पापा-मम्मी फाइनल
सभी मेहमानों का मैं तहे दिल से स्वागत करती हूँ। अब हम ज्यादा देर ना करते हुए अपने कार्यक्रम की शुरुआत भगवान गणेश की स्तुति से करते हैं जिसे आपके सामने प्रस्तुत कर रही हैं
मेरे मम्मी-पापा की शादी की 50वीं सालगिरह के अवसर पर आए सभी अतिथियों का मैं पूरे उपाध्याय परिवार की तरफ से तहे दिल से धन्यवाद करना चाहती हूँ, जिन्होनें अपना कीमती समय निकाला और हमारी खुशियों में शामिल होकर हमारी खुशियाँ कई गुना बढ़ा दी।
ये हमारी एक छोटी सी कोशिश है मम्मी-पापा के जीवन के कुछ महत्त्वपूर्ण लम्हों को आपके सामने प्रस्तुत करने की, बस आप सभी के साथ और होसलाफजाई की आवश्यकता है।
आशा करती हूँ आपको हमारी ये छोटी सी प्रस्तुति पसंद आएगी।
तो फिर चलिए शुरू करते हैं: –
मेरे पापा का जन्म नागौर जिले के एक छोटे से रियाँ में हुआ था और मेरी मम्मी का डिडवाना के पास चौलूखाँ मे। मेरे दादाजी गाँव से दूर शहर में काम करते थे और मेरी दादीजी बहुत ही भोली थी इसलिए पापा और कमला बुआ दोनों की परवरिश घर से दूर हुई। जहाँ कमला बुआ अपनी ननिहाल में रही तो वहीं पापा ने अपनी पढ़ाई घर से दूर अपने काकाजी के साथ रहकर की और उनके साथ काम भी सीखा।
दूसरी तरफ मम्मी छः भाई और भाभियों के बीच में सबसे लाड़ली थी, क्योंकि दोनों बड़ी मौसियों की शादी हो चुकी थी। लाड़ली होने के कारण घर के काम-काज से मम्मी का दूर-दूर तक नाता ही नहीं था। इसलिए जब मम्मी 14 या 15 साल की हुई तो मेरी मौसी जी ने उन्हें अपने पास बुला लिया ताकि शादी से पहले घर के कुछ काम-काज सीख सके।
मेरी मौसी की शादी मेरे दादाजी के छोटे भाई के साथ ही हुई थी इसलिए मम्मी शादी से पहले ही अपने होने वाले ससुराल आ गई। अब मम्मी ने घर का काम-काज तो सीखा या नहीं ये तो मलूल नहीं लेकिन मम्मी का रियाँ में भी खेलना जारी था।
भा यानि मेरे दादाजी ने मुझे एक बार बताया था कि किसी कार्यक्रम में वे और मेरे नानाजी कुछ लोगों के साथ बैठे हुए थे तभी मेरी मम्मी भागते हुए आई और आकर मेरे दादाजी की गोद में बैठ गई। तब मेरे दादाजी ने कहा कि इसे तो मैं मेरी बहु बनाऊँगा। दादाजी ने वैसे तो यह बात यूँ ही कही थी लेकिन कहते हैं ना कि दिन में एक बार जबान पर सरस्वती जी विराजमान होती है तो बाद में यह बात सच भी हो गई।
वैसे पापा तो गाँव से बाहर ही रहते थे लेकिन फिर भी गाँव तो आते ही होंगे, तो शायद दोनों साथ में खेलते भी होंगे और फिर शायद कुछ ऐसा हुआ हो
आ मेरे हमजोली आ, खेलें आँख मिचौली आ ……….
नैन लड़ जई हैं तो मनवा मा कसक ……….
जहाँ भी जाती हूँ वहीं चले आते हो चोरी-चोरी मेरे ……….
मेरे होते कोई और ………… चाहे चले छुरियाँ
शूकर करो कि पड़े नहीं है मेरी माँ के डंडे ………… ये पहले बताते बारात लेकर आते
मिल गए, मिल गए आज मेरे संयम आज मेरे जमीं पर नहीं ……….
हम तुझको उठा कर ले जाएंगे डोली में बैठा ……….
बड़े अरमानों से रखा है सनम तेरी कसम प्यार की दुनियाँ में ……….
शादी के बाद मम्मी-पापा इंदौर आ गए और मम्मी पापा की ड़फली पर कदम से कदम मिला कर उनके साथ चलने लगी।
डफली वाले डफली बजा ……….
मैं तो भूल चली बाबुल का देश पिया का घर प्यारा लगे ……….
फिर इंदौर में ही एक-एक कर के हम चारों का जन्म हुआ। इंदौर में पापा का व्यापार खूब अच्छा चल रहा था। घर में रुपये पैसों की कोई कमी नहीं थी, उस जमाने में जब किसी के पास साइकिल होना भी बड़ी बात मानी जाती थी पापा के पास अपना स्कूटर और घर में फोन था। जिंदगी की गाड़ी बड़े मजे से चल रही थी।
मनु भाई मोटर चली पाम पाम पाम ……….
उठे सब के कदम देखो तर-रम-पम ……….
बाबू समझो इशारे हॉर्न पुकारे ……….
लेकिन खुशियों के साथ-साथ दुख भी चलता हैं, पापा को व्यापार में नुकसान हो गया और हमें इंदौर छोड़ कर जयपुर आना पड़ा।
यहाँ आने पर पता चला कि जिस मकान का पापा पिछले छः महीने से किराया भर रहे थे वहाँ तो कोई और ही किरायेदार रह रहा है। अब ट्रक में भरा हुआ समान और 4 छोटे-छोटे बच्चे (विक्की तब केवल एक साल का था) कहाँ जाते। तब एक रिश्तेदार ने हमारी मदद की और एक दूसरा मकान किराये पर दिलवाया।
उनकों भी एडवांस किराया देना पड़ा, अब पापा के पास में बहुत ही कम पैसे बचे थे। यहाँ आने के एक दो सालों तक पापा का काम अच्छी तरह से नहीं जमा था। सारी जमा पूंजी खत्म सी हो गई थी। हम चारों बच्चे नादान थे, हम इंदौर में पूरा ग्लास भर कर दूध पीते थे, तो हमें यहाँ भी दूध का पूरा भरा हुआ ग्लास ही चाहिए था। लेकिन यहाँ तो 6 जनों के बीच में आधा लीटर दूध! अब मम्मी चार ग्लास कैसे भरती? तो वो ग्लास में थोड़ा सा दूध डालकर बाकी का ग्लास पानी से भर देती।
लेकिन ऐसी घड़ी में भी मम्मी ने पापा से शिकायत नहीं की। घर में मेहमानों की आवभगत मानमनुहार में मम्मी ने कभी कोई कमी नहीं की तंगहाली के दिनों में भी सबका खुले दिल से स्वागत किया। रात को बारह बजे भी कोई मेहमान जाता तो उसे भूखा नहीं सोने देती यहाँ तक कि उनके कपड़े तक मम्मी ने अपने हाथों से धोकर दिए।
और पापा ने भी मम्मी का पूरा साथ निभाया, पापा हमेशा सुबह का खाना बनाने तथा अन्य काम करने में मम्मी की मदद करते थे। इस कारण काम पर देर से जा पाते थे। Market में व्यापारी लोग बोलते, उपाध्याय जी घर के काम-धाम छोड़कर व्यापार पर ज्यादा ध्यान दो, लेकिन पापा जानते थे आठ से दस लोगों का काम अकेले करना कोई आसान नहीं होता और नौकर रखने की हैसियत नहीं थी। इसलिए लोगों का कहा हँसी में टाल देते।
इंदौर में पापा के पास स्कूटर था और जयपुर में केवल एक पुरानी साइकिल। उसी से पापा रोज आठ से दस-किलोमीटर दूर मार्केट जाते और वहाँ दिन भर उसी से एक दुकान से दूसरी दुकान पर जाते। जल्द ही पापा की मेहनत और ईमानदारी रंग लाई और कुछ ही सालों में पापा ने न केवल व्यापार में बल्कि दिलों में भी अपनी जगह बना ली।
पापा जिनके भी साथ रहे या जिनके साथ भी काम किया उन सभी के साथ पापा का दिल से दिल तक का नाता बना। मुझे कुछ धुंधला-धुंधला सा याद है कि जब हम इंदौर छोड़ कर जयपुर आ रहे थे तो मोहल्ले के लोग जमा हो गए और पापा से कहने लगे कि उपाध्याय जी आप मत जाइए हम आपका पूरा साथ देंगे, यहाँ तक कि मकान मालिक ने भी कहाँ कि उपाध्याय जी जब तक आपका धंधा वापस नहीं जमता तब तक आप किराया मत देना। लेकिन हमारा दाना-पानी जयपुर का ही लिखा था।
ऐसा नहीं है कि जयपुर आने के बाद सब कुछ सही हो गया। जयपुर में भी तीन-चार बार ऐसा हुआ कि हम अर्श से फर्श पर आए / व्यापार में उतार चढ़ाव आया, लेकिन माँ चामुंडा की कृपा, बुजुर्गों के आशीर्वाद, परिजनों के साथ और तथा अपनी मेहनत और ईमानदारी से पापा ने हर बार फर्श से अर्श तक का सफर तय किया और आज हमारी कुलदेवी की कृपा से हमारे घर में किसी चीज की कमी नहीं हैं।
किस्मत की हवा कभी नरम कभी गरम ……….
