा प्रभु मैं यह सब आपकी इच्छा से तो लिख रहा हूं क्या मुझसे कोई गलती हुई है जो मेरे साथ ऐसा हो रहा है।
तब उनको संकेत दिया गया की राम चरित्र मानस को संस्कृत में न लिखकर आम जनों की भाषा में लिखो क्योंकि अब जो लोग हैं उनकी भाषा का स्तर संस्कृत नहीं रही उनकी भाषा का स्तर पहले से गिर चुका है तो जन-जन तक इसे पहुंचाने के लिए रामचरितमानस को आम जन की भाषा में लिखा गया ताकि प्रत्येक व्यक्ति इसको सुन और समझ सके और अपने जीवन में उतार सकें। धन्यवाद
जय जय सियाराम जय जय हनुमान
प्राचीन समय में एक बहुत ही बहादुर और शक्तिशाली राजा रहा करता था, जिसका नाम राजा सत्यव्रत था। राजा सत्यव्रत भगवान में पूर्ण श्रद्धा रखते थे और भगवान पर अटूट विश्वास रखते थे। राजा सत्यव्रत के राज्य में सभी लोग खुशी खुशी अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे और वह राजा के तौर-तरीकों से बहुत प्रसन्न थे। राज्य में सभी लोग अपने राजा से बहुत प्रेम करते थे।
उनके राज्य में सभी लोग मिल जुल कर रहा करते थे। राजा सत्यव्रत का कोई भी दुश्मन नहीं था। राजासत्यव्रत के पास सब कुछ था। वह अपना जीवन बहुत खुशी खुशी व्यतीत करते थे। राजा सत्यव्रत बहुत ही दयालु और उदार किसम के व्यक्ति थे। राजा सत्यव्रत बहुत दान और पुण्य किया करते थे लेकिन राजा सत्यव्रत की एक मनोकामना थी कि वह मरने के बाद स्वर्ग लोक में जाएं
जिसके लिए राजासत्यव्रत बहुत सारा उपाय किया करते थे और बहुत सारा दान दक्षिणा दिया करते थे, जिससे वह खूब पुण्य कमा सके। राजा सत्यव्रत चाहते थे कि वह सीधा मरने के पश्चात पृथ्वी से स्वर्ग लोक में जाएं। राजा सत्यव्रत को स्वर्ग लोक बहुत पसंद था स्वर्ग लोक की सुंदरता से बहुत मोहित हो चुके थे।
बहुत उपाय और प्रयास के बाद भी राजा सत्यव्रत को पृथ्वी से सीधा स्वर्ग लोक जाने का रास्ता नहीं मिल रहा था। जिसके कारण वह बहुत चिंतित रहने लगे थे। एक समय की बात है कि जब ऋषि विश्वामित्र जी तपस्या करने के लिए अपने घर को छोड़कर बहुत दूर जंगल में चले गए थे और ऋषि विश्वामित्र जी जंगल में जाकर अपनी तपस्या करने लगे थे।
तभी ऋषि विश्वामित्र जी के गांव में अचानक से सूखा पड़ गया, जिसके कारण गांव के सभी लोग इधर उधर भटकने लगे। विश्वामित्र जी के परिवार के लोग भी इधर उधर भटकने लगे थे। जब यह बात राजा सत्यव्रत को पता लगी तो उन्होंने ऋषि विश्वामित्र जी के परिवार को अपने महल में बुला लिया।
ऋषि विश्वामित्र जी के परिवार को अपने साथ ही अपने महल में रहने के अपने नौकरों को आदेश दिया और राजा सत्यव्रत ने ऋषि विश्वामित्र जी के परिवार का बहुत आदर सम्मान किया, उनका ध्यान रखा और कुछ दिनों के बाद जब ऋषि विश्वामित्र जी तपस्या करके वापस आए।
तब उन्होंने देखा कि उनके गांव में सूखा पड़ा है और चारों तरफ पानी की एक बूंद भी नहीं है। जिसके बाद ऋषि विश्वामित्र जी अपने परिवार से मिले, उनके परिवार के सभी लोगों ने ऋषि विश्वामित्र जी को बताया कि आपके जाने के बाद यहां पर सूखा पड़ गया था। जिसके बाद राजा सत्यव्रत ने हम लोगों को अपने घर में आसरा दिया था और हमारा बहुत अच्छे से ध्यान रखा था। जिसके बाद ऋषि विश्वामित्र यह सुनकर बहुत प्रसन्न हो गए और उन्होंने राजा सत्यव्रत से मिलने जाने का फैसला लिया।
जिसके बाद अगली सुबह ऋषि विश्वामित्र जी राजा सत्यव्रत के दरबार में पहुंच गए और उन्होंने राजा सत्यव्रत को बहुत सारा धन्यवाद दिया। उन्होंने राजा सत्यव्रत से कहा कि मेरे ना होने पर आपने मेरे परिवार का बहुत सारा ध्यान रखा है, जिसके लिए मैं आपका बहुत-बहुत धन्यवाद करता हूं।
मैं आपसे बहुत प्रसन्न हूं, जिसके कारण आप मुझसे एक वरदान मांग सकते हैं। जिसके बाद राजा सत्यव्रत मैं ऋषि विश्वामित्र से वरदान के रूप में कहा कि क्या आप मुझको मरने के बाद पृथ्वी से सीधा स्वर्ग लोक में पहुंचा सकते हैं। मैं आपसे वरदान के रूप में यही मांगता हूं।
जिसके बाद ऋषि विश्वामित्र जी ने राजा सत्यव्रत की मनोकामना को स्वीकार कर लिया और तभी ऋषि विश्वामित्र जी ने अपनी दिव्य शक्तियों से पृथ्वी से सीधा स्वर्ग जाने का एक रास्ता बना दिया। जिसको देखकर राजा सत्यव्रत बहुत प्रसन्न हो गए और वह तुरंत स्वर्ग की ओर जाने के लिए प्रस्थान करने लगे। कुछ ही समय में जब राजा सत्यव्रत स्वर्ग लोक पहुंच गए।
तब जैसे ही स्वर्ग लोक के अंदर जाने लगे तब भगवान इंद्र देव ने राजा सत्यव्रत को लात मार कर वापस पृथ्वी में वापस भेज दिया। जिससे राजा सत्यव्रत बहुत आहत हो गए और राजा सत्यव्रत तुरंत ऋषि विश्वामित्र जी के पास पहुंच गए और उन्होंने वहां जाकर अपने साथ हुए अपमान को ऋषि विश्वामित्र जी को बताया।
ऋषि विश्वामित्र जी ने राजा सत्यव्रत की बात सुनी और जब राजा सत्यव्रत ने जैसे ही ऋषि विश्वामित्र जी को सारी बात बताई तो वह राजा सत्यव्रत की बात सुनकर बहुत क्रोधित हो गए और फिर ऋषि विश्वामित्र जी तुरंत खुद ही स्वर्ग लोग चले गए।
वहां पहुंच कर उन्होंने सभी देवताओं से बात की और ऋषि विश्वामित्र जी और देवताओं ने आपस में बात कर कर एक उपाय निकाला कि एक नया स्वर्ग लोक तैयार किया जाएगा, जो पृथ्वी और स्वर्ग लोक के बीच में होगा। राजा सत्यव्रत देवताओं के इस फैसले से बहुत खुश थे।
लेकिन राजा सत्यव्रत को अंदर ही अंदर एक चिंता जताई जा रही थी कि यह नया स्वर्ग लोक पृथ्वी और स्वर्ग लोक के बीच में होगा और यह कहीं तेज हवा के झोंके से हिल गया और यह तो गिर जाएगा, जिससे मैं वापस पृथ्वी पर आ जाऊंगा।
जिसके बाद राजा सत्यव्रत में यह बात ऋषि विश्वामित्र जी को बताएं ऋषि विश्वामित्र जी ने राजा सत्यव्रत की बात सुनी और ऋषि विश्वामित्र जी ने नए स्वर्ग लोक के नीचे एक बहुत बड़ा पेड़ लगा दिया। पेड़ लगने के कारण नया स्वर्ग लोक उस पर स्थिर हो गया, जिसके बाद राजा सत्यव्रत अपने नए स्वर्ग लोक में चले गए।
कुछ ही समय में राजा सत्यव्रत का निधन हो गया। उनके निधन होने के बाद राजा सत्यव्रत का सर ही नारियल का फल बना, जो आगे चलकर नारियल का पेड़ कहलाने लगा। जिसके बाद राजा सत्यव्रत को ना इधर का रहने और ना उधर का रहने की उपाधि दी गई।
ऐसा उनको इसलिए दिया गया था क्योंकि राजा सत्यव्रत दो ग्रहों के बीच में रहते थे। नारियल के फल को भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी जी का बहुत प्रिय फल कहा जाता है। नारियल का फल किसी भी शुभ काम करने से पहले फोड़ा जाता है। ऐसा कहा जाता है कि नारियल के पेड़ पर त्रिदेव का वास होता है। नारियल के पेड़ पर ब्रह्मा विष्णु महेश त्रिदेव निवास करते हैं।
जिसके कारण नारियल के पेड़ को और नारियल के फल को बहुत शुभ माना जाता है। नारियल का फल भगवान शंकर जी का बहुत प्रिय फल है। नारियल के फल को भगवान पर चढ़ाने से घर में धन की प्राप्ति होती है। नारियल के फल को मनुष्य के समान ही माना गया है क्योंकि नारियल के फल में जो नारियल की जटा होती हैं को मनुष्य के बालों की तुलना दी गई है और नारियल के बाहर के हिस्से को मनुष्य की खोपड़ी की तुलना दी गई है।
क्योंकि नारियल के बाहर का हिस्सा बहुत मजबूत होता है और नारियल के अंदर के पानी को मनुष्य के खून की तुलना दी गई है और जब नारियल की जटाओं को हटाया जाता है तो उसमें तीन छेद दिखाई देते है, जो दो आंख और एक मुंह की तरह दिखाए देती है।
बहुत समय पहले जब भगवान को प्रसन्न करने के लिए हिंदू धर्म के लोग जानवरों की बलि दिया करते थे। जानवरों की बलि देकर भगवान को खुश किया करते थे, जिसके बाद शंकराचार्य जी ने यह देखा तो उनको बहुत बुरा लगा और उन्होंने इस प्रथा को रोकने के लिए जानवरों की बलि देने की जगह पर नारियल के फल की देने के लिए कहा कि आप लोग किसी निर्दोष जानवर की हत्या कर के इसकी जगह पर आप लोग नारियल के फल को फोड़कर उसकी बलि दीजिए।
जिससे आपकी यह प्रथा पूरी हो जाएगी और किसी जानवर की भी बलि नहीं देनी पड़ेगी। जिसके बाद लोगों ने जानवरों की बलि देना बंद कर दिया और जानवरों की जगह पर नारियल के फल की बलि देना शुरू कर दिया।
आप लोगों ने देखा होगा कि जब हम लोग पूजा करते हैं, कहीं पर हवन होता है तो एक कलश पर नारियल रखा जाता है। कलश पर नारियल इसलिए रखा जाता है क्योंकि नारियल समृद्धि और शक्ति का प्रतीक होता है और नारियल का जो पानी होता है, वह प्रकृति की क्षमता का प्रतिनिधित्व करता है।
उम्मीद करते हैं आपको यह कहानी रोचक लगी होगी। ऐसे बहुत ही कहानियां है, जो हमारी वेबसाइट में उपलब्ध हैं। आप इन्हें पढ़ सकते हैं। इस कहानी को साझा कर हमारा हौसला अफजाई जरुर करें
हनुमानजी के बारे में ऐसी बाते जो अब तक हमने नहीं सुनी?
हनुमानजी बाल ब्रह्मचारी है सभी लोग यही जानते हैं मगर बहुत कम ही लोग जानते हैं की हनुमान जी को भी करना पड़ा था विवाह क्यों की सूर्य देव जो की उनके गुरु थे उन्होंने उन्हे नौ विद्याओं का ज्ञान देने की बजाय केवल पांच विद्याओं का ज्ञान ही दिया और बाकी की चार विद्याओं का।ज्ञान देने के लिए।उन्होंने हनुमान जी से विवाह करने को कहा अब हनुमान जी गुरु सूर्यदेव की आज्ञानुसार विवाह करने को तैयार हो गए अब।विवाह।के लिए कन्या कौन होगी तब।सूर्यदेव ने अपनी परम तपस्वनी पुत्री सुवर्चला का नाम सुझाया हनुमान जी ने ज्ञान प्राप्ति के लिए सुवर्चला से विवाह तो किया परंतु विवाह के तुरंत बाद सुवर्चला आजीवन तपस्या पर बैठ गई और इस प्रकार।हनुमान जी का ब्रह्मचर्य बना रहा ।
च्ची सरकार
कन्धे पर कपड़े का थान लादे और हाट-बाजार जाने की तैयारी करते हुए नामदेव जी से पत्नि ने कहा- भगत जी! आज घर में खाने को कुछ भी नहीं है। आटा, नमक, दाल, चावल, गुड़ और शक्कर सब खत्म हो गए हैं। शाम को बाजार से आते हुए घर के लिए राशन का सामान लेते आइएगा।
भक्त नामदेव जी ने उत्तर दिया- देखता हूँ जैसी विठ्ठल जीकी कृपा।
अगर कोई अच्छा मूल्य मिला, तो निश्चय ही घर में आज धन-धान्य आ जायेगा।
पत्नि बोली संत जी! अगर अच्छी कीमत ना भी मिले, तब भी इस बुने हुए थान को बेचकर कुछ राशन तो ले आना। घर के बड़े-बूढ़े तो भूख बर्दाश्त कर लेंगे। पर बच्चे अभी छोटे हैं, उनके लिए तो कुछ ले ही आना।
जैसी मेरे विठ्ठल की इच्छा। ऐसा कहकर भक्त नामदेव जी हाट-बाजार को चले गए।
बाजार में उन्हें किसी ने पुकारा- वाह सांई! कपड़ा तो बड़ा अच्छा बुना है और ठोक भी अच्छी लगाई है। तेरा परिवार बसता रहे। ये फकीर ठंड में कांप-कांप कर मर जाएगा।दया के घर में आ और रब के नाम पर दो चादरे का कपड़ा इस फकीर की झोली में डाल दे।
भक्त नामदेव जी- दो चादरे में कितना कपड़ा लगेगा फकीर जी?
फकीर ने जितना कपड़ा मांगा, इतेफाक से भक्त नामदेव जी के थान में कुल कपड़ा उतना ही था। और भक्त नामदेव जी ने पूरा थान उस फकीर को दान कर दिया।
दान करने के बाद जब भक्त नामदेव जी घर लौटने लगे तो उनके सामने परिजनो के भूखे चेहरे नजर आने लगे। फिर पत्नि की कही बात, कि घर में खाने की सब सामग्री खत्म है। दाम कम भी मिले तो भी बच्चो के लिए तो कुछ ले ही आना।
अब दाम तो क्या, थान भी दान जा चुका था। भक्त नामदेव जी एकांत मे पीपल की छाँव मे बैठ गए।
जैसी मेरे विठ्ठल की इच्छा। जब सारी सृष्टि की सार पूर्ती वो खुद करता है, तो अब मेरे परिवार की सार भी वो ही करेगा।
और फिर भक्त नामदेव जी अपने हरिविठ्ठल के भजन में लीन गए।
अब भगवान कहां रुकने वाले थे। भक्त नामदेव जी ने सारे परिवार की जिम्मेवारी अब उनके सुपुर्द जो कर दी थी।
अब भगवान जी ने भक्त जी की झोंपड़ी का दरवाजा खटखटाया।
नामदेव जी की पत्नी ने पूछा- कौन है?
नामदेव का घर यही है ना? भगवान जी ने पूछा।
अंदर से आवाज हां जी यही आपको कुछ चाहिये भगवान सोचने लगे कि धन्य है नामदेव जी का परिवार घर मे कुछ भी नही है फिर ह्र्दय मे देने की सहायता की जिज्ञयासा हैl
भगवान बोले दरवाजा खोलिये
लेकिन आप कौन?
भगवान जी ने कहा- सेवक की क्या पहचान होती है भगतानी? जैसे नामदेव जी विठ्ठल के सेवक, वैसे ही मैं नामदेव जी का सेवक हूl
ये राशन का सामान रखवा लो। पत्नि ने दरवाजा पूरा खोल दिया।फिर इतना राशन घर में उतरना शुरू हुआ, कि घर के जीवों की घर में रहने की जगह ही कम पड़ गई। इतना सामान! नामदेव जी ने भेजा है? मुझे नहीं लगता।पत्नी ने पूछा।
भगवान जी ने कहा- हाँ भगतानी! आज नामदेव का थान सच्ची सरकार ने खरीदा है। जो नामदेव का सामर्थ्य था उसने भुगता दिया। और अब जो मेरी सरकार का सामर्थ्य है वो चुकता कर रही है। जगह और बताओ।सब कुछ आने वाला है भगत जी के घर में।
शाम ढलने लगी थी और रात का अंधेरा अपने पांव पसारने लगा था।
समान रखवाते-रखवाते पत्नि थक चुकी थीं। बच्चे घर में अमीरी आते देख खुश थे। वो कभी बोरे से शक्कर निकाल कर खाते और कभी गुड़। कभी मेवे देख कर मन ललचाते और झोली भर-भर कर मेवे लेकर बैठ जाते। उनके बालमन अभी तक तृप्त नहीं हुए थे।
भक्त नामदेव जी अभी तक घर नहीं आये थे, पर सामान आना लगातार जारी था।
आखिर पत्नी ने हाथ जोड़ कर कहा- सेवक जी! अब बाकी का सामान संत जी के आने के बाद ही आप ले आना। हमें उन्हें ढूंढ़ने जाना है क्योंकी वो अभी तक घर नहीं आए हैं।
भगवान जी बोले- वो तो गाँव के बाहर पीपल के नीचे बैठकर विठ्ठल सरकार का भजन-सिमरन कर रहे हैं। अब परिजन नामदेव जी को देखने गये।
सब परिवार वालों को सामने देखकर नामदेव जी सोचने लगे, जरूर ये भूख से बेहाल होकर मुझे ढूंढ़ रहे हैं।
इससे पहले की संत नामदेव जी कुछ कहते उनकी पत्नी बोल पड़ीं- कुछ पैसे बचा लेने थे।
अगर थान अच्छे भाव बिक गया था, तो सारा सामान संत जी आज ही खरीद कर घर भेजना था क्या?
