देवी सुमति की कहानी – Devi Sumati Ki Kahani
पौराणिक कहानियाँ – हिन्दू धर्म की महान नारियां – देवी सुमति की कहानी – Devi Sumati Ki Kahani – The Story of Devi Sumati
पतिव्रता नारियों में देवी सुमति का नाम बड़ी ही श्रद्धा से लिया जाता है। उनका पातिव्रत धर्म और पति प्रेम अतुलनीय है।
उनके जैसा प्रेम, त्याग और समर्पण का उदाहरण विरले ही देखने को मिलता है जिन्होंने अनेकों कष्ट सहते हुए भी अपने पातिव्रत धर्म और दृढ़ संकल्प से त्रिदेवों को भी अपने सामने झुकने के लिये विवश कर दिया था।
आज मैं आपको उन्हीं देवी सुमति की कथा सुनाने जा रही हूँ।
देवी सुमति का वैवाहिक जीवन
देवी सुमति का विवाह एक अत्यंत ही रूपवान और समृद्ध युवक उग्रश्रवस्त से हुआ था। उग्रश्रवस्थ बाहर से जितने रूपवान और दिव्य थे अंदर से उनका मन उतना ही मलीन था। वे अपने आगे सुमति को कुछ भी नहीं समझते थे और सदा उनकी अवहेलना करते रहते थे।
उन्हें अपनी समृद्धि और रूप पर बड़ा मान था। लेकिन उनमें कई तरह के विकार भी थे। वे हमेशा रात को नृत्यांगनाओं का नृत्य देखने जाते और पूरी रात वहीं रहते, मदिरा पान करते और सुबह मदहोश होकर घर पर आते।
इतना सब होते हुए भी देवी सुमति अपने पति से बहुत प्रेम करती थी। वे पूरे समर्पण भाव व श्रद्धा से अपने पति की सेवा करती रहती।
उनका मानना था कि एक दिन अपने प्रेम, समर्पण और सेवा से अपने पति को सभी विकारों से मुक्त कर देगी।
उग्रश्रवस्त के पापों की सजा
लेकिन समय बीतने के साथ-साथ उग्रश्रवस्त के विकारों में कमी होने की जगह वृद्धि ही होती गयी। यहाँ तक कि वे देवी सुमति पर हाथ भी उठाने लगे।
इसी तरह काफी समय बीत गया, उग्रश्रवस्त को अपने किये गए पापों की सजा मिली और उन्हें एक असाध्य रोग हो गया और उनका धन, पद और रूप सब उनसे छीन गए। उनके पूरे शरीर पर फोड़े-फुंसी और घाव हो गए।
वह चलने फिरने में भी असमर्थ हो गए।
देवी सुमति की पति सेवा
उनका शरीर ऐसा हो गया जिसे देखते ही घिन्न आती थी। लेकिन इतना सब होने के बाद भी देवी सुमति पूर्ण निष्ठा और प्रेम से अपने पति की सेवा करती रही। वें उनके घावों पर मलहम लगाती उन्हें अपने हाथों से खाना खिलाती।
लेकिन उग्रश्रवस्त में फिर भी कोई सुधार नहीं आया बल्कि अब तो उनके जुल्म और बढ़ गए थे। अपने दर्द और कुंठा के कारण उनके व्यवहार में निरंतर क्रूरता बढ़ती रही। लेकिन वे उन्हें जितना दुत्कारते देवी सुमति उतनी ही निष्ठा से उनकी सेवा करती।
कभी कभी देवी सुमति की सेवा और निष्ठां देख कर उनके मन में देवी सुमति के प्रति अच्छे विचार भी आते। एक बार उन्होंने देवी सुमति से पूछा, “मैं तुम्हें इतना दुत्कारता हूँ, इतना परेशान करता हूँ, उसके पश्चात भी तुम मेरी इतनी सेवा क्यों करती हो?”