हँसते-हँसते कट जाएं रस्ते जिंदगी यू ही ……….
यूँ ही कट जाएगा सफर साथ चलने से के मंजिल आएगी नजर साथ चलने से ……….
पापा हर साल एक डेढ़ महीने के लिए टूर पर जाते थे और वहाँ से हमेशा मेरी मम्मी के लिए दो साड़ियाँ लाते थे और मेरी मम्मी उन दो साड़ियों को इतना संभाल कर रखती की अगले दो तीन सालों तक लगभग हर Function या Party में मम्मी इन्हीं साड़ियों में दिखाई देती, मम्मी ने पापा से कभी कोई डिमांड नहीं की, लेकिन हम तो बच्चे थे तो हमारी डिमांड तो जायज ही थी। और पापा भी हर बार टूर से आते वक्त हमारे किये बहुत सारी कहानियों की किताबे लाते थे।
बता दूँ क्या लाना तुम लौट के आ जाना ……….
सात समुन्द्र पार से गुड़ियों के बाजार से ……….
मेरे पापा और मम्मी दोनों ही मेहनती तो हैं ही लेकिन एक चीज दोनों में अलग हैं जहाँ पापा दिल से एकदम कोमल वहीं मम्मी एकदम मजबूत। शायद कोमलता और जीवटता का यही संगम इन दोनों की ताकत था कि जीवन में इतनी बार उतार चढ़ाव आए लेकीन दोनों ने कभी हार नहीं मानी और हर बार पहले से और भी ज्यादा सक्षम होकर आगे आए।
मम्मी तो कठिनाइयों में पापा की हमसफ़र थी ही लेकिन कुछ लोग ऐसे भी थे जिन्होंने मुसीबत के समय में पापा का हाथ कभी नहीं छोड़ा, हमेशा पापा की हिम्मत बन कर उनके साथ खड़े रहे, उनमें से एक हैं हमारे कुमार अंकल उन्होंने एक बड़े भाई की तरह हर कदम पर पापा का साथ दिया। आज भी वे किसी से पापा का परिचय एक एजेंट की तरह नहीं बल्कि अपना छोटा भाई कह कर करवाते है। पापा पर जब भी मुसीबत आई उनका यही कहना होता था, “उपाध्याय जी घबराओं मत, मैं आपके साथ हूँ, सब ठीक हो जाएगा।“
और दूसरे हैं विनोद अंकल इन्होंने भी पापा को एक एजेंट नहीं अपना बड़ा भाई मान कर पूरा मान दिया और मुसीबत के समय एक साये की तरह पापा के साथ रहे।
और एक हैं हमारे पड़ोसी गुप्ता अंकल, उन्हीं के कारण जयपुर में हमारा खुद का मकान बन पाया। मेरे पापा तो शुरू से खाने और खिलाने में ही रहे कभी अपना जोड़ने पर उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया। ये तो गुप्ता अंकल ही थे जिन्होंने पापा की पीछे पड़ कर प्लॉट दिलाया और पूरे मकान का काम अपनी देखरेख में करवाया। आज हम जो हैं इसमें उनका बहुत योगदान हैं, नहीं तो शायद मेरे पापा तो अपना मकान कभी बना ही नहीं पाते। मेरी मम्मी तो आज भी गुप्ता अंकल को दिल से दुआएं देती हैं।
कोई जब राह ना पाए मेरे संग आए तेरी दोस्ती मेरा प्यार
ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे तोड़ेंगे दम मगर
तेरे जैसा यार कहाँ कहाँ ऐसा याराना
यारी है ईमान मेरा यार मेरी जिंदगी
मेरे पापा और मम्मी दोनों ही रिश्ते को सहेज कर रखने में विश्वास रखते है उनका मानना है कि रिश्ते पानी की तरह होते है यदि कोई उनमें कितनी भी लाठी मारे वो आपस में एक हो ही जाते हैं।
हमारे घर में मेहमानों का आना लगा ही रहता हैं, इस बात पर एक बात याद आ गई कि जब भी हमारी गली में कोई टैक्सी आती तो हमारे पड़ोसी बोलते कि राखी देखना ये टैक्सी तुम्हारे यहाँ ही रुकने वाली है। पापा मम्मी की इस परंपरा को मेरे दोनों भाई और दोनों भाभियाँ भी पूरे मन से निभा रहे हैं।
मेरे पापा इतने दयालु है कि वे किसी और का दुख दर्द देख ही नहीं सकते। यदि कोई अपनी समस्या लेकर पापा के पास मदद मांगने के लिए आ जाता तो खुद के पास पैसे ना होने पर वे किसी और से पैसे लेकर उसकी मदद कर देते थे।
अपने माता-पिता की सेवा के बारे में बात करूँ तो मेरे पापा ने अपने माता-पिता की इतनी सेवा की है कि लोग उन्हें उपाध्याय परिवार का श्रवण कुमार कह कर पुकारते हैं। भा यानि मेरे दादाजी को कैंसर था लेकिन फिर भी वे काफी हद तक उनका काम खुद कर लेते थे। उनके अंतिम कुछ दिनों में ही उनकी सेवा करनी पड़ी, लेकिन बाईं मेरी दादी की मेरी पापा ने लगभग पाँच सालों तक तन-मन से सेवा की, उन्हें नहलाना-धुलाना, खाना खिलाना, हर काम उन्होंने ही किया। हाँ, मम्मी और परिवार के बाकी सदस्यों का भी पूरा साथ था।
मैं यह तो नहीं कह सकती कि मम्मी-पापा में कभी तकरार नहीं हुई होगी लेकिन हमने अपने बचपन में मम्मी-पापाको कभी आपस में झगड़ते नहीं देखा। हाँ आजकल तो दोनों थोड़ा-थोड़ा झगड़ लेते हैं। दोनों ने एक दूसरे का इतना साथ निभाया कि जब घर में सब कुछ था तब तो घर में खुशियाँ होती ही थी लेकिन तंगहाली में भी कभी घर से खुशियाँ नहीं गई।
आज भी पापा, मम्मी की इतनी चिंता करते है कि मम्मी को थोड़ा सा भी कुछ हो जाता है तो उनका कहीं मन ही नहीं लगता और यही हाल मम्मी का भी है। फर्क बस इतना सा है कि पापा का दिल बहुत ही कोमल है और उनकी चिंता दिख जाती है। लेकिन मेरी मम्मी अंदर से बहुत strong है, इसलिए उनकी चिंता हमें दिखाई नहीं देती।
मम्मी मेरी अच्छी है खराब नहीं लेकिन मेरे पापा का जवाब ……….