भक्त नामदेव जी कुछ पल के लिए विस्मित हुए। फिर बच्चों के खिलते चेहरे देखकर उन्हें एहसास हो गया, कि जरूर मेरे प्रभु ने कोई खेल कर दिया है।
पत्नि ने कहा अच्छी सरकार को आपने थान बेचा और वो तो समान घर मे भैजने से रुकता ही नहीं था। पता नही कितने वर्षों तक का राशन दे गया।
उससे मिन्नत कर के रुकवाया- बस कर! बाकी संत जी के आने के बाद उनसे पूछ कर कहीं रखवाएँगे।
भक्त नामदेव जी हँसने लगे और बोले- ! वो सरकार है ही ऐसी।
जब देना शुरू करती है तो सब लेने वाले थक जाते हैं।
उसकी बख्शीश कभी भी खत्म नहीं होती।
वह सच्ची सरकार की तरह सदा कायम रहती है
जय जय भक्त वत्सल भगवान की… 🙏🏻🙏🏻
!! श्री महाराज !!
!!श्रीराम जय राम जय जय राम!!
!!श्रीराम जय राम जय जय राम!!
!!श्रीराम जय राम जय जय राम!!
!!श्रीराम जय राम जय जय राम!!
!! श्रीराम समर्थ!!
माता सीता राजा जनक जी की पुत्री नहीं थी। मान्यता है कि बिहार स्थिति सीममढ़ी का पुनौरा गाँव वह स्थान है जहाँ राजा जनक ने हल चलाया था। हल चलाते समय हल एक धातु से टकराकर अटक गया। तब जनक ने उस स्थान की खुदाई का आदेश दिया। कहा जाता है कि उस स्थान से एक कलश निकला जिसमें एक सुंदर सी कन्या थी। चूँकि, राजा जनक निःसंतान थे। उन्होंने कन्या को ईश्वर की कृपा मानकर पुत्री बना लिया। हल का फल जिसे सीत कहते हैं उससे टकराने के कारण कलश से कन्या प्रकट हुई थी इसलिए कन्या का नाम सीता रखा गया। इस घटना से इतना तो पता चलता है कि माँ सीता राजा जनक की अपनी पुत्री नहीं थी। जहाँ जमीन के अंदर से कलश से प्राप्त होने के कारण सीता स्वयं को पृथ्वी की पुत्री मानती थी। वहीं वास्तव में सीता के पिता कौन थे और कलश में सीता कैसे आईं इसका उल्लेख अलग-अलग भाषाओं में लिखे गए रामायण और दूसरी कथाओं से प्राप्त होता है।
माना जाता है कि दण्डकारण्य में गृत्स्मद नाम का एक ब्राह्मण था जो माँ लक्ष्मी को पुत्री रूप मे पाने की कामना से, प्रतिदिन एक कलश मे कुश के अग्र भाग से मंत्रोच्चारण के साथ दूध की बूंदें समर्पित करता था। कहते हैं उस समय देव-असुरों के बीच संग्राम चलता रहता था। कभी असुर देवों पर तो देव असुरों पर आक्रमण करते रहते थे। उसी बीच किसी दिन रावण उस ब्राह्मण की कुटिया पर पहुँच गया। उस समय गृत्समद वहाँ उपस्थित नहीं थे। इसका फायदा उठा कर रावण ने आश्रम के अन्य ब्राह्मणों और ऋषियों को मारकर उनके रक्त को उसी कलश में भर लिया।
कहते हैं कि रावण उस रक्त कलश को अपने साथ लेकर लंका चला गया। जहाँ उसने अपनी पत्नी मंदोदरी को उस कलश को सम्भाल कर रखने को कहा। वहीं मंदोदरी को उस कलश में क्या है? इसके बारे में बताते हुए उसने कहा कि यह बहुत ही तीक्ष्ण विष से भरा है। जब कुछ दिनों के बाद रावण विहार के उद्देश्य से सह्याद्रि पर्वत पर चला गया जो मंदोदरी को पसंद नहीं थी। कहते हैं अपनी उपेक्षा से खिन्न मंदोदरी ने मृत्यु को वरण करने के उद्देश्य से कलश में रखा पदार्थ पी लिया।
वहीं देवी लक्ष्मी को पुत्री के रूप में प्राप्त करने के लिए मंत्रोचारित दूध का ऐसा प्रभाव पड़ा कि मंदोदरी गर्भवती हो गईं। तत्पश्चात, मंदोदरी ने सोचा कि जब मेरे पति मेरे पास नहीं है। ऐसे में जब उन्हें इस बात का पता चलेगा। तो वह क्या सोचेंगे। यही सब सोचते हुए मंदोदरी तीर्थ यात्रा के बहाने कुरुक्षेत्र चली गई। कहा जाता है कि वहीं पर उसने गर्भ को निकालकर भ्रूण को एक घड़े में रखकर भूमि में दफन कर दिया और सरस्वती नदी में स्नान कर वह वापस लंका लौट गई। कहते हैं कि कालांतर में इसी भ्रूण से सीता का जन्म हुआ। मान्यता है कि वही घड़ा हल चलाते वक्त मिथिला के राजा जनक को मिला था, जिसमें से सीता जी प्रकट हुईं थी।
लोकजीवन में सीता राजा-जनक और सुनयना की पुत्री के रूप में विख्यात भले रहीं हों लेकिन यह भी प्रचलित था कि वे दोनों केवल पालक माता-पिता ही थे। वाल्मिकी रामायण के अलावे कम्पन रचित रामायण, जैन रामायण, थाई रामायण और लोक-कथाओं में भी माँ सीता के जन्म और जीवन को लेकर अलग अलग ढंग से लिखा गया है।
जब भगवान शिव ने क्रोधवश गणेश जी का सिर धड़ से अलग कर दिया था. तब माता पार्वती के अनुरोध पर शिव जी ने फिर शिशु हाथी का मुख लगाकर गणेश जी में प्राण डाले थे. लेकिन आपके मन में यह सवाल जरूर होगा कि गणेश जी का कटा हुआ असली सिर कहां गिरा होगा तो बताते है दरअसल दुनिया भर में भगवान गणेश के जितने मंदिर है उनमें उनकी हर मूर्ति के धड़ से हाथी का सिर लगा हुआ है। लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि गणेश जी का असली सिर आज भी एक गुफा में मौजूद है। मान्यता है कि जब भगवान शिव ने गणेश जी का सिर काटा था तब उन्होंने उसे एक गुफा में रख दिया था। इस गुफा को पाताल भुवनेश्वर नाम से भी जाना जाता है। यह गुफा उत्तराखंड के पिथौरा जिले से करीब 15 किलोमीटर दूर है। कहा जाता है कि इस गुफा में रखे गणेश जी की कटे सिर की रक्षा स्वयं भगवान शिव करते हैं। भगवान गणेश के इस शिला रुपी शीश के ठीक ऊपर 108 पंखुड़ियों वाली ब्रह्म कमल के समान एक चट्टान है और इस चट्टान से हर समय दिव्या पानी की बूंद टपकती रहती है। दोस्तों कमेंट में जय श्री गणेश जरूर लिखना
Kanha ko Kisne Di Bansuri: भगवान श्री कृष्ण के पास बांसुरी है. कहा जाता है कि भगवान श्री कृष्ण (Lord Shri Krishna) को उनकी बांसुरी अत्यंत प्रिय है. जिसे वो हमेशा अपने पास ही रखते हैं. जब भी उनका मन होता था वो सुरीली बांसुरी बजात कर सबका मन मोह लेते थे.
Kanha ko Kisne Di Bansuri: हिंदू धर्म (Hinduism) में अनेक देवी देवताओं को पूजा जाता है और उनका अपना महत्व है. आपने गौर किया होगा कि देवी देवता के पास कोई ना कोई वाद्य यंत्र (Musical instruments) और अस्त्र शस्त्र हैं. वाद्य यंत्र की बात करें तो भगवान शिव (Lord Shiva) के पास डमरु, माता सरस्वती के पास वीणा है, ऐसे ही भगवान श्री कृष्ण के पास बांसुरी है. कहा जाता है कि भगवान श्री कृष्ण (Lord Shri Krishna) को उनकी बांसुरी अत्यंत प्रिय है. जिसे वो हमेशा अपने पास ही रखते हैं. जब भी उनका मन होता था वो सुरीली बांसुरी बजात कर सबका मन मोह लेते थे. आज हम जानेंगे की भगवान श्री कृष्ण को यह बांसुरी किसने दी और वह उन्हें इतनी प्रिय क्यों है.
मान्यताओं के अनुसार
मान्यता है कि समय-समय पर कई भगवान ने ज़रूरत के हिसाब से पृथ्वी पर दोबारा जन्म लिया था, जिसका वर्णन शास्त्रों में मिलता है. ऐसे ही भगवान श्री कृष्ण ने जब द्वापर युग में पृथ्वी पर जन्म लिया था, तो सभी देवी देवता रूप बदल बदल कर भगवान श्री कृष्ण से मिलने के लिए पृथ्वी पर आया करते थे. इसी कड़ी में भगवान शिव भी अपने प्रिय भगवान श्री कृष्ण से मिलने के लिए व्याकुल हो उठे, तभी उनके मन में ख्याल आया वह श्री कृष्ण से मिलने तो जा रहे हैं, लेकिन उनके लिए उपहार में क्या लेकर जाएं जो उन्हें पसंद भी आए और उनका प्रिय बन जाए जिसे वह हमेशा अपने पास रखें.
तभी भगवान शिव को याद आता है कि उनके पास दधीचि ऋषि की महाशक्तिशाली हड्डियां रखी हैं. कहा जाता है कि ऋषि दधीचि ने धर्म के लिए अपने शरीर का त्याग किया था और अपने महाशक्तिशाली शरीर की सारी हड्डियों को दान में दे दिया था. यह वही हड्डियां थी जिनके द्वारा भगवान विश्वकर्मा ने तीन धनुष का निर्माण किया पहला पिनाक, दूसरा गाण्डीव और तीसरा शारंग. इसके अलावा उन्होंने देवराज इंद्र के लिए वज्र भी बनाया था.
भगवान शिव ने उन हड्डियों को घिसकर एक सुंदर और मनोहर बांसुरी का निर्माण किया. जब भगवान शिव श्री कृष्ण से मिलने धरती पर आए, तो उन्होंने वह बांसुरी भगवान श्री कृष्ण को उपहार में दी साथ ही आशीर्वाद भी दिया. तभी से भगवान श्री कृष्ण हमेशा उस बांसुरी को अपने पास रखते हैं. यह बांसुरी भगवान शिव ने उन्हें दी थी इसलिए उनकी प्रिय हो गई.
एक बार एक गरीब कसाई ने अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए पैसे के लिए उसका मांस बेचने के लिए एक गाय खरीदी।
लेकिन वध के लिए ले जाते समय वह ढीली पड़ गई और कसाई ने उसका पीछा तब तक किया जब तक कि वह आंखों से ओझल नहीं हो गई।
कोई इस आदमी को कसाई के रूप में नहीं पहचान सकता था क्योंकि उसने साधारण कपड़े पहने थे।
गाय का पीछा करते-करते थक कर कसाई ने एक चौराहे पर विश्राम किया, जहां उसने सदन नाम के एक ब्राह्मण को देखा और उससे पूछा कि क्या उसने एक भागती हुई गाय को देखा है और यदि ऐसा है तो वह किस दिशा में गई है।
उस व्यक्ति के उद्देश्य पर विचार किए बिना, सत्यवादी ब्राह्मण ने गाय की ओर इशारा किया।
ब्राह्मण के मार्गदर्शन के बाद, कसाई ने गाय को पाया, उसे मार डाला और उसका मांस बेच दिया।
इसलिए ब्राह्मण को पाप में फंसाया गया क्योंकि उसने यह नहीं सोचा कि उसने किसकी मदद की और किस उद्देश्य से की।
इस प्रकार उनकी मृत्यु के बाद ब्राह्मण नरक में पहुंच गया, दंड प्राप्त किया, अपना अगला जन्म कसाई के रूप में लिया और उसे वही नाम सदन दिया गया।
उसने अपने हाथ से भगोड़ी गाय को जाने की दिशा का संकेत दिया था;
इस प्रकार इस जीवन में एक कसाई के रूप में अपना व्यवसाय करते समय उसके हाथ कट गए।
कहानी की नीति:
ब्राह्मण सदन बहुत विद्वान था और नियमित रूप से भगवान के नामों का जप करता था, लेकिन अनजाने में हुई एक गलती के कारण, उसे एक कसाई के रूप में पुनर्जन्म लेना पड़ा, जिसने अपने दोनों हाथ खो दिए।
इसलिए व्यक्ति को सावधान रहना चाहिए कि वे किसकी मदद करते हैं, क्योंकि अयोग्य कारण में मदद करने से दुख हो सकता है।
एक अच्छे कारण के लिए परोपकारी दान, अगर सही तरीके से उपयोग किया जाता है, तो वह योग्य है।
इस घटना को ध्यान में रखते हुए यह समझना चाहिए कि दया भाव से दान देना बहुत सावधानी से देना चाहिए।
आजकल बहुत से लोग भक्तिमय जीवन का बाहरी दिखावा करने के लिए मंदिरों का निर्माण करते हैं, लेकिन वे उन्हें सामाजिक मंडलों की तरह संचालित करते हैं।
कई तो नास्तिकों को अपने पाखंड को बनाए रखने के लिए अपने धन को आकर्षित करने के लिए सदस्य बनने के लिए राजी भी करते हैं।
ऐसे लोगों को दान देने से किसी का भला नहीं होगा।
भगवान कृष्ण भगवद गीता में कहते हैं कि दान केवल उन्हीं को दिया जाना चाहिए जो शास्त्र प्रामाणिक हैं।
भगवद गीता जस का तस 17.20
यद दानम में डेटाव्यम
दीयते नूपकारिणे
हालांकि तरीके पसंद के माध्यम से पसंद करते हैं
फिर दानम सात्विकम स्मृतम
उचित समय और स्थान पर, उचित समय और स्थान पर, योग्य व्यक्ति को कर्तव्य से दिया गया दान सात्विक माना जाता है।
भगवद गीता जस का तस 17.21
यत् तु प्रत्युपकारथ:
फलम उद्देश्य वा पुन:
दीयते परिकलिष्टं के रूप में
फिर दानम राजस स्मृतम
किन्तु कुछ प्रत्युत्तर की आशा से, या सकाम फल की इच्छा से, या अनिच्छा से किया गया दान रजोगुणी दान कहलाता है।
भगवद गीता जस का तस 17.22
आदेश-काले यद दानम
अपात्रेभ्यश दियते
असत्-कृतं अवज्ञातं
तत तामसं उदाहृतम
और अशुद्ध स्थान पर, अनुचित समय पर, अयोग्य व्यक्तियों को, या उचित ध्यान और सम्मान के बिना किया गया दान तामसी कहा जाता है।
हर दिन एक पुजारी इस मंदिर की दीवारों पर चढ़ता है जिसकी ऊंचाई लगभग 45 मंजिला इमारत है। यह बिना किसी सुरक्षात्मक गियर के किया जाता है और किसी भी पेशेवर पर्वतारोही को आसानी से शर्मसार कर देगा। ऐसा माना जाता है कि अगर इसे एक दिन के लिए भी छोड़ दिया जाए तो मंदिर 18 साल के लिए बंद हो जाएगा! यह रस्म करीब 1800 साल पुरानी है।
एक ऐसा मंदिर जिसे इंसानों ने नहीं बल्कि भूतों ने बनाया था? भगवान शिव का प्राचीन मंदिर । मुस्लिम शासकों ने इसे तोड़ने के लिए गोले तक दागे, लेकिन ग्वालियर चंबल अंचल के बीहड़ों में बना सिहोनिया का ककनमठ मंदिर आज भी लटकते हुए पत्थरों से बना हुआ है । चंबल के बीहड़ में बना ये मंदिर 10 किलोमीटर दूर से ही दिखाई देता है. जैसे-जैसे इस मंदिर के नजदीक जाते हैं इसका एक एक पत्थर लटकते हुए भी दिखाई देने लगता है. जितना नजदीक जाएंगे मन में उतनी ही दहशत लगने लगती है. लेकिन किसी की मजाल है, जो इसके लटकते हुए पत्थरों को भी हिला सके. आस-पास बने कई छोटे-छोटे मंदिर नष्ट हो गए हैं, लेकिन इस मंदिर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा. मंदिर के बारे में कमाल की बात तो यह है कि जिन पत्थरों से यह मंदिर बना है, आस-पास के इलाके में ये पत्थर नहीं मिलता है.