देवी सुमति ने कहा, “नाथ में आपकी अर्धांगिनी हूँ आपकी सेवा करना मेरा धर्म और कर्तव्य है। यदि मैं ऐसा नहीं करूँगी तो मैं पाप की भागी बनूँगी।”
उग्रश्रवस्त ने गुस्से से कहा, “अच्छा तो तुम पाप के डर से मेरी सेवा करती हो तम्हें मुझसे प्रेम नहीं हैं। मुझे तम्हारी सेवा की कोई आवश्यकता नहीं तुम अभी मुझे छोड़ कर चली जाओं।”
देवी सुमति की पति भक्ति
देवी सुमति ने कहा, “नहीं स्वामी आप मुझे अपनी सेवा से वंचित न करें। मैं आपसे बहुत प्रेम करती हूँ। मैं आपकी प्रसन्नता के लिए कुछ भी कर सकती हूँ।”
तब उग्रश्रवस्त ने कहा, “मेरी प्रसन्नता तुम्हारे साथ रहने में नहीं बल्कि मदिरा पान करने और नृत्यांगनाओं का नाच देखने में है। क्या तुम मुझे प्रत्येक रात्रि नृत्यांगनाओं के पास ले जा सकती हो?”
तब देवी सुमति ने कहा, “यदि आपको नृत्यांगनाओं के पास जाने से ही खुशी मिलती है तो मैं आपकी खुशी के लिये आपको रोज नृत्यांगनाओं के पास लेकर जाऊँगी।”
उसके बाद से देवी सुमति ने बांस की एक टोकरी में उग्रश्रवस्त को बैठाकर अपने कंधे पर लाद कर रोज नृत्यांगनाओं के पास ले जाने लगी। रोज रात्रि को वह उग्रश्रवस्त को नृत्यांगनाओं के पास ले जाती और सुबह होने पर वापस लेकर आ जाती।
यहां तक कि कई नृत्यांगनाओं ने उग्रश्रवस्त के शरीर के घावों के कारण उसे अपनी नृत्यशाला से निकाल बाहर भी किया और कहा कि आगे से इस कुरूप और घिनौने व्यक्ति को यहां मत लेकर आना।
लेकिन फिर भी अपने पति की प्रसन्नता के लिए देवी सुमति रोज उसे अपनी पीठ पर बैठाकर नृत्यांगनाओं के पास ले जाती। इस कार्य को करते करते देवी सुमति के पावों और कंधों पर जख्म हो गए। उसका चलना भी मुश्किल हो गया, लेकिन फिर भी उन्होंने अपना कर्म नहीं छोड़ा।
एक दिन वह इसी तरह अपने पति को अपनी पीठ पर बिठाकर नृत्यशाला लेकर गयी। लेकिन नृत्यांगनाओं ने उग्रश्रवस्त को अपमानित करके अपनी नृत्यशाला से बाहर पटक दिया।
ऋषि मांडव का का श्राप
देवी सुमति उग्रश्रवस्त को अपनी पीठ पर बैठाकर वापस घर लेकर आने लगी। उग्रश्रवस्त उसे वापस नृत्यशाला ले जाने की जिद करने लगा और और जोर जोर से अपने पांवों को इधर उधर हिलाने लगा।
एक ओर तो देवी सुमति के कंधों और पावों में पहले से हो जख्म हो रहे थे और दूसरी ओर उग्रश्रवस्त हिल-हिलकर उनका दर्द और बढ़ा रहा था।
लेकिन फिर भी वे धीरे धीरे चलती रही। इसी आपा-धापी में उग्रश्रवस्त का पैर एक चींटियों के घर से टकरा गया और वह भरभरा कर टूट गया। वास्तव में वह चींटियों का घर नहीं था। वहाँ पर तो ऋषि मांडव वर्षों से तपस्या कर रहे थे और उनके ऊपर चींटियों ने अपना घर बना लिया था।