है ना बोलो-बोलो मम्मी बोलो-बोलो ……….
अब मैं अपने पापा मम्मी को स्टेज पर बुलाना चाहूँगी, मम्मी-पापा
क्या यही प्यार है, हाँ यही प्यार है, दिल तेरे बिन कहीं लगता नहीं वक्त गुजरता नहीं ……….
स्टेज पर आने के बाद
ओ मेरी जोहरे जबी तू अभी तक है हंसी ……….
last
ये तो सच है कि भगवान है
मैं अपने परिवार के साथ दीपा (कुमार अंकल की बेटी) की शादी में टिपटूर गई थी, तब वहाँ हरीश / नागेश भाई के ने हमें अपने यहाँ बुला र दावत दी और खुद हमें कार में बैठा कर लगभग 20-25 किलोनीटेर दूर अपने नारियल के खेतों में लेकर गए और खुद ने ही पेड़ से नारियल तोड़े और हमें खिलाए और रास्ते में बातों के दौरान उन्होंने मुझे बताया कि वे उपाध्याय जी के अलावा और किसी एजेंट को अपनी दुकान में भी घुसने नहीं देते। ऐसा व्यापारी जो अपनी दुकान पर किसी एजेंट को चढ़ने तक नहीं देता उसने आज एक एजेंट की बेटी दामाद को अपने घर में आमंत्रित करके इतना सम्मान दिया। मेरा सीना गर्व से फूल गया।
मैं कई दिनों से सोच रही थी कि आज के इस शुभ अवसर पर मुझे भी अपने मम्मी-पापा को कोई Gift देना चाहिए, लेकिन मुझे कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था। उन्होंने मुझे यह जीवन और इस जीवन में इतना सारा प्यार दिया है कि मेरी इतनी हैसियत ही नहीं है कि मैं उन्हें कुछ दे सकूँ, या उनके द्वारा दिए गए प्यार और दुलार का ऋण चुका सकूँ।
आज की इस भाग दौड़ की जिंदगी में मैं उनके लिए वक्त नहीं निकाल पाती और उन्हें भी लगता होगा कि मैं उन्हें याद नहीं करती, लेकिन ऐसा नहीं हैं कि उनके साथ बिताए गए हर पल आज भी मेरे दिल की गहराइयों में बसे हुए है। हाँ कुछ यादें एकदम स्पष्ट तो कुछ धुंधली सी!
आज मैं अपनी यादों के उन पलों को वापस अपने मम्मी-पापा के साथ जीना चाहती हूँ, हाँ उन धुंधली हुई यादों के कुछ पल थोड़े अलग भी हो सकते हैं लेकिन वो पल हैं…. मेरी यादों में मेरे और मम्मी-पापा के प्यार के।
तुम्हें और क्या दूं मैं दिल के सिवाय, तुमको हमारी उम्र लग जाये,
चलिए मेरे जन्म से चलते है, हमारे घर में Orient Company का एक पंखा था और अभी कुछ सालों पहले तक भी था, उसे दिखाते हुए पापा कहते थे कि यह पंखा वो मेरे लिए ही लाए थे।
मुझे समय अच्छी तरह से याद नहीं हैं, ये बात मेरे अस्पताल से घर आने वाले दिन की भी हो सकती है या हो सकता है कि कुछ दिनों बाद की हो।
तो हुआ यूं कि जब मैं मम्मी के साथ अपने घर आई तो उस रात मच्छरों ने काट-काट कर मुझे पूरा लाल कर दिया। बस अगले दिन की रात होने से पहले हमारे घर की छत पर एक पंखा लग चुका था।
बचपन में एक बार मैं, पापा-मम्मी, दुर्गा और शायद गोदी में विशाल भी होगा मुझे ठीक से याद नहीं हैं। हम लोग टैक्सी से पुष्पा बुआ के घर जा रहे थे। दुर्गा छोटी ही थी ढाई या तीन साल की। हमें सिखाया गया था कि किसी के घर में जाते हैं तो चप्पल बाहर ही खोल कर जाते हैं। तो उसने भी टैक्सी में चढ़ने से पहले अपनी चप्पल बाहर ही खोल दी, आज्ञाकारी बेटी। टैक्सी चली और मेरी नजर उसके पाँव पर पड़ी, मैंने पापा से कहा, “पापा दुर्गा ने चप्पल सड़क पर ही उतार दी, मैं लेकर आती हूँ।“ पापा रोकते या कुछ कहते उससे पहले ही मैंने चलती टैक्सी से अपना पाँव बाहर निकाल दिया। मेरा पाँव टैक्सी के पहियें के नीचे आ गया, टैक्सी वाले ने जल्दी से ब्रेक लगाए लेकिन तब तक तो मेरा पाँव टैक्सी के साथ-साथ लगभग दो से तीन फीट तक घिसट चुका था, क्योंकि केवल मेरा पाँव ही तो टैक्सी के बाहर था मैं तो टैक्सी के अंदर थी। मेरे पैर में प्लास्टर चढ़ गया। लेकिन चाहे कुछ भी हो जाये मुझे तो बस स्कूल जाना था, तो मेरी जिद पर पापा रोज मुझे अपने कंधे पर बैठा कर स्कूल छोड़ते और लाते।
मुझे आज भी याद है बचपन में हर Sunday को मम्मी तो सुबह से ही हमारे कपड़े धोने लग जाया करती और पापा सबसे पहले हम सबके जूतों की पोलिश करते और फिर हम चारों को लाइन में बैठाकर हमारे नाखून काटते, हमारे नाखून इतने छोटे हो जाते कि हमसे दो दिन तक सब्जी में हाथ भी ना डाला जाता। बस फिर दो दिन तक सब्जी में बारीक चूरी हुई रोटी उनके हाथों से खाने का आनन्द उठाया जाता। आज सोचती हूँ कि दो दिन बाद ही नाखून सही क्यों हो जाते थे पूरे छः दिन तक जलन होती रहती तो कितना अच्छा होता।
मेहनत, ईमानदारी और हालातों का सामना करने का गुण मुझे मेरे मम्मी-पापा से ही मिला है।
हमारे गाँव रियाँ के रेलवे स्टेशन से हमारा घर लगभग तीन किलोमीटर की दूरी पर है। जब भी हम गर्मियों की छुट्टियों में अपने गाँव रियाँ जाते तो पापा चिलचिलाती धूप में अपने दोनों हाथों में कपड़ों से भरी दो पेटियाँ और दोनों कंधों पर दोनों भाईयों को बैठाकर पैदल ही रेलवे स्टेशन से घर तक आते, लेकिन उनके चेहरे पर किसी प्रकार की शिकन, गुस्से या थकान का नामों निशान भी नहीं होता।
एक वो गाना है ना, “पतझड़ सावन बसंत बहार,एक बरस के मौसम चार मौसम चार मौसम चार पाँचवाँ मौसम प्यार का इंतजार का…..
