Devi Savitri Ki Kahani – देवी सावित्री की कहानी
पौराणिक कहानियाँ – हिन्दू धर्म की महान नारियां – देवी सावित्री की कहानी – Devi Savitri Ki Kahani – The Story of Devi Savitri
पतिव्रता नारियों में माता सावित्री का नाम बड़ी ही श्रद्धा से लिया जाता है ।
उनका पातिव्रत धर्म और पति प्रेम अतुलनीय है। उनके जैसा प्रेम, त्याग और समर्पण का उदाहरण विरले ही देखने को मिलता है जिन्होंने अनेकों कष्ट सहते हुए भी अपने पातिव्रत धर्म, चातुर्य और दृढ़ संकल्प से विधि के विधान को भी पलट दिया और यमराज को भी अपने सामने झुकने के लिये विवश कर दिया था।
आज मैं आपको उन्हीं माता सावित्री की कथा सुनाने जा रही हूँ।
देवी सावित्री का जन्म
मद्रदेश में एक धर्मात्मा राजा राज्य करते थे। उनका नाम अश्वपति व उनकी पत्नी का नाम मालवी था। वे बहुत ही प्रजापालक और सेवा भावी थे। उनके राज में चारों और सुख समृद्धि थी लेकिन उन्हें एक बात का दुःख था कि उनके कोई संतान नहीं थी।
तब रजा अश्वपति ने देवी गायत्री का यज्ञ प्रारम्भ किया और लगातार 18 वर्षों तक वे यज्ञ करते रहे तब देवी गायत्री उन पर प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन दिए और उन्हें संतान के रूप में एक असाधारण तेजस्विनी व गुणवान कन्या होने का आशीर्वाद दिया जो देवी सरस्वती के सामान ज्ञान, देवी दुर्गा के समान साहस होगा और जो देवी लक्ष्मी के सामान आपके कुल समृद्धि लाएगी और जो अपने सत्कर्मों आपके कुल की कीर्ति उज्जवल करेगी और आपका मान और प्रतिष्ठा बढ़ाएगी।
उन्होंने अपनी पुत्री का नाम देवी गायत्री के ही दूसरे नाम के समान सावित्री रखा।
समय के साथ-साथ सावित्री अपने पिता के घर में बड़ी होने लगी। बाल्यकाल से ही वह अपने पिता के समान ही देवी गायत्री की अनन्य भक्त थी। उनका दिन देवी गायत्री की पूजा से ही प्रारम्भ होता था। समय बीतने के साथ ही वे एक सर्वगुण संपन्न और सुन्दर नव-युवती में परिवर्तित हो गई।
पिता की चिंता
लेकिन उनके पिता अपनी सर्वगुण सम्पन्न विवाह योग्य पुत्री को देखकर चिंतित थे। बहुत खोजने के बाद भी उन्हें अपनी पुत्री के समान तेजस्वी व योग्य वर नहीं मिल पा रहा था।
एक दिन उन्होंने सावित्री को बुलाया और कहा, “बेटी, तुम अब विवाह के योग्य हो गई हो और बहुत खोज करने के बाद भी में तुम्हारे योग्य वर नहीं ढूंढ कर पाया हूँ। यदि कोई पिता यदि समय से अपनी विवाह योग्य पुत्री का विवाह नहीं कर पाए तो वह पाप का भागी होता है।
इसलिए मैं चाहता हूँ कि अपने लिए योग्य वर का चुनाव तुम स्वयं करों और इसके लिए तुम विश्व भ्रमण के लिए निकल जाओं। मुझे तुम पर पूर्ण विशवास है, मैं तुम्हें वचन देता हूँ की तुम जिसका भी चयन करोगी मैं उससे तुम्हारा विवाह अवश्य करवा दूंगा।”
