यमराज और अभिमानी मूर्तिकार – Abhimaani Murtikaar
सुनी-अनसुनी कहानियां – यमराज और अभिमानी मूर्तिकार – Abhimaani Murtikaar – Arrogant Sculptor
अभिमानी मूर्तिकार एक ऐसे मूर्तिकार की कहानी है, जिसे अपनी कला का इतना धमंड हो गया था कि उसने भगवान् को भी धोखा देना चाहा।
मेरी कला तुम्हारी
कौशलपुर नगर में केशवदत्त नमक एक मूर्तिकार रहता। वह बहुत ही सुन्दर मूर्तियाँ बनाता था। उसकी मूर्तियाँ खरीदने के लिए दूर-दूर से लोग आते थे। उसकी मूर्तियाँ देख कर कोई भी उन्हें सराहे बिना नहीं रह सकता था।
उसका एक पुत्र था, कलाधर। केशवदत्त उसे भी एक सफल मूर्तिकार बनाना चाहता था। इसलिए बचपन से ही उसने उसे मूर्तियाँ बनाना सिखाना शुरू कर दिया था। वह अपने पुत्र को मूर्ति बनाने कि हर बारीकी समझाता था और कलाधर भी अपने पिता की सिखाई बातों पर पूरा अमल करता।
समय के साथ कलाधर सोलह वर्ष का हो गया, उसने अपने पिता कि तरह ही मूर्तियाँ बनाने में महारत हासिल कर ली थी। उसकी मूर्तियाँ सजीव सी जान पड़ती थी जैसे बस अभी बोल पड़ेगी। अब तो दोनों पिता-पुत्र कि मूर्तियों की प्रसिद्धि और दूए-दूर तक फैल गई।
पिता की मृत्यु और शिक्षा
केवल सामान्य लोग ही नहीं, राजा महाराजा तक उनसे मूर्तियाँ बनवाने लगे। लेकिन समय किसी के लिए नहीं रुकता। एक बार केशवदत्त बहुत बीमार पड़ गया। कलाधर ने अपने पिता का बहुत इलाज करवाया और बहुत सेवा की। लेकिन केशवदत्त कि बीमारी बढती ही गई।
एक दिन कलाधर अपने पिता केशवदत्त की सेवा कर रहा था तो उसने कलाधर से कहा, “पुत्र, लगता है, अब मेरा अंत समय नजदीक आ गया है। इसलिए मैं तुम्हे तीन बातें बताना चाहता हूँ जिन्हें तुम कभी मत भूलना और सदा उनका पालन करना।”
“पहली ये कि कला का कोई सर्वोच्च शिखर नहीं होता है। उसमे सदा और निखरने का गुण होता है इसलिए सदा अपनी कला को निखारते रहना। दुसरे कभी अपनी कला पर अभिमान मत करना। और तीसरे यदि कोई तुम्हारी कला में कोई दोष निकाले टी उसका कभी बुरा मत मानना। बल्कि अपनी कला में से उस दोष को दूर करने का प्रयत्न करते रहना।” इतना कहकर केशवदत्त ने अपनी आँखें सदा के लिए मूंद ली।
ईमानदार सच्ची कला
कलाधर अपने पिता कि मृत्यु से बहुत दुखी हो गया था, लेकिन जल्द ही वह संभल गया। अपने पिता की सीख पर अमल करते हुए अपनी कला को निखारता रहा। वह अपनी कला में इतना माहिर हो गया था कि वह हुबहू किसी की भी ऐसी मूर्ति बना देता था कि वह सजीव ही प्रतीत होती थी।
कोई भी सजीव और निर्जीव मूर्ति में फर्क नहीं कर पाता था। सभी उसकी बहुत प्रशंसा करते। दूर-दूर से लोग उसकी कला कि तारीफ सुनकर आते और उससे मूर्तियाँ बनवाते। एक बार एक साधू भी वहां आया और उसकी बनी मूर्तियाँ देखकर उसने उससे अपने आराध्य कृष्ण के माखन खाते हुए मूर्ति बनाने के लिए कहा।
मूर्तिकार ने उनसे पंद्रह दिन का समय मांगते हुए पंद्रह दिन बाद आने को कहा | कलाधर ने पूरी निष्ठा और प्रेम से मूर्ति बनाई। पंद्रह दिन में मूर्ति बनकर तैयार थी, मूर्ति ऐसे लग रही थी जैसे कि भगवान् कृष्ण सच में माखन खा रहे हों।
जो भी उसे देखता उसकी तारीफ लिए बिना नहीं रहता। कई लोगों ने वह मूर्ति मुंह मांगे दामों में खरीदना भी चाहि लेकिन कलाधर ने उन्हें विनम्रता से मना कर दिया और कहा कि ये मूर्ति मैंने एक साधू महाराज के लिए बनाई है और मैं यह उन्हीं को दूंगा।
साधू का आशीर्वाद
नियत समय पर साधू महाराज मूर्ति को लेने आ गए। मूर्ति को देखकर वे बहुत प्रसन्न हुए और कलाधर से कहा, “कलाधर ऐसा लग रहा है जैसे साक्षात् कृष्ण माखन खाने धरती पर आ गए हो |” कलाधर ने उन्हें वह मूर्ति दे दी।