हमारे घर में ये पाँचों मौसम तो थे ही लेकिन एक छठा मौसम भी आता था, और वो था हमारी पिटाई का। पापा हमारी बड़ी से बड़ी शैतानी पर हमें कुछ भी नहीं कहते थे और ना ही डाँटते। लेकिन जिस दिन इस मौसम का आगमन होता। बस हममें से किसी एक की गलती और बस हम पांचों की जम कर पिटाई (जिसमें हजारी भी शामिल होता था।)।
एक बार हम पाँचों की पिटाई इस बात पर हुई थी कि घर से 50 रुपये का एक नोट चोरी हो गया था।
पापा को जब इस बात का पता चला तो एक बार कमरे में हम सबको बंद कर लिया और सबको एक ही रस्सी से बांध दिया, फिर शुरू हुई हमारी धुनाई। एक को जोर से चाँटा पड़ता और पाँचों गिरते।
ये तो याद नहीं है कि यह कांड किसने किया था, लेकिन जम कर हमारी पिटाई करने के बाद में पापा ने हमें समझाया कि बात 50 रुपये की नहीं, ईमानदारी की है। भई अब इतनी पिटाई खाने के बाद तो इसे भूला नहीं जा सकता, हैं ना।
एक बार तो उन्होंने हम चारों को साइकिल से बांध दिया और जमकर धुनाई की।
जब भी बंद कमरे में हमारी पिटाई होती, मम्मी के तो बीच में आने का सवाल ही नहीं था और बाई यानि मेरी दादी दरवाजे के बाहर खड़ी-खड़ी पापा को गालियाँ देती रहती, बाईकावना छोड़ दे मार देवेलों काईं, डाकी है काईं, ज लेवेलों काईं टाबरा की। दरवाजा खुलवाने के लिए चिल्ला-चिल्ला कर घर में कोहराम मचा देती, लेकिन वो दरवाजा हमारी अच्छी तरह से धुनाई हो चुकने के बाद ही खुलता था।
लेकिन वो धुनाई हमें कुछ ही दिनों तक याद रहती थी, क्योंकि पापा के प्यार से हम उस धुनाई को जल्दी ही भूल जाते थे और हमारी शरारतों का सिलसिला फिर से शुरू हो जाता था। वैसे यह क्रम ज्यादा नहीं, बस कुछ सालों तक ही चला। मेरे 13-14 साल के होने के बाद मुझे याद नहीं कि पापा ने हम पर हाथ उठाया हो।
मुझे पता है कि हमारी पिटाई करने के बाद वे खुद कितना दुखी होते होंगे इसलिए हमें पहले से भी ज्यादा प्यार करते। तभी तो कुछ ही दिनों में हम अपनी पिटाई को भूल जाते थे और पापा के साथ खेलना खिलाना फिर से चालू हो जाता।
पापा कभी हमारे साथ पापा की तरह से बल्कि एक दोस्त की तरह रहे, साथ में खाना, साथ में खेलना, और साथ में गाने गाना। जी हाँ, वह भी उस जमाने में जब लोग गाना गाना बुरा मानते थे, पापा और मैं साथ में काम करते हुए फिल्मी गाने गाते थे। साथ में ताश, लूडो, चंगा-अष्टा पे खेलते।
मुझे आज भी याद है पापा का हमें लगभग हर Friday को movie दिखाने ले जाना, हर महीने VCR पर फिल्में दिखाना और वीडियो गेम खिलवाना, दीपावली के बाद अपने हाथों से गन्नों को छील कर छोटे-छोटे टुकड़ों में काट-काट कर खिलाना, एक ही परात में तरबूज काट कर सबको साथ में खिलाना।
मेरा Attachment मम्मी से ज्यादा पापा के साथ था। सुबह उठते ही सबसे पहले अखबार पढ़ने की लड़ाई, फिर दोनों मिलकर अखबार में आने वाली पहेलियाँ बुझते, क्रॉस वर्ड भरते।
मम्मी-पापा ने मुझ पर या दुर्गा पर लड़की होने के कारण कभी कोई रोक-टोक नहीं लगाई, काभई यह नहीं कहा कि तुम लड़कियाँ हो और तुम्हें ये काम नहीं करना चाहिए या तुम्हें केवल घर के काम ही करने चाहिए। कहीं आने-जाने पर रोक-टोक नहीं उन्हें हम पर पूरा विश्वास था और हमने उनके विश्वास को टूटने नहीं दिया।
कभी हम दोनों बहनों को काम करने के लिए ज्यादा डांट-डपट नहीं करते थे, बल्कि मम्मी तो कहती अभी तो खाने-खेलने दो शादी के बाद तो काम करना ही है, मैंने भी तो ससुराल में ही सीखा है।
दरअसल मेरी मम्मी भी अपने घर की लाड़ली थी, छः-छः भाभियाँ अपनी छोटी ननंद को कोई भी काम नहीं करने देती थी। इसलिए मम्मी को भी घर का काम ज्यादा नहीं आता था। लेकिन grasping पावर बहुत अच्छी थी। मुश्किल से 1 साल ही स्कूल गई होगी, लेकिन 20 तक पहाड़े, अक्षर ज्ञान यहाँ तक कि ABCD जो कि मम्मी ने खुद भी नहीं पढ़ी थी, वो भी मम्मी ने ही मुझे सिखाई थी। इसीलिए मम्मी घर के हर काम में भी जल्दी ही निपुण हो गई।
किस्से तो इतने हैं कि पूरी रात बीत जाएगी लेकिन मेरी मीठी यादें खत्म ही नहीं होंगी।
इसलिए अंत मैं मैं बस इतना ही कहना चाहूँगी कि मैं भगवान की बहुत शुक्रगुजार हूँ जो उन्होनें मुझे इतना प्यार करने वाले और दिल के इतने सच्चे मम्मी-पापा दिए।
शुक्रिया
Thank You for listening to me
सभी मेहमानों का मैं तहे दिल से स्वागत करती हूँ। अब हम ज्यादा देर ना करते हुए अपने कार्यक्रम की शुरुआत भगवान गणेश की स्तुति से करते हैं जिसे आपके सामने प्रस्तुत कर रही हैं
मेरे पापा-मम्मी की 50वीं शादी की सालगिरह पर आए सभी अतिथियों का पूरे उपाध्याय परिवार की तरफ से तहे दिल से धन्यवाद करना चाहती हूँ जिन्होंने अपना कीमती समय निकाल कर हमें दिया और यहाँ आकर इस कार्यक्रम की शोभा में चार चाँद लगा दिए।
ये हमारी एक छोटी सी कोशिश है पापा-मम्मी के जीवन के कुछ महत्त्वपूर्ण लम्हों को आपके सामने प्रस्तुत करने की, बस आप सभी के साथ और होसलाफजाई की आवश्यकता है।
क्या सब आप इस सफर पर मेरे साथ चलने के लिए तैयार है?
तो फिर चलिए शुरू करते हैं: –
मेरे दादाजी शहर में काम करते थे और मेरी दादीजी बहुत ही भोली थी इसलिए पापा और कमला बुआ दोनों की परवरिश घर से दूर हुई। कमला बुआ अपनी ननिहाल में रही तो पापा ने अपनी पढ़ाई घर से दूर अपने काकाजी के साथ रहकर की और उनके साथ काम सीखा।
दूसरी तरफ मम्मी छः भाई और भाभियों के बीच में सबसे लाड़ली थी क्योंकि दोनों मौसियाँ बड़ी थी और उनकी शादी हो चुकी थी। छः भाभियाँ और लाड़ली होने के कारण घर के काम-काज से मम्मी का दूर-दूर तक नाता ही नहीं था। तो जब मम्मी 14 या 15 साल की हुई तो मेरी मौसी जी ने उन्हें अपने पास बुलाया लिया ताकि शादी से पहले घर के कुछ काम-काज सीख सके।
मेरी मौसी की शादी मेरे दादाजी के छोटे भाई के साथ ही हुई थी इसलिए मम्मी शादी से पहले ही अपने होने वाले ससुराल ही आ गई। अब मम्मी ने घर का काम-काज तो सीखा या नहीं ये तो पता नहीं लेकिन मैंने हमारे गाँव के शंकर दादाजी से सुना था कि पूरे गाँव में मम्मी का खेलना जारी था। वैसे मेरे पापा तो बाहर ही रहते थे लेकिन फिर भी गाँव तो आते ही होंगे, तो शायद पापा-मम्मी भी साथ में खेलते हो और फिर शायद कुछ ऐसा हुआ हो
आ मेरे हमजोली आ, खेलें आँख मिचौली आ ……….
नैन लड़ जई हैं तो मनवा मा कसक ……….
जहाँ भी जाती हूँ वहीं चले आते हो चोरी-चोरी मेरे ……….
