देवी अरुंधती की कहानी – Devi Arundhati Ki Kahani
पौराणिक कहानियाँ – हिन्दू धर्म की महान नारियां – देवी अरुंधती की कहानी – Devi Arundhati Ki Kahani – The Story of Devi Arundhati
आखिर कैसे मिला एक नारी को आकाश में तारे का स्थान?
दोस्तों, आपने अरुंधती तारे के बारे में जरूर सुना होगा। अरुंधती तारा सप्तऋषि मंडल में ऋषि वशिष्ठ तारे के पास में स्थित होता है। मान्यता है, जो भी विवाहित युगल अरुंधती तारे का एक साथ दर्शन करते है उनका वैवाहिक सम्बन्ध सुख से गुजरता है।
उनके वैवाहिक जीवन में आने वाली सभी परेशानियाँ दूर हो जाती है। आज मैं आपको उसी अरुंधती तारे की कहानी बताने जा रही हूँ :-
प्रभु ब्रह्म देव की मानस पुत्री संध्या (जिसमे सूर्य का तेज और चन्द्रमा की शीतलता का अद्भूत समन्वय हो), जो ज्ञान में अपने पिता ब्रह्मा तथा माता देवी सरस्वती के सामान ही थी। लेकिन अपने ज्ञान को जाग्रत करने के लिए वे अपने पिता की आज्ञा से अपने लिए एक योग्य गुरु की तलाश कर रही थी।
तभी वे ऋषि वशिष्ठ (नारायण के सामान तेजस्वी, ब्रह्म देव के सामान वैदिक ज्ञान के ज्ञाता और सादगी में शिव के सामान होते हुए भी दिव्यता के सागर) के आश्रम में पहुँच गयी।
ऋषि वशिष्ठ उस समय ध्यान में थे उन्होंने उन्हें प्रणाम कर उनके समक्ष उनकी शिष्य बनने का निवेदन किया जिसे ऋषि वशिष्ठ ने स्वीकार कर लिया। ऋषि वशिष्ठ ने उन्हे तप, ध्यान, धैर्य और कर्म का ज्ञान दिया।
ऋषि वशिष्ठ से शिक्षा प्राप्त करते करते संध्या उनकी दिव्यता, ज्ञान और तेज से प्रभावित हुए बिना ना रह सकी और उनके मन में सदा ऋषि वशिष्ठ के समीप रहकर उनके ज्ञान सागर से ज्ञान अर्जित करने और उनकी सेवा करने के लिए उनकी अर्धांगिनी बनने की इच्छा जाग्रत हो गई।
लेकिन गुरु शिष्य धर्म इसकी इजाजत नहीं देता था। इसलिए वे ऋषि वशिष्ठ को अपने पति रूप में पाने के लिए भगवन विष्णु की तपस्या करने लगीं।
पहले उन्होंने अन्न का त्याग किया और पेड़ो के पत्ते खाने लगी और बाद में तो उन्होंने उनका भी त्याग कर दिया और बिना गर्मी, सर्दी और बरसात की परवाह किये वे तप करती रहीं।
तपस्या करते हुए उन्हें अनेकों वर्ष बीत गए, यहाँ तक कि अब वे दुर्बल हो कर एक कंकाल के सामान हो गईं और तब विष्णु भगवान ने उन्हें दर्शन दिए और उन्होंने उन्हें दिव्य ज्ञान, दिव्य वाणी और दिव्य दृष्टि का वरदान देते हुए उनसे वरदान मांगने के लिए कहा।
संध्या ने ऋषि वशिष्ठ को पति रूप में प्राप्त करने का वरदान माँगा। तब भगवान् विष्णु ने कहा कि ऋषि वशिष्ठ उन्हें पति रूप में जरूर मिलेंगे लेकिन इसके लिए उन्हें दूसरा जन्म लेना होगा।
भगवान विष्णु संध्या की तपस्या से इतने प्रसन्न थे कि उन्होंने उन्हें तीन वरदान और मांगने के लिए कहा। तब संध्या ने उनसे पहले वरदान में यह माँगा कि संसार का प्रत्येक मनुष्य अपने जन्म से लेकर बाल्यकाल तक काम भावना से रहित रहे।