इस मंदिर को लेकर कई तरह की किवदंतियां हैं. पूरे अंचल में एक किवदंती सबसे ज्यादा मशहूर है कि मंदिर का निर्माण भूतों ने किया था. लेकिन मंदिर में एक प्राचीन शिवलिंग विराजमान है, जिसके पीछे यह तर्क दिया जाता है कि भगवान शिव का एक नाम भूतनाथ भी है. भोलेनाथ ना सिर्फ देवी-देवताओं और इंसानों के भगवान हैं बल्कि उनको भूत-प्रेत व दानव भी भगवान मानकर पूजते हैं. पुराणों में लिखा है कि भगवान शिव की शादी में देवी-देवताओं के अलावा भूत-प्रेत भी बाराती बनकर आए थे और इस मंदिर का निर्माण भी भूतों ने किया है.
कहा जाता है कि रात में यहां वो नजारा दिखता है, जिसे देखकर किसी भी इंसान की रूह कांप जाएगी. ककनमठ मंदिर का इतिहास करीब एक हज़ार साल हजार पुराना है. बेजोड़ स्थापत्य कला का उदाहरण ये मंदिर पत्थरों को एक दूसरे से सटा कर बनाया गया है. मंदिर का संतुलन पत्थरों पर इस तरह बना है कि बड़े-बड़े तूफान और आंधी भी इसे हिला नहीं पाई. कुछ लोग यह मानते हैं कि कोई चमत्कारिक अदृश्य शक्ति है जो मंदिर की रक्षा करती है. इस मंदिर के बीचो बीच शिव लिंग स्थापित है. 120 फीट ऊंचे इस मंदिर का उपरी सिरा और गर्भ गृह सैकड़ों साल बाद भी सुरक्षित है.
इस मंदिर को देखने में लगता है कि यह कभी भी गिर सकता है.. लेकिन ककनमठ मंदिर सैकडों सालों से इसी तरह टिका हुआ है यह एक अदभुत करिश्मा है. इसकी एक औऱ ये विशेषता है..कि इस मंदिर के आस पास के सभी मंदिर टूट गए हैं , लेकिन ककनमठ मंदिर आज भी सुरक्षित है. मुरैना में स्थित ककनमठ मंदिर पर्यटकों के लिए विशेष स्थल है. यहां की कला और मंदिर की बड़ी-बड़ी शिलाओं को देख कर पर्यटक भी इस मंदिर की तारीफ करने से खुद को नहीं रोक पाते. मंदिर की दीवारों पर देवी-देवताओं की प्रतिमायें पर्यटकों को खजुराहो की याद दिलाती हैं. मगर प्रशासन की उपेक्षा के चलते पर्यटक यदा-कदा यहां आ तो जाते हैं.
पहली बात तो ये कि प्राचीन हस्तिनापुर वर्तमान दिल्ली का प्रदेश नही था। हस्तिनापुर केवल एक नगर था जो कुरु महाजनपद की राजधानी थी। कुरु महाजनपद महाभारत कालीन 16 महाजनपदों में एक था और मगध के बाद दूसरा सबसे बड़ा महाजनपद था जिसकी सीमाएं दूर-दूर तक फैली हुई थी। वर्तमान का दिल्ली, हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश का कुछ भाग इसके अंतर्गत आता था।
महाभारत कालीन हस्तिनापुर नगर वास्तव में वर्तमान का मेरठ और उसके आस पास का इलाका था। जब धृतराष्ट्र ने हस्तिनापुर का विभाजन कर उजड़ा हुआ भाग, जिसका नाम खांडवप्रस्थ था, पांडवों को दे दिया। तब उन्होंने अपने सामर्थ्य से उस वीरान भूमि को राहने योग्य बनाया। उसी नवीन नगर का नाम उन्होंने इंद्रप्रस्थ कर दिया जो वर्तमान का दिल्ली और उसके आस पास का प्रदेश है। तो दिल्ली वास्तव में प्राचीन खांडवप्रस्थ या इंद्रप्रस्थ थी, ना कि हस्तिनापुर।
रही बात युद्ध कुरुक्षेत्र में करवाने की तो उसके कई कारण थे। पितामह भीष्म के अनुरोध पर स्वयं श्रीकृष्ण ने इस भूमि का चुनाव किया था। बहुत विस्तार में नही जाऊंगा क्योंकि इस पर मैंने एक अलग उत्तर
[1]
लिखा है। विस्तृत जानकारी के लिए आप उसे पढ़ सकते हैं। संक्षेप में कुछ कारण बताता हूँ।
• श्रीकृष्ण को ये भय था कि चूंकि कौरव और पांडव संबंधी हैं इसीलिए युद्धक्षेत्र में सुलह ना कर बैठे। इसी कारण उन्होंने कुरुक्षेत्र की भूमि का चुनाव किया क्योंकि वो भूमि स्वभाव से ही तामसिक थी जहाँ किसी का मेल नही हो सकता।
• कुरूक्षेत्र की भूमि के तामसिक होने का कारण ये था कि इसी भूमि पर बहुत पहले भगवान परशुराम ने 21 बार क्षत्रियों का नाश कर वहाँ रक्त के 5 सरोवर बना दिये थे। इसी कारण यहाँ किसी प्रकार की सात्विकता जन्म नही ले सकती थी।
• कुरुक्षेत्र की भूमि इतनी अधिक तामसिक थी कि इस भूमि पर कदम रखते ही श्रवण कुमार जैसे पुत्रभक्त ने भी अपने माता पिता को पालकी से उतार दिया था।
• जब भगवान परशुराम ने क्षत्रियों का संहार बंद किया तब देवराज इंद्र ने रक्त के उन 5 सरोवरों को जल के सरोवरों में बदल कर तीर्थ बना दिया। साथ ही इंद्र ने परशुराम को ये वरदान दिया था कि इस भूमि पर जो कोई भी मृत्यु प्राप्त करेगा वो स्वर्ग पायेगा। भीष्म और श्रीकृष्ण इस रहस्य जानते थे इसी कारण उन्होंने इस भूमि का चयन किया ताकि जो भी योद्धा वीरगति को प्राप्त हो उसे स्वर्ग मिले।
तो महाभारत के लिए कुरुक्षेत्र की भूमि केवल दूरी के आधार पर नही चुनी गई थी बल्कि इसके ये कुछ अन्य कारण थे। आशा है आपके प्रश्न का उत्तर मिल गया होगा
एक दिन हनुमानजी जब सीता जी की शरण में आए, नैनों में जल भरा हुआ है बैठ गए शीश झुकाए,
सीता जी ने पूछा उनसे कहो लाडले बात क्या है, किस कारण ये छाई उदासी, नैनों में क्यों नीर भरा है ?
हनुमान जी बोले मैया आपनें कुछ वरदान दिए हैं, अजर अमर की पदवी दी है, और बहुत सम्मान दिए हैं, अब मैं उन्हें लौटानें आया, मुझे अमर पद नहीं चाहिए, दूर रहूं मैं श्री चरणों से, ऐसा जीवन नहीं चाहिए।
सीता जी मुस्काकर बोली बेटा ये क्या बोल रहे हो, अमृत को तो देव भी तरसे, तुम काहे को डोल रहे हो?
इतने में श्रीराम प्रभु आ गए और बोले, क्या चर्चा चल रही है मां बेटे में………….??
तब सीताजी बोली सुनो नाथ जी, ना जाने क्या हुआ हनुमानको, पदवी अजर-अमर लौटानें आया है ये मुझको।
राम जी बोले क्यों बजरंगी ये क्या लीला नई रचाई, कौन भला छोड़ेगा , अमृत की ये अमर कमाई!!
हनुमानजी रोकर बोले, आप साकेत पधार रहे हो, मुझे छोड़कर इस धरती से, आप वैकुंठ सिधार रहे हो, आप बिना क्या मेरा जीवन अमृत का विष पीना होगा, तड़प-तड़प कर विरह अग्नि में जीना भी क्या जीना होगा!!
हनुमान जी बोले प्रभु अब आप ही बताओ, आप के बिना मैं यहां कैसे रहूंगा??
तब इस पर प्रभु श्रीराम बोले….
हनुमान सीता का यह वरदान सिर्फ आपके लिए ही नहीं है, बल्कि यह तो संसार भर के कल्याण के लिए है, तुम यहां रहोगे, और संसार का कल्याण करोगे।
मांगो हनुमान वरदान मांगो:-
इस पर श्री हनुमानजी बोले।
जहां जहां पर आपकी कथा हो, आपका नाम हो, वहां-वहां पर मैं उपस्थित होकर हमेशा आनंद लिया करूं,
सीताजी बोलीं देदो प्रभु देदो,
तब भगवान राम नें हंसकर कहा, तुम नहीं जानती सीता ये क्या मांग रहा है, ये अनगिनत शरीर मांग रहा है, जितनी जगह मेरा पाठ होगा उतनें शरीर मांग रहा है,
तब सीताजी बोलीं, तो दे दो फिर क्या हुआ, आपका लाडला है।
तब इस पर प्रभु श्रीराम बोले ,तुम्हारी इच्छा पूर्ण होगी, वहां विराजोगे बजरंगी, जहां हमारी चर्चा होगी, कथा जहां पर राम की होगी, वहां ये राम दुलारा होगा, जहां हमारा चिंतन होगा, वहां पे जिक्र तुम्हारा होगा।
कलयुग में मुझसे भी ज्यादा पूजा हो हनुमान तुम्हारी, जो कोई तुम्हरी शरण में आए, भक्ति उसको मिले हमारी,, मेरे हर मंदिर की शोभा बनकर आप विराजोगे, मेरे नाम का सुमिरन करके सुधबुध खोकर नाचोगे।।
नाच उठे ये सुन बजरंगी, चरणन शीश नवाया,
दुख-हर्ता सुख-कर्ता प्रभु का, प्यारा नाम ये गाया।।
जय सियाराम जयजय सियाराम,
जय सियाराम जयजय सियाराम।।
🚩।। जय श्री सीताराम जी ।।🚩
दरअसल तमिलनाडु के कन्याकुमारी से 75 किलोमीटर दूर श्रीचंद मुरुगन यानी भगवान कार्तिकेय का मंदिर है। 17 वीं शताब्दी में डचो ने इस मंदिर पर आक्रमण करके मंदिर का सारा खजाना और भगवान कार्तिकेय की पंचतंत्र लोहे से बनी मूर्ति चुरा कर भाग रहे थे, लेकिन जैसे ही वे समुद्र के बीच पहुंचे अचानक मौसम बिगड़ गया, जिससे समुंद्र में भयानक तूफान और बारिश होने लगी। इतने में नाविक बोला ये इस मूर्ति का प्रकोप है। हम इसे नहीं ले जा सकते और जहाज के कैप्टन ने जान बचाने के लिए उस मूर्ति को समंदर में छोड़ दिया, जिसके थोड़ी देर बाद तूफान थम गया। 1 दिन भगवान श्री चंद्र मुरुगन अपने भक्तों के सपने में आए और उसे मूर्ति के बारे में बताया। भगवान बोले समुंद्र में मेरे ऊपर इक नींबू तैरता हुआ दिखेगा। उसी के ठीक नीचे मेरी मूर्ति है और उस मूर्ति को ढूंढ कर इस मंदिर का निर्माण किया गया। साल 2004 में इस मंदिर के पास भयानक सुनामी आई लेकिन। मंदिर के पास आते ही 2 किलो मीटर दूर चली गई भगवान कार्तिके के इस चमत्कार के लिए कमेंट में जय कार्तिकेय भगवान जरूर लिखे
श्मशान में जब महर्षि दधीचि के मांसपिंड का दाह संस्कार हो रहा था तो उनकी पत्नी अपने पति का वियोग सहन नहीं कर पायीं और पास में ही स्थित विशाल पीपल वृक्ष के कोटर में 3 वर्ष के बालक को रख स्वयम् चिता में बैठकर सती हो गयीं।
इस प्रकार महर्षि दधीचि और उनकी पत्नी का बलिदान हो गया किन्तु पीपल के कोटर में रखा बालक भूख प्यास से तड़प तड़प कर चिल्लाने लगा।
जब कोई वस्तु नहीं मिली तो कोटर में गिरे पीपल के गोदों(फल) को खाकर बड़ा होने लगा। कालान्तर में पीपल के पत्तों और फलों को खाकर बालक का जीवन येन केन प्रकारेण सुरक्षित रहा।
एक दिन देवर्षि नारद वहाँ से गुजरे। नारद ने पीपल के कोटर में बालक को देखकर उसका परिचय पूंछा-
नारद- बालक तुम कौन हो ?
बालक- यही तो मैं भी जानना चाहता हूँ ।
नारद- तुम्हारे जनक कौन हैं ?
बालक- यही तो मैं जानना चाहता हूँ ।
तब नारद ने ध्यान धर देखा। नारद ने आश्चर्यचकित हो बताया कि हे बालक ! तुम महान दानी महर्षि दधीचि के पुत्र हो। तुम्हारे पिता की अस्थियों का वज्र बनाकर ही देवताओं ने असुरों पर विजय पायी थी। नारद ने बताया कि तुम्हारे पिता दधीचि की मृत्यु मात्र 31 वर्ष की वय में ही हो गयी थी।
बालक- मेरे पिता की अकाल मृत्यु का कारण क्या था ?
नारद- तुम्हारे पिता पर शनिदेव की महादशा थी।
बालक- मेरे ऊपर आयी विपत्ति का कारण क्या था ?
नारद- शनिदेव की महादशा।
इतना बताकर देवर्षि नारद ने पीपल के पत्तों और गोदों को खाकर जीने वाले बालक का नाम पिप्पलाद रखा और उसे दीक्षित किया।
नारद के जाने के बाद बालक पिप्पलाद ने नारद के बताए अनुसार ब्रह्मा जी की घोर तपस्या कर उन्हें प्रसन्न किया। ब्रह्मा जी ने जब बालक पिप्पलाद से वर मांगने को कहा तो पिप्पलाद ने अपनी दृष्टि मात्र से किसी भी वस्तु को जलाने की शक्ति माँगी।
ब्रह्मा जी से वरदान मिलने पर सर्वप्रथम पिप्पलाद ने शनि देव का आह्वाहन कर अपने सम्मुख प्रस्तुत किया और सामने पाकर आँखे खोलकर भष्म करना शुरू कर दिया।
शनिदेव सशरीर जलने लगे। ब्रह्मांड में कोलाहल मच गया। सूर्यपुत्र शनि की रक्षा में सारे देव विफल हो गए। सूर्य भी अपनी आंखों के सामने अपने पुत्र को जलता हुआ देखकर ब्रह्मा जी से बचाने हेतु विनय करने लगे।
अन्ततः ब्रह्मा जी स्वयम् पिप्पलाद के सम्मुख पधारे और शनिदेव को छोड़ने की बात कही किन्तु पिप्पलाद तैयार नहीं हुए।ब्रह्मा जी ने एक के बदले दो वरदान मांगने की बात कही। तब पिप्पलाद ने खुश होकर निम्नवत दो वरदान मांगे-
1- जन्म से 5 वर्ष तक किसी भी बालक की कुंडली में शनि का स्थान नहीं होगा।जिससे कोई और बालक मेरे जैसा अनाथ न हो।
2- मुझ अनाथ को शरण पीपल वृक्ष ने दी है। अतः जो भी व्यक्ति सूर्योदय के पूर्व पीपल वृक्ष पर जल चढ़ाएगा उसपर शनि की महादशा का असर नहीं होगा।
ब्रह्मा जी ने तथास्तु कह वरदान दिया।तब पिप्पलाद ने जलते हुए शनि को अपने ब्रह्मदण्ड से उनके पैरों पर आघात करके उन्हें मुक्त कर दिया । जिससे शनिदेव के पैर क्षतिग्रस्त हो गए और वे पहले जैसी तेजी से चलने लायक नहीं रहे।अतः तभी से शनि “शनै:चरति य: शनैश्चर:” अर्थात जो धीरे चलता है वही शनैश्चर है, कहलाये और शनि आग में जलने के कारण काली काया वाले अंग भंग रूप में हो गए।
सम्प्रति शनि की काली मूर्ति और पीपल वृक्ष की पूजा का यही धार्मिक हेतु है।आगे चलकर पिप्पलाद ने प्रश्न उपनिषद की रचना की,जो आज भी ज्ञान का वृहद भंडार है…..
कर्ज वाली लक्ष्मी
एक 15 साल का भाई अपने पापा से कहा “पापा पापा दीदी के होने वाले ससुर और सास कल आ रहे है” अभी जीजाजी ने फोन पर बताया।
दीदी मतलब उसकी बड़ी बहन की सगाई कुछ दिन पहले एक अच्छे घर में तय हुई थी।
दीनदयाल जी पहले से ही उदास बैठे थे धीरे से बोले…
हां बेटा.. उनका कल ही फोन आया था कि वो एक दो दिन में दहेज की बात करने आ रहे हैं.. बोले… _दहेज के बारे में आप से ज़रूरी बात करनी है..
बड़ी मुश्किल से यह अच्छा लड़का मिला था.. कल को उनकी दहेज की मांग इतनी ज़्यादा हो कि मैं पूरी नही कर पाया तो ?”
कहते कहते उनकी आँखें भर आयीं..
घर के प्रत्येक सदस्य के मन व चेहरे पर चिंता की लकीरें साफ दिखाई दे रही थी…लड़की भी उदास हो गयी…
खैर..
अगले दिन समधी समधिन आए.. उनकी खूब आवभगत की गयी..
कुछ देर बैठने के बाद लड़के के पिता ने लड़की के पिता से कहा” दीनदयाल जी अब काम की बात हो जाए..
दीनदयाल जी की धड़कन बढ़ गयी.. बोले.. हां हां.. समधी जी.. जो आप हुकुम करें..