मेरे होते कोई और ………… चाहे चले छुरियाँ
शूकर करो कि पड़े नहीं है मेरी माँ के डंडे ………… ये पहले बताते बारात लेकर आते
अब ये हुआ था या नहीं ये तो पापा-मम्मी ही अच्छी तरह से जानते होंगे, क्योंकि मेरे दादाजी ने मुझे एक बार बताया कि किसी कार्यक्रम में वे मेरे नानाजी के साथ कुछ लोगों के साथ चौबारे में बैठे हुए थे और मेरी मम्मी आकर मेरे दादाजी की गोद में बैठ गई तो मेरे दादाजी ने ऐसे ही कहा कि इसे तो मैं मेरी बहु बनाऊँगा। दादाजी ने वैसे तो यह बात यूँ ही कही थी लेकिन कहते हैं ना कि दिन में एक बार जबान पर सरस्वती जी विराजमान होती है तो बाद में यह बात सच भी हो गई।
मिल गए, मिल गए आज मेरे संयम आज मेरे जमीं पर नहीं ……….
हम तुझको उठा कर ले जाएंगे डोली में बैठा ……….
बड़े अरमानों से रखा है सनम तेरी कसम प्यार की दुनियाँ में ……….
शादी के बाद पापा-मम्मी इंदौर आ गए और मम्मी पापा की ड़फली पर कदम से कदम मिला कर उनके साथ चलने लगी
डफली वाले डफली बजा ……….
मैं तो भूल चली बाबुल का देश पिया का घर प्यारा लगे ……….
फिर इंदौर में ही एक-एक कर के हम चारों का जन्म हुआ। इंदौर में पापा का व्यापार खूब अच्छा चल रहा था। घर में रुपये पैसों की कोई कमी नहीं थी, उस जमाने में जब किसी के पास साइकिल होना भी बड़ी बात मानी जाती थी पापा के पास अपना स्कूटर था और घर में फोन था, जिंदगी की गाड़ी बड़े मजे से चल रही थी।
मनु भाई मोटर चली पाम पाम पाम ……….
उठे सब के कदम देखो तर-रम-पम ……….
बाबू समझो इशारे हॉर्न पुकारे ……….
लेकिन कहते है ना कि खुशियों के साथ-साथ दुख भी चलता हैं पापा को व्यापार में नुकसान हो गया और हमें इंदौर छोड़ कर जयपुर आना पड़ा।
यहाँ आने पर पता चला कि जिस मकान का पिछले छः महीने से किराया भर रहे थे वहाँ तो कोई और ही किरायेदार रह रहा है। अब ट्रक में भरा हुआ समान और 4 छोटे-छोटे बच्चे (विक्की तब केवल एक साल का था) कहाँ जाते। तब एक रिश्तेदार ने हमारी मदद की और एक दूसरा मकान किराये पर दिलवाया।
उसकों भी एडवांस किराया देना पड़ा, अब पापा के पास में बहुत ही कम पैसे बचे थे। यहाँ आने के एक दो सालों तक पापा का काम अच्छी तरह से नहीं जमा था। सारी जमा पूंजी खत्म सी हो गई थी। हम चारों बच्चे नादान थे हमें कुछ समझता नहीं था। हमें इंदौर में पूरा ग्लास भर कर दूध मिलता था, तो हमें तो दूध का पूरा भरा हुआ ग्लास ही चाहिए था। लेकिन यहाँ तो 6 जनों के बीच में आधा लीटर दूध! 4 ग्लास कैसे भरते? बस मम्मी ग्लास में थोड़ा सा दूध डालती और बाकी का ग्लास पानी से भर देती।
लेकिन मेरी मम्मी ने ऐसी घड़ी में भी पापा से शिकायत नहीं की। घर में मेहमानों की आवभगत मानमनुहार में मम्मी ने कभी कोई कमी नहीं की तंगहाली के दिनों में भी सबका खुले दिल से स्वागत किया। रात को बारह बजे भी कोई मेहमान आ गया तो उसे भूखा नहीं सोने दिया यहाँ तक कि उनके कपड़े तक मम्मी ने अपने हाथों से धोकर दिए।
और पापा ने भी मम्मी का पूरा साथ निभाया, पापा हमेशा सुबह का खाना बनाने तथा अन्य काम करने में मम्मी की मदद करते थे। इस कारण काम पर देर से जा पाते थे। Market में व्यापारी लोग बोलते, उपाध्याय जी घर के काम-धाम छोड़कर व्यापार पर ज्यादा ध्यान दो, लेकिन पापा जानते थे घर में आठ से दस लोगों का काम अकेले करना कोई आसान काम थोड़े ही होता है और नौकर रखने की हैसियत नहीं थी। इसलिए लोगों का कहा हंसी में टाल देते थे।
इंदौर में पापा के पास स्कूटर था और जयपुर में केवल एक पुरानी साइकिल। उसी से पापा रोज आठ से दस-किलोमीटर दूर मार्केट जाते और वहाँ दिन भर उसी से एक दुकान से दूसरी दुकान पर जाते। जल्द ही पापा की मेहनत और ईमानदारी रंग लाई और कुछ ही सालों में पापा ने केवल व्यापार में ही नहीं दिलों में भी अपनी जगह बना ली।
पापा जिनके भी साथ रहे या जिनके साथ भी काम किया उन सभी के साथ पापा का दिल से दिल तक का नाता बना। मुझे कुछ धुंधला-धुंधला सा याद है कि जब हम इंदौर छोड़ कर जयपुर आ रहे थे तो मोहल्ले के लोग जमा हो गए कि उपाध्याय जी आप मत जाइए हम आपका पूरा साथ देंगे, यहाँ तक कि मकान मालिक ने भी कहाँ कि उपाध्याय जी जब तक आपका धंधा वापस नहीं जमता तब तक आप किराया मत देना। लेकिन हमारा दाना-पानी जयपुर का ही लिखा था।
ऐसा नहीं है कि जयपुर आने के बाद सब कुछ सही हो गया। जयपुर में भी तीन-चार बार ऐसा हुआ कि हम अर्श से फर्श पर आए। लेकिन माँ चामुंडा की कृपा, परिजनों के साथ और आशीर्वाद तथा अपनी मेहनत और ईमानदारी से पापा ने हर बार फर्श से अर्श तक का सफर तय किया और आज हमारी कुलदेवी की कृपा से हमारे घर में किसी चीज की कमी नहीं हैं।
किस्मत की हवा कभी नरम कभी गरम ……….
हँसते-हँसते कट जाएं रस्ते जिंदगी यू ही ……….
यूँ ही कट जाएगा सफर साथ चलने से के मंजिल आएगी नजर साथ चलने से ……….
पापा हर साल एक डेढ़ महीने के लिए टूर पर जाते थे और हमेशा मेरी मम्मी के लिए वहाँ से दो साड़ियाँ लाते थे और मेरी मम्मी उन दो साड़ियों को इतना संभाल कर रखती की अगले दो तीन सालों तक लगभग हर Function या Party में मम्मी इन सँजोई हुई साड़ियों में ही दिखाई देती, मम्मी ने पापा से कभी कोई डिमांड नहीं की, लेकिन हम तो बच्चे थे तो हमारी डिमांड तो जायज ही थी और पापा भी हर बार टूर से आते वक्त बहुत सारी कहानियों की किताबे लाते थे।
बता दूँ क्या लाना तुम लौट के आ जाना ……….
सात समुन्द्र पार से गुड़ियों के बाजार से ……….