दुसरे वरदान में उन्होंने माँगा कि मैं अपने पति के सिवा किसी भी अन्य पुरुष को काम भावना से ना देखूं और यदि कोई पर पुरुष मेरी और कुदृष्टि से देखने का प्रयत्न करे तो वो सदा के लिए काम भावना से रहित हो जाए।
तीसरे वरदान के रूप में उन्होंने अपने लिए अखंड पतिव्रत धर्म और अखंड सुहाग माँगा। भगवान् विष्णु ने “तथास्तु” कहकर उन्हें तीनों वरदान प्रदान कर दिए।
तब संध्या ने भगवान् विष्णु से कहा, “जब ऋषि वशिष्ठ उन्हें अगले जन्म में पति रूप में प्राप्त होंगे तो अब इस जीवन का मेरे लिए कोई महत्व नहीं है इसलिए मुझे अपने प्राण त्यागने की अनुमति दीजिये।“
तब भगवान् विष्णु ने कहा, “इतने कठोर तप के कारण आपकी आत्मा के साथ साथ आपका ये शरीर भी दिव्य हो गया है जिसे सरलता से त्यागा नहीं जा सकता और वैसे भी केवल परमार्थ के लिए ही अपनी इच्छा से शरीर का त्याग किया जा सकता है। यहाँ पास ही में ऋषि मेधातिथि अपने आश्रम में बारह वर्षो से पुत्री प्राप्ति के लिए यज्ञ का रहे है। आपको यज्ञ के हविश के रूप में अपनी आहुति देनी होगी जिससे आप उनकी पुत्री के रूप में नया जन्म ले सके और उनकी पुत्री की कामना पूर्ण हो सके।“
भगवान् विष्णु की आज्ञानुसार संध्या ने अपने शरीर को ऋषि मेधातिथि के यज्ञ के हविश के रूप में परिवर्तित कर दिया और ऋषि मेधातिथि उसी हविश से यज्ञ में आहुति दी।
किसी भी यज्ञ में दी जाने वाली आहुति के दो भाग होते है जिसमे से एक देवताओं को प्राप्त होता है और दूसरा पित्तरों को। आहुति के रूप में देवी संद्य भी दो भागों में बाँट गई।
देवताओं के भाग को सूर्य देव ने अपने रथ के ऊपरी भाग पर स्थापित किया और वह प्रातः संध्या बनी और पित्तरों वाले भाग को सूर्यदेव ने अपने रथ के निचले हिस्से में स्थापित किया और वह संयम संध्या बनी और जगत को पूजा के श्रेष्टतम कालों (समय) की प्राप्ति हुई।
मान्यता है कि प्रातः संध्या और संयम संध्या काल में किये गए धार्मिक कार्यों का श्रेष्टतम फल प्राप्त होता है।
ऋषि मेधातिथि द्वारा संध्या के शरीर से बने हविश की आहुति देने के तुरंत बाद यज्ञ कुण्ड से एक कन्या प्रकट हुई जिसका नाम उन्हीने अरुंधती रखा अर्थात अग्नि से उत्पन्न और अग्नि के सामान पवित्र।
ये संध्या का दूसरा जन्म था।
जब अरुंधती बाल्यकाल में ही ऋषि मेधातिथि ब्रह्मदेव की आज्ञानुसार उन्हें सूर्यलोक ले गए जहाँ उन्हें त्रिदेवियों के सानिध्य में धर्म, कर्म, सोलह कलाओं, संस्कारों व पातिव्रत्य धर्म की शिक्षा मिली। और जब वे अपनी यौवनावस्था में पंहुची तो उनका विवाह ऋषि वशिष्ठ से तय हो गया।
जहाँ एक और त्रिदेवियों ने देवी अरुंधती का श्रृंगार किया तो दूसरी और त्रिदेवों ने जल से ऋषि वशिष्ठ का अभिषेक किया जिसके फलस्वरूप जगत को गोमती, शिप्रा, महानदी और सरयू आदि नदियाँ प्राप्त हुई। तत्पश्चात ऋषि वशिष्ठ और देवी अरुंधती का विवाह सम्पन्न हो गया।
