Brihaspativar Vrat Katha – बृहस्पतिवार व्रत कथा
Brihaspativar Vrat Ki Vidhi – बृहस्पतिवार व्रत की विधि
इस व्रत में केले का पूजन करना चाहिए। कथा और पूजन के समय मन, कर्म और वचन से शुद्ध होकर मनोकामना पूर्ति के लिए बृहस्पति देव से प्रार्थना करनी चाहिए। मेरी इच्छाओं को बृहस्पति देव अवश्य पूर्ण करेंगे, ऐसा मन में दृढ़ विश्वास रखना चाहिए।
दिन में एक ही समय भोजन करना चाहिए। भोजन पीले चने की दाल आदि का करें, नमक ना खाएं, पीले वस्त्र पहने, पीले फलों का प्रयोग करें पीले चंदन से पूजन करें। पूजन के बाद प्रेम पूर्वक गुरु महाराज की कथा सुननी चाहिए।
इस व्रत को करने से मन की इच्छा पूर्ण होती है और बृहस्पति महाराज प्रसन्न होते हैं। धन, विद्या, पुत्र तथा मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है, परिवार में सुख तथा शांति रहती है। इसलिए यह व्रत सर्वश्रेष्ठ और अति फलदायक है।
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Brihaspativar Vrat Katha – बृहस्पतिवार व्रत कथा
प्राचीन समय की बात है कि भारत वर्ष में एक राजा राज्य करता था। वह बड़ा प्रतापी तथा दानी था। वह नित्य प्रति मंदिर में भगवन के दर्शन करने जाता था। वह ब्राह्मण और गुरु की सेवा किया करता था। उसके द्वार से कोई भी याचक निराश होकर नहीं लौटता था। वह प्रत्येक गुरुवार को व्रत रखता एवं पूजन करता था। हर दिन गरीबों की सहायता करता था। परंतु यह सब बातें उसकी रानी को अच्छी नहीं लगती थी। वह न व्रत करती और ना ही किसी को एक भी पैसा दान में दी थी। वह राजा से भी ऐसा करने को मना किया करती थी।
एक समय की बात है कि राजा तो शिकार खेलने वन को चले गए। घर पर रानी और दासी थी। उसी समय गुरु बृहस्पति साधु का रूप धारण कर राजा के दरवाजे पर भिक्षा मांगने आए। उन्होंने रानी से भिक्षा मांगी, तो उसने कहा, “हे साधु महाराज, मैं इस दान और पुण्य से तंग आ गई हूं। इस कार्य के लिए तो मेरे पतिदेव ही बहुत हैं। अब आप ऐसी कृपा करें कि यह सारा धन नष्ट हो जाए तथा मैं आराम से रह सकूं |”
साधु रूपी बृहस्पति देव ने कहा, “हे देवी, तुम तो बड़ी विचित्र हो संतान और धन से कोई दुखी नहीं होता है। इसको सभी चाहते हैं। पापी भी पुत्र और धन की इच्छा करता है। अगर तुम्हारे पास धन अधिक है तो भूखे मनुष्य को भोजन कराओ, प्याऊ लगाओ, ब्राह्मणों को दान दो, धर्मशालाएं बनवाओ, कुआँ,तालाब, बावड़ी, बाग-बगीचों आदि का निर्माण कराओ तथा निर्धनों की कुंवारी कन्याओं का विवाह कराओ। साथ ही यज्ञ आदि करो, इस प्रकार के कर्मों से आपके कुल का और आपका नाम परलोक में सार्थक होगा एवं स्वर्ग की प्राप्ति होगी।”
परंतु रानी साधु की इन बातों से खुश नहीं हुई। उसने साधू से कहा, “हे साधु महाराज, मुझे ऐसे धन की आवश्यकता नहीं जिसको मैं अन्य लोगों को दान दूँ तथा जिसको रखने और संभालने में ही मेरा सारा समय नष्ट हो जाए।”
तब साधु ने कहा, “हे देवी, यदि तुम्हारी ऐसी इच्छा है तो जैसा मैं तुम्हें बताता हूं तुम वैसा ही करना। बृहस्पतिवार के दिन घर को गोबर से लीपना, अपने केशों को पीली मिट्टी से धोना, केशों को धोते समय स्नान करना, राजा से कहना वह हजामत करवाएं, भोजन में मांस मदिरा खाना, कपड़ा धोबी के यहां धुलने डालना। इस प्रकार सात बृहस्पतिवार करने से तुम्हारा सब धन नष्ट हो जाएगा।” इतना कहकर साधु महाराज रूपी वृहस्पतिदेव अंतर्ध्यान हो गए।