उग्रश्रवस्त का पैर टकराने और चींटियों का घर टूटने से ऋषि मांडव का तप भंग हो गया। जिससे वे क्रोधित हो गए और उन्होंने तुरंत ही उग्रश्रवस्त को श्राप दे दिया, तुमने अकारण मेरा तप भंग किया है, आज जब सूरज की पहली किरण धरती को स्पर्श करेगी, तुम्हारे प्राण यमलोक सिधार जाएंगे।
ऋषि का श्राप सुनकर उग्रश्रवस्त ऋषि से क्षमा मांगना तो दूर देवी सुमति पर ही चिल्लाने लगा, तुम इसीलिए मझे इस रास्ते से लाई थी जिससे तुम्हे मुझसे छुटकारा मिल जाये।”
अपना श्राप लौटा लीजिये
लेकिन देवी सुमति तुरंत हाथ जोड़ते हुए ऋषि के चरणों मे गिर पड़ी और कहा, “ऋषिवर मेरे पति की भूल को क्षमा करने की कृपा करें और अपना श्राप वापस लौटा लीजिये। इसमें मेरे पति का कोई दोष नहीं है इन्हें तो मैं अपने कंधे पर लेकर चल रही थी।
मेरी ही असावधानी के कारण इनका पैर आपको लगा और आपकी तपस्या भंग हो गई इसलिए आपको दंड देना है तो मुझे दीजिये इन्हें क्षमा कर दीजिए। मुझे मेरे सुहाग लौटा दीजिये।”
लेकिन ऋषि ने कहा, “ये असंभव है मेरा श्राप कभी निष्फल नहीं हो सकता और यदि ये भूल तुमसे हुई है तो भी ये दंड तुम्हारे लिए बिलकुल सही है। किसी भी सुहागन स्त्री का सुहाग उजड़ जाना उसके लिए सबसे बड़ा दंड है। मैं अपना श्राप कदापि वापस नहीं लूंगा। मेरे वर्षों से अर्जित तपोबल से दिया श्राप तो स्वयं त्रिदेव भी नहीं काट सकते।”
तब देवी सुमति ने कहा, “यदि ऐसी बात है, तो मैं भी अपना सुहाग उजड़ने नहीं दूंगी।”
रोका सूर्यदेव का रथ
उन्होंने हाथ जोड़कर आकाश की तरफ देखते हुए कहा, “मैं सुमति अपने इतने वर्षों के पातिव्रत धर्म और अपने पति के प्रति किये गए कर्तव्य पालन से अर्जित अपने पुण्यों के आधार पर सूर्यदेव से ये प्रार्थना करती हूँ कि वे मेरे पति के प्राणों की रक्षा करने के लिए आज उदित ही न हो। आपको इस पतिपरायणा स्त्री के पातिव्रत धर्म की सौगंध है।”
सुमति के इतना कहते ही सूर्यदेव का रथ जहाँ था, वहीं रूक गया। इसके बाद सुमति अपने पति को लेकर अपनी कुटिया में आ गयी। कई दिन बीत गए सूर्यदेव उदित नहीं हुए।
सूर्यदेव के रुकने से सारे संसार मे त्राही-त्राही मच गई। सारे संसार मे ठंड बढ़ गई, भयंकर बर्फ पड़ने लगी, सारी स्रष्टि जमने लग गई। सारा संसार नष्ट होने के कगार पर आ गया। तब सभी देवों में हलचल हो गयी कि यदि सुर्यदेव उदित नहीं होंगे तो संसार नष्ट हो जाएगा।
सतीत्व की शक्ति
उन्होंने इंद्रदेव से इस समस्या का समाधान करने के लिए कहा। तब इंद्रदेव सूर्यदेव के पास गए और उन्हें उदित होने के लिए कहा।
लेकिन सुर्यदेव ने कहा कि उनमें इतनी शक्ति नहीं है कि एक पतिव्रता स्त्री की सोंगन्ध को तोड़ सके। इसके लिए आपको देवी सुमति से ही प्रार्थना करनी होगी कि वे मुझे अपनी सोंगन्ध से मुक्त कर दे।