वर की खोज
शीघ्र ही सावित्री पिता की आज्ञानुसार कुछ सिपाहियों और मंत्रियों के साथ अपने वर की खोज के लिए विश्व भ्रमण पर निकल गई। वे कई राज्यों के राजाओं, राजकुमारों, ऋषियों, ऋषिपुत्रों से मिली। उन्हें यात्रा करते-करते कई माह बीत गए, लेकिन उन्हें अपने अनुरूप कोई भी नहीं मिला।
यहाँ तक की वे शाल्व देश के राजकुमार को भी अस्वीकार करके वापस अपने राज्य की तरफ लौट ही रहीं थी कि तभी एक जंगल में उन्हें एक युवक मिला जो अपने सर पर लकड़ी का गट्ठर लिए जा रहा था, उसे देखकर उनके मन में उसके प्रति आकर्षण का अनुभव हुआ।
उन्होंने उनके बारे में जाने के लिए उनका पीछा किया, उन्होंने देखा कि वह युवक परोपकारी, दयावान और बहुत ही पुत्र भक्त था। वह अपने अंधे माता-पिता के साथ जंगल में रहता था और पूर्ण मनोयोग से अपने माता-पिता की सेवा करता था।
मैंने वर चुन लिया
राजकुमारी सावत्री उस युवक से बहुत प्रभावित हुई और उन्होंने उस युवक से उसका परिचय पूछा तो उसने बताया, “मैं शाल्व देश के राजा द्युमसेन का पुत्र सत्यवान हूँ। मेरे बाल्यकाल में ही मेरे माता-पिता दोनों दृष्टिहीन हो गए थे और मेरे काका ने मेरे पिता से उनका राज छीन लिया और उन्हें शाल्व देश से निष्कासित कर दिया।
तब से ही मैं अपने माता-पिता के साथ इस जंगल में रह रहा हूँ और उनकी सेवा करता हूँ। जंगल से लकड़ियाँ काटकर लता हु और उन्हें बेचकर अपना व अपने माता-पिता का जीवन यापन करता हूँ।” तब राजकुमारी सावित्री ने पूछा, “बड़े होने के पश्चात् भी आपने अपने राज्य को वापस पाने का प्रयत्न क्यों नहीं किया ?”
सत्यवान ने उत्तर दिया, “मेरे लिए धन, संपत्ति, वैभव व पद से भी ज्यादा मेरे माता-पिता महत्वपूर्ण है। मैं किसी भी राजपद की लालसा के लिए अपने माता-पिता को संकट में नहीं डाल सकता और वैसे भी जिस घर में प्रेम, स्नेह और त्याग की भावना हो तो वह घर किसी स्वर्ग से कम नहीं होता।
मैं अपने माता-पिता के साथ यहाँ जंगल में ही बहुत प्रसन्न हूँ। और मेरा यह मानना है कि यदि मेर कर्म अच्छे होंगे तो मुझे वह सब मिल जायेगा जिसके मैं योग्य हूँ।” इतना कहकर सत्यवान ने राजकुमारी सावित्री से जाने की आज्ञा मांगी और चले गए।
राजकुमारी सावित्री सत्यवान के निर्मल ह्रदय, उनके पावन विचारों और उनके सेवा भाव से इतनी प्रभावित हुई कि उन्होंने मन ही मन उन्हें अपने पति के रूप में अपना लिया।
जब वे वापस अपने नगर लौटी तो उनके पिता अपने कुछ मंत्रियों के साथ कुछ विचार विमर्श कर रहे थे और देवर्षि नारद भी वहीँ बैठे हुए थे। तब सावित्री ने अपने पिता को अपने चुनाव के बारे में बताया तो वे भी सत्यवान के साथ उनका विवाह करने के लिए तैयार हो गए।
कोई दूसरा वर ढूंढ लो?