रानी ने साधु के कहने के अनुसार सात बृहस्पतिवार वैसा ही करने का विचार किया। साधु के बताए अनुसार करते हुए केवल तीन बृहस्पतिवार ही बीते थे कि उनकी समस्त धन-संपत्ति नष्ट हो गई। परिवार दोनों समय के भोजन के लिए भी तरसने लगा तथा सांसारिक भोगों से दुखी रहने लगा।
तब राजा ने अपनी रानी से कहा, “हे रानी, तुम यहां पर रहो, मैं दूसरे देश को जाता हूँ। क्योंकि यहां पर मुझे सभी मनुष्य जानते हैं, इसलिए मैं यहां कोई कार्य नहीं कर सकता। देश चोरी परदेस भीख बराबर है।” ऐसा कहकर राजा परदेस चला गया। वहां जंगल से लकड़ी काटकर लाता और शहर में बेचता। इस तरह जीवन व्यतीत करने लगा। इधर राजा के बिना रानी और दासी दुखी रहने लगी । किसी दिन भोजन मिलता और किसी दिन जल पीकर ही रह जाती।
एक समय रानी और दासी को सात रोज बिना भोजन के व्यतीत हो गए। तो रानी ने अपनी दासी से कहा, “हे दासी, यहां पास ही के नगर में मेरी बहन रहती है। वह बड़ी धनवान है, तू उसके पास जा और वहां से पांच सेर बेझर मांग कर ले आ, जिससे कुछ समय के लिए गुजर हो जाएगी।” रानी की आज्ञा मानकर दासी रानी की बहन के पास चली गई।
बृहस्पतिवार का दिन था, रानी की बहन उस समय पूजा कर रही थी। दासी ने रानी की बहन से कहा, “हे रानी, मुझे आपकी बहन ने भेजा है। मुझे पांच सेर बेझर दे दो।” दासी ने यह बात अनेक बार कहीं परंतु रानी की बहन ने कोई उत्तर नहीं दिया, क्योंकि वह उस समय बृहस्पतिवार की कथा सुन रही थी।
जब दासी को रानी की बहन से कोई उत्तर नहीं मिला तो वह बहुत दुखी हुई। उसे बहुत क्रोध भी आया। वह वापस लौट के आ गई और रानी से बोली, “हे रानी, आपकी बहन बहुत ही धनी स्त्री है। वह छोटे लोगों से बात भी नहीं करती। मैंने उससे कहा तो उसने कोई उत्तर नहीं दिया मैं वापिस चली आई।”
रानी बोली, “हे दासी इसमें उनका कोई दोष नहीं है। जब बुरे दिन आते हैं तब कोई सहारा नहीं देता। अच्छे-बुरे का पता विपत्ति काल में ही लगता है। जो ईश्वर की इच्छा होगी वही होगा। यह सब हमारे भाग्य का दोष है।”
उधर रानी की बहन ने सोचा कि मेरी बहन की दासी आई थी। परंतु मैं उससे नहीं बोली इससे वह बहुत दुखी हुई होगी। यह सोच कथा सुन, विष्णु भगवान का पूजन समाप्त कर वह अपनी बहन के घर आई और कहने लगी, “हे बहन, मैं बृहस्पतिवार की कथा कर रही थी। तुम्हारी दासी आई थी, परंतु जब तक कथा होती है तब तक ना उठते हैं और ना बोलते हैं इसलिए मैं नहीं बोली। कहो, दासी क्यों गई थी।”
रानी बोली, “हे बहन, हमारे घर अनाज नहीं था। वैसे तुमसे कोई बात छिपी नहीं है। इस कारण मैंने दासी को तुम्हारे पास पांच सेर बेझर लेने के लिए भेजा था।” रानी की बहन बोली, “बहन, बृहस्पति भगवान सबकी मनोकामना पूर्ण करते हैं। देखो शायद तुम्हारे घर में अनाज रखा हो।”
यह सुनकर दासी घर के अंदर गई तो वहां उसे एक घड़ा बेझर का भरा मिल गया उसे बड़ी हैरानी हुई क्योंकि उसने एक एक बर्तन देख लिया था। उसने बाहर आकर रानी को बताया और रानी से कहा, “हे रानी, देखो वैसे भी जब हमकों भोजन नहीं मिलता तो हम रोज ही व्रत करते हैं। अगर इनसे व्रत की विधि और कथा पूछ ली जाए तो उसे हम भी क्या करेंगे।”