लड़के के पिताजी ने धीरे से अपनी कुर्सी दीनदयाल जी और खिसकाई ओर धीरे से उनके कान में बोले. दीनदयाल जी मुझे दहेज के बारे बात करनी है!…
दीनदयाल जी हाथ जोड़ते हुये आँखों में पानी लिए हुए बोले बताईए समधी जी….जो आप को उचित लगे.. मैं पूरी कोशिश करूंगा..
समधी जी ने धीरे से दीनदयाल जी का हाथ अपने हाथों से दबाते हुये बस इतना ही कहा…..
आप कन्यादान में कुछ भी देगें या ना भी देंगे… थोड़ा देंगे या ज़्यादा देंगे.. मुझे सब स्वीकार है… पर कर्ज लेकर आप एक रुपया भी दहेज मत देना.. वो मुझे स्वीकार नहीं..
क्योकि जो बेटी अपने बाप को कर्ज में डुबो दे वैसी “कर्ज वाली लक्ष्मी” मुझे स्वीकार नही…
मुझे बिना कर्ज वाली बहू ही चाहिए.. जो मेरे यहाँ आकर मेरी सम्पति को दो गुना कर देगी..
दीनदयाल जी हैरान हो गए.. उनसे गले मिलकर बोले.. समधी जी बिल्कुल ऐसा ही होगा..
शिक्षा- कर्ज वाली लक्ष्मी ना कोई विदा करें न ही कोई स्वीकार करे।
जै जै जै हनुमान गोसाईं
कृपा करो गुरुदेव की नाई
जिस रावण से सारा संसार खौफ खाता था वह रावण भी तीन ऐसे योद्धा थे जिनसे डरता था भगवान राम के अलावा केवल दो ही योद्धा ऐसे थे जो रावण को मृत्यु के हवाले कर सकते थे रावण इतना शक्तिशाली था की उसको मारने के लिए स्वयं भगवान को जन्म लेना पड़ा, लेकिन भगवान राम के अलावा हनुमानजी और बाली रावण का वध आसानी से कर सकते थे। हनुमान जी तो इतने ज्यादा शक्तिशाली थे कि वे चाहते तो आपने खुद से ही रावण का वध कर सकते थे, परंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया क्योंकि उन्हें प्रभु राम का आदेश नहीं था। दूसरा था बाली जिसे ब्रह्मा जी ने वरदान दिया था कि वह जिसके साथ भी युद्ध करेगा उसकी आधी ताकत बालि में आ जाएगी एक बार रावण बालि से युद्ध करने के लिए पहुंच गया था। बालि उस समय पूजा कर रहा था। रावण बार-बार बालि को ललकार रहा था। जिससे बालि की पूजा में बाधा उत्पन्न हो रही थी। जब रावण नहीं माना तो बालि ने उसे अपनी बाजू में दबा कर चार समुद्रों की परिक्रमा की थी। बालि बहुत शक्तिशाली था और इतनी तेज गति से चलता था
कि रोज सुबह-सुबह ही चारों समुद्रों की परिक्रमा कर लेता था। इस प्रकार परिक्रमा करने के बाद सूर्य को अर्घ्य अर्पित करता था। जब तक बालि ने परिक्रमा की और सूर्य को अर्घ्य अर्पित किया तब तक रावण को अपने बाजू में दबाकर ही रखा था अगर वह चाहता तो रावण को मार सकता था फिर भी रावण को अपने आप पर इतना घमंड था यही घमंड रावण का मौत का कारण बना जानकारी कैसी लगी कमेंट करे साथ में जय श्री राम लिखना ना भूले
हनुमान जी और अंगद जी दोनों ही समुद्र लाँघने में सक्षम थे, फिर पहले हनुमान जी लंका क्यों गए?
“अंगद कहइ जाउँ मैं पारा।
जियँ संसय कछु फिरती बारा॥”
अंगद जी बुद्धि और बल में बाली के समान ही थे! समुद्र के उस पार जाना भी उनके लिए बिल्कुल सरल था। किन्तु वह कहते हैं कि लौटने में मुझे संसय है।
कौन सा संसय था लौटने में?
बालि के पुत्र अंगद जी और रावण का पुत्र अक्षय कुमार दोनों एक ही गुरु के यहाँ शिक्षा प्राप्त कर रहे थे।
अंगद बहुत ही बलशाली थे और थोड़े से शैतान भी थे।
वो प्रायः अक्षय कुमार को थप्पड़ मार देते थे जिससे की वह मूर्छित हो जाता था।
अक्षय कुमार बार बार रोता हुआ गुरुजी के पास जाता और अंगद जी की शिकायत करता, एक दिन गुरुजी ने क्रोधित होकर अंगद को श्राप दे दिया कि अब यदि अक्षय कुमार पर तुमने हाथ उठाया तो तुम उसी क्षण मृत्यु को प्राप्त हो जाओगे।
अगंद जी को यही संसय था कि कंही लंका में उनका सामना अक्षय कुमार से हो गया तो श्राप के कारण गड़बड़ हो सकती है, इसलिए उन्होंने पहले हनुमान जी से जाने को कहा। और ये बात रावण भी जानता था, इसलिए जब राक्षसों ने रावण को बताया बड़ा भारी वानर आया है और अशोक वाटिका को उजाड़ रहा है तो रावण ने सबसे पहले अक्षय कुमार को ही भेजा वह जानता था वानरों में इतना बलशाली बाली और अंगद ही है जो सो योजन का समुंद्र लांघ कर लंका में प्रवेश कर सकते हैं, बाली का तो वध श्री राम के हाथों हो चुका है तो हो न हो अंगद ही होगा और अगर वह हुआ तो अक्षय कुमार उसका बड़ी सरलता से वध कर देगा।
पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा। चला संग लै सुभट अपारा॥
आवत देखि बिटप गहि तर्जा। ताहि निपाति महाधुनि गर्जा॥4॥
किन्तु जब हनुमान जी ने अक्षय कुमार का राम नाम सत्य कर दिया और राक्षसों ने जाकर यह सूचना रावण को दी तो उसने सीधे मेघनाथ को भेजा और कहा उस वानर को मारना नही बंधी बनाकर लाना में देखना चाहता हूँ बाली और अंगद के सिवाय और कोनसा वानर इतना बलशाली है।
सुनि सुत बध लंकेस रिसाना।
पठएसि मेघनाद बलवाना॥
मारसि जनि सुत बाँधेसु ताही।
देखिअ कपिहि कहाँ कर आही॥
हनुमान जी ज्ञानिनामग्रगण्यम् है वह जानते थे जब तक अक्षय कुमार जीवित रहेगा अंगद जी लंका में प्रवेश नही कर पाएंगे, इसलिए हनुमान जी ने अक्षय कुमार का वध किया जिससे अंगद जी बिना संसय के लंका में प्रवेश कर सके और बाद में वह शांति दूत बन कर गए भी।
तुलसीदास जी हनुमान चालीसा लिखते थे लिखे पत्रों को रात में संभाल कर रख देते थे सुबह उठकर देखते तो उन में लिखा हुआ कोई मिटा जाता था।
तुलसीदास जी ने हनुमान जी की आराधना की , हनुमान जी प्रकट हुए तुलसीदास ने बताया कि मैं हनुमान चालीसा लिखता हूं तो रात में कोई मिटा जाता है हनुमान जी बोले वह तो मैं ही मिटा जाता हूं।
हनुमान जी ने कहा अगर प्रशंसा ही लिखनी है तो मेरे प्रभु श्री राम की लिखो , मेरी नहीं तुलसीदास जी को उस समय अयोध्याकांड का प्रथम दोहा सोच में आया उसे उन्होंने हनुमान चालीसा के प्रारंभ में लिख दिया
“श्रीगुरु चरन सरोज रज निज मन मुकुरु सुधारि।
वरनउं रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि॥
तो हनुमान जी बोले मैं तो रघुवर नहीं हूं तुलसीदास जी ने कहा आप और प्रभु श्री राम तो एक ही प्रसाद ग्रहण करने के उपरांत अवतरित हुए हैं इसलिए आप भी रघुवर ही है।
तुलसीदास ने याद दिलाया कि ब्रह्म लोक में सुवर्चला नाम की एक अप्सरा रहती थी जो एक बार ब्रह्मा जी पर मोहित हो गई थी जिससे क्रुद्ध होकर ब्रह्माजी ने उसे गिद्धि होने का श्राप दिया था वह रोने लगी तो ब्रह्मा जी को दया आ गई उन्होंने कहा राजा दशरथ के पुत्र यज्ञ में हवि के रूप में जो प्रसाद तीनों रानियों में वितरित होगा तू कैकेई का भाग लेकर उड़ जाएगी मां अंजना भगवान शिव से हाथ फैला कर पुत्र कामना कर रही थी उन्ही हाथों में वह प्रसाद गिरा दिया था जिससे आप अवतरित हुए प्रभु श्री राम ने तो स्वयं आपको अपना भाई कहा है।
“तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई
तुलसीदास ने एक और तर्क दिया कि जब आप मां जानकी की खोज में अशोक वाटिका गए थे तो मां जानकी ने आपको अपना पुत्र बनाया था।
“अजर अमर गुननिधि सुत होहू।
करहुं बहुत रघुनायक छोहू॥
जब मां जानकी की खोज करके वापस आए थे तो प्रभु श्री राम ने स्वयं आपको अपना पुत्र बना लिया था।
“सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं।
देखेउं करि विचार मन माहीं॥
इसलिए आप भी रघुवर हुए तुलसीदास का यह तर्क सुनकर हनुमानजी अंतर्ध्यान हो।
संसार में बहुधा यह बात कही और सुनी जाती है कि व्यक्ति को ज्यादा सीधा और सरल नहीं होना चाहिए सीधे और सरल व्यक्ति का हर कोई फायदा उठाता है ,यह भी लोकोक्ति है कि टेढे वृक्ष को कोई हाथ भी नहीं लगाता सीधा वृक्ष ही काटा जाता है।
दरअसल टेढ़े लोगों से दुनिया दूर भागती हैं वहीँ सीधों को परेशान किया जाता है।तो क्या फिर सहजता और सरलता का त्याग कर टेढ़ा हुआ जाए नहीं कदापि नहीं ; पर यह बात जरूर समझ लेना दुनिया में जितना भी सृजन हुआ है वह टेढ़े लोगों से नहीं सीधों से ही हुआ है।
कोई सीधा पेड़ कटता है तो लकड़ी भी भवन निर्माण या भवन श्रृंगार में ही काम आती है।
मंदिर में भी जिस शिला में से प्रभु का रूप प्रगट होता है वह टेढ़ी नहीं कोई सीधी शिला ही होती है।
जिस बाँसुरी की मधुर स्वर को सुनकर हमें आंनद मिलता है वो भी किसी सीधे बांस के पेड़ से ही बनती है। सीधे लोग ही गोविंद के प्रिय होते हैं !
इस औसतन 80–90 फिट लंबे और 100 से 150 टन वजनी जीव के लिये भी भोजन की व्यवस्था वो ईश्वर करता है और फिर भी हम अपने एक समय के भोजन के लिये भी उसपर न तो भरोसा करते हैं और न ही धन्यवाद कहते हैं😬😏
अजगर करे न चाकरी पंछी करै न काम, दास मलूका कह गए सबके दाता राम
दरअसल एक बार महाभारत में जब हनुमान जी ने अर्जुन का घमंड तोड़ा तब अर्जुन से कहा कि मैंने आज तक मेघनाथ जैसा धनुर्धर नहीं देखा। अशोक वाटिका की याद दिलाते हुए बोले, जवानी में जन मेघनाथ ने मेरा शरीर तीरों से भेद दिया था। तब एक वही था जिसने मुझे युद्ध में संतुष्ट किया था। रामायण में मेघनाथ रावण और कुंभकरण से भी ज्यादा बलवान माना गया है। मंदोदरी के गर्भ से पैदा होती ही मेघ के समान गर्जना करने की वजह से उसका नाम मेघनाथ रखा गया। कहा जाता है कि मेघनाथ बेहद नैतिक योद्धा भी था। उसने रावण को समझाया था कि सीता को वापस कर देना चाहिए। तब रावण ने मेघनाथ के ऊपर भयभीत होने का आरोप लगाया, जिससे रावण की भरी सभा में मेघ के समान गजन्ना करके बोला, डरता नहीं हूं लेकिन सत्य बताना मेरा कर्तव्य है कि श्री राम नर नहीं नारायण है। क्या सच में मेघनाथ एक महान योद्धा था आप अपनी राय कमेंट में जरूर बताइएगा साथ में जय श्री राम लिखना नहीं भूलिएगा
शबरी बोली, यदि रावण का अंत नहीं करना होता तो हे राम! तुम यहाँ कहाँ से आते ?
राम गंभीर हुए और कहा कि “भ्रम में न पड़ो माते!
राम क्या केवल रावण का वध करने यहां आया है…?
अरे रावण का वध तो मेरा अनुज लक्ष्मण भी कर सकता था।
राम हजारों कोस चल कर इस गहन वन में आया है तो केवल तुमसे मिलने आया है माते, ताकि हजारों वर्षों बाद जब कोई पाखण्डी भारत के अस्तित्व पर प्रश्न खड़ा करे।
तो इतिहास चिल्ला कर उत्तर दे कि इस राष्ट्र को क्षत्रिय राम और उसकी भीलनी माँ ने मिल कर गढ़ा था।
जब कोई कपटी भारत की परम्पराओं पर उँगली उठाये तो काल उसका गला पकड़ कर कहे कि नहीं। यह एकमात्र ऐसी सभ्यता है जहाँ एक राजपुत्र वन में प्रतीक्षा करती एक दरिद्र वनवासिनी से भेंट करने के लिए चौदह वर्ष का वनवास स्वीकार करता है।
राम वन में बस इसलिए आया है ताकि जब युगों का इतिहास लिखा जाय तो उसमें अंकित हो कि सत्ता जब पैदल चल कर समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुँचे तभी वह रामराज्य है।
राम वन में इसलिए आया है, ताकि भविष्य स्मरण रखे कि प्रतिक्षाएँ अवश्य पूरी होती हैं।
सबरी एकटक राम को निहारती रहीं।
राम ने फिर कहा:- कि राम की वन यात्रा रावण युद्ध के लिए नहीं है माता! राम की यात्रा प्रारंभ हुई है भविष्य के लिए, आदर्श की स्थापना के लिए, धर्म की स्थापना के लिए।
राम आया है ताकि विधर्मियों को बता सके कि अन्याय का अंत करना ही धर्म है l
राम आया है ताकि युगों को सीख दे सके कि विदेश में बैठे शत्रु की समाप्ति के लिए आवश्यक है कि पहले देश में बैठी उसकी समर्थक सूर्पणखाओं की नाक काटी जाए और खर-दूषणो का घमंड तोड़ा जाय।
और राम आया है ताकि युगों को बता सके कि रावणों से युद्ध केवल राम की शक्ति से नहीं बल्कि वन में बैठी बूढ़ी शबरी के आशीर्वाद से जीते जाते हैं।
सबरी की आँखों में अश्रु भर आए,
उसने बात बदलकर कहा:- कन्द खाओगे पुत्र राम…।
राम मुस्कुराए बोले, “बिना खाये जाऊंगा भी नहीं माँ…”
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ने पोस्ट कियामंगल
श्मशान में जब महर्षि दधीचि के मांसपिंड का दाह संस्कार हो रहा था तो उनकी पत्नी अपने पति का वियोग सहन नहीं कर पायीं और पास में ही स्थित विशाल पीपल वृक्ष के कोटर में 3 वर्ष के बालक को रख स्वयम् चिता में बैठकर सती हो गयीं।
इस प्रकार महर्षि दधीचि और उनकी पत्नी का बलिदान हो गया किन्तु पीपल के कोटर में रखा बालक भूख प्यास से तड़प तड़प कर चिल्लाने लगा।
जब कोई वस्तु नहीं मिली तो कोटर में गिरे पीपल के गोदों(फल) को खाकर बड़ा होने लगा। कालान्तर में पीपल के पत्तों और फलों को खाकर बालक का जीवन येन केन प्रकारेण सुरक्षित रहा।
एक दिन देवर्षि नारद वहाँ से गुजरे। नारद ने पीपल के कोटर में बालक को देखकर उसका परिचय पूंछा-
नारद- बालक तुम कौन हो ?
बालक- यही तो मैं भी जानना चाहता हूँ ।
नारद- तुम्हारे जनक कौन हैं ?
बालक- यही तो मैं जानना चाहता हूँ ।
तब नारद ने ध्यान धर देखा। नारद ने आश्चर्यचकित हो बताया कि हे बालक ! तुम महान दानी महर्षि दधीचि के पुत्र हो। तुम्हारे पिता की अस्थियों का वज्र बनाकर ही देवताओं ने असुरों पर विजय पायी थी। नारद ने बताया कि तुम्हारे पिता दधीचि की मृत्यु मात्र 31 वर्ष की वय में ही हो गयी थी।
बालक- मेरे पिता की अकाल मृत्यु का कारण क्या था ?
नारद- तुम्हारे पिता पर शनिदेव की महादशा थी।
बालक- मेरे ऊपर आयी विपत्ति का कारण क्या था ?