जब साधू महाराज उसे उसका पारिश्रमिक देने लगे तो वह बोला, “नहीं, साधू महाराज मुझे आपसे कोई पारिश्रमिक नहीं चाहिए। आप तो बस मुझे अपना आशीर्वाद दे दें।” साधू उसकी सह्रदयता देखकर बहुत प्रसन्न हुए और उसको आशीर्वाद देते हुए कहा, “मैं तुम्हे आशीर्वाद देता हूँ कि तुम देवताओं को देख सकोगे और उनकी वाणी सुन सकोगे।” उसको आशीर्वाद देकर साधू महाराज वहां से चले गए।
कला का अभिमान और देव वाणी
समय बीतता रहा कलाधर अपनी कला में और निपुण होता रहा। लोग उसकी तारीफ़ करते हुए कहते कि कलाधर कि बनने मूर्तियों में तो खुद ईश्वर भी दोष नहीं निकाल सकते।” लेकिन लोगों की तारीफे सुन-सुनकर उसे अभिमान हो गया।
उसे लगने लगा कि उसकी मूर्तियों में तो कोई दोष हो ही नहीं सकता। वह अपने पिता कि सीख भूल गया। एक रत को वह सो रहा था तब उसे अपनी खिड़की पर कोई आवाज सुनाई दी। वह उठकर खिड़की पर आया, उसने देखा वहां दो यमदूत खड़े थे और वे आपस में बाते कर रहे थे।
उनमें से एक यमदूत ने कहा, “आज तो हम कलाकार के सामने वाले घर के व्यक्ति के प्राण ले जा रहे। लेकिन ठीक दस दिनों के बाद हमें फिर यहाँ आना पड़ेगा।” दुसरे यमदूत ने कहा, “हाँ, तुम ठीक कहते हो, आज से ठीक दस दिन बाद रात आठ बजे कलाधर की आयु पूरी हो जायेगी और हम उसके प्राण लेने के लिए फिर यहाँ आयेंगे।” इतना कहते हुए यमदूत वहां से चले गए।
भगवान को धोखा
उनके जाने के बाद तो जैसे कलाधर कि नींद और चैन सब उड़ गया। उसे पता चल गया था कि दस दिन बाद उसकी मृत्यु होने वाली है | वह मरना नहीं चाहता था। इसलिए उसने एक युक्ति लगाईं। वह तुरंत अपनी मूर्ति बनाने में जुट गया।
रात दिन एक करके उसने अपनी पाँच मूर्तियाँ बना ली जो हुबहू उसके जैसी थी। जब उसकी मृत्यु का समय आया और यमदूत उसे लेने आ गए तब वह उन मूर्तियों के बीच सांस रोककर खड़ा हो गया। यमदूत अचरज में पढ गए।
कलाधर के प्राण लेने का समय हो गया था, लेकिन वे पहचान ही नहीं पा रहे थे कि असली कलाधर कहाँ खड़ा है। कलाधर अपनी सांसों पर नियंत्रण करके मूर्ति सामान खड़ा था। काफी देर तक मूर्तियों को बड़े गौर से देखने के बाद भी मूर्ति और सजीव कलाधर में फर्क नहीं कर पा रहे थे।
अभिमान की कीमत
तभी एक यमदूत को एक उपाय सूझा उसने दूसरे यमदूत को इशारा करते हुए कहा, “कलाधर ने अपने जसी हुबहू मूर्तियाँ बनाई है लेकिन एक मूर्ति एक कमी है। इसकी दाई आँख बाई आँख से छोटी है।” दूसरे यमदूत ने उसकी हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा, “हाँ, तुम ठीक कह रहे हो। एक मूर्ति कि दोनों आँखों में फर्क है।”
कलाधर को अपनी कला में दोष सुनने कि आदत नहीं थी और वह अपने पिता कि सीख भी भूल गया था। उसे अपनी कला में दोष निकलना सहन नहीं हुआ और तपाक से बोला, “ऐसा हो ही नहीं सकता, मेरी कला में कोई कमी नहीं हो सकती। बताओ कौनसी मूर्ति की आँखों में फर्क है।” उसके इतना कहते ही यमदूतों को असली कलाधर का पता चल गया और वे उसके प्राण लेकर यमलोक चले गए।
सीख
हमें कभी अभिमान नहीं करना चाहिए। हममें अपने दोषों को सुनने कि शक्ति होनी चाहिए जिससे हम अपनी कमियों को दूर कर सकें ।
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तो दोस्तों, “कैसी लगी ये रीत, कहानी के साथ-साथ मिली सीख”! आशा करती हूँ आप लोगों ने खूब enjoy किया होगा। फिर मिलेंगे कुछ सुनी और कुछ अनसुनी कहानियों के साथ। तब तक के लिए इजाजत दीजिए।
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