मित्रदोह का फल – Mitradoh ka Phal
पंचतंत्र की कहानियाँ – पहला तंत्र – मित्रभेद – मित्रदोह का फल – धर्मबुद्धि और पापबुद्धि – Dharmbuddhi Aur Paapbuddhi – The Tale of Wisdom and Sin
एक समय की बात है, चंदेरी नाम के एक छोटे से गाँव में धर्मबुद्धि और पापबुद्धि नाम के दो दोस्त रहते थे।
धर्मबुद्धि अपने नाम कि ही तरह धर्मात्मा था। वह हमेशा दूसरों की मदद करता रहता था। पापबुद्धि भी अपने नाम के अनुरूप पापी था। वह हमेशा दूसरों को नुकसान पंहुचाने की या उनका धन हडपने की कोशिश करता रहता था।
चलों परदेस – कुछ कमाकर लाते है
अलग-अलग व्यक्तित्व होने पर भी दोनों में बहुत ही अच्छी मित्रता थी। एक बार पापबुद्धि ने धर्मबुद्धि से कहा, “मित्र, गाँव में व्यापार से धन कमाने के बहुत ही कम अवसर है। क्यों ना हम शहर में जाकर व्यापार करके कुछ धन कमा कर ले आए।”
धर्मबुद्धि को भी उसका विचार पसंद आ गया। उसने अपने पिता से पापबुद्धि के साथ व्यापार करने के लिए आज्ञा मांगी तो उसके पिता ने कहा, “पुत्र, मैंने पापबुद्धि की बदनीयत के बारे में बहुत सुन रखा है, मुझे नहीं लगता कि तुम्हे उसके साथ व्यापार करना चाहिए।”
लेकिन धर्मबुद्धि ने पापबुद्धि पर अपना विश्वास जताते हुए कहा, “पिताजी, पापबुद्धि मेरा बहुत अच्छा दोस्त है। मुझे उस पर पूरा विशवास है। वह मुझे कभी धोखा नहीं देगा।”
तब उसके पिता ने कहा, “फिर भी मेरी सलाह है कि तुम थोडा संभल कर रहना और तुम दोनों अलग-अलग व्यापार करना।”
धर्मबुद्धि और पापबुद्धि दोनों ने अपने साथ थोडा-थोडा धन लिया और अपना भाग्य आजमाने के लिए शहर की तरफ रवाना हो गए।
अपनी-अपनी राह
धर्मबुद्धि को अपने पिता की सलाह याद थी। इसलिए शहर पंहुच कर उसने पापबुद्धि से कहा, “मित्र अब हम शहर पंहुच गए है, हम दोनों ही यदि एक ही व्यापार करने की जगह दोनों अलग-अलग व्यापार करते है। आज के ठीक एक साल बाद हम दोनों वापस गाँव लौट जायेंगे। चाहे हम धन कमा पाए या नहीं।”
पापबुद्धि भी यह सोचकर इस बात से सहमत हो गया कि सही ही है, धर्मबुद्धि तो सीधा-साधा है। इसे व्यापार के दावपेचों की कोई समझ भी नहीं है। इसको तो कोई भी अपनी मीठी-मीठी बातों से बेवकूफ बना सकता है। इसके साथ रहने से मुझे फायदा कम और नुकसान ज्यादा ही है।
चतुराई काम ना आई
दोनों ने शहर में व्यापार में अपने-अपने धन से अपना-अपना व्यापार शुरू कर दिया। पापबुद्धि ने तो अपनी कुटिलता और चालाकी से शुरू-शुरू में तो बहुत धन कमाया। लेकिन जब लोग उसकी कुटिलता को समझ गए, तो उन्होंने उससे व्यापार करना बंद कर दिया। साल का अंत आते-आते उसका व्यापार लगभग बंद ही हो चुका था। उसने बहुत ही कम धन कमाया था।
