18 बरस की तिरिया, 13 दिन का पति – 18 Baras Ki Tiriya, 13 Din Ka Pati
सुनी-अनसुनी कहानियाँ – 18 बरस की तिरिया, 13 दिन का पति – 18 Baras Ki Tiriya, 13 Din Ka Pati – 18 Years Old Tiriya, 13 Days Old Husband
बहुत समय पहले की बात है शोणितपुर नगर में राजा विक्रमसेन का राज्य था। उसकी पत्नी वैशाली और राजा विक्रमसेन दोनों बहुत ही दयालु व धार्मिक थे।
वे सदा अपनी प्रजा की सेवा में लगे रहते थे। राजा विक्रमसेन के पास सब कुछ था, लेकिन वह एक बात से हमेशा दुखी रहता था क्योंकि उसके कोई संतान नहीं थी।
राजा-रानी ने बहुत प्रयत्न किया, कई मंदिरों में गए, कई संतों के की सेवा की ताकि उनको संतान प्राप्त हो जाए। लेकिन उनको संतान का सुख प्राप्त नहीं हुआ।
महात्मा का आशीर्वाद
ऐसे ही समय बीतता गया, एक बार उस राज्य में एक महान महात्मा पधारे। राजा और रानी ने उनकी तन-मन से सेवा की। संत राजा और रानी की सेवा से बहुत प्रसन्न हुए और उनसे वरदान मांगने के लिए कहा। राजा ने कहा कि “महात्मन, ईश्वर की कृपा से मेरे पास किसी भी चीज की कमी नहीं है। लेकिन मेरी कोई संतान नहीं है।
अतः मैं आपसे एक पुत्र का वरदान मांगता हूं। महात्मा ने राजा और रानी की हस्त-रेखा देखी और कहा “हे राजन, तुम्हारे भाग्य में संतान का सुख नहीं है।” राजा ने कहा “मुझे मेरी कोई चिंता नहीं है लेकिन मैं इस बात से ही दुखी रहता हूँ कि मेरे बाद मेरी प्रजा का क्या होगा?”
महात्मा ने कहा “राजन, मुझे ये जानकर और ख़ुशी हुई कि तुम अपने से भी ज्यादा अपनी प्रजा के बारे में सोचते हो।
इसलिए मैं तुम्हे एक वीर, प्रतापी और प्रजापालक पुत्र का वरदान देता हूँ, लेकिन जब वह तेरह दिन का हो जाये तो तुम्हे उसका विवाह एक पूर्ण युवती के साथ करना होगा, नहीं तो चौदहवें दिन तुम्हारे पुत्र की मृत्यु हो जाएगी।” इतना कहकर महात्मा ने रानी को एक सेब दिया और कहा कि “इसे खा लो।
रानी ने वह सेब खा लिया। ठीक नौ महीने बाद रानी ने एक बहुत ही सुंदर पुत्र को जन्म दिया। राजा बहुत प्रसन्न हुआ। राजा और रानी ने उसका नाम उदयसिंह रखा। अब राजा को यह चिंता सताने लगी कि तेरह दिन का होने पर यदि उदयसिंह का विवाह नहीं हुआ तो उसकी मृत्यु हो जाएगी।
लेकिन कौन राजा अपनी पुत्री का विवाह तेरह दिन के राजकुमार से करने के लिए तैयार होगा। आसपास के राजा तो राजा के बारे में सब कुछ जानते थे। इसलिए उनमे से तो कोई भी अपनी पुत्री का विवाह उदयसिंह से करने के लिये तैयार नहीं होगा।
13 दिन के उदयसिंह के विवाह की कोशिश
उस समय यह प्रथा थी कि कोई भी राजा या राजकुमार अपनी कटार किसी भी राजकुमारी को भेज कर विवाह का प्रस्ताव भेज सकते थे। प्रस्ताव स्वीकार होने उस कटार का तिलक करके राजकुमारी को विदा कर दिया जाता और प्रस्ताव भेजने वाले राजा के राज्य में पंहुचने पर विधिवत विवाह किया जाता।
हाँ, प्रस्ताव भेजने वाले राजा के राज्य में पहुँच कर यदि राजकुमारी किसी भी कारण से विवाह करने में आपत्ति होती तो उसे सम्मान उसके राज्य में वापस भिजवा दिया जाता था।