दासी के कहने पर रानी ने अपनी बहन से बृहस्पतिवार व्रत के बारे में पूछा। उसकी बहन ने बताया, “बृहस्पतिवार के व्रत में चने की दाल और मुनक्का से विष्णु भगवान का केले की जड़ में पूजन करें, दीपक जलावें और कथा सुने। इस दिन एक ही समय और पीला भोजन करें। इस प्रकार करने से गुरु भगवान प्रसन्न होते हैं। अन्न, पुत्र, धन देते हैं और मनोकामना पूर्ण करते हैं।” व्रत और पूजन की विधि बता कर रानी की बहन अपने घर लौट गई।
रानी और दासी दोनों ने निश्चय किया कि बृहस्पति देव भगवान का पूजन जरूर करेंगे। सात रोज बाद जब बृहस्पतिवार आया तो उन्होंने व्रत रखा। दासी सुबह-सुबह घुड़साल में जाकर चना और गुड़ बीन लाई तथा उसकी दाल से केले की जड़ तथा विष्णु भगवान का पूजन किया। अब भोजन पीला कहां से आए दोनों बड़ी दुखी हुई, परंतु उन्होंने व्रत रखा था। इस कारण बृहस्पतिदेव भगवान प्रसन्न थे।
एक साधारण व्यक्ति के रूप में वे दो थालों में सुंदर पीला भोजन लेकर आए और दासी को देकर बोले, “हे दासी, यह भोजन तुम्हारे और रानी के लिए है। तुम दोनों करना।” दासी भोजन पाकर बड़ी प्रसन्न हुई और रानी से बोली, “चलो रानी जी भोजन कर लो।” रानी को भोजन आने के बारे में कुछ पता नहीं था इसलिए वह दासी से बोली, “तू ही भोजन कर, क्योंकि तू हमारी व्यर्थ में हंसी उड़ाती है।”
दासी ने कहा, “एक व्यक्ति भोजन दे गया है।” रानी ने कहा, “वह भोजन तेरे लिए ही दे गया है, तू ही भोजन कर।” दासी ने कहा, “वह व्यक्ति हम दोनों के लिए दो थालों में भोजन देकर गया है। इसलिए मैं और आप दोनों ही साथ-साथ भोजन करेंगे।” दोनों ने गुरु भगवान को नमस्कार किया और भोजन प्रारंभ किया।
उसके बाद से वे प्रत्येक बृहस्पतिवार को गुरु भगवान का व्रत और पूजन करने लगी। बृहस्पति भगवान की कृपा से उनके पास फिर धन हो गया। परंतु रानी फिर पहली तरह से आलस्य करने लगी।
तब दासी ने रानी से कहा, “देखो रानी, आप पहले भी इस प्रकार आलस्य करती थी। आपको धन रखने में कष्ट होता था। इस कारण सभी धन नष्ट हो गया। अब गुरु भगवान की कृपा से हमें धन मिला है, तो फिर आपकों आलस्य हो रहा है। बड़ी मुसीबतों के बाद हमने यह धन पाया है इसलिए हमें दान पुण्य करना चाहिए। भूखे मनुष्य को भोजन कराओ, प्याऊ लगाओ, ब्राह्मणों को दान दो, कुआं, तालाब, बावड़ी, बाग़-बगीचों आदि का निर्माण करवाओ, मंदिर पाठशाला बनवा कर दान करो, कुंवारी कन्याओं का विवाह करवाओ तथा धन को शुभ कार्यों में खर्च करो। जिससे आपके कुल का यश स्वर्ग प्राप्त हो और आपके पूर्वज प्रसन्न हो।” दासी की बात मानकर रानी ने इसी प्रकार के कर्म करने प्रारंभ किए उसका काफी यश फैलने लगा।
एक दिन रानी और दासी आपस में विचार करने लगी कि ना जाने राजा किस दशा में होंगे। उनकी कोई खोज खबर नहीं। अगले दिन उन्होंने गुरु भगवान से प्रार्थना की। भगवान ने रात्रि में राजा को स्वप्न में कहा, “हे राजा, उठ तेरी रानी तुझको याद करती है। अब अपने देश को लौट जा।”