उधर धर्मबुद्धि ने जल्द ही अपनी सज्जनता और व्यापार में पारदर्शिता से शहरवासियों का मन जीत लिया। लोग उसके साथ ही अपने सामान का क्रय-विक्रय करने लगे।
उसका व्यापार दिन दुगनी और रात चौगुनी वृद्धि कर रहा था। साल का अंत आते-आते उसने बहुत सारा धन कमा लिया था।
किसी की नजर ना लग जाए
साल पूरा होने पर दोनों दोस्त गाँव जाने के लिए वापस मिले। दोनों ने एक दुसरे को अपनी-अपनी कमाई के बारे में बताया। धर्मबुद्धि कि कमाई देख कर पापबुद्धि कि आँखे खुली की खुली रह गई।
दोनों अपने गाँव की तरफ रवाना हो गए। रास्ते में पापबुद्धि मन ही मन पापबुद्धि का धन हडपने के बारे में विचार करने लगा। उसने सोचा कि यदि दोनों गाँव पंहुच गए तो गाँव वालों को उनकी कमाई के बारे में पता चल जाएगा। फिर वह धर्मबुद्धि का धन नहीं हड़प सकेगा।
जैसे ही वे गाँव के निकट पंहुचे उसने अपनी योजना बना ली थी। उसने धर्मबुद्धि से कहा, “मित्र, अपना गाँव समीप आ गया है। कहीं इतना धन देख कर गाँव के लोगों की नजर न लग जाए। उनके मन में लालच और ईर्ष्या आ जाएगा और वे हमसे ये आशा करेंगे की हम हमारा धन उनमें भी बाँट दे।”
“इसलिए हम इसमें से थोडा-थोडा धन निकाल कर बाकी का धन अपनी-अपनी पोटली में इस पेड़ के नीचे छुपा देते है। जैसे-जैसे हमें जरूरत होगी हम अपना धन निकाल लिया करेंगे”
धर्मबुद्धि इस बार अपने पिता की सलाह भूल गया और उसने पापबुद्धि की सलाह मान ली। उन्होंने थोडा-थोडा धन निकाला और बाकी का धन उस पेड़ के नीचे एक गड्ढा खोदकर छुपा दिया। निशानी के लिए उस जगह एक पत्थर रखकर गाँव आ गए।
सारा धन मेरा है
कुछ दिनों बाद पापबुद्धि पेड़ के नीचे से सारा धन निकाल लिया और उसमे पत्थर डाल कर वापस उस जगह को वापस पहले की तरह कर दिया और सारा धन ले जाकर दूसरी जगह छुपा दिया।
दो दिन बाद रात में वह धर्मबुद्धि के पास गया और उससे कहा, “मित्र धर्मबुद्धि मेरा परिवार बड़ा है इसलिए मेरा सारा धन जल्दी खत्म हो गया। चलों चलकर थोड़ा-थोड़ा धन और ले आए। दोनों उस पेड़ के नीचे पंहुचे और पत्थर के निशान वाली जगह को खोदकर अपनी-अपनी पोटलियाँ निकाल ली। लेकिन यह क्या पोटलियों में तो धन की जगह पत्थर भरे हुए थे।
उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे
पापबुद्धि ने धर्मबुद्धि से कहा, “मित्र तुमने मेरे साथ धोखा किया है, तुमने पहले ही सारा धन निकाल लिया।” धर्मबुद्धि ने कहा, “नहीं मित्र, मेरा विश्वास करों, मैंने कोई धन नहीं निकाला है।”
दोनों में इस बात को लेकर झगडा हो गया और दोनों ही इस मामले को लेकर पंचायत के पास पंहुच गए।
पापबुद्धि ने कहा, “सारा गाँव धर्मबुद्धि को सज्जन समझता है। इसलिए इसने यह सोच कर सारा धन निकाल लिया कि उस पर तो कोई भी शक नहीं करेगा, सारा गाँव मेरे ही खिलाफ बोलेगा। मुझे मेरा धन वापस चाहिए।”