मेरे पापा और मम्मी दोनों ही मेहनती तो हैं ही लेकिन एक चीज दोनों में अलग हैं जहाँ पापा दिल से एकदम कोमल वहीं मम्मी एकदम मजबूत। शायद कोमल और जीवटता का यही संगम इन दोनों की ताकत था कि जीवन में इतनी बार उतार चढ़ाव आए लेकीन दोनों ने कभी हार नहीं मानी और हर बार पहले से और ज्यादा सक्षम होकर आगे आए।
मम्मी तो कठिनाइयों में पापा की हमसफ़र थी ही लेकिन कुछ लोग ऐसे भी थे जिन्होंने मुसीबत के समय में पापा का हाथ कभी नहीं छोड़ा, हमेशा पापा की हिम्मत बन कर उनके साथ खड़े रहे, उनमें से एक हैं हमारे कुमार अंकल उन्होंने एक बड़े भाई की तरह हर कदम पर पापा का साथ दिया। आज भी वे किसी से पापा का परिचय करवाते हैं तो एक एजेंट के तौर पर नहीं अपने छोटे भाई की तरह करवाते है। जब भी मुसीबत आई उनका यही कहना होता था, “उपाध्याय जी घबराओं मत मैं आपके साथ हूँ सब ठीक हो जाएगा।“
और दूसरे हैं विनोद भाई इन्होंने भी पापा को एक एजेंट नहीं अपना बड़ा भाई मान कर पूरा मान दिया और मुसीबत के समय एक साये की तरह पापा के साथ रहे।
और एक हैं हमारे पड़ोसी गुप्ता अंकल, उन्हीं के कारण जयपुर में हमारा खुद का मकान बन पाया। मेरे पापा तो शुरू से खाने और खिलाने में ही रहे कभी अपना जोड़ने पर उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया। ये तो गुप्ता अंकल ही थे जिन्होंने पापा की पीछे पड़ कर प्लॉट दिलाया और पूरे मकान का काम अपनी देखरेख में करवाया। आज हम जो हैं इसमें उनका बहुत योगदान हैं, नहीं तो शायद मेरे पापा तो अपना मकान कभी बना ही नहीं पाते। मेरी मम्मी तो आज भी गुप्ता अंकल को दिल से दुआएं देती हैं।
कोई जब राह ना पाए मेरे संग आए तेरी दोस्ती मेरा प्यार
ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे तोड़ेंगे दम मगर
तेरे जैसा यार कहाँ कहाँ ऐसा याराना
यारी है ईमान मेरा यार मेरी जिंदगी
मेरे पापा और मम्मी दोनों ही रिश्ते को सहेज कर रखने में विश्वास रखते है उनका मानना है कि रिश्ते पानी की तरह होते है यदि कोई उसमें कितनी भी लाठी मारे वो आपस एक हो जाते हैं।
हमारे घर में मेहमानों का आना लगा ही रहता हैं, इस बात पर एक बात याद आ गई कि जब भी हमारी गली में कोई टैक्सी आती तो हमारे पड़ोसी बोलते कि राखी ये टैक्सी तुम्हारे यहाँ ही रुकने वाली है। पापा मम्मी की इस परंपरा को मेरे दोनों भाई और दोनों भाभियाँ भी पूरे मन से निभा रहे हैं।
मेरे पापा इतने दयालु है कि वे किसी और का दुख दर्द देख ही नहीं सकते। यदि कोई अपनी समस्या लेकर पापा के पास मदद मांगने के लिए आ जाता तो खुद के पास पैसे ना होने पर वे किसी और से पैसे लेकर उसकी मदद कर देते थे।
अपने माता-पिता की सेवा के बारे में बात करूँ तो मेरे पापा ने अपने माता-पिता की इतनी सेवा की है कि लोग उन्हें उपाध्याय परिवार का श्रवण कुमार कह कर पुकारते हैं। भा यानि मेरे दादाजी को कैंसर था लेकिन फिर भी वे काफी हद तक उनका काम खुद कर लेते थे। केवल अपने अंतिम कुछ दिनों में ही उनकी सेवा करनी पड़ी लेकिन बाईं मेरी दादी की मेरी पापा ने लगभग पाँच सालों तक तन-मन से सेवा की उन्हें नहलाना-धुलाना, खाना खिलाना, हर काम उन्होंने ही किया। हाँ मम्मी और परिवार के बाकी सदस्यों का भी पूरा साथ था।
मैं यह तो नहीं कह सकती कि पापा-मम्मी में कभी तकरार नहीं हुई होगी लेकिन हमने अपने बचपन में पापा-मम्मी को कभी आपस में झगड़ते नहीं देखा (हाँ आज तो दोनों थोड़ा-थोड़ा झगड़ते हैं), दोनों ने एक दूसरे का इतना साथ निभाया कि जब घर में सब कुछ था तब तो घर में खुशियाँ होती ही थी लेकिन तंगहाली में भी कभी घर से खुशियाँ नहीं गई।
आज भी पापा, मम्मी की इतनी चिंता करते है कि मम्मी को थोड़ा सा भी कुछ हो जाता है तो उनका कहीं मन ही नहीं लगता और यही हाल मम्मी का भी है। बस फर्क इतना सा है कि पापा का दिल बहुत ही कोमल है और उनकी चिंता दिख जाती है लेकिन मेरी मम्मी अंदर से बहुत strong है इसलिए उनकी चिंता हमें दिखाई नहीं देती।
मम्मी मेरी अच्छी है खराब नहीं लेकिन मेरे पापा का जवाब ……….
है ना बोलो-बोलो मम्मी बोलो-बोलो ……….
अब मैं अपने पापा मम्मी को स्टेज पर बुलाना चाहूँगी, पापा-मम्मी
क्या यही प्यार है, हाँ यही प्यार है, दिल तेरे बिन कहीं लगता नहीं वक्त गुजरता नहीं ……….
स्टेज पर आने के बाद
ओ मेरी जोहरे जबी तू अभी तक है हंसी ……….
last
ये तो सच है कि भगवान है
मैं अपने परिवार के साथ दीपा (कुमार अंकल की बेटी) की शादी में टिपटूर गई थी, तब वहाँ हरीश / नागेश भाई के ने हमें अपने यहाँ बुला र दावत दी और खुद हमें कार में बैठा कर लगभग 20-25 किलोनीटेर दूर अपने नारियल के खेतों में लेकर गए और खुद ने ही पेड़ से नारियल तोड़े और हमें खिलाए और रास्ते में बातों के दौरान उन्होंने मुझे बताया कि वे उपाध्याय जी के अलावा और किसी एजेंट को अपनी दुकान में भी घुसने नहीं देते। ऐसा व्यापारी जो अपनी दुकान पर किसी एजेंट को चढ़ने तक नहीं देता उसने आज एक एजेंट की बेटी दामाद को अपने घर में आमंत्रित करके इतना सम्मान दिया। मेरा सीना गर्व से फूल गया।
लड़कों और लड़कियों का ग्रुप डांस
• लारा लप्पा लारा लप्पा लाई कर जा
• हाल कऐसा है जनाब का
• मैं सितारों का तराना …..पाँच रुपया बार आना
• जाने कहाँ मेरा जिगर गया जी
• गोरे-गोरे ओ बनके छोरे काभी मेरी गली
• मेरे पिया गए रंगों किया है वहाँ से टेलीफ़ून
• कमाता हूँ बहुत खुच पर कमाई डूब जाती है
funny डांस
• बड़े मियां दीवाने ऐसे ना बनों हसीना
• cat कैट माने बिल्ली rat रेट माने चूहा
• हम थे वो थी और समा रंगीन जाना था जापान पँहुच गए चीन समझ गए ना
• आके सीधी लगी दिल पे
• चील-चील चिल्ला के कजरी सुनाए
• मेरी भैंस को डंडा क्यूँ मारा
• सिकंदर ने पोरस से की थी लड़ाई
• जरूरत है जरूरत है जरूरत है श्रीमती की
• दिल का हाल सुने दिलवाला छोटी सी बात
• हम काले है तो क्या हुआ दिलवाले है
• कजरारे-कजरारे
औरतों का डांस
• अपलम चपलम चपलाई
• हँसता हुआ नूरानी चेहरा
• ऊई माँ ऊई माँ ये क्या हो गया उनकी गली में
• जानू-जानू रे कहे खनके है तोर कंगना
• रेशमी सलवार कुर्ता जाली का
• नवचारी माची
• खिले है सखी आज फुलवा मन के
• काँटों से खींच के ये आँचल खोल के बंधन बाँधी पायल
• बलियी ओ बलिए चल चलिए
• ढूंढो-ढूंढो रे साजना ढूंढो रे सजना मेरे कान का बाला
• छोड़ दो आँचल जमाना क्या कहेगा, इन अदाओ का जमाना भी है दीवाना, दीवाना क्या कहेगा
• ये गोटेदार लहंगा निकलूँ जब डाल के, छुरियाँ चल जाये, मेरी मतवाली चाल पे
• झुमका गिरा रे बरेली के बाजार में
• कोई शहरी बाबू दिल लहरी बाबू पग बांध