उन्होंने देवर्षि नारद से सावत्री के चुनाव के बारे में पूछा तो देवर्षि नारद ने कहा, “महाराज अश्वपति, सत्यवान निश्चय ही एक रूपवान, गुणवान, सत्यवादी, धर्मात्मा उदार, संस्कारवान और बलवान है और आपकी पुत्री के सर्वथा योग्य है। लेकिन….|”
राजा अश्वपति ने कहा, “लेकिन! लेकिन क्या देवर्षि नारद?” देवर्षि नारद जी ने कहा, “लेकिन उसमे एक दोष है कि वह अल्प आयु है। अब उनकी आयु का केवल एक वर्ष ही बचा है, आज से एक वर्ष पश्चात् उसकी मृत्यु हो जाएगी|”
यह सुनकर राजा अश्वपति चिंता में पढ़ गए और उन्होंने सावित्री से कहा, “पुत्री, ये सब जानने के बाद मैं तुम्हारा विवाह सत्यवान से नहीं करवा सकता। तुम दुबारा विश्व भ्रमण पर जाओं और अपने लिए कोई दूसरा वर ढूंढ लो|”
तब सावित्री ने कहा, “पिताजी, मैंने सत्यवान को अपने पति के रूप में चुन लिया है, और अब उनकी आयु कम हो या ज्यादा मैं उनके सिवा किसी दुसरे का वरण नहीं करुँगी। आपने मुझे वचन दिया था की मैं जिसे भी अपने वर के रूप में चयन करुँगी आप उससे मेरा विवाह अवश्य करवा देंगे। अब आप अपने वचन को पूर्ण करिए।”
सावित्री के बहुत समझाने पर वे सावित्री का विवाह सत्यवान से करवाने के लिए तैयार हो गए।
सत्यवान के साथ विवाह
राजा अश्वपति ने शुभ महूर्त देखकर सावित्री का विवाह सत्यवान से करवा दिया। उन्होंने सावित्री से कहा, “पुत्री, मेरा कोई पुत्र नहीं है और अब मुझे भी इस राजपाट की कोई लालसा नहीं है इसलिए मैं मैं यह राजपाट तुम्हें और जमता सत्यवान को सौपना चाहता हूँ।”
तब सावित्री ने कहा, “पिताजी मैं आपके मनोंभावों को पूरी तरह से समझती हूँ, लेकिन मैंने मेरे पति की आर्थिक स्थिति को जानकर ही उनसे विवाह किया है।
आपसे ये भेंट लेना मेरे पति और मेरे सास-ससुर का अपमान होगा, इसलिए आप मुझे इन्हीं के साथ जाने की आज्ञा प्रदान करें।” राजा अश्वपति ने सत्यवान के साथ देवी सावित्री को विदा कर दिया।
सावत्री अपने पति सत्यवान के साथ उनकी कुटिया में आ गयी। उन्होंने अपने राजसी वस्त्र व आभूषण त्याग दिए और साधारण वस्त्र धारण कर लिए। वे पूरे तन-मन से अपने पति व उनके माता-पिता की सेवा करने लगी।
दिन बीतते जा रहे थे और देवी सावित्री की चिंता बढती जा रही थी। उनके पति की मृत्यु का समय नजदीक आता जा रहा था।
काश मृत्यु टल जाए
वे एक-एक दिन गिनती जाती और माता गायत्री से अपने पति की लम्बी आयु के लिए प्रार्थना करती रहती साथ में ही अपने गृहस्थ जीवन के सभी कर्तव्यों का निर्वाह भी करती रहीं।
जब सत्यवान के जीवन के चार दिन ही शेष रह गए तो उन्होंने देवी गायत्री से प्रार्थना की कि मुझे कुछ ऐसा उपाय बताइए जिससे मेरे पति की अकाल मृत्यु टल जाए। प्रार्थना करते-करते उनकी आँख लग गयी।
तब देवी गायत्री उनके सपने में आई और उन्हें कहा, “कल से जयेष्ट माह के शुक्ल पक्ष की तेरस, चौदस और पूर्णिमा है अखंड निराहार व्रत के लिए ये सर्वश्रेष्ट दिन है। अगर तुम वटवृक्ष के सामने अन्नजल त्याग कर तीन दिन का उपवास करके चौथे दिन उसका पारण करों तो तुम्हे अखंड सुहाग की प्राप्ति होगी।”
सुबह उठने पर उन्होंने अपने पति और सास ससुर से अखंड व्रत के लिए स्वीकृति लेकर अपना व्रत प्रारंभ किया और तीन दिन निराहार रहकर अपना तीन दिन का व्रत सम्पूर्ण किया।
चौथे दिन जब सत्यवान लकड़ी काटने वन में जाने लगे तो उन्होंने सत्यवान से कहा कि आज वे भी उनके साथ जंगले में जाना चाहती है। उनके आग्रह पर सत्यवान उन्हें अपने साथ वन में ले गए।
होनी बलवान है
जंगल में लकड़ी काटते-काटतेएक सर्प ने ड़स लिया और वे नीचे गिर पड़े। सत्यवान के सर में दर्द होने लगा और उन्हें बहुत प्यास लगने लगी। तब देवी ने उन्हें जल पिलाया और उनका सर अपनी गोद में रखकर अपने आँचल से उन्हें हवा झलने लगी।
तभी उन्होंने देखा कि भयानक लेकिन तेजस्वी एकदम सांवले, पीतवस्त्रधारी पुरुष को देखा जो एक भैसे पर बैठा हुआ था और उसके एक हाथ में पाश और दुसरे हाथ में गदा थी।
देवी सावित्री ने उनसे पूछा, “आप कौन है?”