राजा विक्रमसेन ने एक युक्ति निकाली। राजा ने अपने राज्य के सबसे सुन्दर नवयुवक श्याम को बुलवाकर उसका एक चित्र बनवाया तथा एक बहुत ही सुन्दर रत्नजडित कटार बनवाई।
राजा ने श्याम का चित्र, रत्नजडित कटार और एक पत्र अपने राजपुरोहित को देते हुए कहा “यहां से बहुत दूर किसी ऐसे राज्य में जाओ, जहां हमारे राज्य में होने वाली गतिविधियों की खबर पंहुचने में समय लगता हो और वहां पंहुच कर वहां के राजा को मेरा यह पत्र दे देना।” राजा की आज्ञा मानकर मानकर राजपुरोहित रवाना हो गए।
चार दिनों तक चलने के बाद वह कनकपुर राज्य में पहुंचे। कनकपुर के राजा का नाम सोमनाथ था। उन्होंने सुना कि सोमनाथ की पुत्री राजकुमारी वैष्णवी विवाह योग्य है और वह बहुत ही रूपवती, सुशील और गुणवान है। राजपुरोहित राजा के दरबार में गए और उन्हें राजा विक्रमसेन का पत्र दिया।
उदयसिंह के विवाह का प्रस्ताव
सोमनाथ ने अपने मंत्री से पत्र पढ़ने को कहा। मंत्री ने राजपुरोहित के हाथ से पत्र लिया और पढ़ने लगा।
पत्र में लिखा था, “महाराज को शोणितपुर नगर के राजा विक्रमसेन का सादर नमन, मैंने सुना है कि आपकी विवाह योग्य पुत्री बहुत ही सुशील और गुणवान है। मैं अपने पुत्र उदयसिंह का विवाह आपकी पुत्री से करवाना चाहता हूँ।
मैं इस पत्र के साथ अपने पुत्र का चित्र और उसकी कटार भेज रहा हूँ। यदि आपको मेरा प्रस्ताव स्वीकार हो तो आप अपनी पुत्री को इस कटार के साथ विदा कर दें। शोणितपुर पँहुचने पर मैं आपकी पुत्री और अपने पुत्र उदयसिंह का विधिवत विवाह करवा दूंगा।
यहाँ आने पर यदि आपकी पुत्री को लगता है कि वह ये विवाह नहीं करना चाहती तो मैं उसे ससम्मान वापस आपके नगर में पहुंचा दूंगा।”
राजपुरोहित राजा सोमनाथ को अपने साथ लाया हुआ श्याम का चित्र देते है। चित्र देख कर राजा सोमनाथ बहुत प्रसन्न होते है और राजपुरोहित से कहते है कि मुझे तो राजकुमार उदयसिंह बहुत पसंद है लेकिन मैं अपनी रानी और अपनी बेटी से सलाह मशवरा करके ही आपको जवाब दे पाऊंगा।
जब तक आप मेरे अतिथि-गृह में विश्राम करें। इतना कहकर राजा सोमनाथ अपने महल में गए तथा उन्होंने वह चित्र अपनी रानी और पुत्री वैष्णवी को दिखाकर पूरी बात बताई। रानी और राजकुमारी वैष्णवी ने भी चित्र देखकर अपनी स्वीकृति दे दी।
राजकुमारी वैष्णवी की कटार के साथ विदाई
तब राजा सोमनाथ ने अपने मंत्री को भेज कर राजकुमार उदयसिंह की कटार मंगवाई और उसका विधिवत तिलक किया। राजा सोमनाथ ने एक बहुत ही सुन्दर पालकी में राजकुमारी वैष्णवी को बहुत सारे सामन सोना-चांदी, हीरे-मोती, हाथी-घोड़ों के साथ शोणितपुर के लिए विदा कर दिया।
राजकुमारी वैष्णवी को शोणितपुर में कोई असुविधा ना हो इसलिए उसने अपने दो विश्वस्त दास-दासी रामसिंह और राधा को भी राजकुमारी के साथ भेज दिया।