तब इंद्रदेव देवी सुमति की कुटिया पर गए और उनसे बाहर आने के लिए कहा तो उन्होंने बाहर आने से मना कर दिया और इंद्रदेव थक हार कर वहां से चले गये।
त्रिदेव देवी सुमति के द्वार
तब सृष्टी की रक्षा हेतु त्रिदेव सुमति के द्वार पर पहुंच गए और उनसे बाहर आने के लिए याचना करने लगे। लेकिन तब देवी सुमति अपने पति की सेवा कर रही थी वे काफी देर तक बाहर नहीं आई।
उग्रश्रवस्त ने जब यह देखा कि देवी सुमति त्रिदेवों के बुलाने पर भी उनके समक्ष नहीं जा रहीं है।
उन्हें देवी सुमति के साथ किये अपने बुरे बर्ताव पर बहुत दुख और पश्चाताप हुआ। उधर ऋषि मांडव भी ये देख कर आश्चर्य चकित थे कि एक साधारण स्त्री के शब्दों में इतना तेज और प्रभाव कैसे हो सकता है।
उन्होंने ऐसा कौन-सा तप किया है जिसके कारण खुद त्रिदेव द्वार पर खड़े होकर उनसे याचना कर रहे है। जबकि मैंने तो इतनें वर्षों तक कठोर तप किया है तब भी मझे इनके प्रत्यक्ष दर्शन तक भी सुलभ नहीं हुए।
त्रिदेवों को भी झुकना होगा
जब बहुत देर होने पर भी त्रिदेव वापस नहीं गए तब देवी सुमति बाहर निकली और त्रिदेवों को प्रणाम किया। तब त्रिदेवों ने उन्हें आयुष्मती होने का आशीर्वाद दिया तब उन्होंने त्रिदेवों से सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद मांगा।
तब त्रिदेवों ने कहा, “ऋषि मांडव का दिया श्राप तो हम भी नहीं लौटा सकते। लेकिन हम जगत की रक्षा के लिए आपसे आपकी सौगंध वापस लेने का अनुरोध करते है।”
तब देवी सुमति ने कहा, “क्षमा कीजिये प्रभु मैं भी अपने पति के प्राणों की रक्षा के लिए अपनी सौगंध वापस नहीं ले सकती।“ तब त्रिदेवों ने उनसे कहा, “ क्या वे केवल अपने पति के प्राणों की रक्षा के लिए पूरे संसार को नष्ट होने देगी।”
देवी सुमति ने कहा, “प्रभु मेरा तो संसार ही मेरे पतिदेव ही है यदि वे ही नहीं रहे तो मेरे लिए तो संसार का होना या न होना एक बराबर है। इसलिए आप मुझे क्षमा कीजिये।” तब त्रिदेव भी वहाँ से चले गए।
सूर्यदेव के उदित ना होने के कारण संसार धीरे धीरे हिमखंड बनता जा रहा था। तब त्रिदेव देवी अनुसूया के पास गए और उनसे देवी सुमति को समझाने के लिए कहा।
देवी अनुसूया का सुरक्षा कवच
तब देवी अनुसूया देवी सुमति के पास गई और उन्हें विश्वास दिलाया कि वे सूर्यदेव को अपनी सौगंध से मुक्त कर दे वें उनके पति को कुछ नहीं होने देगी।
उन्होंने देवी सुमति की कुटिया के चारों और अपने तपोबल से एक सुरक्षा घेरा बना दिया। तब देवी सुमति ने सूर्यदेव को अपनी सौगंध से मुक्त कर दिया।