नारद- शनिदेव की महादशा।
इतना बताकर देवर्षि नारद ने पीपल के पत्तों और गोदों को खाकर जीने वाले बालक का नाम पिप्पलाद रखा और उसे दीक्षित किया।
नारद के जाने के बाद बालक पिप्पलाद ने नारद के बताए अनुसार ब्रह्मा जी की घोर तपस्या कर उन्हें प्रसन्न किया। ब्रह्मा जी ने जब बालक पिप्पलाद से वर मांगने को कहा तो पिप्पलाद ने अपनी दृष्टि मात्र से किसी भी वस्तु को जलाने की शक्ति माँगी।
ब्रह्मा जी से वरदान मिलने पर सर्वप्रथम पिप्पलाद ने शनि देव का आह्वाहन कर अपने सम्मुख प्रस्तुत किया और सामने पाकर आँखे खोलकर भष्म करना शुरू कर दिया।
शनिदेव सशरीर जलने लगे। ब्रह्मांड में कोलाहल मच गया। सूर्यपुत्र शनि की रक्षा में सारे देव विफल हो गए। सूर्य भी अपनी आंखों के सामने अपने पुत्र को जलता हुआ देखकर ब्रह्मा जी से बचाने हेतु विनय करने लगे।
अन्ततः ब्रह्मा जी स्वयम् पिप्पलाद के सम्मुख पधारे और शनिदेव को छोड़ने की बात कही किन्तु पिप्पलाद तैयार नहीं हुए।ब्रह्मा जी ने एक के बदले दो वरदान मांगने की बात कही। तब पिप्पलाद ने खुश होकर निम्नवत दो वरदान मांगे-
1- जन्म से 5 वर्ष तक किसी भी बालक की कुंडली में शनि का स्थान नहीं होगा।जिससे कोई और बालक मेरे जैसा अनाथ न हो।
2- मुझ अनाथ को शरण पीपल वृक्ष ने दी है। अतः जो भी व्यक्ति सूर्योदय के पूर्व पीपल वृक्ष पर जल चढ़ाएगा उसपर शनि की महादशा का असर नहीं होगा।
ब्रह्मा जी ने तथास्तु कह वरदान दिया।तब पिप्पलाद ने जलते हुए शनि को अपने ब्रह्मदण्ड से उनके पैरों पर आघात करके उन्हें मुक्त कर दिया । जिससे शनिदेव के पैर क्षतिग्रस्त हो गए और वे पहले जैसी तेजी से चलने लायक नहीं रहे।अतः तभी से शनि “शनै:चरति य: शनैश्चर:” अर्थात जो धीरे चलता है वही शनैश्चर है, कहलाये और शनि आग में जलने के कारण काली काया वाले अंग भंग रूप में हो गए।
सम्प्रति शनि की काली मूर्ति और पीपल वृक्ष की पूजा का यही धार्मिक हेतु है।आगे चलकर पिप्पलाद ने प्रश्न उपनिषद की रचना की,जो आज भी ज्ञान का वृहद भंडार है…..
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जय जय श्री राम 🙏🚩
parkash_kalra
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अजय गुप्ता
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Jitendra KUSHWAHA
ने पोस्ट कियारवि
राम के अलावा दो कौन ऐसे योद्धा थे जो रावण को मार सकते थे
जिस रावण से सारा संसार खौफ खाता था वह रावण भी तीन ऐसे योद्धा थे जिनसे डरता था भगवान राम के अलावा केवल दो ही योद्धा ऐसे थे जो रावण को मृत्यु के हवाले कर सकते थे रावण इतना शक्तिशाली था की उसको मारने के लिए स्वयं भगवान को जन्म लेना पड़ा, लेकिन भगवान राम के अलावा हनुमानजी और बाली रावण का वध आसानी से कर सकते थे। हनुमान जी तो इतने ज्यादा शक्तिशाली थे कि वे चाहते तो आपने खुद से ही रावण का वध कर सकते थे, परंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया क्योंकि उन्हें प्रभु राम का आदेश नहीं था। दूसरा था बाली जिसे ब्रह्मा जी ने वरदान दिया था कि वह जिसके साथ भी युद्ध करेगा उसकी आधी ताकत बालि में आ जाएगी एक बार रावण बालि से युद्ध करने के लिए पहुंच गया था। बालि उस समय पूजा कर रहा था। रावण बार-बार बालि को ललकार रहा था। जिससे बालि की पूजा में बाधा उत्पन्न हो रही थी। जब रावण नहीं माना तो बालि ने उसे अपनी बाजू में दबा कर चार समुद्रों की परिक्रमा की थी। बालि बहुत शक्तिशाली था और इतनी तेज गति से चलता था
कि रोज सुबह-सुबह ही चारों समुद्रों की परिक्रमा कर लेता था। इस प्रकार परिक्रमा करने के बाद सूर्य को अर्घ्य अर्पित करता था। जब तक बालि ने परिक्रमा की और सूर्य को अर्घ्य अर्पित किया तब तक रावण को अपने बाजू में दबाकर ही रखा था अगर वह चाहता तो रावण को मार सकता था फिर भी रावण को अपने आप पर इतना घमंड था यही घमंड रावण का मौत का कारण बना जानकारी कैसी लगी कमेंट करे साथ में जय श्री राम लिखना ना भूले
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दीपक पुजारा
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Piyush Mishra
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विश्वास और भरोसा में कार्यरत (2021–मौजूदा)
·
13 मई
ऐसा कौन सा पंछी है जो अपना घोंसला जमीन पर बनाता है और अपने पांव को आसमान की तरफ कर के सोता है मैं उड़ने वाले पंछी की बात करता हूँ?
आप उड़ने वाले पंछी के बारे में बात कर रहे हैं। इस प्रकार के विशेष गुणों के साथ, एक पंछी को “अपना घोंसला जमीन पर बनाता है और अपने पांव को आसमान की तरफ कर के सोता है” कहा जा सकता है, वह है “युरोपियन नाइटज़ेल” या “कॉमन नाइटज़ेल”। ये पंछी अपना घोंसला पेड़ों या वृक्षों पर नहीं बनाता है, बल्कि ये ज़मीन पर…
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शेरिंग फिंटसो डेनजोंग्पा की प्रोफाइल फ़ोटो
शेरिंग फिंटसो डेनजोंग्पा
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जीव विज्ञान और गणित, सेंट गंधाई डिग्री कालेज में मास्टर्स इन नैरिट्व (1919 में स्नातक)
·
30 मिनट
डैनी
दुर्गा सप्तशती में पुरुष के जीवन को बदल कर रख देने का मन्त्र लिखा है। कोई पुरुष उस एकमात्र मन्त्र का जप करता रहे तो उसका इहलोक बिल्कुल सफल हो जाता है। वह मन्त्र है – “क्षम्यताम् परमेश्वरी” …
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Amit Rattawa
ने पोस्ट किया16 मई
हनुमान जी और अंगद जी दोनों ही समुद्र लाँघने में सक्षम थे, फिर पहले हनुमान जी लंका क्यों गए?
“अंगद कहइ जाउँ मैं पारा।
जियँ संसय कछु फिरती बारा॥”
अंगद जी बुद्धि और बल में बाली के समान ही थे! समुद्र के उस पार जाना भी उनके लिए बिल्कुल सरल था। किन्तु वह कहते हैं कि लौटने में मुझे संसय है।
कौन सा संसय था लौटने में?
बालि के पुत्र अंगद जी और रावण का पुत्र अक्षय कुमार दोनों एक ही गुरु के यहाँ शिक्षा प्राप्त कर रहे थे।
अंगद बहुत ही बलशाली थे और थोड़े से शैतान भी थे।
वो प्रायः अक्षय कुमार को थप्पड़ मार देते थे जिससे की वह मूर्छित हो जाता था।
अक्षय कुमार बार बार रोता हुआ गुरुजी के पास जाता और अंगद जी की शिकायत करता, एक दिन गुरुजी ने क्रोधित होकर अंगद को श्राप दे दिया कि अब यदि अक्षय कुमार पर तुमने हाथ उठाया तो तुम उसी क्षण मृत्यु को प्राप्त हो जाओगे।
अगंद जी को यही संसय था कि कंही लंका में उनका सामना अक्षय कुमार से हो गया तो श्राप के कारण गड़बड़ हो सकती है, इसलिए उन्होंने पहले हनुमान जी से जाने को कहा। और ये बात रावण भी जानता था, इसलिए जब राक्षसों ने रावण को बताया बड़ा भारी वानर आया है और अशोक वाटिका को उजाड़ रहा है तो रावण ने सबसे पहले अक्षय कुमार को ही भेजा वह जानता था वानरों में इतना बलशाली बाली और अंगद ही है जो सो योजन का समुंद्र लांघ कर लंका में प्रवेश कर सकते हैं, बाली का तो वध श्री राम के हाथों हो चुका है तो हो न हो अंगद ही होगा और अगर वह हुआ तो अक्षय कुमार उसका बड़ी सरलता से वध कर देगा।
पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा। चला संग लै सुभट अपारा॥
आवत देखि बिटप गहि तर्जा। ताहि निपाति महाधुनि गर्जा॥4॥
किन्तु जब हनुमान जी ने अक्षय कुमार का राम नाम सत्य कर दिया और राक्षसों ने जाकर यह सूचना रावण को दी तो उसने सीधे मेघनाथ को भेजा और कहा उस वानर को मारना नही बंधी बनाकर लाना में देखना चाहता हूँ बाली और अंगद के सिवाय और कोनसा वानर इतना बलशाली है।
सुनि सुत बध लंकेस रिसाना।
पठएसि मेघनाद बलवाना॥
मारसि जनि सुत बाँधेसु ताही।
देखिअ कपिहि कहाँ कर आही॥
हनुमान जी ज्ञानिनामग्रगण्यम् है वह जानते थे जब तक अक्षय कुमार जीवित रहेगा अंगद जी लंका में प्रवेश नही कर पाएंगे, इसलिए हनुमान जी ने अक्षय कुमार का वध किया जिससे अंगद जी बिना संसय के लंका में प्रवेश कर सके और बाद में वह शांति दूत बन कर गए भी।
🙏जय श्री सीताराम जी🙏
महायुद्ध समाप्त हो चुका था।
जगत को त्रास देने वाला रावण अपने कुटुंब सहित नष्ट हो चुका था। कौशलाधीश राम के नेतृत्व में चहुँओर शांति थी।
राम का राज्याभिषेक हुआ।
राजा राम ने सभी वानर और राक्षस मित्रों को ससम्मान विदा किया। अंगद को विदा करते समय राम रो पड़े थे।
हनुमान को विदा करने की शक्ति तो श्रीराम में भी नहीं थी।
माता सीता भी उन्हें पुत्रवत मानती थी।
हनुमान अयोध्या में ही रह गए।
राम दिन भर दरबार में, शासन व्यवस्था में व्यस्त रहे।
संध्या जब शासकीय कार्यों से छूट मिली तो गुरु और माताओं का कुशलक्षेम पूछ अपने कक्ष में आए। हनुमान उनके पीछे-पीछे ही थे।
राम के निजी कक्ष में उनके सारे अनुज अपनी-अपनी पत्नियों के साथ उपस्थित थे।
वनवास, युद्ध और फिर अंनत औपचारिकताओं के पश्चात यह प्रथम अवसर था जब पूरा परिवार एक साथ उपस्थित था।
राम, सीता और लक्ष्मण को तो नहीं, कदाचित अन्य वधुओं को एक बाहरी, अर्थात हनुमान का वहाँ होना अनुचित प्रतीत हो रहा था।
चूँकि शत्रुघ्न सबसे छोटे थे, अतः वे ही अपनी भाभियों और अपनी पत्नी की इच्छापूर्ति हेतु संकेतों में ही हनुमान को कक्ष से जाने के लिए कह रहे थे।
पर आश्चर्य की बात कि हनुमान जैसा ज्ञाता भी यह मामूली संकेत समझने में असमर्थ हो रहा था।
अस्तु, उनकी उपस्थिति में ही बहुत देर तक सारे परिवार ने जी भर कर बातें की।
फिर भरत को ध्यान आया कि भैया-भाभी को भी एकांत मिलना चाहिए।
उर्मिला को देख उनके मन में हूक उठती थी।
इस पतिव्रता को भी अपने पति का सानिध्य चाहिए।
अतः उन्होंने राम से आज्ञा ली, और सबको जाकर विश्राम करने की सलाह दी।
सब उठे और राम-जानकी का चरणस्पर्श कर जाने को हुए।
परन्तु हनुमान वहीं बैठे रहे।
उन्हें देख अन्य सभी उनके उठने की प्रतीक्षा करने लगे कि सब साथ ही निकले बाहर।
राम ने मुस्कुराते हुए हनुमान से कहा, “क्यों वीर, तुम भी जाओ। तनिक विश्राम कर लो।”
हनुमान बोले, “प्रभु, आप सम्मुख हैं, इससे अधिक विश्रामदायक भला कुछ हो सकता है?
मैं तो आपको छोड़कर नहीं जाने वाला।”
शत्रुघ्न तनिक क्रोध से बोले, “परन्तु भैया को विश्राम की आवश्यकता है कपीश्वर!
उन्हें एकांत चाहिए।”
“हाँ तो मैं कौन सा प्रभु के विश्राम में बाधा डालता हूँ।
मैं तो यहाँ पैताने बैठा हूँ।”
“आपने कदाचित सुना नहीं।
भैया को एकांत की आवश्यकता है।”
“पर माता सीता तो यहीं हैं।
वे भी तो नहीं जा रही।
फिर मुझे ही क्यों निकालना चाहते हैं आप?”
“भाभी को भैया के एकांत में भी साथ रहने का अधिकार प्राप्त है। क्या उनके माथे पर आपको सिंदूर नहीं दिखता?
हनुमान आश्चर्यचकित रह गए।
प्रभु श्रीराम से बोले, “प्रभु, क्या यह सिंदूर लगाने से किसी को आपके निकट रहने का अधिकार प्राप्त हो जाता है?”
राम मुस्कुराते हुए बोले, “अवश्य। यह तो सनातन प्रथा है हनुमान।”
यह सुन हनुमान तनिक मायूस होते हुए उठे और राम-जानकी को प्रणाम कर बाहर चले गए।
.
प्रातः राजा राम का दरबार लगा था। साधारण औपचारिक कार्य हो रहे थे कि नगर के प्रतिष्ठित व्यापारी न्याय माँगते दरबार में उपस्थित हुए।
ज्ञात हुआ कि पूरी अयोध्या में रात भर व्यापारियों के भंडारों को तोड़-तोड़ कर हनुमान उत्पात मचाते रहे थे।
राम ने यह सब सुना और सैनिकों को आदेश दिया कि हनुमान को राजसभा में उपस्थित किया जाए। रामाज्ञा का पालन करने सैनिक अभी निकले भी नहीं थे कि केसरिया रंग में रंगे-पुते हनुमान अपनी चौड़ी मुस्कान और हाथी जैसी मस्त चाल से चलते हुए सभा में उपस्थित हुए।
उनका पूरा शरीर सिंदूर से पटा हुआ था।
एक-एक पग धरने पर उनके शरीर से एक-एक सेर सिंदूर भूमि पर गिर जाता।
उनकी चाल के साथ पीछे की ओर वायु के साथ सिंदूर उड़ता रहता।
राम के निकट आकर उन्होंने प्रणाम किया।
अभी तक सन्न होकर देखती सभा, एकाएक जोर से हँसने लगी।
अपनी हँसी रोकते हुए सौमित्र लक्ष्मण बोले, “यह क्या किया कपिश्रेष्ठ?
यह सिंदूर से स्नान क्यों?
क्या यह आप वानरों की कोई प्रथा है?”
हनुमान प्रफुल्लित स्वर में बोले, “अरे नहीं भैया। यह तो आर्यों की प्रथा है। मुझे कल ही पता चला कि अगर एक चुटकी सिंदूर लगा लो तो प्रभु राम के निकट रहने का अधिकार मिल जाता है।
तो मैंने सारी अयोध्या का सिंदूर लगा लिया।
क्यों प्रभु, अब तो कोई मुझे आपसे दूर नहीं कर पाएगा न?”
सारी सभा हँस रही थी।
और भरत हाथ जोड़े अश्रु बहा रहे थे।
यह देख शत्रुघ्न बोले, “भैया, सब हँस रहे हैं और आप रो रहे हैं? क्या हुआ?”
भरत स्वयं को सम्भालते हुए बोले, “अनुज, तुम देख नहीं रहे!