उधर राजा विक्रमसेन की चिंता बढती जा रही थी ग्यारह दिन पूरे हो चुके थे। लेकिन अभी तक राजपुरोहित का कोई संदेशा नहीं मिला था। वह बैचेनी से इधर से उधर टहल रहा था, तभी एक दास ने आकर उसे बताया कि एक सैनिक सन्देश लेकर आया है। राजा ने अतिशीघ्र उसे अन्दर आने को कहा।
सैनिक ने आकर बताया कि कनकपुर के राजा सोमनाथ ने राजा विक्रमसेन का प्रस्ताव स्वीकार करके और राजकुमारी वैष्णवी को शोणितपुर के लिए विदा कर दिया ही। वे कल सुबह शोणितपुर पहुँच जाएगी। विक्रमसेन ये सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ और अपना हार उस सैनिक को ईनाम में दे दिया।
उसने उसी समय अपने मंत्रियों को बुलाया और विवाह की तैयारी करने का हुक्म दिया। फिर उसने एक सैनिक को भेजकर श्याम को बुलवाया। राजा ने श्याम से कहा कि तुम्हे कल राजकुमारी के साथ विवाह की रस्मों में शामिल होना होगा।
श्याम ने कहा “मैं कैसे ये विवाह कर सकता हूँ।” राजा ने कहा “तुम्हे विवाह नहीं करना है। तुम्हे केवल विवाह की रस्मों में शामिल होना है। कल जब विवाह हो रहा होगा तो दुल्हे के रूप में तुम्ही मंडप में बैठोगे। लेकिन तुम्हे राजकुमार उदयसिंह को अपने साथ रखना होगा और बड़ी चतुराई से सभी रस्में उसके हाथ से करवानी होगी।”
श्याम ने कहा “मैं ये सब कैसे कर पाऊंगा, ये तो राजकुमारी के साथ धोखा है।” राजा ने कहा “हाँ मैं समझता हूँ, लेकिन अपने राज्य और अपने राजकुमार के प्राण बचाने के लिए तुम्हे ये करना ही होगा।” राजा की बात सुनकर श्याम तैयार हो गया।
राजकुमारी वैष्णवी का धोखे से विवाह
अगले दिन सुबह ही राजकुमारी वैष्णवी शोणितपुर पहुँच गई | राजा ने बड़ी धूमधाम से राजकुमारी का स्वागत किया और उसे महल में लाकर श्याम से मिलवाया और कहा कि “तुम अपने दुल्हे से मिल लो और यदि तुम विवाह ना करना चाहों तो मैं तुम्हे सम्मान वापस तुम्हारें नगर भिजवा दूंगा | यदि तुम्हारी स्वीकृति हुई तो आज शाम को ही तुम्हारा विवाह राजकुमार उदयसिंह से कर दिया जायेगा” |
राजकुमारी ने श्याम को देखा वह चिर से भी अधिक रूपवान और तेजस्वी लग रहा था | श्याम राजकुमार उदयसिंह को अपनी गोदी में लिए हुए था | उसने वैष्णवी को बताया कि ये राजा सोमनाथ का पुत्र है |
रानी माँ की बिमारी के कारण वह उसे हमेशा अपने साथ रखता है | वैष्णवी सुनकर बहुत खुश होती है कि उसके होने वाले पति का हृद्य कितना विशाल है वह अपने छोटे भाई की इतनी देखभाल और चिंता करता है | अब राजकुमारी के मन में जो शंका थी वो दूर हो गई थी | उसने विवाह के लिए अपनी स्वीकृति दे दी |
मंडप में श्याम राजकुमार उदयसिंह को अपनी गोदी में लेकर बैठा गया | राजपुरोहित ने विवाह की रस्में शुरू कर दी | श्याम बड़ी सफाई से हर रस्म में इस तरह राजकुमार उदयसिंह का हाथ लगवाता था कि ऐसा लगे जैसे उसका हाथ गलती से बीच में आ गया हो | शीघ्र ही विवाह सम्पन्न हो गया |
राजकुमारी वैष्णवी का सच्चाई से सामना