राजा प्रात:काल उठा। वह विचार करने लगा कि पत्नी खाने और पहनने की संगिनी होती है। पर मेरे पास तो कुछ भी नहीं है। मैं तो प्रतिदिन जंगल से लकड़ी बीन कर लाता हूँ और उसे शहर में बेच कर अपने जीवन को ही बड़ी कठिनता से व्यतीत करता हूँ। लेकिन भगवान की आज्ञा मानकर वह अपने नगर को चलने के लिए तैयार हुआ |
जंगल में राजा दुखी होकर अपनी पुरानी बातों को याद करके रोने लगा। तभी बृहस्पति देव एक साधु का रूप धारण कर वहां आए और राजा के पास आकर बोले, “हे लकड़हारे, तुम इस सुनसान जंगल में किस चिंता में बैठे हो। मुझे बतलाओ।” यह सुन राजा के नेत्रों में जल भर आया और साधु की वंदना कर बोला, “हे प्रभु, आप सब कुछ जानने वाले हैं।” इतना कहकर राजा ने साधु को अपनी संपूर्ण कहानी सुना दी।
महात्मा दयालु होते हैं, वह राजा से बोले, “हे राजा, तुम्हारी पत्नी ने बृहस्पति देव के प्रति अपराध किया था, जिसके कारण तुम्हारी यह दशा हुई। अब तुम किसी बात प्रकार की चिंता मत करो, भगवान तुम्हें पहले से अधिक धन देंगे। देखो, अब तो तुम्हारी पत्नी ने भी बृहस्पतिवार का व्रत प्रारंभ कर दिया है। अब तुम भी बृहस्पतिवार का व्रत करों। बृहस्पतिवार के दिन चने की दाल व गुड़ जल के लोटे में डालकर केले का पूजन करों फिर कथा कहो या सुनो। भगवान तुम्हारी सब मनोकामना को पूर्ण करेंगे।”
साधु को प्रसन्न में देखकर राजा बोला, “हे साधू महाराज, मुझे लकड़ी बेचकर इतना पैसा भी नहीं मिलता, जिससे मैं भोजन करने के उपरांत कुछ बचा सकूं। मैंने रात्रि में अपनी रानी को व्याकुल देखा है लेकिन मेरे पास कोई साधन नहीं, जिससे उसका समाचार जान सकूं। फिर मैं बृहस्पतिदेव की क्या कहानी कहूं, यह भी मुझको कुछ मालूम नहीं है।”
साधु ने कहा, “है राजा, तुम किसी बात की चिंता मत करो। बस बृहस्पतिवार के दिन तुम रोजाना की तरह लकड़ियां लेकर शहर में जाओ। तुम्हें रोज से दुगना धन प्राप्त होगा। जिससे तुम भली-भांति भोजन कर लोगे तथा बृहस्पति देव की पूजा का सामान भी आ जाएगा और बृहस्पतिवार के व्रत की कहानी निम्न प्रकार से है।”
बृहस्पति देव की कहानी
प्राचीन काल में एक बहुत ही निर्धन ब्राह्मण था। उसके कोई संतान नहीं थी। वह नित्य पूजा पाठ करता। परंतु इसकी स्त्री बहुत मलिनता से रहती थी। वह ना स्नान करती और ना ही किसी देवता का पूजन करती। प्रातः काल उठते ही सर्वोत्तम भोजन करती, बाद में कोई अन्य कार्य करती। इससे ब्राह्मण देवता बहुत दुखी रहते थे। वह अपनी पत्नी को बहुत समझाते किंतु उसका कोई परिणाम ना निकलता।
भगवान की कृपा से ब्राह्मण के घर में कन्या रूपी रत्न पैदा हुआ। वह कन्या अपने पिता के घर में बड़ी होने लगी। वह बालिका प्रातः स्नान करके भगवान विष्णु का जप करती तथा बृहस्पतिवार का व्रत भी करती। अपना पूजा-पाठ समाप्त कर विद्यालय जाती तो अपनी मुट्ठी में जौ भर कर ले जाती और विद्यालय जाने के मार्ग में डालती जाती। वही जौ स्वर्ण के हो जाते तो लौटते समय उनको बीन कर घर ले आती।
एक दिन वह बालिका सोने के उन जौ को फटक कर साफ कर रही थी। तभी उसके पिता ने देख लिया और कहा, “हे बेटी, सोने के जौ को फटकने के लिए तो सोने का सूप होना चाहिए।” दूसरे दिन गुरुवार था इस कन्या ने व्रत रखा और बृहस्पति देव से प्रार्थना करके कहा, “हे प्रभु. यदि मैंने सच्चे मन से आप की पूजा की हो, तो मुझे सोने का सूप दे दो।”