वानरों का एक श्रेष्ठ नेता, वानरराज का सबसे विद्वान मंत्री, कदाचित सम्पूर्ण मानवजाति का सर्वश्रेष्ठ वीर, सभी सिद्धियों, सभी निधियों का स्वामी, वेद पारंगत, शास्त्र मर्मज्ञ यह कपिश्रेष्ठ अपना सारा गर्व, सारा ज्ञान भूल कैसे रामभक्ति में लीन है। राम की निकटता प्राप्त करने की कैसी उत्कंठ इच्छा, जो यह स्वयं को भूल चुका है।
ऐसी भक्ति का वरदान कदाचित ब्रह्मा भी किसी को न दे पाएं।
मुझ भरत को राम का अनुज मान भले कोई याद कर ले, पर इस भक्त शिरोमणि हनुमान को संसार कभी भूल नहीं पाएगा।
हनुमान को बारम्बार प्रणाम।” ❤️
हिंदू धर्म और संस्कृति में सर्पों का विशेष महत्व है. ना सिर्फ सर्पों और नागों की पूजा की जाती है बल्कि खुद भगवान भोलेनाथ अपने गले में वासुकी नाग को धारण करते हैं. वहीं भगवान विष्णु की शैय्या ही शेषनाग हैं. देश में नागों को देवताओं के तुल्य मानकर पूजा की जाती है. दरअसल मध्य प्रदेश के उज्जैन में मौजूद नागचंद्रेश्वर मंदिर में तक्षक नाग निवास करते हैं। इस मंदिर में 11 वीं शताब्दी की एक प्रतिमा मौजूद है। उज्जैन के अलावा ऐसी प्रतिमा कहीं भी मौजूद नहीं है। पुराणों के अनुसार तक्षक नाग ने महादेव को पाने के लिए घोर तपस्या की थी और महादेव तक्षक नाग की तपस्या से बहुत प्रसन्न हुए। इसीलिए उन्होंने तक्षक नाग को अमरत्व का वरदान दिया। इसके बाद से ही तक्षक नाग ने महादेव के पास ही निवास करना शुरू कर दिया, लेकिन उन्होंने महादेव से विनती की कि उनके एकांत में कोई भी विग्नन ना पड़े और इसी कारण से इस मंदिर को नाग पंचमी के दिन ही खोला जाता है नाग पंचमी के दिन यहां पर श्रद्धालुओं की बहुत भीड़ होती है। दोस्तों कमेंट में हर हर महादेव जरूर लिखें
पांडव की जायदतर पत्नी के रूप में दोपदी का वर्णन मिलता है पर पांडवों ने दोपदी जो पांचों पतियों की पत्नी थी इसलिए वह हर पति के साथ 6 माह ही रहतीं थीं और अन्य पति तब तक अकेले विचरण करते थे।।। इसलिए पांडवों ने अन्य विवाह राज्य विस्तार और राजा होने के लिए अन्य विवाह किए जिनका वर्णन वेदव्यास जी ने कम ही किया क्योंकि ना तो वो महाभारत महाकाव्य का हिस्सा रही ना ही कोई महत्वपूर्ण कार्य किया।।।।
महाराज युधिष्ठिर की द्रौपदी के अलावा एक पत्नी और थी। जिसका नाम देविका था। द्रौपदी से युधिष्ठिर को एक पुत्र था जिसका नाम प्रतिविंध्य था और देविका से हुए पुत्र का नाम धौधेय था। परंतु देविका कभी हस्तिनापुर नही आयीं।।।।। महाभारत ग्रन्थ में ज्यादातर महिलाएं का वर्णन कम किया गया है क्योंकि महाभारत ग्रन्थ पुरुष काव्य पर आधारित है यहां पुरुष के पूरे जीवन का वर्णन किया है चाहे युधिष्ठिर हो कौरवों का या शांतनु का सबका ।।।।।।।।।
महाभारत में वृषाली, भानुमती, अभिमन्यु की दूसरी पत्नी, आदि का वर्णन आपको महाभारत में वर्णित नहीं मिलेगा।।।
क्योंकि महाभारत महाकाव्य पुरुष आधारित है ना की स्त्री आधारित।।। क्योंकि महाभारत युद्ध भूमि के लिए हुआं और भूमि के लिए पुरुष ही अपना अधिकार समझते हैं।।।
लगभग दस साल का अखबार बेचने वाला बालक एक मकान का गेट बजा रहा है..
(शायद उस दिन अखबार नहीं छपा होगा)
मालकिन – बाहर आकर पूछी “क्या है ?
बालक – “आंटी जी क्या मैं आपका गार्डेन साफ कर दूं?
मालकिन – नहीं, हमें नहीं करवाना..
बालक – हाथ जोड़ते हुए दयनीय स्वर में.. “प्लीज आंटी जी करा लीजिये न, अच्छे से साफ करूंगा।
मालकिन – द्रवित होते हुए “अच्छा ठीक है, कितने पैसा लेगा?
बालक – पैसा नहीं आंटी जी, खाना दे देना..
मालकिन- ओह !! आ जाओ अच्छे से काम करना….
(लगता है बेचारा भूखा है पहले खाना दे देती हूँ.. मालकिन बुदबुदायी)
मालकिन- ऐ लड़के.. पहले खाना खा ले, फिर काम करना…
बालक – नहीं आंटी जी, पहले काम कर लूँ फिर आप खाना दे देना…
मालकिन – ठीक है ! कहकर अपने काम में लग गयी..
बालक – एक घंटे बाद “आंटी जी देख लीजिए, सफाई अच्छे से हुई कि नहीं…
मालकिन -अरे वाह ! तूने तो बहुत बढ़िया सफाई की है, गमले भी करीने से जमा दिए.. यहां बैठ, मैं खाना लाती हूँ..
जैसे ही मालकिन ने उसे खाना दिया.. बालक जेब से पन्नी निकाल कर उसमें खाना रखने लगा..
मालकिन – भूखे काम किया है, अब खाना तो यहीं बैठकर खा ले.. जरूरत होगी तो और दे दूंगी..
बालक – नहीं आंटी, मेरी बीमार माँ घर पर है.. सरकारी अस्पताल से दवा तो मिल गयी है, पर डाॅ साहब ने कहा है दवा खाली पेट नहीं खाना है..
मालकिन रो पड़ी.. और अपने हाथों से मासूम को उसकी दुसरी माँ बनकर खाना खिलाया..
फिर… उसकी माँ के लिए रोटियां बनाई.. और साथ उसके घर जाकर उसकी माँ को रोटियां दे आयी….
और कह आयी-
“बहन आप तो बहुत अमीर हो.. जो दौलत आपने अपने बेटे को दी है वो हम अपने बच्चों को नहीं दे पाते हैं”.ईश्वर बहुत नसीब वालों क़ो ऐसी औलादें देता है
एक दिन,भगवान राम जान गए कि उनकी मृत्यु का समय हो गया है। वह जानते थे कि जो जन्म लेता है उसे मरना पड़ता है। “यम को मुझ तक आने दो। मेरे लिए बैकुंठ धाम जाने का समय आ गया है”, उन्होंने कहा। लेकिन, मृत्यु के देवता यम अयोध्या में घुसने से डरते थे। क्योंकि उनको राम के परम भक्त और उनके महल के मुख्य प्रहरी हनुमान से भय लगता था।
हनुमान को हटाना जरूरी
यम के प्रवेश के लिए हनुमान को हटाना जरुरी था। इसलिए राम जी ने अपनी अंगूठी को महल के फर्श के एक छेद में से गिरा दिया और हनुमान से इसे खोजकर लाने के लिए कहा। हनुमान ने स्वयं का स्वरुप छोटा करते हुए बिल्कुल भंवरे जैसा आकार बना लिया और केवल उस अंगूठी को ढूढंने के लिए छेद में प्रवेश कर गए, वह छेद केवल छेद नहीं था बल्कि एक सुरंग का रास्ता था जो सांपों के नगर नाग लोक तक जाता था। हनुमान नागों के राजा वासुकी से मिले और अपने आने का कारण बताया।
वासुकी लोक
वासुकी हनुमान को नाग लोक के मध्य में ले गए, जहां अंगूठियों का पहाड़ जैसा ढेर लगा हुआ था। “यहां आपको राम की अंगूठी अवश्य ही मिल जाएगी” वासुकी ने कहा। हनुमान सोच में पड़ गए कि वो कैसे उसे ढूंढ पाएंगे क्योंकि ये तो भूसे में सुई ढूंढने जैसा था। लेकिन सौभाग्य से, जो पहली अंगूठी उन्होंने उठाई वो राम की अंगूठी थी। आश्चर्यजनक रुप से, दूसरी भी अंगूठी जो उन्होंने उठाई वो भी राम की ही अंगूठी थी। वास्तव में वो सारी अंगूठी जो उस ढेर में थीं, सब एक ही जैसी थी। “इसका क्या मतलब है?” वह सोच में पड़ गए।
राम नाम की अंगूठी
वासुकी मुस्कुराए और बोले, “जिस संसार में हम रहते है, वो सृष्टि व विनाश के चक्र से गुजरती है। इस संसार के प्रत्येक सृष्टि चक्र को एक कल्प कहा जाता है। हर कल्प के चार युग या चार भाग होते हैं। दूसरे भाग या त्रेता युग में, राम अयोध्या में जन्म लेते हैं। एक वानर इस अंगूठी का पीछा करता है और पृथ्वी पर राम मृत्यु को प्राप्त होते हैं। इसलिए यह सैकड़ों हजारों कल्पों से चली आ रही अंगूठियों का ढेर है। सभी अंगूठियां वास्तविक हैं। अंगूठियां गिरती रहीं और इनका ढेर बड़ा होता रहा। भविष्य के रामों की अंगूठियों के लिए भी यहां काफी जगह है”। हनुमान जान गए कि उनका नाग लोक में प्रवेश और अंगूठियों के पर्वत से साक्षात, कोई आकस्मिक घटना नहीं थी। यह राम का उनको समझाने का मार्ग था कि मृत्यु को आने से रोका नहीं जा सकेगा। राम मृत्यु को प्राप्त होंगे। संसार समाप्त होगा। लेकिन हमेशा की तरह, संसार पुनः बनता है और राम भी पुनः जन्म लेंगे।
क्या आप ‘पोन्नियिन सेल्वन’ मूवी की समीक्षा लिख सकते हैं? इस’पोन्नियिन सेल्वन’ का शाब्दिक अर्थ क्या होता है?
क्या गजब फ़िल्म बनाई है !!
ये दो भाग की फ़िल्म है, पहला भाग देखना शुरू किया तो फिर रुका ही नही।
ऐश्वर्या रॉय ने मणिरत्नम की फिल्मों में बेहतरीन काम किया है चाहे गुरु हो या रावण।
पोन्नियिन सेलवन का मतलब है कावेरी का बेटा!! ये कहानी है महान चोल सम्राट राजराजा के राजा बनने के पहले की। जिस तरह से निर्देशक ने उस युग को पर्दे पर उतारा है वो अद्भुत है। हर फ्रेम “नयनाभिराम” है। किले,नदियां,जंगल,झरने देखते ही बनते हैं।
VFX का बहुत प्रयोग किया ही होगा पर कहीं भी नकली नही लगता।
विक्रम( अपरिचित वाले), कारथी(कैथी वाले भिया) ने अपना काम बेहतरीन किया है। राजकुमारी के रोल में त्रिशा बहुत सुंदर लगी हैं। पर ये फ़िल्म ऐश्वर्या रॉय की है। उनका रोल एक चालाक स्त्री का है जो अपनी सुंदरता से पुरुषों को पिघलाकर अपना काम करवा लेती है। इस रोल में उनसे बेहतर कोई नही हो सकता था।
शुरू के एक घण्टे में सभी चरित्रों का परिचय ही होता है। उतनी देर धैर्य रखें।पात्रों के नाम याद रखना भी थोड़ा मुश्किल लगा😀
इस फ़िल्म का पार्श्व संगीत भी जबरदस्त है। ये चोल और पांड्या राजघरानों के बीच की दुश्मनी की कहानी है,जिनमे महलों में होने वाले षड्यंत्रों को दिखाया गया है। पर युद्ध के दृश्य बहुत साधारण हैं।
ये फ़िल्म बड़े पर्दे पर देखने लायक है, पार्ट 1 अमेज़न प्राइम पर मिल जाएगा।
महान चोल राजवंश,पांड्या और राष्ट्रकूटों के इतिहास को समझने के लिए भी ये फ़िल्म देखी जा सकती है।
विदेश में एक समाचार पत्र में बड़ा अजीब सा विज्ञापन था – एक वृद्ध दम्पत्ति चाहिए, जो साथ में रहे।
एक वृद्ध दम्पत्ति ने फोन किया – हमें जॉब चाहिए पर काम क्या करना होगा ?🤔🤔
वहाँ से आवाज़ आई, हम दोनों डॉक्टर्स हैं, हमारी माँ तीन महीने पहले चल बसी।
काम करने के लिए हमारे पास सेवादार हैं, पर हमें कोई पुछने वाला नहीं है कि बेटा आज देर से क्यूँ आये ? खाना खाया या नहीं।
हम काम से घर आएँ तो कोई प्रेम देकर सहला दे, हमारा इंतजार करने वाला कोई नहीं…
दम्पत्ति की आँखों में आँसू आ गए।😥😥
जगत की विडम्बना है कि जिनके घर में माता-पिता हैं उनकी कदर नहीं है और जिनके नहीं हैं उनको लगता है माता-पिता होते तो अच्छा रहता
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Manjeet Singh
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अमित उपाध्याय
ने पोस्ट किया14 मई
अमित उपाध्याय की प्रोफाइल फ़ोटो
अमित उपाध्याय
जय नंदी महाराज 🙏2वर्ष
कर्ण को कुंती ने बचपन में ही नदी में बहा दिया था तब तो उसका नामकरण भी नहीं हुआ होगा फिर कुंती को कैसे पता चला कि कर्ण मेरा वही पुत्र है जिसे मैंने विवाह पूर्व उत्पन्न कर नदी में बहा दिया था?
महाभारत मेरा पसन्दीदा विषय है 😀
मेरा मानना है कि महाभारत इतिहास है मतलब सच मे ये घटनाएं हुई थी।
अब उस समय के भूगोल को समझिए जो महाभारत के इस श्लोक में वर्णित है
मंजूषा त्वश्वनद्या: साययौं चर्मण्वतीं नदीम् चर्मण्वत्याश्च यमुनां ततो गंगां जगाम है। गंगाया: सूतविषयं यम्पामनुययै पुरीम्।
कुंती रहती थी भोजपुर में जो अश्व नदी के किनारे था। कुंती ने अपने दुधमुँहे बालक को लकड़ी की पेटी में रखा और अश्व नदी में बहा दिया, अश्व नदी से वो पेटी चर्मण्वतीं नदी में आई, इस नदी से फिर यमुना में आई फिर प्रयाग में यमुना से गंगा नदी में आई फिर गंगा नदी में बहते-बहते चम्पानगरी में अधिरथ को मिल गई।
चार नदियां बदल कर भी पेटी सुरक्षित रही, किसी जल प्रपात में उसको कुछ नही हुआ, किसी मगर ने या अन्य जीव ने उस पर हमला नही किया, पेटी के अंदर पानी नही घुसा, किसी और नाव ने या किसी व्यक्ति ने इसे नही देखा ,किसी चट्टान से नही टकराई!!
अगर एक नाव में कुशल नाविक के साथ भी इतनी लंबी यात्रा करें तो 1-2 महीने आराम से लग जाते, पेटी में इतने लंबे समय मे वो नवजात शिशु भूख-प्यास से ही मर जाता।
पर ऐसा नही हुआ । ये तो चमत्कार है !!!
दरअसल कुंती के पिता ने कुंती को साफ-साफ कह दिया होगा कि राजकुलों में ऐसे पुत्र नही रखे जा सकते। उन्होंने अपने किन्ही जान-पहचान वालों के द्वारा हस्तिनापुर के संतानहीन अधिरथ को ये बालक दे दिया। कुंती बस इतना जान पाई होगी कि हस्तिनापुर के किसी अधिरथ के पास उसका पुत्र है।
जिस माँ का नवजात बालक उससे छीन लिया गया हो उसकी क्या हालत हुई होगी। उसके अंदर पिता और राजकुलों के प्रति कितना गुस्सा होगा। क्या कुंती को अपनी शादी के लिए कोई भी उत्साह रहा होगा?
ऐसे में पिता ने उसका स्वयंवर रख दिया,जिसमे उसको पति खुद चुनना था। वो बेमन से वरमाला लेकर चली , एक-एक करके उसको हर राजा के बारे में बताया जाने लगा। उसने सुना-अनसुना किया होगा। जैसे ही पांडु की बारी आई तो हस्तिनापुर नरेश पांडु उसके कानों में पड़ा, उसको हस्तिनापुर के अधिरथ और अपने बच्चे की याद आई और उसने ये सोच कर पांडु के गले मे वरमाला डाल दी कि हस्तिनापुर में अपने बच्चे को देख तो सकेगी।
पर होनी को कुछ और ही मंजूर था,कुछ समय बाद पांडु खुद ही पत्नियों समेत वन में चला गया और कुंती की कहानी एक अलग ही मोड़ पर चली गई।
मेरे हिसाब से कुंती को पता था कि कर्ण हस्तिनापुर में है पर परिस्थितियां कुछ ऐसी बनी की वो उससे मिल नही पाई ।
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Mahendra Shukla
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Shubham Tiwari
ने पोस्ट कियाअपडेट किया गया: 17 मई
भगवान् कृष्ण ने जब देह छोड़ी तो उनका अंतिम संस्कार किया गया, उनका सारा शरीर तो पांच तत्त्व में मिल गया, लेकिन उनका हृदय बिलकुल सामान्य एक जिन्दा आदमी की तरह धड़क रहा था और वो बिलकुल सुरक्षित था , उनका हृदय आज तक सुरक्षित है, जो भगवान् जगन्नाथ की काठ की मूर्ति के अंदर रहता है और उसी तरह धड़कता है, ये बात बहुत कम लोगो को पता है!
महाप्रभु का महा रहस्य
सोने की झाड़ू से होती है सफाई….!
महाप्रभु जगन्नाथ(श्री कृष्ण) को कलियुग का भगवान भी कहते है…. पुरी (उड़ीसा) में जग्गनाथ स्वामी अपनी बहन सुभद्रा और भाई बलराम के साथ निवास करते है, मगर रहस्य ऐसे है कि आजतक कोई न जान पाया…!
हर 12 साल में महाप्रभु की मूर्ती को बदला जाता है,उस समय पूरे पुरी शहर में ब्लैकआउट किया जाता है, यानी पूरे शहर की लाइट बंद की जाती है,लाइट बंद होने के बाद मंदिर परिसर को crpf की सेना चारो तरफ से घेर लेती है,उस समय कोई भी मंदिर में नही जा सकता…!
मंदिर के अंदर घना अंधेरा रहता है…पुजारी की आँखों मे पट्टी बंधी होती है…पुजारी के हाथ मे दस्ताने होते है..वो पुरानी मूर्ती से “ब्रह्म पदार्थ” निकालता है और नई मूर्ती में डाल देता है…ये ब्रह्म पदार्थ क्या है आजतक किसी को नही पता…इसे आजतक किसी ने नही देखा. ..हज़ारो सालो से ये एक मूर्ती से दूसरी मूर्ती में ट्रांसफर किया जा रहा है….!