राजकुमारी वैष्णवी को राजकुमार उदयसिंह के कक्ष में ले जाया गया। वैष्णवी ने देखा कि उस कक्ष में एक पालना रखा हुआ था जिसमे राजकुमार सो रहा था। वहीँ पास में श्याम खड़ा हुआ था। राजकुमारी कहती है “आज तो हमारी सुहागरात है कम से कम आज तो तुम इसे अपने माता पिता के पास छोड़ दो।”
श्याम ने कहा “राजकुमारी, मैं आपका पति नहीं हूं, आपका पति तो यह है, राजकुमार उदयसिंह। आपके विवाह की सभी रस्में राजकुमार उदयसिंह के साथ ही सम्पन्न हुई है।” वह राजकुमारी वैष्णवी को सारी बात बता देता है और वहां से चला जाता है।
राजकुमारी वैष्णवी सारी सच्चाई जानकर स्तब्ध होकर पलंग पर गिर जाती है। थोडा समय बीतने पर वह संभलती है और राजा सोमनाथ के कक्ष में जाकर कहती है “पिताजी, आपने मेरे साथ इतना बड़ा धोखा क्यों किया?” राजा सोमनाथ कहते है “मुझे क्षमा कर दो बेटी, मैं मजबूर था मेरे पास ओर कोई चारा नहीं था।”
राजा सोमनाथ उसे पूरी बात बताता है और कहता है, “अब तुम्ही बताओं, कौन पिता ऐसा होता जो तेरह दिन के बच्चे से अपनी बेटी का विवाह कर देता। इसलिए मुझे अपने पुत्र की जान बचाने के लिए ऐसा करना पड़ा।
लेकिन फिर भी तुम्हारे ऊपर कोई जबरदस्ती नहीं हैं। यदि तुम वापस अपने पिता के पास जाना चाहती हो तो मैं ससम्मान तुम्हे तुम्हारे राज्य में वापस पहुंचा दूंगा। तुम्हारे और राजकुमार उदयसिंह के विवाह की बात भी किसी को पता नहीं चलेगी। मैं सब से कह दूंगा कि तुमने विवाह प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया।”
वैष्णवी ने कहा “लोगों को तो पता नहीं चलेगा लेकिन मुझे तो पता है। मैं विवाह के पवित्र बंधन का अपमान नहीं कर सकती।” इतना कहकर वैष्णवी अपने कक्ष में आ जाती है।
राजकुमारी वैष्णवी की चिंता
अपने कक्ष में आने के बाद राजकुमारी वैष्णवी सोचती है कि वह कैसे अपने इस तेरह दिन के पति के साथ रहेगी। बचपन से ही इसके साथ रहने और देखभाल करने से हो सकता है इसके मन में मेरे लिए पत्नी वाले भाव न जागे। ये मुझे अपनी दाई माँ समझे।
जब तक ये बड़ा होगा तब तक मेरी उम्र राजकुमार से दोगुनी हो जाएगी। हो सकता है बड़े होने पर ये मुझे स्वीकार ही ना करे और यदि स्वीकार भी करे तो एक जबरदस्ती का रिश्ता समझ कर निभाए। वैष्णवी चाहती थी कि उसका पति उसे दिलों-जान से प्यार करे।
वैष्णवी जितना सोचती उतना ही ज्यादा परेशान होती और उसके मन मैं तरह तरह के बुरे विचार आते। वह माँ दुर्गा से प्रार्थना करती है “है दुर्गा माँ, मैंने बचपन से आपकी पूजा सच्चे मन से की है, लेकिन मुझे आपकी पूजा का ये क्या फल मिला है।
मेरी पूजा या साधना में एसी क्या कमी रह गई जो मेरे साथ ऐसा हुआ।”
प्रार्थना करते करते उसे नींद आ जाती है तभी उसे एक प्रकाश पुंज दिखाई देता है जिसमे उसे माँ दुर्गा के दर्शन होते है। माँ दुर्गा उससे कहती है “बेटी, तुम चिंता मत करों। राजकुमार उदयसिंह एक वीर, प्रतापी और प्रजापालक राजा होंगे।
इनकी प्रसिद्धि चारों तरफ फैलेगी। तुम्हारी साधना के फलस्वरूप मैं तुम्हे वरदान देती हूँ कि जब तक तुम्हारा पति इक्कीस वर्ष का नहीं होगा जब तक तुम्हारी उम्र में कोई वृद्धि नहीं होगी। तुम अभी जैसी हो वैसी ही रहोगी।