भैसे पर बैठे व्यक्ति ने कहा, “तुम एक पतिव्रता स्त्री हो इसलिए तुम मुझे देख और सुन पा रही हो। मैं संसार के सभी प्राणियों के कर्मानुसार उन्हें न्यायोचित दंड देने वाला धर्मराज हूँ, और समय आने पर उनके प्राण हरने वाला यमराज भी हूँ। ये जो युवक तुम्हारी गोद में सर रखकर लेटा हुआ है उसकी आयु पूर्ण हो गयी है और मैं इसे अपने साथ यमलोक ले जाने के लिए आया हूँ।”
देवी सावित्री ने हाथ जोड़कर यमराज से अपने पति को न ले जाने की याचना की।
तब यमराज ने कहा, “देवी, सभी प्राणियों के जन्म और मृत्यु का समय निश्चित होता है और वह टल नहीं सकता। यह धर्म के विरुद्ध है इसलिए इसमें मैं तुम्हारी कोई सहायता नहीं कर सकता। तुम्हारे पति की मृत्यु का समय आ गया है इसलिए मुझे तुम्हारे पति के प्राण हरने ही पड़ेंगे।”
इतना कहकर उन्होंने सत्यवान की तरफ अपना पाश फेंका और अंगूठे के समान शरीर वाली उसकी आत्मा को पाश में बांधकर बलपूर्वक उनके शरीर से निकल लिया और दक्षिण दिशा की और रवाना हो गए।
यमलोक तक पीछा नहीं छोड़ूँगी
तब देवी सावित्री ने अपने पति के शरीर को वटवृक्ष के नीचे रखा और एक सूत वटवृक्ष पर बांध कर अपने पति के शरीर की रक्षा करने की प्रार्थना की।
उसके बाद उन्होंने देवी गायत्री से प्रार्थना की कि यदि उन्होंने अपने पतिव्रत धर्म और ग्रहस्थ जीवन का सम्पूर्ण निष्ठा से पालन किया है तो मुझे गति की शक्ति प्रदान करे जिससे मैं यमराज के पीछे जा सकूँ।
देवी गायत्री की कृपा से उन्हें गति की शक्ति प्राप्त हो गयी और वे सशरीर यमराज के पीछे जाने लगी।
जब यमराज ने उन्हें अपने पीछे आते देखा तो उन्होंने उसे वापस लौटने के लिए कहा। तब देवी सावत्री ने कहा, “यदि आप मेरे पति के प्राण ले जायेंगे तो आपको मेरे भी प्राण ले जाने होंगे। मैं अपने पति के बिना संसार में नहीं रह सकती।”
सशरीर वैतरणी पार
तब यमराज ने कहा, “देवी मैं पहले से ही आपको कह चूका हूँ कि सभी प्राणियों के जन्म और मृत्यु का समय निश्चित होता है और तुम्हरी मृत्यु का समय अभी नहीं आया है इसलिए मैं तुम्हारे प्राण नहीं ले सा सकता। इसलिए तुम यही से लौट जाओं।
इससे आगे वैतरणी नदी है जिसे तुम पार सशरीर पार नहीं कर पाओगी और यदि फिर भी तुमने उसे पार करने की कोशिश की तो तुम वहीं रह जाओगी ना तो आगे बढ़ पाओगी और ना ही वापस धरती पर जा पाओगी, इसलिए यहीं से लौट जाओं।”
इतना कहकर यमराज आगे चल दिए और वैतरणी पार कर गए।
लेकिन देवी सावित्री भी नहीं रुकी और उनके पीछे वैतरणी तक पंहुच गयी और हाथ जोड़ कर वैतरणी में कूद गयी।
तभी उनके अपनी सास-ससुर की सेवा और अन्नपूर्णा के समान अपने परिवार का भरण-पोषण करने से अर्जित पुण्यों के कारण माता कामधेनु वहां प्रकट हो गयी और उन्हें सशरीर वैतरणी पार करवा दी।
जब यमराज ने यह देखा तो उन्हें बड़ा आश्चर्य चकित होते हुए कहा, “देवी सावत्री, आपके आत्मबल तथा पुण्यकर्मों से में बहुत प्रभावित हूँ। लेकिन फिर भी मैं तुम्हे तुम्हारे पति के प्राण नहीं लौटा जा सकता इसलिए तुम यहीं से वापस लौट जाओं।”