बृहस्पति देव ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। रोजाना की तरह वह कन्या जौ फैलाती हुई विद्यालय चली गई। विद्यालय से लौटकर जब वह जौ बीन रहीं थी तो बृहस्पति देव की कृपा से उसे सोने का सूप मिला। उसे वह घर ले आईं और उससे जौ साफ करने लगी। परंतु उसकी मां का वही ढंग रहा।
एक दिन की बात है वह कन्या सोने के रूप में जौ साफ कर रही थी। तभी उस समय उस नगर का राजकुमार वहां से होकर निकला। इस कन्या के रूप और कार्य को देखकर वह उस कन्या पर मोहित हो गया। राजमहल आकर वह भोजन तथा जल त्याग कर उदास होकर लेट गया।
जब राजा को राजकुमार द्वारा अन्न-जल त्यागने का समाचार मिला। तब वह अपने मंत्रियों के साथ अपने पुत्र के पास गए और बोले, “हे बेटा, तुम्हें किस बात का कष्ट है। किसी ने अपमान किया है अथवा कोई और कारण है तो मुझे बताओ मैं वही करूंगा जिससे तुम्हारी प्रसन्नता हो।”
राजकुमार ने अपने पिता की बातें सुनी तो वह बोला, “पिताजी, मुझे आपकी कृपा से किसी बात का दुख नहीं है। किसी ने मेरा अपमान नहीं किया है। परंतु मैं उस लड़की के साथ विवाह करना चाहता हूँ जो सोने के सूप में जौ साफ कर रही थी।” यह सुन राजा आश्चर्य में पड़ गया और बोला, “हे बेटा, इस तरह की कन्या का पता तुम ही लगाओ, मैं उसके साथ तुम्हारा विवाह अवश्य ही करवा दूंगा।”
राजकुमार ने राजा को उस लड़की के घर का पता बतलाया। तब मंत्री उस लड़की के घर गया और राजा का आदेश ब्राह्मण को सुनाया। ब्राह्मण राजकुमार के साथ अपनी कन्या का विवाह करने के लिए सहमत हो गया। कुछ ही दिन बाद ब्राह्मण की कन्या का विवाह राजकुमार के साथ संपन्न हो गया |
कन्या के घर से जाते ही उस ब्राह्मण देवता के घर में पहले की भांति गरीबी का निवास हो गया। अब तो भोजन के लिए भी अन्न बड़ी मुश्किल से मिलता था। एक दिन दुखी होकर ब्राह्मण देवता अपनी पुत्री से मिलने गए। बेटी ने पिता की दुखी अवस्था को देखकर अपनी मां का समाचार पूछा। ब्राह्मण ने सभी हाल बता दिया। तब कन्या ने बहुत-सा धन देकर अपने पिता को विदा कर दिया।
इस तरह ब्राह्मण का कुछ समय सुख पूर्वक व्यतीत हुआ। लेकिन कुछ दिन बाद फिर वही हाल हो गया। ब्राह्मण फिर अपनी कन्या के यहां गया और सभी हाल कहा तो पुत्री ने कहा, “पिताजी, आप माताजी को यहां ले आओं, मैं उन्हें वह विधि बता दूंगी। जिससे गरीबी दूर हो जाए। ब्राह्मण देवता अपनी स्त्री को साथ लेकर राजमहल अपनी पुत्री के पास पहुंचे।
पुत्री अपनी मां को समझाने लगी, “हे मां, तुम प्रातः काल उठकर प्रथम स्नानादि करके विष्णु भगवान का पूजन करो तो सब दरिद्रता दूर हो जाएगी। परंतु उसकी मां ने उसकी एक बात नहीं मानी। वह प्रातः काल उठकर अपनी पुत्री का बचा जूठन खा लेती थी।
एक दिन उसकी पुत्री को बहुत गुस्सा आया। उसने एक रात को एक कोठरी से सारा सामान बाहर निकाल दिया और उसमें अपनी मां को बंद कर दिया। प्रात:काल उसमें से उसे निकाला तथा स्नान आदि करा कर पूजा पाठ करवाया तो उसकी मां की बुद्धि ठीक हो गई। इसके बाद से वह नियम से पूजा पाठ करने लगी और प्रत्येक बृहस्पतिवार को व्रत रखने लगी।