सुर्यदेव की पहली किरण निकलते ही यमराज उग्रश्रवस्त के प्राण लेने के लिए उनकी कुटिया पर पहुंच गए लेकिन देवी अनुसूया के सुरक्षा घेरे के कारण वे कुटिया में प्रवेश नहीं कर पाए।
यमराज की त्रिदेवों से प्रार्थना
तब यमराज ने त्रिदेवों से प्रार्थना करते हुए कहा, “है देव, यदि मैं उग्रश्रवस्त के प्राण नहीं ले सका तो एक ओर तो मेरा धर्म नष्ट हो जायेगा और दूसरी और ऋषि मांडव का श्राप भी निष्फल हो जाएगा”
यह सुनकर ऋषि मांडव ने कहा, “प्रभु क्या मेरे इतने वर्षों के तप से अर्जित किये तपोबल से दिए गए श्राप का कोई मूल्य नहीं ? फिर कोई क्यों तप करेगा और आपकी पूजा प्रार्थना करेगा।”
तब त्रिदेवों ने देवी अनुसूया से प्रार्थना की कि वें यमराज को उग्रश्रवस्त के प्राण लेने दें। तत्पश्चात अपने तपोबल से आप उन्हें पनर्जीवित कर देना।
जिससे ऋषि मांडव के श्राप का मान भी रह जाएगा और देवी सुमति के सुहाग की भी रक्षा हो जाएगी।
उग्रश्रवस्त को मिला जीवन दान
देवी अहिल्या ने अपना सुरक्षा कवच हटा दिया और यमराज ने उग्रश्रवस्त के प्राण ले लिए। उसके पश्चात देवी अहिल्या ने अपने तपोबल की शक्ति से उग्रश्रवस्त के प्राण वापस लौटा दिए और उनका रोग भी दूर हो गया।
उग्रश्रवस्त ने देवी अहिल्या को धन्यवाद दिया और देवी सुमति से अपने किये दुर्व्यवहार और दुष्कर्मों की माफी मांगी।
तब देवी सुमति ने कहा, “मुझे आपकी माफी नहीं आपका प्रेम चाहिए स्वामी ” तत्पश्चात वे दोनों त्रिदेवों के पास गए और उनसे आशीर्वाद लिया।
इस प्रकार देवी सुमति ने अपने पतिव्रत धर्म और पति के प्रेम की पराकाष्ठ से यह साबित कर दिया की एक पतिव्रता स्त्री त्रिदेवों को भी भी अपने समक्ष झुकने के लिए मजबूत कर सकती है।
उग्रश्रवस्त का पश्चाताप
उग्रश्रवस्त ने देवी अहिल्या को धन्यवाद देते हुए कहा आपका बहुत बहत धन्यवाद आपकी कृपा से मुझे नया जीवन दिया है और मेरा रोग भी दूर हो गया है।
तब देवी अहिल्या ने कहा कि यह मेरा चमत्कार नहीं बल्कि देवी सुमति की पतिपरायणता और पति के पार्टी अपने प्रेम और कर्तव्य परायणता से अर्जित पुण्यों का फल है।
तब उग्रश्रवस्त ने देवी सुमति से अपने किये दुर्व्यवहार की माफी मांगते हुए कहा, “मैं तो तुमसे माफी मांगने के भी योग्य नहीं। लेकिन हो सके तो मुझे मेरे दुष्कर्मों के लिए क्षमा कर दो।अब मैं तुम्हे कभी किसी प्रकार का कोई कष्ट नहीं दूंगा।
तब देवी सुमति ने कहा, “मुझे आपकी माफी नहीं, आपका प्रेम चाहिए स्वामी।” तत्पश्चात वे दोनों त्रिदेवों के पास गए और उनसे आशीर्वाद लिया।
तो दोस्तों देखा आपने कि पतिव्रत धर्म की ताकत से एक साधारण सी स्त्री त्रिदेवों को अपने समक्ष झुकाकर विधि के विधान को भी पलट सकती है।
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