हनी, गुनू, नेपू, दरशु, याशु – Medli
Full Song
• हनी, गुनू, नेपू, दरशु, याशु – हाय में का करूँ राम मुझे बुड्ढा मिल गया
• शुभम – मेरे अँगने में तुम्हारा
• शशि दुर्गा – बलम छोटो सो
• शशि दुर्गा – हिवड़े सु दूर मत जा, म्हारी तीतरी, मेरी रानी मैं ल्याया तेरा लाल शरारा
विशाल मोनिका
• इक परदेशी मेरा दिल ले गया
• आजकल तेरे मेरे प्यार के चर्चे उड़े जब-जब जुलफ़े तेरी
• कजरा मोहब्बत वाला अँखियों में ऐसा डाला
• उड़े जब-जब जुलफ़े तेरी
• बिंदिया चमकेगी चूड़ी खनकेगी
• अच्छा जी मैं हारी चलो माँ जाओ ना देखि सबकी यारी
शशि विक्की
• तेरे हाथों में पहना के चूड़ियाँ
• क्या गजब करते हो जी
• सैया ले गई जिया तेरी पहली नजर
• हौले-हौले सजना धीरे-धीरे बालमा जरा होले-होले चलों बालमा
• हम आपकी आँखों में इस दिल को सजा दे तो
• होय रे होय तेरे हाथ में मेरा हाथ
• मेराबिंदिया तेरी निन्दियाँ ना चुरा ले तो कहना
• आँखों ही आँखों में इशारा हो गया, बैठे बैठे जीने का सहारा हो गया
मैरे पैरों में घुँघरू बंधा दे फिर मेरी चाल देख ले
Other
• कौन दिशा में लेके चला से बटोहिया
• बड़ी मुश्किल है खोया मेरा दिल है कोई
• आजा संयम मधुर चाँदनी में हम
• आधा है चंद्रमा रात आधी रह ना जाये
• बार-बार देखो हजार बार देखो देखने की चीज है
• आई दिल मुझे बता दे तु किस पे आ ग्या है
• ये चाँद सा रोशन चेहरा, जुल्फों का रंग सुनहरा,
• लेके पहला-पहला प्यार
• बाबूजी धीरे चलना प्यार में जरा संभलना
• हमें तो लूट लिया मिलके हुस्न वालों ने, गोरे-गोरे गालों ने, काले-काले बालों ने
• लाखों हैं निगाह में जिंदगी की राह में
• तौबा ये मतवाली चाल झुक जाये फूलों
• ये लड़का हाय अल्लाह कैसा है दीवाना
• एक मैं और एक टू दोनों मिले इस तरह
• गौरे रंग पे ना इतना गुमान कर
• मेरे दिल की घड़ी करे टिक-टिक-टिक लो बजे रात के बारह
• सैया झूठों का बड़ा सरदार निकला
• दो बिचारे बिना सहारे देखो
• हाल कैसा है जनाब का क्या ख्याल है
• बाबू समझो इशारे
• किस्मत की हवा कभी गरम- कभी नरम **
• झे मेरी बीबी से बचाओ
• डम-डम डिगा-डिगा मौसम भीगा- भीगा
• है अपना दिल तो आवारा ना जाने किस पे आएगा
• आसज मिली एक लड़की जिसे देख तबीयत फड़की
• जाने तेरी नजरों ने क्या कर दिया
• जा-जा रे जा दीवाने जा
• मुड़-मुड़ के ना देख मुड़-मुड़ के
• मेरा नाम चुन-चुन-चू, रात चाँदनी
• एक चतुर नार
• मेरे सामने वाली खिड़की
• मेरे पिया गए रंगून किया है वहाँ से
मैं कई दिनों से सोच रही थी कि आज के इस शुभ अवसर पर मुझे भी अपने पापा-मम्मी को कोई Gift देना चाहिए, लेकिन मुझे कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था। उन्होंने मुझे जीवन और इस जीवन में इतना सारा प्यार दिया है कि मेरी इतनी हैसियत ही नहीं है कि मैं उन्हें कुछ दे सकूँ, या उनके द्वारा दिए गए प्यार और दुलार का ऋण चुका सकूँ।
आज की इस भाग दौड़ की जिंदगी में हमारे पास अपने माता-पिता के लिए समय ही नहीं है, और उन्हें भी लगता होगा कि हम उनसे दूर हो चुके हैं, लेकिन ऐसा नहीं हैं कि उनके साथ बिताए गए पलों की यादें आज भी मेरे दिल की गहराइयों में बसी हुई है। कुछ बिल्कुल स्पष्ट तो कुछ धुंधली सी!
आज के दिन मैं अपनी यादों के उन पलों को वापस अपने मम्मी-पापा के साथ जीना चाहती हूँ, हाँ उन धुंधली हुई यादों के कुछ पल थोड़े अलग भी हो सकते हैं लेकिन वो पल हैं…. मेरी यादों में मेरे पापा-मम्मी के आपस के प्यार के और मुझसे प्यार के।
तुम्हें और क्या दूं मैं दिल के सिवाय, तुमको हमारी उम्र लग जाये,
चलिए मेरे जन्म से चलते है, हमारे घर में Orient Company का एक पंखा था और अभी कुछ सालों पहले तक भी था, उसे दिखाते हुए पापा कहते थे कि यह पंखा वो मेरे लिए ही लाए थे। हालांकि मुझे खुद को कुछ याद नहीं है क्योंकि एक साल से छोटी बच्ची को क्या याद होगा?
ये बात मेरे अस्पताल से घर आने वाले दिन की भी हो सकती है या हो सकता है कि कुछ दिनों बाद की हो। तो हुआ यूं कि जब मैं मम्मी के साथ अपने घर आई तो उस रात मच्छरों ने काट-काट कर मुझे पूरा लाल कर दिया। बस अगले दिन की रात होने से पहले हमारे घर की छत पर एक पंखा लग चुका था।
मुझे याद है बचपन में एक बार मैं पापा-मम्मी, दुर्गा और शायद गोदी में विशाल भी होगा मुझे ठीक से याद नहीं हैं। हम लोग टैक्सी से पुष्पा बुआ के घर जा रहे थे। दुर्गा छोटी ही थी ढाई या तीन साल की, मैं बड़ी थी। हमें सिखाया गया था कि किसी के घर में जाते हैं तो चप्पल बाहर ही खोल के जाते हैं। तो उसने भी टैक्सी में चढ़ने से पहले अपनी चप्पल बाहर ही खोल दी। टैक्सी चल पड़ी और मेरी नजर उसके पाँव पर पड़ी, मैंने पापा से कहा, “पापा दुर्गा ने चप्पल सड़क पर ही उतार दी मैं लेकर आती हूँ।“ पापा रोकते या कुछ कहते उससे पहले ही मैंने चलती टैक्सी से पाँव बाहर निकाल दिया। मेरा पाँव टैक्सी के पहियें के नीचे आ गया, टैक्सी वाले ने जल्दी से ब्रेक लगाए लेकिन तब तक तो मेरा पाँव टैक्सी के साथ-साथ लगभग दो से तीन फीट तक घिसट चुका था, क्योंकि केवल मेरा पाँव ही टैक्सी के बाहर था मैं तो टैक्सी के अंदर थी ना। खैर मेरे पैर में प्लास्टर चढ़ गया। लेकिन चाहे कुछ भी हो जाये मुझे तो बस स्कूल जाना था, तो मेरी जिद पर पापा रोज मुझे कंधे पर बैठा कर स्कूल छोड़ते और लाते।
मुझे आज भी याद है हमारे स्कूल के दिनों में Sunday दे दिन मम्मी तो सुबह से ही हमारे कपड़े धोने लग जाया करती और पापा सबसे पहले हम सबके जूतों की पोलिश करते और फिर हम चारों को लाइन में बैठाकर हमारे नाखून काटते, हमारे नाखून इतने छोटे हो जाते कि हमसे दो दिन तक सब्जी में हाथ भी ना डाला जाता। बस फिर दो दिन तक सब्जी में बारीक चूरी हुई रोटी उनके हाथों से खाने का आनन्द उठाया जाता। आज सोचती हूँ कि दो दिन बाद ही नाखून सही क्यों हो जाते थे पूरे छः दिन तक जलन होती रहती तो कितना अच्छा होता।
मेहनत, ईमानदारी और हालातों का सामना करने का गुण मुझे मेरे पापा-मम्मी से ही मिला है।
हमारे गाँव रियाँ के रेलवे स्टेशन से हमारा घर लगभग तीन किलोमीटर की दूरी पर है। जब भी हम गर्मियों की छुट्टियों में अपने गाँव रियाँ जाते तो पापा चिलचिलाती धूप में अपने दोनों हाथों में कपड़ों से भरी दो पेटियाँ और दोनों कंधों पर दोनों भाईयों को बैठाकर पैदल ही रेलवे स्टेशन से घर तक आते, लेकिन उनके चेहरे पर किसी प्रकार की शिकन, गुस्से या थकान का नामों निशान ना होता।
एक वो गाना है ना, “पतझड़ सावन बसंत बहार,एक बरस के मौसम चार मौसम चार मौसम चार पाँचवाँ मौसम प्यार का इंतजार का…..