आशीर्वाद स्वरुप ब्रह्मदेव ने उन्हें सूर्यदेव के सामान प्रकाशमान और त्रिलोक में कहीं भी जा सकने वाला विमान, भगवान् विष्णु ने उन्हें जगत में सबसे ऊँचा स्थान प्राप्त करने का वरदान तो शिवजी ने ऋषि वशिष्ठ की सात कल्पों की आयु प्रदान की।
विवाह के पश्चात ऋषि वशिष्ठ और देवी अरुंधती अपने आश्रम में लौट आये और सुख से अपना जीवन व्यतीत करने लगे। देवी अरुंधती पूरी श्रद्धा से अपने पतिव्रत धर्म का पालन करती थी जिसके कारण उनकी प्रसिद्धि तीनों लोको में फैल गई थी।
जिस कारण त्रिदेवों ने उनकी परीक्षा लेने की सोची और उनके आश्रम में पहुँच गए उस समय ऋषि वशिष्ठ अपने आश्रम में नहीं थे।
उस समय देवी अरुंधती अपने पति के लिए जल लेने के लिए जा रही थी तो उन्होंने त्रिदेवों से जल लाने तक प्रतीक्षा करने के लिए कहा तो शिवजी ने कहा कि हम इस पात्र को भर देते है और तीनों ने उस पात्र को जल से भरने का प्रयत्न किया लेकिन वह पात्र खाली ही रहा।
बार-बार प्रयास करने पर भी जब वह पात्र नहीं भर पाए तो उन्होंनें देवी अरुंधती से उस पात्र को अपनी शक्ति से भरने के लिए कहा तब देवी अरुंधती ने अपनी पतिव्रत धर्म की शक्ति से उस पात्र को पूरा भर दिया। तब त्रिदेवों ने उनसे शिष्य रूप में में स्वीकार करने का अनुरोध किया जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया।
इसी तरह समय व्यतीत होता रहा। एक बार ऋषि वशिष्ठ ऋषि अपने आश्रम की साड़ी जिम्मेदारी देवी अरुंधती पर छोड़ अन्य सप्तऋषियों कश्यप, ऋषि अत्री, ऋषि विश्वामित्र, ऋषि गौतम, ऋषि जमदग्नि और ऋषि भरद्वाज के साथ हिमालय पर तपस्या करने के लिए चले गए।
उनके जाने के कुछ समय बाद ही उस क्षेत्र में एक महाअकाल पड़ा चारों और जल और अन्न की कमी हो गई। जीव जंतु और प्राणी बिना अन्न-जल के अपने प्राण त्यागने लगे तो देवी अरुंधती ने महाकाल के समाप्त होने तक तप करने का प्रण लेते हुए तप प्रारम्भ कर दिया।
उन्हें तप करते हुए कुछ समय ही बीता था कि भगवान् शिव उनकी परीक्षा लेने के एक बूढ़े ब्राह्मण का वेश धर कर उनके आश्रम में आये और उनसे अन्न और जल माँगा।
लेकिन देवी अरुंधती अपने तप में लीन थी। जब बूढ़े ब्राह्मण के कई बार कहने के बावजूद भी देवी अरुंधती का ध्यान नहीं टूटा तो वह जाने को मुड़ा तभी अरुंधती ने अपना प्रण तोड़कर अपनी तपस्या भंग कर दी और उन्हें ससम्मान बैठने के लिए आसन प्रदान किया और कहा, “क्षमा कीजिये ब्राह्मण देवता मैं ताप में लीं थी मैंने महाकाल के समाप्त होने तक तप करने का प्राण लिया था इसलिए आपको इतनी प्रतीक्षा करनी पड़ी।”