धर्मबुद्धि ने भी कहा, “मेरे पिता ने मुझे पहले ही आगाह किया था, लेकिन फिर भी मैंने पापबुद्धि पर भरोसा किया और इसने मुझे धोखा देकर मेरा सारा धन हड़प लिया।” दोनों की बात सुनकर पंच पेशोपेश में पड़ गए।
कुटिल बुद्धि की कुटिलता
उन्होंने दोनों से पूछा कि क्या तुम दोनों के पास अपनी-अपनी बात को सच साबित करने के लिए कोई गवाह है। धर्मबुद्धि ने बड़ी मायूसी से मना कर दिया। तब पापबुद्धि ने कहा, “मैंने सुना है, यदि सच्चे मन से पेड़ देवता से प्रार्थना की जाए तो पेड़ जरुर गवाही देगा और सच सबके सामने होगा।”
सबने उसकी बात मान ली और सब उस पेड़ के पास पंहुचे और उनसे प्रार्थना करके गवाही देने के लिए कहा। पेड़ में से आवाज आई, “मेरे नीचे गड्ढे में दबा धन धर्मबुद्धि ने चुराया है।” सब पेड़ को बोलते देख कर बड़े आश्चर्य चकित थे।
दरअसल पापबुद्धि ने पहले ही पेड़ के खोंखले तने में अपने पिता को छुपा दिया और उनसे समझा दिया कि जब चोर के बारे में पूछा जाए तो धर्मबुद्धि का नाम ले लेना। पेड़ के तने के अंदर से उसके पिता ही बोल रहे थे।
और पोल खुल गई
धर्मबुद्धि ने धन नहीं चुराया था, पेड़ को झूठ बोलते देख वहा बड़ा मायूस हुआ। तभी उसके पिता ने उसके कान में कुछ कहा।
धर्मबुद्धि ने पेड़ में आग लगा दी।
पेड़ धूं- धूं करके जलने लगा। तभी उसके तने के कोटर में से पापबुद्धि के पिताजी “बचाओं-बचाओं” चिल्लाते हुए बाहर निकले। वे आग से झुलस गए थे। उन्होंने बाहर आ कर वनदेवता के साक्षी की योजना की सारी बात बात दी।
पापबुद्धि की सारी पोल खुल गई थी। पंचायत ने पापबुद्धि से धर्मबुद्धि का धन वापस दिलवाया और उसे उसी पेड़ पर लटका के फांसी की सजा दे दी।
पापबुद्धि को सजा देते हुए न्यायाधीशों ने कहा किसी भी कार्य के लिए उपाय करने से पहले उससे होने वाले फायदे के साथ-साथ ही उससे होने वाले नुकसान के बारें में भी सोच लेना चाहिए, नहीं तो मूर्ख बगुले की तरह स्वयं के साथ-साथ अपने रिश्तेदारों का भी सर्वनाश करवाना पड़ सकता है।
धर्मबुद्धि ने कहा, “वह कैसे?”
तब न्यायाधीशों ने धर्मबुद्धि को बगुले, काले साँप, नेवले और केकड़े की कथा – मूर्ख बगुला और केकड़ा सुनाई।
सीख
- जो औरों के लिए जाल बिछाते है वे खुद ही अपने जाल में फँस जाते है। कहावत भी है जो दूसरों के लिए खड्डा खोदते है वे खुद उसी में गिर जाते है।
- झूंठ बोलने वाला कितना ही चालाक क्यों ना हो हमेशा सत्यवादी की ही जीत होती है। इसलिए कहते है, “सत्यमेव जयते”।
पिछली कहानी – चिड़िया और बंदर
तो दोस्तों, कैसी लगी पंचतंत्र की कहानियों के रोचक संसार में डुबकी। मजा आया ना, तो हो जाइए तैयार, लगाने के लिए अगली डुबकी, .. .. .. ..
अगली कहानी – मूर्ख बगुला और केकड़ा
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