अब तुम मेरी बात मानों और राजकुमार उदयसिंह को यहाँ से कहीं दूर ले जाओ और इक्कीस वर्ष का होने तक उसकी परवरिश करों। लेकिन ये ध्यान रखना कि जब तक उदयसिंह इक्कीस वर्ष का नहीं हो जाए तुम उसके सामने मत आना।”
तभी वैष्णवी की नींद खुल गई।
राजकुमारी वैष्णवी का फैसला
उसने सपने में दुर्गा माँ द्वारा कही गई बातों को उनका आदेश मान कर शोणितपुर छोड़ कर विजयनगर जाने का निश्चय कर लिया जो की उसके पिता के राज्य कनकपुर के निकट ही था। उसे पता था कि विजयनगर में महान पंडित आदिनाथ का गुरुकुल है क्योंकि उसकी स्वयं की भी शिक्षा-दीक्षा वहीं पर हुई थी। वह उदयसिंह को भी उनके संरक्षण में ही शिक्षा दिलवाना चाहती थी।
उसने अपने पिता के विश्वस्त दास-दासी रामसिंह और राधा को पूरी बात बताई और उन्हें अपने साथ चलने के लिए कहा। उसने राधा से कहा कि तुम पिताजी के दिए हुए कीमती सामानों से दो संदूक भर लो तथा कुछ खाने पीने का सामान और कुछ कपड़ो की गठरिया बांध कर रख लो।
कल रामसिंह काका के साथ अस्तबल में जाकर पिताजी द्वारा भेजे गए घोड़ों में से पांच सबसे अच्छे घोड़े छाँट लेना और दो घोड़ों पर ये सारा सामान बांध कर पांचो घोड़ो को लेकर महल के बाहर जंगल में चले जाना।
अगले दिन दोनों ने बड़ी चतुराई से राजकुमारी के कहे अनुसार सारा काम कर दिया और किसी को कानों कान खबर भी नहीं होने दी। फिर वैष्णवी ने सभी के सोने का इन्तजार किया और राजकुमार उदयसिंह को लेकर छुपते छुपाते महल से निकल कर जंगल में पहुँच गई।
वैष्णवी ने उदयसिंह को अपनी पीठ पर बांध लिया और तीनों एक-एक घोड़े पर सवार होकर रवाना हो गए।
उन्हें चलते-चलते पंद्रह दिन बीत गए और विजयनगर राज्य में पहुँच गए। वे वहीं एक ऐसा, जिसके दोनों तरफ आने जाने के लिए दरवाजे थे।
जिसे बाहर से देखने पर ऐसा लगता था जैसे आगे पीछे दो अलग अलग घर हों। घर के पीछे वाले हिस्से में वैष्णवी और आगे वाले हिस्से रामसिंह, राधा और राजकुमार उदयसिंह के रहने का इंतजाम कर दिया। वैष्णवी हमेशा घूँघट में रहती और कही भी आने जाने के लिए पीछे वाले दरवाजे का इस्तेमाल करती और बाकी सब आगे वाले दरवाजे का।
लोगों को ऐसा ही लगता था कि वे अलग-अलग रहते है।
इसी तरह पांच वर्ष और बीत गए और उदयसिंह पांच वर्ष का हो गया। वैष्णवी ने उदयसिंह को पंडित आदिनाथ के गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त करने के लिए भेज दिया। उदयसिंह बहुत ही मेधावी और कुशाग्र बुद्धि वाला बालक था।
पंडित आदिनाथ जो भी पाठ पढ़ाते वो उसी दिन उसे कंठस्थ कर लेता। सभी शस्त्रों को चलाना बड़े मनोयोग से सीखता। तब तक इतना अभ्यास करता जब तक कि वह उस शस्त्र को चलाने में पारंगत ना हो जाता। उसकी लगन देखकर पंडित आदिनाथ भी उसे बड़े मनोयोग से सिखाते।