हमारे घर में ये पाँचों मौसम तो थे लेकिन एक छठा मौसम और आता था, वो था हमारी पिटाई का। पापा हमारी बड़ी से बड़ी शैतानी पर हमें कुछ भी नहीं कहते थे, डाँटते भी नहीं थे। लेकिन जिस दिन इस मौसम का आगमन होता। बस हममें से किसी एक की गलती और बस हम पांचों की जम कर पिटाई (जिसमें हजारी भी शामिल होता था।)।
एक बार हम पाँचों की पिटाई इस बात पर हुई थी कि घर से 50 रुपये का एक नोट चोरी हो गया था।
पापा को जब इस बात का पता चला तो एक बार कमरे में खुद के साथ हम सबको बंद कर लिया और सबको एक ही रस्सी से बांध दिया, फिर शुरू हुई हमारी धुनाई। एक को जोर से चाँटा पड़ता और पाँचों गिरते।
ये तो याद नहीं है कि यह कांड किसने किया था, लेकिन जम कर हमारी पिटाई करने के बाद में पापा ने हमें समझाया कि बात 50 रुपये की नहीं, ईमानदारी की है। भई अब इतनी पिटाई खाने के बाद तो इसे भूला नहीं जा सकता, हैं ना।
एक बार तो उन्होंने हम चारों को साइकिल से बांध दिया और जमकर धुनाई की।
जब भी बंद कमरे में हमारी पिटाई होती, मम्मी के तो बीच में आने का सवाल ही नहीं होता था और बाई (मेरी दादी) दरवाजे के बाहर खड़ी-खड़ी पापा को गालियाँ देती रहती बाईकावना छोड़ दे मार देवेलों काईं, डाकी है काईं, ज लेवेलों काईं टाबरा की। दरवाजा खुलवाने के लिए चिल्ला-चिल्ला कर घर में कोहराम मचा देती, लेकिन वो दरवाजा हमारी अच्छी तरह से धुनाई हो चुकने के बाद ही खुलता था।
लेकिन वो धुनाई हमें कुछ ही दिनों तक याद रहती थी, क्योंकि पापा के प्यार से हम उस धुनाई को जल्दी ही भूल जाते थे और हमारी शरारतों का सिलसिला फिर से शुरू हो जाता था। वैसे यह क्रम ज्यादा नहीं, बस कुछ सालों तक ही चला। मेरे 13-14 साल के होने के बाद मुझे याद नहीं कि पापा ने हम पर हाथ उठाया हो।
मुझे पता है कि हमारी पिटाई करने के बाद वे खुद कितना दुखी होते होंगे और हमें शायद पहले से भी ज्यादा प्यार करते होंगे क्योंकि तभी तो कुछ ही दिनों में हम अपनी पिटाई को भूल जाते थे और पापा के साथ प्यार और मनुहार फिर से चालू हो जाती। लेकिन कहते हैं ना बुरा वक्त ज्यादा दिनों तक याद रहता है।
पापा कभी हमारे साथ पापा की तरह से नहीं रहे बल्कि एक दोस्त की तरह ही रहे साथ में खाना, साथ में खेलना, और साथ में गाने गाना। जी हाँ, वह भी उस जमाने में जब लोग गाना गाना बुरा मानते थे, पापा और मैं साथ में काम करते हुए फिल्मी गाने गाते थे। साथ में ताश, लूडो, चंगा-अष्टा पे खेलते थे।
पापा का हमें लगभग हर Friday को movie दिखाने ले जाना, हर महीने VCR पर फिल्में दिखाना और वीडियो गेम खिलवाना, दीपावली के बाद अपने हाथों से गन्नों को छील कर छोटे-छोटे टुकड़ों में काट-काट कर खिलाना, एक ही परात में तरबूज काट कर सबको साथ में खिलाना।
मेरा Attachment मम्मी से ज्यादा पापा के साथ था। सुबह उठते ही अखबार पहले पढ़ने की लड़ाई, फिर दोनों मिलकर अखबार में आने वाली पहेलियाँ बुझते, क्रॉस वर्ड भरते।
मुझे याद नहीं है कि पापा-मम्मी ने मुझ पर या दुर्गा पर लड़की होने के कारण कोई रोक-टोक नहीं लगाई हो या यह कहा हो कि तुम लड़कियाँ हो और तुम्हें ये काम नहीं करना चाहिए या केवल घर के काम ही करने चाहिए। उन्हें हम पर पूरा विश्वास था और हमने उनके विश्वास को टूटने नहीं दिया।
कभी हम दोनों बहनों को काम करने के लिए ज्यादा डांट-डपट नहीं करते थे, बल्कि मम्मी तो कहती अभी तो खाने-खेलने दो शादी के बाद तो काम करना ही है, मैंने भी तो ससुराल में ही सीखा है।
दरअसल मेरी मम्मी भी अपने घर की लाड़ली थी छः-छः भाभियों की छोटी ननंद कोई काम करने ही नहीं देती थी। इसलिए मम्मी को भी घर का काम ज्यादा नहीं आता था। लेकिन grasping पावर बहुत अच्छी थी। मुश्किल से 1 साल ही स्कूल गई होगी, लेकिन 20 तक पहाड़े, अक्षर ज्ञान यहाँ तक कि ABCD जो कि मम्मी ने खुद भी नहीं पढ़ी थी, वो भी मम्मी ने ही मुझे सिखाई थी। इसीलिए मम्मी हर काम में भी जल्दी ही निपुण हो गई।
किस्से तो इतने हैं कि पूरी रात बीत जाएगी लेकिन मेरी मीठी यादें खत्म ही नहीं होंगी।
इसलिए अंत मैं मैं बस इतना ही कहना चाहूँगी कि मैं भगवान की बहुत शुक्रगुजार हूँ जो उन्होनें मुझे इतना प्यार करने वाले और दिल के इतने सच्चे मम्मी पापा दिए।
शुक्रिया
Thank You for listening me
जिंदगी हर कदम एक नई जंग है जीत जाएंगे हम जीत जाएंगे हम ……….
आप की आँखों में कुछ महके हुए से राज़ है, आपसे भी खूबसूरत आपके अंदाज़ हैं
आसमाँ के नीचे, हम आज अपने पीछे प्यार का जहाँ, बसा के चले कदम के निशाँ, बना के चले
राज की बात कह दूँ तो
हाल क्या है दिलों का ना पूछो सनम,
तेरी माहफ़िल में किस्मत आजम कर
परदे में रहने दो पर्दा ना उठाओ पर्दा जो उठ h