इस व्रत के प्रभाव से उसकी मां भी बहुत धनवान और पुत्रवती हो गई और बृहस्पति देवता के प्रभाव से स्वर्ग को गई। वह ब्राह्मण भी सुख पूर्वक इस लोक का सुख भोग कर स्वर्ग को प्राप्त हुआ। इस तरह कहानी कहकर साधु देता वहां से लोप हो गए।
धीरे-धीरे समय व्यतीत होने पर फिर बृहस्पतिवार का दिन आया। राजा जंगल से लकड़ी काटकर किसी शहर में बेचने गया। उसे उस दिन और दिन से अधिक धन मिला। राजा ने चना गुड़ आदि लाकर बृहस्पतिवार का व्रत किया। उस दिन से उसके सभी क्लेश दूर हुए। परंतु जब अगला गुरुवार का दिन आया तो वह बृहस्पतिवार का व्रत करना भूल गया। इस कारण बृहस्पतिवार भगवान नाराज हो गए।
उस दिन उस नगर के राजा ने विशाल यज्ञ का आयोजन किया तथा अपने समस्त राज्य में घोषणा करवा दी कि कोई भी मनुष्य अपने घर में भोजन ना बनाएं तथा आग भी ना जलाएं, समस्त जनता मेरे यहां भोजन करने आवे। इस आज्ञा को जो ना मानेगा उसको फांसी की सजा दी जाएगी। राजा की आज्ञा अनुसार राज्य के सभी वासी राजा के भोज में सम्मिलित हुए लेकिन लकड़हारा कुछ देर से पहुंचा। इसलिए राजा उसको अपने साथ महल में ले गए।
जब राजा लकड़हारे को भोजन करा रहे थे तो रानी की दृष्टि उस खूंटी पर पड़ी जिस पर उसका हार लटका हुआ था। उसे हार खूंटी पर लटका दिखाई नहीं दिया। रानी को निश्चय हो गया कि मेरा हार इस लकड़हारे ने चुरा लिया है। उसी समय सैनिक बुलवाकर उसको जेल में डलवा दिया। जब लकड़हारा जेल खाने में गया तो बहुत दुखी होकर विचार करने लगा कि ना जाने कौन से पूर्व जन्म के कर्म के कारण मुझे यह दुख प्राप्त हुआ है और उसी साधु को याद करने लगा जो जंगल में मिला था।
तत्काल बृहस्पतिदेव साधु के रूप में प्रकट हो गए और उसकी दशा देखकर कहने लगे, “अरे मूर्ख तूने बृहस्पति देवता की कथा नहीं थी, इस कारण तुझे दुख प्राप्त हुआ है। अब किसी बात की चिंता मत कर बृहस्पतिवार के दिन जेलखाने के दरवाजे पर चार पैसे पड़े मिलेंगे। उनसे तू बृहस्पति देव की कथा करना, तो तेरे सभी कष्ट दूर हो जाएंगे।”
अगले बृहस्पतिवार उसे जेल के द्वार पर चार पैसे मिले। राजा ने पूजा का सामान मंगवा कर कथा कही और प्रसाद बांटा उसी रात्रि को बृहस्पति देव ने उस नगर के राजा को स्वप्न मे कहा, “हे राजा तूने जिस आदमी को जेल खाने में बंद कर दिया है, वह निर्दोष है, वह राजा है। उसे छोड़ देना रानी का हार उसी खूंटी पर लटका हुआ है, अगर तू ऐसा नहीं करेगा तो मैं तेरे राज्य को नष्ट कर दूंगा।”
राजा प्रात:काल उठा और खूंटी पर टंगा देखकर लकड़हारे को बुलाकर क्षमा मांगी तथा राजा के योग्य सुंदर वस्त्र आभूषण भेंट कर उसे विदा किया। गुरुदेव की आज्ञा अनुसार राजा अपने नगर को चल दिया। राजा जब नगर के निकट पहुंचा तो उसे बड़ा ही आश्चर्य हुआ। नगर में पहले से अधिक बाग तालाब और कुएं तथा बहुत से धर्मशालाएं मंदिर आदि बने हुए थे।
राजा ने पूछा कि यह किसका बाग और धर्मशाला है, तब नगर के सब लोग कहने लगे कि यह सब रानी और दासी द्वारा बनवाए गए हैं। राजा को आश्चर्य हुआ और गुस्सा भी आया जब रानी ने यह खबर सुनी कि राजा आ रहे हैं, तो उसने अपनी दासी से कहा, “हे दासी, देख राजा हमको कितनी बुरी हालत में छोड़ गए थे। वह हमारी ऐसी हालत देख कर लौट न जाए, इसलिए तू दरवाजे पर खड़ी हो जा। जब वे आए तो उन्हें अपने साथ महल में ले आना।”