उदयसिंह गुरु के आदेश का पूर्ण निष्ठा से पालन करता। इसी तरह सोलह वर्ष और बीत गए। उदयसिंह ना केवल शास्त्रों बल्कि सभी तरह के शस्त्र चलाने में भी निपुण हो गया। अब उदयसिंह इक्कीस वर्ष का हो गया और उसकी शिक्षा भी पूर्ण हो गई।
वैष्णवी और उदायसिंह का मिलन
वैष्णवी ने रामसिंह से कहा कि वे कल उदयसिंह के शिकार पर जाने की तैयारी करके उसे शिकार करने के लिए विजयनगर के जंगलों में भेज दे। रामसिंह ने राजकुमारी के कहे अनुसार ही किया। उदयसिंह घोड़े पर सवार होकर शिकार करने के लिए जंगल में चला गया और वैष्णवी उदयसिंह से पहले ही जंगल में चली गई थी।
जंगल में पहुँचने पर उदयसिंह को एक हिरन दिखा। उसने अपना घोडा हिरन के पीछे दौड़ा दिया। हिरन के थोडा पास पहुचने पर उदयसिंह ने तीर चला दिया। तीर हिरन को लगने ही वाला था कि दूसरी दिशा से एक और तीर आया और उसने उदयसिंह के तीर को काट दिया।
उदयसिंह ने तीर चलने वाली दिशा में देखा, तो उसे हाथो में तीर कमान लिए घोड़े पर सवार वैष्णवी दिखाई दी। वह मंत्रमुग्ध सा वैष्णवी को देखता ही रह गया।
वैष्णवी वापस जाने के लिए मुड़ी तो उदयसिंह ने अपना घोडा दौड़ाया और वैष्णवी के सामने पहुँच गया। उसने वैष्णवी से कहा “तुम कौन हो ? वैष्णवी ने कहा “मैं कनकपुर राज्य की राजकुमारी वैष्णवी हूँ।
उदयसिंह ने कहा “मै उदयसिंह हूँ। मैं तुम्हारी सुन्दरता और वीरता से बहुत प्रभावित हुआ हूँ, और तुमसे विवाह करना चाहता हूँ क्या तुम मुझसे विवाह करोगी। वैष्णवी ने कहा “क्या तुम किसी राज्य के राजकुमार और राजा हो?”उदयसिंह ने कहा “नहीं, मैं तो विजयनगर में रहने वाला एक आम नागरिक हूँ।”
वैष्णवी ने कहा “तो फिर मैं तुमसे विवाह नहीं कर सकती, क्योंकि मैं तो किसी राजा या राजकुमार से ही विवाह करुँगी।” इतना कहकर वैष्णवी कनकपुर चली गई।
कनकपुर में जाकर उसने अपने माता-पिता को सारी बात बता दी। राजा सोमनाथ ने कहा “बेटी तुम पहले ही यहाँ क्यों नहीं आई।
तुमने इतना सब कुछ अकेले ही क्यों झेला।” वैष्णवी ने कहा “पिताजी, यदि मैं पहले यहाँ आती तो आपको बहुत दुःख होता और गुस्सा भी आता।
आप इस विवाह को अपनी स्वीकृति कभी नहीं देते जबकि मैं राजकुमार उदयसिंह को अपना पति मान चुकी थी। हो सकता था कि आप गुस्से मैं शोणितपुर पर आक्रमण कर देते।
जिससे शोणितपुर और कनकपुर दोनों राज्यों के जान माल की हानि होती। दोनों ही राज्य मेरे अपने थे एक मेरा मायका तो एक मेरा ससुराल, तो मैं ऐसा कैसे होने देती। और फिर मेरे साथ माँ दुर्गा का भी तो आशीर्वाद था।”
राजा सोमनाथ अपनी बेटी की बात सुनकर बड़े खुश हुए और कहा “मुझे तुम पर बहुत गर्व है बेटी।”
उदयसिंह का वैष्णवी के प्रति आकर्षण
उदयसिंह भी घर वापस आ गया। कई दिन बीत गए, लेकिन वह राजकुमारी वैष्णवी को भूल ही नहीं पा रहा था। उसका मन किसी काम में नहीं लगता। न उसे खाना-पीना अच्छा लगता ना किसी से बात करना।