तब देवी सावत्री ने कहा, “हे धर्मराज, पति और पत्नी का सम्बन्ध तो तन-मन से परे आत्मा का सम्बन्ध होता है इसलिए जहाँ पति की आत्मा रहती वहीं पत्नी को भी रहना चाहिए।”
प्राणों के अलावा कुछ भी मांग लो
यमराज ने देवी सावित्री से कहा, “देवी सावित्री, मैं तुम्हारे पति के प्रति प्रेम, भक्ति और निष्ठा से बहुत प्रसन्न हूँ तुम मुझसे अपने पति के प्राणों के अलावा कोई भी वरदान मांग लो।” तब देवी सावित्री ने कहा, “मुझे तो मेरे पति के प्राणों के अलावा किसी भी वस्तु की कोई आवश्यकता नहीं है।”
तब धर्मराज ने क्रोधित होते हुए कहा, “तुम मेरे यानि धर्मराज के वरदान को नकार कर मेरा निरादर करोगी!” तब देवी सावित्री ने कहा, “नहीं धर्मराज, मेरा आपका अपमान करने का तो सोच भी नहीं सकती।
मुझे अपने लिए कुछ भी नहीं चाहिए धर्मराज, यदि आप देना ही चाहते है तो आप मेरे सास-ससुर को दृष्टि प्रदान करें।” यमराज के “तथास्तु” कहते ही देवी सावित्री के सास-ससुर की आँखों की ज्योति वापस लौट आई।
यमराज ने कहा, “हे देवी, अब आप यहीं से लौट जाओ अब यहाँ से आगे देवलोक है। तुम देवलोक को कभी भी पार नहीं कर सकोगी।” इतना कहकर यमराज आगे बढ़ गए।
देवलोक भी पार
लेकिन देवी सावित्री फिर यमराज के पीछे चलने लगी। यमराज ने देवलोक में प्रवेश कर लिया। देवी सावित्री भी यमराज के पीछे-पीछे देवलोक तक पंहुच गयी और उन्होंने देवी गायत्री से अपनी सहायता करने की प्रार्थना की।
तभी उनके पतिव्रत धर्म के पूण्य प्रभावों की शक्ति से माता का त्रिशूल वहां प्रकट हो गया और उस पर बैठकर देवी सावित्री ने देवलोक भी पार कर लिया।
यह देखकर यमराज ने कहा, “हे देवी, मैं आपके इस दृढ निश्चय से बहुत प्रभावित हूँ और उसकी सराहना करता हूँ। लेकिन फिर भी तुम अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो पाओगी और यह तुम्हारे लिए भी हानिकारक हो सकता है। इसलिए वापस अपने स्थान पर लौट जाओं।”
अब धरती पर मेरे लिए कुछ नहीं है
तब देवी सावित्री ने कहा, “हे देव, परिणाम की चिंता तो वे करते है जो कर्म से अधिक उसके फल के बारे में सोचते हैं, जिन्हें अपने वर्तमान से ज्यादा भविष्य की चिंता होती है। मैं तो बस साहस के साथ केवल कर्म में विश्वास रखती हूँ और मेरा कर्म तो मेरे पति से ही जुडा हुआ है। इसलिए जहाँ मेरे पति रहेंगे वहीं मेरा भी स्थान होगा और मैं उन्हीं के साथ रहकर अपना कर्तव्य पूरा करुँगी।”
यमराज ने कहा मैं तुम्हारे ज्ञान, वाणी और पति के प्रति प्रेम से बहुत प्रभावित हूँ लेकिन फिर भी मैं तुम्हारे पति के प्राण वापस नहीं लौटा सकता। इसलिए अपने पति के प्राणों के अलावा तुम मुझसे कुछ भी मांग लो।
तब देवी सावित्री ने अपने सास-ससुर का राजपाट वरदान में माँगा और यमराज ने उन्हें तथास्तु कहा और आगे चल दिए।
देवी सावित्री फिर यमराज के पीछे चल दी। यमराज ने यह देखा तो कहा, “अब तो मैंने तुम्हारी दूसरी इच्छा भी पूर्ण कर दी है अब तुम वापस अपने सास-ससुर के पास लौट जाओं और उनके साथ सुख से अपना जीवन व्यतीत करों।