रानी की आज्ञा अनुसार दासी दरवाजे पर खड़ी हो गई, जब राजा आए तो उन्हें अपने साथ महल में लिवा लाई। तब राजा ने क्रोध करके अपनी तलवार निकाली और पूछने लगा, “बताओ, यह सब धन तुम्हें कैसे प्राप्त हुआ है।” तब रानी ने बताया, “हमें यह सब धन बृहस्पति देव की व्रत के प्रभाव से प्राप्त हुआ है।”
राजा ने निश्चय किया कि साथ रोज बात तो सभी वृहस्पति देव का पूजन करते हैं, परंतु मैं रोजाना दिन में तीन बार कथा कहा करूंगा तथा रोज व्रत किया करूंगा। अब तो राजा के दुपट्टे में हर समय चने की दाल बंधी रहती तथा दिन में तीन बार कथा कहता।
एक रोज राजा ने विचार किया कि चलो अपनी बहन के यहाँ हो आऊँ। इस तरह का निश्चय कर राजा घोड़े पर सवार ओ अपनी बहन के यहां चल दिया। मार्ग में उसने देखा कि कुछ आदमी एक मुर्दे को लिए जा रहे हैं उन्हें रोककर राजा कहने लगा, “अरे भाइयों, मेरी वृहस्पतिवार की कथा सुन लो।” वे बोले, “लो हमारा तो आदमी मर गया है और उसको अपनी कथा की पड़ी है।”
परंतु कुछ बोले, “अच्छा कहो, हम तुम्हारी कथा भी सुनेंगे।” राजा ने दाल निकाली और कथा कहानी शुरू कर दी। जब कथा आधी हुई तो मुर्दा हिलने लगा और जब कथा समाप्त हुई तो राम-राम करके वह मुर्दा खड़ा हो गया। राजा आगे बढ़ा। उसे चलते चलते दोपहर हो गई। आगे मार्ग में उसे एक किसान खेत में हल चलाता मिला। राजा उसे बोला, “अरे भैया, तुम मेरी वृहस्पतिवार की कथा सुन लो।” किसान बोला, “जब तक मैं तेरी कथा सुनूँगा, तब तक चार हरेया जोत लूंगा। जा अपनी कथा किसी और को सुनाना।” राजा आगे चला गया।
राजा के हटते ही बैल पछाड़ खाकर गिर गए तथा किसान के पेट में बहुत जोर से दर्द होने लगा। तभी किसान की मां रोटी लेकर आई। उसने यह सब देखा तो अपने पुत्र से सारा हाल पूछा। बेटे ने सभी हाल बता दिया। बुढ़िया दौड़ी-दौड़ी उस घुड़सवार के पास गई और उससे बोली, “मैं तेरी कथा सुनूंगी, तू अपनी कथा मेरे खेत पर चलकर कहना।” राजा ने बुढ़िया के खेत पर जाकर कथा कही। जिसके सुनते ही बैल खड़े हो गए तथा किसान के पेट का दर्द भी बंद हो गया।
राजा अपनी बहन के घर पहुंच गया। बहन ने भाई की खूब मेहमानी की। दूसरे रोज राजा प्रात:काल जगा तो उसने देखा कि सब लोग भोजन कर रहे हैं। राजा ने अपनी बहन से पूछा, “बहन, ऐसा कोई मनुष्य है, जिससे भोजन नहीं किया हो, जो मेरी वृहस्पतिवार की कथा सुन ले।” तो बहन बोली, “है भैया, यह देश ऐसा ही है। पहले यहां के लोग भोजन करते हैं, बाद में अन्य कार्य करते हैं। फिर भी अगर पड़ोस में हो तो मैं देख आती हूँ।”
बहन देखने चली गई, परंतु उसे ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं मिला जिसने भोजन ना किया हो। अंत में वह एक कुम्हार के घर गई, जिसका लड़का बीमार था। उसे मालूम हुआ कि उसके यहां तीन दिन से किसी ने भी भोजन नहीं किया है। रानी ने अपने भाई की कथा सुनने के लिए कुम्हार से कहा, वह तैयार हो गया। राजा ने कुम्हार के घर जाकर वृहस्पतिवार की कथा की। जिसको सुनकर उसका लड़का ठीक हो गया। अब तो राजा की प्रशंसा होने लगी।