बस गुमसुम बैठा रहता और वैष्णवी के बारे में ही सोचता रहता। रामसिंह और राधा ने उसे ऐसे देखा तो इसका कारण पूछा। उदयसिंह ने सारी बात बता दी और कहा “मैं राजकुमारी वैष्णवी के बिना जीना नहीं चाहता और यदि मैं राजा सोमनाथ से राजकुमारी का हाथ मांगने भी जाता हूँ तो वो तो मुझे उसी समय फांसी पर चढ़ा देंगे।
मुझे कुछ समझ मैं नहीं आ रहा मैं क्या करूँ।” रामसिंह ने कहा “यदि तुम राजकुमारी से इतना प्यार करते हो तो तुम्हे राजा सोमनाथ के पास जाना चाहिए। प्यार में तो लोग अपनी जान दे देते है। तो तुम क्यों डरते हो।” उदयसिंह ने कहा “आप ठीक कहते है बाबा, मैं आज ही कनकपुर जाता हूँ।
उदयसिंह घोड़े पर सवार होकर कनकपुर राजा सोमनाथ के दरबार में पंहुच गया और वहां जाकर उसने राजा से कहा “हे राजन, मैं आपकी पुत्री से बहुत प्यार करता हूँ और उसके साथ विवाह करना चाहता हूँ, मैं कहीं का भी राजा या राजकुमार नहीं हूँ, बस एक साधारण सा नागरिक हूँ। लेकिन मैं आपसे वादा करता हूँ कि मैं राजकुमारी को बहुत खुश रखूँगा और सदैव् उसकी रक्षा करूँगा।”
राजा सोमनाथ ने कहा “मैं तुम्हारी निडरता से बहुत प्रभावित हुआ हूँ। लेकिन राजकुमारी वैष्णवी के विवाह का फैसला मैंने उसी पर छोड़ दिया है।
इसलिए ये वहीँ निर्धारित करेगी कि उसे तुमसे विवाह करना है या नही। तुम्हे राजकुमारी से मिलने का एक अवसर प्रदान करता हूँ। तुम स्वयं उससे बात करके उसकी राय जान लो।” इतना कहकर राजा ने एक दासी को आदेश दिया कि वो उदयसिंह को राजकुमारी से मिलवा दे।
उदयसिंह का सच से सामना
राजा के आदेशानुसार दासी उदयसिंह को राजकुमारी वैष्णवी के कक्ष में ले गई। राजकुमार उदयसिंह ने वैष्णवी से कहा “राजकुमारी वैष्णवी, मैंने जबसे तुमको देखा है मैं तुम्हे भूल ही नहीं पा रहा हूँ। मैं कहीं का राजा या राजकुमार तो नहीं जो तुम्हे महलों में रख सकूँ, लेकिन मैं तुम्हे सदा अपनी पलकों पर बैठाकर रखूँगा।
मैं तुम्हारी आँखों मैं कभी आंसू नहीं आने दूंगा।” वैष्णवी ने कहा “मेरी और तुम्हारी शादी तो पहले ही हो चुकी है।”
राजकुमारी वैष्णवी ने राजकुमार उदयसिह को पूरी कहानी बताई और कहा “मैं केवल इतना चाहती थी कि आप मुझे एक जबरदस्ती का रिश्ता समझकर ना निभाओ बल्कि दिल से मुझे स्वीकार करों। इसीलिए मैंने ये सब किया।” यह जानकर उदयसिंह बहुत खुश हुआ।
फिर दोनों राजा सोमनाथ के पास गए और उनसे शोणितपुर जाने की आज्ञा मांगी। राजा ने बहुत सारे सामान के साथ दोनों को विदा कर दिया। कुछ दिनों में ही वे शोणितपुर पंहुच गए।
राजा विक्रमसेन और रानी वैशाली दोनों को देखकर बहुत प्रसन्न हुए। राजा विक्रमसेन ने उनके आने की ख़ुशी में एक भोज आयोजित किया और राजकुमार उदयसिंह को युवराज घोषित कर दिया।
कुछ समय साथ रहने के पश्चात् राजा विक्रमसेन अपना राज्य उदयसिंह को सौप रानी वैशाली के साथ वन में चले गए। उदयसिंह ने राजा बनने के बाद अपनी प्रजा की भलाई के लिए कई कार्य किये।
उसकी प्रसिद्धि एक वीर, प्रतापी और प्रजापालक राजा के रूप में चारों तरफ फैल गई।
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