ये एक अलौकिक पदार्थ है जिसको छूने मात्र से किसी इंसान के जिस्म के चिथड़े उड़ जाए… इस ब्रह्म पदार्थ का संबंध भगवान श्री कृष्ण से है…मगर ये क्या है ,कोई नही जानता,भगवान जगन्नाथ और अन्य प्रतिमाएं उसी साल बदली जाती हैं, जब साल में आसाढ़ के दो महीने आते हैं। 19 साल बाद यह अवसर आया है,वैसे कभी-कभी 14 साल में भी ऐसा होता है, इस मौके को नव-कलेवर कहते हैं….!
मगर आजतक कोई भी पुजारी ये नही बता पाया की महाप्रभु जगन्नाथ की मूर्ती में आखिर ऐसा क्या है ???
कुछ पुजारियों का कहना है कि जब हमने उसे हाथ में लिया तो खरगोश जैसा उछल रहा था…आंखों में पट्टी थी…हाथ मे दस्ताने थे तो हम सिर्फ महसूस कर पाए…!
आज भी हर साल जगन्नाथ यात्रा के उपलक्ष्य में सोने की झाड़ू से पुरी के राजा खुद झाड़ू लगाने आते है…!
भगवान जगन्नाथ मंदिर के सिंहद्वार से पहला कदम अंदर रखते ही समुद्र की लहरों की आवाज अंदर सुनाई नहीं देती, जबकि आश्चर्य में डाल देने वाली बात यह है कि जैसे ही आप मंदिर से एक कदम बाहर रखेंगे, वैसे ही समुद्र की आवाज सुनाई देंगी…!
आपने ज्यादातर मंदिरों के शिखर पर पक्षी बैठे-उड़ते देखे होंगे, लेकिन जगन्नाथ मंदिर के ऊपर से कोई पक्षी नहीं गुजरता,झंडा हमेशा हवा की उल्टी दिशामे लहराता है, दिन में किसी भी समय भगवान जगन्नाथ मंदिर के मुख्य शिखर की परछाई नहीं बनती!
इसी तरह भगवान जगन्नाथ मंदिर के शिखर पर एक सुदर्शन चक्र भी है, जो हर दिशा से देखने पर आपके मुंह आपकी तरफ दीखता है!
भगवान जगन्नाथ मंदिर की रसोई में प्रसाद पकाने के लिए मिट्टी के 7 बर्तन एक-दूसरे के ऊपर रखे जाते हैं, जिसे लकड़ी की आग से ही पकाया जाता है, इस दौरान सबसे ऊपर रखे बर्तन का पकवान पहले पकता है।
भगवान जगन्नाथ मंदिर में हर दिन बनने वाला प्रसाद भक्तों के लिए कभी कम नहीं पड़ता, लेकिन हैरान करने वाली बात ये है कि जैसे ही मंदिर के पट बंद होते हैं वैसे ही प्रसाद भी खत्म हो जाता है और भी कितनी ही आश्चर्यजनक चीजें हैं, हमारे सनातन धर्म की।
एक फकीर ने एक कुत्ते से पूछा कि तू है तो बहुत वफादार,, परन्तु
एक फकीर ने एक कुत्ते से पूछा कि तू है तो बहुत वफादार,, परन्तु
तेरे में तीन कमियां हैं ।
1– तू पेशाब हमेशा दीवार पे ही करता है ।
2– तू भिखारी को देखकर बिना बात के ही भौंकता है ।
3– तू रात को भौंक भौंक के लोगों की नींद खराब करता है ।
इस पर कुत्ते ने
बहुत ही बढिया जवाब दिया,,, कुत्ता बोला ऐ बंदे सुन
1– जमीन
पर पेशाब इस लिए नहीं करता की कही किसी रब्ब के बंदे ने वहां
बैठकर रब्ब का जप न किया हो ।
2– भिखारी पर इस लिए भौंकता हूँ कि वोह भगवान को छोड कर लोगों से क्यों मांगता है,,
जोकि खुद भीखारी हैं । भगवान से क्यों नहीं मांगता ।
3– और रात को इस लिए भौंकता हूँ कि हे
पापी इंसान तू गफलत की नींद में क्यों
सोया हुआ है। उठ अपने उस प्रभू को याद कर जिसने तुझे इतना
सब कुछ दिया है ।
जय श्री राम जय श्री राम जय श्री राम
आखिर क्यों महादेव ने विष्णु को बद्रीनाथ दान में दे दिया
दरअसल भगवान विष्णु तपस्या के लिए पृथ्वी पर शांत जगह ढूंढ रहे थे तभी उनका निगाह पहाड़ों के बीच बद्रीनाथ पर पड़ी बद्रीनाथ उन्हें बहुत पसंद आया जैसे ही भगवान विष्णु बद्रीनाथ पहुंचे तो देखा कि पहले से ही महादेव और पार्वती वहां विराजमान है और भगवान विष्णु को यह बात ज्ञात थी की महादेव बहुत ही क्रोधी है अतः उनके दिमाग में एक विचार आया और वह बद्रीनाथ के दरवाजे पर बालक रूप धारण करके लगे रोने लगे यह सब यह सब देख माता पार्वती शिशु को चुप कराकर अपने कुटिया में सुला दी और स्नान करने चली गई फिर वापस आए तो देखी की कुटिया का दरवाजा बंद है तब तब भगवान शिव समझ गए यह कोई आम बालक नहीं है ये तो स्वयं विष्णु जी है इसलिए महादेव बद्रीनाथ को छोड़कर केदारनाथ की ओर प्रस्थान किया तभी से बद्रीनाथ विष्णु का स्थान हो गया महाकाल के दरियादील के लिए एक लाइक और कमेंट में जय महाकाल लिखना ना भूलें जय महाकाल
क्या परशुराम जी भगवान् विष्णु के अवतार है? यदि हा तो एक ही कालखंड में भगवान् विष्णु के दो अवतार श्री राम जी और परशुराम जी कैसे संभव है?
परशुराम विष्णु अवतार नही है।
विष्णु अवतार है।
मत्स्य
वराह
कूर्म
मोहिनी
हयग्रीव
वामन
नृसिंह
राम
कृष्ण
कल्कि।
इनमे से तीन नाम निकाल कर पहला परशुराम का नाम जोडा दूसरा बलराम का नाम जोडा तीसरा बुद्ध का नाम जोडा।
यह तब हुआ जब शंकराचार्य ने बौद्ध को हिन्दू धर्म में शामिल करना चाहा तभी बुद्ध को विष्णु अवतार बताया तभी उस समय के पंडित ने दो नाम और जोड दिए वह थे परशुराम और बलराम।
पांच पांडवों की पत्नी द्रोपदी एक एक वर्ष के लिए हर पांडव के साथ रहती थीं। उस अवधि में किसी और पांडव भाई को उनके आवास में जाने की अनुमति नहीं थी । इस नियम को तोड़ने वाले किसी भी पांडव को दंड स्वरूप एक वर्ष के लिए देश से बाहर रहना पड़ता था।
बात उस समय की है जब अर्जुन और द्रौपदी का 1 वर्ष का समय समाप्त हो गया था। द्रोपदी और युधिष्ठिर का समय शुरू ही हुआ था। उस समय अर्जुन अपना तीर धनुष द्रोपदी के कक्ष में ही भूल आए थे, लेकिन उन्हें एक ब्राह्मण के गोवंश की रक्षा करने की जरूरत पड़ी और उन्हें अपना क्षत्रिय धर्म निभाने के लिए के लिए द्रोपदी के कक्ष में जाना पड़ा और दंड स्वरूप उन्हें 1 वर्ष का देश निकाला मिल गया।
इसी वनवास के दौरान अर्जुन की भेंट नागकन्या उलूपी से हुई। वह अर्जुन पर मोहित हो गई और उन्हें खींचकर अपने नाग लोक ले गई। उसके अनुरोध करने पर अर्जुन को उससे विवाह करना पड़ा और 1 वर्ष तक वे दोनों साथ रहे।
इतिहास में पहली बार एक इंसान का एक नागकन्या से प्रेम विवाह हुआ और उस नागकन्या ने एक बच्चे को जन्म दिया। हुआ यह था कि अर्जुन ने इंद्रप्रस्थ को नागों से मुक्त करने का संकल्प लिया था और इस संकल्प में बहुत से नाग मारे भी गए थे । और सभी नागवंशी अर्जुन से बदला लेने की फिराक में थे।जब अर्जुन वनवास के दौरान भटकते भटकते गंगा के तट पर पहुंचे और नागों को उनके गंगा तट पर पहुंचने का समाचार मिला तो नागराज ने अपनी रूपवती कन्या उलूपी को अर्जुन के पास बदला लेने के लिए भेजा वह अत्यंत रूपवती थी वह युद्ध कला और सम्मोहन कला में पारंगत थी। नागकन्या जब अर्जुन के पास आई तो मारने का विचार छोड़कर उनके रूप पर मोहित हो गई और विवाह का अनुरोध किया जब अर्जुन नहीं माने तो उन्हें मूर्छित करके नाग लोक ले गई। वहां उसने अर्जुन को अपने पिता से मिलवाया और बड़ी ही होशियारी से नागों की और पांडवों की शत्रुता को भी खत्म करवा दिया जिससे अर्जुन भी उससे विवाह करने को राजी हो गए ।उलूपी और अर्जुन के पुत्र का नाम इरावन था जो कि आगे चलकर किन्नरों का देवता हुआ। महाभारत के युद्ध में इरावन ने भी अपना बलिदान दिया था। अपने प्यार की खातिर मृत्यु को प्राप्त हुए अर्जुन को उलूपी ने एक बार अपने नागमणि से पुनर्जीवित भी किया था। यह एक अलौकिक प्रेम कथा है।
“मद्र ” देश की राजकुमारी लक्ष्मणा के स्वयंवर में, द्रौपदी स्वयंवर की तरह मछली की आंख में निशाना साधा गया था।अन्तर केवल इतना था कि द्रौपदी स्वयंवर में नीचे पानी में मछली की छाया देखकर , ऊपर घूमती हुई मछली की आंख को भेदना था । लेकिन लक्ष्मणा के स्वंयवर की प्रतियोगिता में पानी में क्या देखना, कहीं भी नहीं देख सकते थे क्योंकि आंखों पर पट्टी बांध कर मछली की आंख पर तीर चलाना था। जिसमें करण-अर्जुन सभी असफल रहे तथा जिस कार्य को भगवान श्री कृष्ण ने पूर्ण किया था।
श्री कृष्ण जी ने बड़े बड़े धनुर्धरों को वीरोचित सम्मान दिलाते हुए संदेश दिया कि वीरता का अभिमान कभी भी नहीं करना,आपके द्वारा किया कार्य का पड़ाव अन्तिम नहीं है, चुनौतियां नित नई आती हैं।साथ ही श्रीकृष्ण जी ने अपनी भगवत्ता का प्रर्दशन भी किया।यह भगवान कृष्ण की छोटी सी झलक थी।
अंत में …….
पुरुष बली नहि होत है, समय होत बलवान ।
भीलों ने लूटी गोपियां, वही अर्जुन वही बान।।
हिजाबी लड़की का डायलॉग है कि “तुम्हारा भगवान शिव अपनी मरी हुई पत्नी को उठाकर विलाप करता हुआ घूमता है वो कैसा भगवान है”?
उस समय अगर उस हिंदू लड़की को अपनी संस्कृति का ज्ञान होता तो जवाब देती की महादेव वह है जो सृष्टि का संहार करने मे सक्षम है तथा वह एक पत्नीव्रत के साथ पवित्र अंनत प्रेम के प्रतीक भी हैं।
किन्तु तुम्हारे मजहब ये बात कहाँ समझाई जाती होगी जहाँ चौथे नंबर की बेगम को प्रेम का प्रतीक माना जाता है । ऐसी बेगम जो अपनी चौदहवीं संतान को जम्म देने के लिए प्रसव पीड़ा से मर गई क्योंकि प्रसव से ठीक पूर्व उसे आगरा से बुरहानपुर तक की आठ सौ किलोमीटर लंबी यात्रा की थकान और 30 तीस घंटे तक प्रसव का दर्द सहन करना पड़ा ।
तुम कहाँ समझ पाओगी प्रेम को जहाँ छोटी सी बच्ची से संबंध बनाने के लिये उसे चालीस दिनों तक भूखा प्यासा रखा जाता है तुम्हे वो भाव कैसे पता होगे जहाँ एक पति अपनी पत्नि के लिये कई जन्म तक और अंनत काल तक प्रतीक्षा करता है ।
अपने धर्म का ज्ञान अपने बच्चो को देना हमारी जिम्मेदार है और उनके प्रश्नो का उत्तर देना भी किन्तु इसके लिये हमको स्वयं धर्म मे रूचि लेनी होगी ।
अब युद्ध छिड़ चुका है हमारे धर्म संस्कारो का उनके मजहबी कट्टरवाद से ।
- यह एक बुढ़िया की कहानी है जिसने बताया कि कैसे श्री बांके बिहारी जी ने उसकी मदद की।
बुढ़िया वृंदावन परिक्रमा में भक्तों को ठंडा पानी पिलाती थी।
उन्हें अक्सर रोते हुए और कृष्ण के गीत गाते हुए देखा जाता था.. ब्रज में उनकी उपस्थिति के बारे में पूछने पर, उन्होंने भक्तों को अपनी कहानी सुनाई।
मेरे पिता ने मेरी शादी के लिए एक क्रूर साहूकार के पास घर गिरवी रख दिया था, मेरे पिता ने कड़ी मेहनत की और कर्ज चुकाया लेकिन दुष्ट साहूकार के पास इस तथ्य के बावजूद घर जब्त करने की योजना थी कि हमने कर्ज चुका दिया था।
साहूकार ने अदालत में मामला दर्ज किया और अदालत के सामने मना कर दिया कि उसे अपना पैसा वापस मिल गया है।
एक साहूकार के वकील ने मेरे पिता को धमकी दी और मेरे पिता निराश हो गए क्योंकि उनके पास कोई गवाह नहीं था।
बुढ़िया के पिता श्री बांके बिहारी के दर्शन करने वृंदावन गए।
मेरे पिता भगवान से अपने मामले में गवाह बनने के लिए कहकर मंदिर के बाहर सो गए।
मेरे पिता घर आए और कहा कि उन्हें विश्वास है कि वह केस जीत जाएंगे जबकि सभी ने सोचा कि हम केस हार जाएंगे।
अगले दिन जब जज ने अपना गवाह पेश करने के बारे में पूछा।
उन्होंने “बांके बिहारी” नाम दर्ज कराया।
परिचारक तीन बार चिल्लाया “बांके बिहारी, अपने आप को अदालत में पेश करें”।
आवाज बाहर से बोली।
मैं यहां हूं”।
कंबल में लिपटा एक आदमी अदालत में पेश हुआ और न्यायाधीश को बताया कि साहूकार ने मेरे पिता की बेगुनाही साबित करने वाली फाइल को कहां छिपा दिया है।
साहूकार को रंगे हाथों पकड़ा गया।
एक भगवान का चेहरा देखकर जज साहब दंग रह गए, यह कोई मानवीय चेहरा नहीं था जब जज ने पलट कर देखा तो बिहारी जी गायब हो गए।
अगले दिन जज ने अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया और वृंदावन चले गए।
वे कृष्ण के स्थायी भक्त बन गए और “जज बाबा” के नाम से प्रसिद्ध हुए।
बुढ़िया इस आशा से वृंदावन चली गई कि वह फिर से श्री बांके बिहारी जी के दर्शन करेंगी।
- (1920) यह वृंदावन में श्री बांके बिहारी मंदिर के पास एक मिठाई की दुकान के मालिक की कहानी है।
एक बार उन्हें 40 किलो लड्डू बनाने का ऑफर आया तो उन्हें ऑर्डर देने के लिए काफी मेहनत करनी पड़ी, काम खत्म करने के लिए उनकी दुकान दिन रात खुली रहती थी.