देवी सावत्री ने कहा, “अब तो मेरे धरती पर लौटने का कोई कारण भी नहीं बचा आपकी कृपा से मेरे सास-ससुर के आँखों की रोशनी भी वापस आ गयी हे और उन्हें उनका राजपाट भी वापस मिल गया है।
अब मुझे उनकी भी कोई चिंता नहीं रहीं और पति के बिना कोई स्त्री सुख से जीवन कैसे व्यतीत कर सकती है? इसलिए मैं तो आपके साथ ही चलूंगी और आप मेरे पति की आत्मा को जहाँ रखेंगे, मैं भी वहीं रहूंगी, वहीं मुझे सुख प्राप्त होगा।”
एक और वरदान मांग लो
यमराज ने कहा, “मैं और तुम तथा संसार के सभी प्राणी नियमों से बंधे हुए है और सृष्टि के नियम का कोई भी प्राणी भंग नहीं कर सकता। कोई भी प्राणी सशरीर यमलोक में नहीं रह सकता। इसलिए यहाँ से लौट जाओं और ये व्यर्थ का प्रयास मत करों।
तब देवी सावित्री ने कहा, “हे देव, मैं आपकों अपने धर्म का पालन करने से नहीं रोक सकती। लेकिन मुझे भी अपने धर्म का पालन करना है और मेरा धर्म तो अपने पति के साथ रहकर उनकी सेवा करना है, इसलिए मुझे अपने धर्म का पालन करने दीजिये।”
यमराज ने कहा, “तुम्हारी धर्म के प्रति इतनी आस्था देखकर मैं बहुत प्रसन्न हुआ। इसलिए मैं तुम्हे एक वरदान और देता हूँ। अपने पति के प्राणों के अलावा और कुछ भी वरदान मुझसे मान लो।
तब देवी सावित्री ने कहा, “प्रभु, मेरे माता-पिता के कोई पुत्र नहीं है, यदि आप देना ही चाहते तो उन्हें एक पुत्र प्रदान करें।”
यमराज ने देवी सावत्री के माता पिता को पुत्र प्राप्ति का वरदान देते हुए कहा, “अब तुम वापस लौट जाओं। अब यहाँ से आगे ब्रह्मलोक है और बर्ह्मदेव की आज्ञा के बिना वहां कोई भी प्रवेश नहीं कर सकता। ब्रह्मदेव तुम्हें इसकी आज्ञा कभी नहीं देंगे।”
यमलोक में प्रवेश
इतना कहकर यमराज ब्रह्मलोक पर करके यमलोक में प्रवेश कर गए।
ब्रह्मलोक पहुँच कर देवी सावित्री ने बर्ह्मदेव से प्रार्थना करते हुए कहा, “हे ब्रह्मदेव, मैंने सुना है, जो स्त्रियाँ अपने पतिव्रत धर्म का पालन पूर्ण निष्ठा से करती है उन्हें मोक्ष प्राप्त हो जाता है यदि मैंने भी अपने पातिव्रत धर्म का पालन पूर्ण निष्ठां से किया है तो मुझे ब्रह्मलोक में प्रवेश की आज्ञा प्रदान कीजिये जिससे मैं आपने पति के प्राणों के साथ यमलोक जा सकूँ।”
ब्रह्मदेव ने देवी सावित्री की प्रार्थना स्वीकार कर ली और उन्हें ब्रह्मलोक में प्रवेश की आज्ञा प्रदान कर दी| देवी सावित्री ब्रह्मलोक होते हुए यमलोक के द्वार पर पहुँच गयी।
यमराज यह देख कर बहुत प्रभावित हुए और लेकिन फिर भी उन्होंने कहा, “हे पुत्री, ये यमलोक है यहाँ का स्वामी मैं हूँ इसलिए मैं तुम्हे यमलोक मैं प्रवेश की आज्ञा कभी नहीं दूंगा इसलिए अब तुम यहाँ से लौट जाओं।”
फंस गए यमराज
यमराज से अपने लिए पुत्री का संबोधन सुनकर देवी सावित्री ने कहा, “आपने अभी-अभी मुझे पुत्री कहा है, और इस तरह से आप मेरे धर्म पिता हो गए भला कोई पिता भी अपनी पुत्री को अपने घर मैं आने से रोक सकता है ?”