तब ब्राह्मण ने कहा, “तो फिर तुमने मेरे लिए अपना तप क्यों भंग किया ?” देवी अरुंधती ने कहा, “है ब्राह्मण देव, यदि आप इस आश्रम से ऐसे भूखे ही लौट जाते तो मेरा तप तो वैसे ही भंग हो जाता। कोई भी तप किसी के प्राणों से बड़ा नहीं हो सकता।
मैं अभी आपके लिए कुछ खाने का प्रबंध करती हूँ।” इतना कहकर वह कुटियाँ में चली गई लेकिन आश्रम में कुछ बदरी के बीजों के आलावा कुछ भी नहीं था। बाहर आकर उन्होंने ब्राह्मण से कहा, “हे ब्राह्मण देव, इस समय आश्रम में इन थोड़े से बद्री के बीजों के अलावा खाने के लिए और कुछ भी नहीं है।” तब ब्राह्मण रूपी शिवजी ने उन्हें उन बीजों को पका कर देने के लिए कहा।
तो अरुंधती ने वे बीज पकाने लगी तो ब्राह्मण रूपी शिवजी ने कहा, “भगवान भी कितने विचित्र है, वे अपने भक्तों को कितना कष्ट देते है, कभी अकाल तो कभी भूकंप, कभी अतिवृष्टि तो कभी महामारी। उन्हें अपने भक्तों की जरा भी परवाह नहीं है।
अरुंधती ने कहा, “नहीं ब्राह्मण देव, प्रभु तो दयानिधान है, उनकी लीलाओं का रहस्य हम मंदबुद्धि प्राणी नहीं समझ पाते। जैसे यह बीज अग्नि में भुनकर ही खाने योग्य बनता ही उसी प्रकार भगवान भी हमें कष्ट देते है जिससे हममें कष्टों को सहन करने की शक्ति उत्पन्न हो और हम हमारे रस्ते में आने वाली प्रत्येक बाधा को पार कर अपने हर उद्देश्य में सफल हो सकें।
और इसी तरह देवी अरुंधती ब्राह्मण को धर्म-कर्म की बाते बताने लगी।
देवी अरुंधती बारह वर्षों तक धर्म-कर्म की व्याख्या करती रहीं उन्हें समय का कुछ ध्यान ही नहीं रहा और ब्राह्मण वेशधारी शिवजी भी उनके ज्ञान की गंगा में गोते लगाते रहे और गान के मोती बटोरते रहे। इन बारह वर्षों में अकाल भी समाप्त हो गया।
ऋषि वशिष्ट भी अपना तप पूर्ण कर अपने आश्रम में लौट आये। जब ऋषि वशिष्ट ने आकर देवी अरुंधती को पुकारा तब उनकी तन्द्रा भंग हुई।
तब भगवान् शिव भी अपने असली रूप में प्रकट हुए और उन्होंने देवी अरुंधती को अपने को दिए ज्ञान की गुरुदाक्षिणा के रूप में ऋषि मंडल में ऋषि वशिष्ट के समीप एक तारा बनने का वरदान दिया और कहा कि जो भी विवाहित युगल अरुंधती तारे का एक साथ दर्शन करेगा उनका वैवाहिक सम्बन्ध बहुत ही सुख से गुजरेगा और उनके वैवाहिक जीवन में आने वाली सभी परेशानियाँ दूर हो जाएगीं।
इस तरह अपने ज्ञान और जीव जंतुओं व प्राणियों के जीवन की रक्षा करने के महान उद्देश्य के कारण देवी अरुंधती को एक तारे का स्थान प्राप्त हुआ।
तो दोस्तों कैसा लगा एक नारी का तारे तक का सफर, उम्मीद है पसंद आया होगा।
अब एक छोटा सा काम आपके लिए भी, अगर यह कहानी आपको अच्छी लगी हो, तो इस पेज को Bookmark कर लीजिये और सोशल मीडिया जैसे Facebook, Twitter, LinkedIn, WhatsApp (फेसबुक टि्वटर लिंकडइन इंस्टाग्राम व्हाट्सएप) आदि पर अपने दोस्तों को शेयर कीजिए।
अपनी राय और सुझाव Comments Box में जरूर दीजिए। आपकी राय और सुझावों का स्वागत है।