उसने कहा “मैं मशीन की तरह काम कर रहा था और मेरे हाथ लड्डू बनाने में व्यस्त थे, अचानक मुझे एक छोटे से लड़के की सम्मोहक आवाज सुनाई दी” काका मुझे भूख लगी है, क्या आप मुझे कुछ खाने को दे सकते हैं”।
मैं एक बच्चे को देखता रहा, मैं बोल भी नहीं पा रहा था, मैं भ्रमित और सम्मोहित था।
उसे ना कहने का सवाल ही नहीं उठता था।
मैंने उसे एक लड्डू दिया और बदले में उसने मुझे एक सोने की चूड़ी दी, मैं मना करना चाहता था और उससे बात करना चाहता था लेकिन मेरी आवाज पंगु हो गई थी और मैं उसे तब तक देखता रहा जब तक वह गायब नहीं हो गया।
अगले दिन जब मैं दुकान पर आ रहा था तो मैंने सुना कि बिहारी जी की सोने की चूड़ी खो गई है।
मंदिर प्रबंधक और अधिकारी चिंतित थे।
मैंने उन्हें बुलाने और उन्हें दिखाने का फैसला किया कि क्या यह वही चूड़ी है जिसकी उन्हें तलाश थी।
जब उन्होंने आकर चूड़ी देखी तो हर कोई हैरान रह गया.. उसमें श्री बांके बिहारी जी की चूड़ी गायब थी।
- एक बार एक मुस्लिम रानी वृंदावन से गुजर रही थी।
वृन्दावन से गुजरते समय उसने श्री बांके बिहारी मंदिर में बहुत से भक्तों को जाते हुए देखा।
इतने सारे लोगों को मंदिर जाते देख उसका भी मन मंदिर जाने का हुआ।
जब उसने मंदिर में जाकर श्री बांके बिहारी के दर्शन किए।
वह कभी वृंदावन से बाहर नहीं गईं और श्री बांके बिहारी जी की स्थायी भक्त बन गईं।
- मथुरा से वृंदावन ट्रेन के टिकट कलेक्टर अक्सर श्री बांके बिहारी मंदिर जाते थे।
एक बार शटल वृंदावन स्टेशन पर पहुंची।
वे प्रतिदिन वृन्दावन स्टेशन पहुँचते और बिहारी जी के दर्शन के लिए दौड़ पड़ते।
एक दिन जब वे मंदिर गए तो मंदिर की वेदी बंद थी, उन्हें बिहारी जी के दर्शन के लिए इंतजार करना पड़ा, इतने में उनकी ट्रेन स्टेशन से निकल गई।
जब उन्हें पता चला कि ट्रेन छूट गई है, तो उन्होंने सोचा कि उनसे इस्तीफा मांगा जाएगा क्योंकि ट्रेन उनके बिना ही निकल गई है।
तब वे खुद स्टेशन मास्टर के पास गए और अपना इस्तीफा दे दिया। स्टेशन मास्टर को आश्चर्य हुआ, उन्होंने कहा, “अभी आपने मथुरा जाने से पहले सभी दस्तावेज जमा किए हैं तो आप इस्तीफा क्यों दे रहे हैं”।
टिकट कलेक्टर सदमे में,
उसने कहा “अगर मैं यहाँ हूँ तो ट्रेन के साथ कौन गया”?
जल्द ही उन्हें पता चला कि वह कोई और नहीं बल्कि उनके अपने “श्री बांके बिहारी जी” थे जिन्होंने टिकट कलेक्टर का कर्तव्य निभाया।
टिकट कलेक्टर की आंखों में आंसू आ गए।
उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया और अपना शेष जीवन श्री बांके बिहारी की सेवा में बिताया।
छत को गर्म होने से बचाने का सबसे आसान तरीका क्या है?
छत को गर्म होने से बचाने के लिए उस पर चूने से पुताई कर दें।
एक हजार स्क्वेयर फीट छत के लिए पांच किलो चूना(डले वाला) रात में गला दें। ध्यान रखें पानी डालते ही इस चूने से खूब गर्मी निकलती है कि पानी उबलने लगता है इसलिए सावधानी रखें।
इसे रात भर गला रहने दें।
सुबह जल्दी उठकर छत को अच्छे से साफ करें और चूने के घोल को छत पर डालकर झाड़ू से फैलाते जाएं।
आप चाहें तो इस घोल में आधा किलो फेविकोल भी मिला सकते हैं। फेविकोल को अच्छे से घोलें और हर बार घोल को हिलाते हुए मग में लें।
छत जितनी साफ होगी चूना जितना सफेदी लिये रहेगा छत उतनी ही ठंडी रहेगी।
चूने की सफेदी छत पर पड़ने वाली सूर्य किरणों को परावर्तित कर देती हैं और छत ठंडी रहती है।
आजमाया हुआ तरीका है पिछले बीस साल से कर रही हूँ।
दरअसल एक बार जब रानी सत्यभामा को अपनी सुंदरता पर , सुदर्शन चक्र को अपनी शक्ति पर और गरुण को अपनी गति पर घमंड हो गया था तो ये सब देख तीनों लोगो का घमंड तोड़ने के लिए कृष्ण जी ने एक योजना बनाया और गरुण से कहा जाओ हनुमान को बुलाकर जाओ और उनसे कहना की द्वारिका में श्री राम जी आपका इंतजार कर रहे हैं कृष्ण जी ने सत्यभामा जी को कहा जाओ सिंगार करके तैयार हो जाओ और सुदर्शन चक्र से कहा जाओ द्वार पर पहरा दो और अंदर किसी को आने मत देना जब हनुमान जी को यह बात पता चली की श्री राम जी द्वारिका में मेरा इंतजार कर रहे है तो हनुमान जी और गरुड़ दोनों एक साथ उड़ान भरे लेकिन गरुड़ ने पीछे मुड़कर देखा तो हनुमान जी नहीं थे उनको लगा शायद हनुमान जी अभी पीछे होंगे लेकिन हनुमान जी द्वारिका में श्री कृष्ण जी के पास पहुंच गए थे जब हनुमान जी ने सत्यभामा को कृष्ण जी के पास बैठा देखा तो उन्होंने पूछा की माता सीता के जगह पर यह दासी कौन है फिर कृष्ण जी ने पूछा तुम्हें द्वार पर किसी ने रोका नहीं फिर हनुमान जी ने सुदर्शन चक्र को अपने मुंह से बाहर निकाला और कृष्ण से कहा मेरे प्रभु श्री राम से मिलने के लिए कोई भी शक्ति मुझे रोक नही सकती जिसके कुछ समय बाद गरुण वहां पहुंच गए और हनुमान जी को वहां पहले से पहुंचा दे गरुण का भी घमंड चकनाचूर हो गया अतः हनुमान जी अपने सूक्ष्म शक्ति के द्वारा इतनी बड़ी शक्ति का घमंड तोड़ दिए तो बाकी शक्ति इनके सामने क्या है इन प्रमाण से कहा जा सकता है हनुमान जी सभी देवता में सबसे शतिशाली है हमारे इतने शक्तिशाली हनुमान जी के लिए एक लाइक तो बनता है साथ में कॉमेंट में जय श्री राम लिखना ना भूले
हनुमान जी ने जब सूर्य को एक फल समझकर निगल लिया था
तब संसार में हाहाकार मच गया था इंद्रदेव ने वज्र मारा हनुमान जी पर और वह बज्र हनुमान जी की ठोड़ी पर जा लगा और हनुमान जी बेहोश होकर नीचे गिर पड़े पवन देव ने पवन को रोक दिया और सारे सृष्टि में हाहाकार मच गया इंदर का सिंहासन डोलने लगा ब्रह्मा जी ने आकर हनुमान की मूर्छा तोडी
तब हनुमान जी को देवताओं ने कुछ ना कुछ वरदान दिया
सूर्य देव ने हनुमानजी को अपने तेज का सौवां भाग दिया था. सूर्य देव ने यह भी कहा था जब यह बालक बड़ा हो जाएगा तो वह इसे शास्त्रों का ज्ञान देंगे. जिसके बाद यह सर्वश्रेष्ण वक्ता बनेगा और शास्त्रों के ज्ञान में कोई इसके सामने नहीं टिक पाएगा.
कुबेर नहीं अपनी गदा हनुमान जी को दी थी जिससे उनको कोई भी युद्ध में पराजित नहीं कर सकता था और वरदान भी दिया था कि आप को युद्ध में कोई हरा नहीं सकेगा
महादेव ने विष को गले में क्यों रोका ? अगर वह पी लेते तो क्या होता ?
सावन का महीना परमेश्वर सदाशिव के सर्वहितकारी स्वरुप के प्रकट होने के आभार स्वरुप मनाया जाता है. क्योंकि इसी महीने में परमपिता ने अपनी सृष्टि की रक्षा के लिए देव-दानवों के समुद्र मंथन से उत्पन्न हलाहल विष को पी लिया था
हालांकि आदिशक्ति जगदंबा ने इस विष के घातक प्रभाव को अपने पति के कंठ में ही रोक दिया. इसलिए परमेश्वर को नीलकंठ के नाम से जाना गया. सतयुग में अनमोल निधियों की प्राप्ति के लिए यानी अधिक से अधिक सुख हासिल करने के लिए देवताओं और दानवों ने समुद्र-मंथन का मंथन किया. अर्थात ईश्वर की बनाई दो बेहद शक्तिशाली लेकिन एक दूसरे के विपरीत सोच रखने वाली प्रजातियों ने समुद्र रुपी प्राकृतिक निधियों का ज्यादा से ज्यादा दोहन किया गया.
इस समुद्र मंथन का माध्यम बने नागेश्वर शिव के गले में रहने वाले महानाग वासुकि. जिनकी कुंडली में मंदराचल पर्वत को लपेटकर समुद्र का मंथन किया गया था. वासुकि का मुंह दानवों की तरफ था, जबकि पूंछ देवताओं की ओर. पर्वत को नीचे से भगवान विष्णु ने कछुए के रूप में आधार दिया था.
लेकिन मंथन शुरु होते ही समुद्र से ‘कालकूट’ और वासुकि के मुख से ‘हलाहल’ विष की भयानक ज्वाला प्रकट हुई. जिसने पूरी सृष्टि को अपनी चपेट में ले लिया. ठीक उसी तरह जैसे इस समय संसार में इस समय मनुष्य द्वारा प्रकृति के अधिकतम दोहन से प्रदूषण और विनाशकारी मस्तिष्क द्वारा लैब में तैयार किया कोरोना वायरस चारो तरफ विनाश कर रहे हैं.
हलाहल विष फैलने की वजह से देव-दानव मूर्च्छित होने लगे और मुद्र मंथन का काम ठप हो गया था. तब उन्होंने भोलेनाथ से विनती की.
महायोगी शिव ने अपने योगबल की ताकत से संपूर्ण विष को इकट्ठा करके निगल लिया. पूरी सृष्टि का हलाहल और कालकूट विष शिव ने अपने कंठ में धारण किया जिसके कारण उनका गला नीला हो गया और उन्हें नीलकंठ के नाम से जाना गया.
महाग्रीवा शिव के नीलकंठ में रखे विष को शांत करने के लिए पूरी सृष्टि ने उनपर शीतल जल की वर्षा की. शिवलिंग पर जल अर्पण करके हम भी इस प्रक्रिया में अपना सहयोग देते हैं.
विष की ज्वाला समाप्त होने के बाद समुद्र मंथन हुआ और उसमें से लक्ष्मी, शंख, कौस्तुभ मणि, ऐरावत हाथी, पारिजात का पेड़, उच्चैःश्रवा घोड़ा, कामधेनु गाय, रम्भा और उर्वशी जैसी अप्सराएं, समस्त औषधियों के साथ वैद्यराज धनवन्तरि, चंद्रमा, कल्पवृक्ष, वारुणी मदिरा और अमृत निकला.
लक्ष्मी को भगवान विष्णु ने ग्रहण किया. हाथी-घोड़े, कल्पवृक्ष, अप्सराएं देवताओं को मिली. मनुष्यों को मिला धन्वंतरि का प्राणदायक आयुर्वेदिक ज्ञान. दानवों ने वारुणी मदिरा प्राप्त की. अमृत के लिए संघर्ष हुआ जिसमें मोहिनी विष्णु ने दानवों को धोखे में रखकर उन्हें वारुणी मदिरा देते हुए देवताओं को सारा अमृत पिला दिया.
लेकिन इस उपलब्धि से पहले समस्त लोकनाथ शिव को कालकूट-हलाहल विष पीना पड़ा. जगत्माता पार्वती ने उनका गला पकड़कर विष को कंठ से नीचे उतरने से रोका. सर्वेश्वर शिव के अंदर संपूर्ण सृष्टि समाहित थी. यदि कालकूट विष नीचे उतरता तो संपूर्ण सृष्टि का विनाश हो जाता. इसलिए ईश्वर ने महामाया पार्वती और अपने योगबल की मदद से विष को अपने कंठ में केन्द्रित कर लिया.
इसी विष की ज्वाला को शांत करने के लिए पिता परमेश्वर शिव पर ठंडे गंगाजल की धारा अर्पित की जाती है. सावन के महीने में देवता भी आकाश से रिमझिम फुहारों की वर्षा करके विषधर शिव का अभिषेक करते हैं.
विष पूरी तरह खत्म करने के लिए आगे आईं आदिशक्ति
देवताओं, गंधर्वों, यक्षों, दानवों, असुरों, राक्षसों, मनुष्यों द्वारा अर्पित जल से भी शिव की जलन शांत नहीं हो रही थी. तब आदिशक्ति महाविद्या ने अपना सबसे पहला अवतार धारण किया. वह स्थूलशरीरा नील तारा के रुप में प्रकट हुईं और विष के प्रभाव से नन्हें बालक की तरह बिलखते शिव को अबोध शिशु की तरह अपने गोद में धारण किया और स्तनपान कराया.
महाविद्याओं में सर्वप्रथम तारा का रंग नीला होता है. यह प्रौढ़ावस्था में दिखाई देती हैं. वैसे तो शिव अजन्मे और अविनाशी हैं. लेकिन स्तनपान कराने के कारण भगवती तारा को शिव की माता के रुप में जाना जाता है. मां तारा की पूजा बौद्ध परंपरा में भी होती है. महाशक्तियों में उनका स्थान महाकाली से भी पहले होता है. उनके अमृतमय दूध की वजह से शिव की ज्वाला शांत हुई थी. मां तारा का प्रसिद्ध मंदिर झारखंड और पश्चिम बंगाल की सीमा पर बीरभूम जिले में एक श्मशान के बीचोबीच स्थित है।
सन 1982 मे बी आर चोपड़ा की एक फिल्म आई थी जिसने मुस्लिम धर्म की कुप्रथाओं को सामने लाया था। फिल्म थी निकाह। इसमे तीन तलाक तथा हलाला जैसे मुद्दों का औरत पर क्या असर होता है ये दिखाने का प्रयास किया गया था।
सभी धर्मों में कुछ ऐसी रीतियां व्याप्त हैं जिनके नकारात्मक प्रभावों के कारन उन्हें हम कुरीति कहने पर विवश हो जाते हैं। आज मैं इस्लाम धर्म में प्रचलित एक ऐसी ही कुरीति पर आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहती हुँ।
हलाला
हलाला एक ऐसी प्रथा है जो एक लम्बे समय से इस्लाम धर्म का हिस्सा रही है और कई औरतों के अपमान की गवाह रही है। इसके अंतर्गत जब किसी मुस्लिम महिला का शौहर उसे तलाक दे देता है और पुनः उसी औरत से विवाह करना चाहता है तो वो सीधे तौर पर ऐसा नहीं कर सकता।
अपनी ही तलाकशुदा बीबी से निकाह करने के लिए उस महिला को पहले किसी और मर्द से निकाह करना पड़ता है, उसके साथ कम से कम एक रात गुजारनी पड़ती है, सफ़लतापूर्वक सहवास करना पड़ता है, फिर वो दूसरा पति उसे पुनः तलाक देता है, तब जाकर वो महिला अपने पूर्व पति से फीर से निकाह कर सकती है।
जाने कितनी मुस्लिम महिलाओं को इस दंश से गुजरने को मजबूर होना पड़ता है। और ये सब सजा उसे बिना किसी गलती के झेलनी पड़ती है।
सामान्य लोगों कि बात बाद मे करुँगी। पहले एक जानकारी दे दूँ आपको। आप सब मीना कुमारी के नाम से तो परिचित होंगे ही। वही मीना कुमारी जिन्होंने पाकीजा, साहब बीबी और गुलाम तथा दिल अपना और प्रीत पराई जैसी हिट फ़िल्में दीं।
मीना कुमारी का निकाह उस समय के सुविख्यात डायरेक्टर कमाल अमरोही से हुआ था। उनके रिश्ते कई उतार चढाव वाले रहे। एक बार गुस्से में आकर उन्होंने मीना कुमारी को तीन तलाक दे दिया। बाद में उन्हें काफी पछतावा हुआ तो उन्होंने माफी मांगी और फिर से मीना कुमारी से निकाह करने की बात कही। पर इसके लिए मीना कुमारी की शादी कमाल अमरोही ने उनका निकाह अपने दोस्त अमान उल्ला खां (ज़ीनत अमान के पिता) से करा दिया। मीना कुमारी को न चाहते हुए भी अमान उल्ला के साथ हमबिस्तर होना पड़ा। फिर इद्दत (मासिक धर्म) के बाद अमान उल्ला ने मीना कुमारी को तलाक दिया और तब जाकर कमाल अमरोही ने मीना कुमारी से फिर से निकाह किया। कहा जाता है कि इसका मीना कुमारी पर इतना बुरा मानसिक असर पड़ा कि वो अपनी तुलना तवायफ से करने लगीं थी।
अब मैं अपने एक मित्र की रिश्तेदार की बात बताती हूँ। उस औरत का नाम था नगमा। नगमा को उसके शराब में डूबे रहने वाले पति ने सिर्फ इसलिये तलाक दे दिया क्योंकि उसने अपने धोखेबाज दोस्त की इस बात पर यकीन कर लिया कि नगमा अपने घरवालों से उसकी शिकायत करती है। बाद मे जब उसे अपनी गलती का एहसास हुआ तो उसने अपने बच्चों की परवरिश का वास्ता देकर उसे हलाला करने को विवश किया। उसकी शादी अपने दोस्त से करा दी। बाद में उस दोस्त ने बोला कि निकाह के बाद भी उनका जिस्मानी रिश्ता नहीं बना जो कि हलाला के लिए जरूरी है। इस रिवाज की आड़ मे वो कई रातों तक नगमा का बलात्कार करता रहा। पर इससे पहले कि कोई उसकी नीयत को समझ पाता नगमा ने आत्महत्या कर ली। उसकी मौत को भी पुलिस तक पहुँचने नहीं दिया गया।
मेरी नजर में हलाला एक ऐसी कुप्रथा है जो कहिं से भी जायज नहीं ठहराया जा सकता। पर रिवाजों के नाम पर कानून भी अक्सर खामोश ही रहा है। ये एक औरत को जीते जी नर्क यातना देने जैसा है।
फोटो साभार :गुगल