यमराज ने कहा, “पुत्री, मैं तुम्हारे वाकचातुर्य तथा मधुर वाणी से बहुत प्रसन्न हुआ। तुमने मुझे अपना पिता कहकर मेरे मन में भी तुम्हारे प्रति वात्सल्य की भावना को जगा दिया है। लेकिन मैं न्याय और धर्म का देवता हूँ और मैं सत्यवान के प्राण लौटा कर अपने धर्म से नहीं डिग सकता।
इसलिए एक पुत्री होने के नाते मैं तुम्हे एक वरदान और देता हूँ। तुम अपने पति के प्राणों के अलावा मुझसे अपने लिए कुछ भी मांग लो। लेकिन इस बार तुम केवल अपने लिए ही वरदान मांगना जिससे तुम संतुष्ट हो जाओं और यहाँ से वापस लौट जाओं।”
देवी सावित्री ने कहा, “ठीक है प्रभु, मैं वादा करती हूँ यदि इस बार आप मुझे अपना मनचाहा वरदान दे देंगे तो मैं लौट जाउंगी। तो यमराज ने खुश होते हुए कहा, “तो देर किस बात की पुत्री मांगों जो तुम चाहती हो वह मांगो, मैं तुम्हे वह अवश्य ही प्रदान करूँगा।”
देवी सावित्री ने कहा, “ठीक है, तब आप मुझे बल-बुद्धि और पराक्रम से युक्त सौ पुत्र होने का वरदान दीजिये।” यमराज ने तुरंत कहा, “तथास्तु”।
पति बिना सौ पुत्र?
धर्मराज के तथास्तु कहने के बाद भी देवी सावित्री वहीं खड़ी रही, तो यमराज ने कहा, “पुत्री, तुम अब भी यहीं खड़ी हो, अब तो मैंने तुम्हारा मनचाहा वरदान भी दे दिया है, अब तो तुम लौट जाओं।”
तब देवी सावित्री ने कहा, “हे देव, आपने मुझे सौ पुत्र होने का वरदान दिया है। मैं एक पतिव्रता स्त्री हूँ और मेरे पति के प्राण आप हर चुके है। अब आप ही बताइए, बिना पति के मैं सौ पुत्रों की माँ कैसे बनूँगी। इसलिए अपने वरदान को पूर्ण करने के लिए आपको मेरे पति के प्राण मुझे लौटाने पड़ेंगे।” अब बेचारे यमराज क्या करते वे अपने ही दिए हुए वरदान से फँस चुके थे।
इसलिए उन्होंने एक चने के रूप में सत्यवान के प्राण देवी सावित्री को वापस लौटा दिए और उन्हें 400 वर्ष की आयु प्रदान की और उन्होंने यह आशीर्वाद दिया कि आज के दिन अर्थात् जयेष्ट मास की अमावस्या के दिन जो भी विवाहिता स्त्री तुम्हारी कथा सुनकर व्रत करेगी यदि उसके पति के भाग्य में अकाल मृत्यु भी लिखी होगी तो वह टल जायेगी और इस व्रत का नाम होगा वट सावित्री व्रत।
तत्पश्चात यमराज की कृपा से देवी सावत्री तत्काल अपने पति की देह के पास लौट आई और अपने पति के प्राण वापस अपने पति में डाल दिए और 400 वर्षों तक सत्यवान के साथ वैवाहिक व राजपाट का सुख भोगकर मोक्ष को प्राप्त हुई।
इस तरह देवी सावित्री ने अपने पतिव्रत धर्म, ज्ञान और चातुर्य से यमराज को भी अपने पति के प्राण लौटाने के लिए विवश कर दिया और विधि के विधान को भी पलट दिया।
तो देखा आपने देवी सावित्री ने अपने पतिव्रत धर्म, ज्ञान और चातुर्य से यमराज को भी अपने पति के प्राण लौटाने के लिए विवश कर दिया और विधि के विधान को भी पलट दिया।
तो दोस्तों कैसा लगा देवी सावित्री से मिलकर? अब एक छोटा सा काम आपके लिए भी, अगर यह कहानी आपको अच्छी लगी हो, तो इस पेज को Bookmark कर लीजिये और सोशल मीडिया जैसे Facebook, Twitter, LinkedIn, WhatsApp (फेसबुक टि्वटर लिंकडइन इंस्टाग्राम व्हाट्सएप) आदि पर अपने दोस्तों को शेयर कीजिए।
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