एक दिन राजा ने अपनी बहन से कहा, “हे बहन, मैं अपने घर जाऊंगा, तुम भी तैयार हो जाओ।” राजा की बहन ने अपनी सास से अपने भाई के साथ जाने की आज्ञा मांगी। सास बोली, “चली जा, परंतु अपने लड़कों को मत ले जाना क्योंकि तेरे भाई के कोई संतान नहीं होती है।” बहन ने अपने भाई से कहा, “हे भैया, मैं तो चलूँगी, परंतु कोई बालक नहीं जाएगा।”
राजा ने कहा, “जब कोई बालक नहीं चलेगा, तब तुम ही चलकर क्या करोगी?” दुखी मन से राजा अपने नगर को लौटा आया। राजा ने अपनी रानी से कहा, “हम निरवंशी हैं, हमारा मुंह देखने का भी धर्म नहीं है।” इतना कह वह बिना भोजन आदि किए शैया पर लेट गया। रानी बोली, “हे प्रभु, बृहस्पतिदेव ने हमें सब कुछ दिया है। वह हमें संतान अवश्य देंगे।”
उसी रात वृहस्पतिदेव ने राजा को सपने मे कहा, “हे राजा, उठ सभी सोच त्याग दें, तेरी रानी गर्भवती है।” राजा को यह जानकर बड़ी खुशी हुई। नवें महीने रानी की गर्भ से एक सुंदर पुत्र पैदा हुआ। तब राजा बोला, “हे रानी, स्त्री बिना भोजन के रह सकती है, बिना कहे नहीं। जब मेरी बहन आए तो उससे कुछ मत कहना। रानी ने हाँ कर दी।
जब राजा की बहन ने यह सब शुभ समाचार सुना तो बहुत खुश हुई तथा बधाई लेकर अपने भाई के यहाँ आई। तभी रानी ने कहा, “घोड़ा चढ़ाकर नहीं आई, गधा चढ़ी आई।” राजा की बहन बोली, “भाई, मैं इस प्रकार ना कहती तो तुम्हें औलाद कैसे मिलती? वृहस्पतिदेव ऐसे ही है। जिसके मन में जो कामना है, सभी को पूर्ण करते हैं।”
जो सच्ची भावना पूर्वक वृहस्पतिवार का व्रत करता है एवं कथा पढ़ता है अथवा सुनता है और दूसरों को सुनाता है, बृहस्पति देव उसकी सभी मनोकामना पूर्ण करते हैं। उनकी सदैव रक्षा करते हैं। जो संसार में सद्भावना से गुरुदेव का पूजन एवं व्रत सच्चे ह्रदय से करते हैं, उनकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती है।
जैसी सच्ची भावना से रानी और राजा ने बृहस्पतिवार की कथा का गुणगान किया तो उनकी सभी इच्छाएं बृहस्पतिदेव ने पूर्ण की। इसलिए सबको कथा सुनने के बाद प्रसाद लेकर जाना चाहिए और ह्रदय से उनका मनन करते हुए जय कारा बोलना चाहिए।
बोलो बृहस्पतिदेव महाराज की जय, विष्णु भगवान की जय, गुरुदेव भगवान की जय।
बृहस्पतिवार की कथा करने के बाद बृहस्पति जी की आरती अवश्य करनी चाहिए।
Brihaspativar Vrat Katha – 2 – बृहस्पतिवार व्रत कथा
प्राचीन समय की बात है। एक नगर में एक बहुत बड़ा व्यापारी रहता था। वह जहाजों में माल लदवाकर दूसरे देशों में भेजा करता था। वह जिस प्रकार अधिक धन कमाता था, उसी प्रकार जी खोलकर दान भी करता था, परंतु उसकी पत्नी बहुत ही कंजूस थी। वह किसी को भी एक दमड़ी तक भी नहीं देती थी तथा व्यापारी से भी ऐसा करने के लिए मना किया करती थी।
एक बार सेठ दूसरे देश व्यापार करने चला गया तो पीछे उसकी सेठानी अकेली थी। तब बृहस्पतिदेव एक साधु के वेश में उसके घर गए और उसकी पत्नी से भिक्षा मांगी। व्यापारी की पत्नी बृहस्पतिदेव से बोली, हे” साधु महाराज, मैं तो इस दान और पुण्य से तंग आ गई हूँ। आप कोई ऐसा उपाय बताएं, जिससे मेरा सारा धन नष्ट हो जाए और मैं आराम से रह सकूं।”
बृहस्पतिदेव ने कहा, “हे देवी, तुम तो बड़ी विचित्र हो, संतान और धन से कोई दुखी नहीं होता है। इसको तो सभी चाहते हैं। अगर आपके पास धन अधिक है, तो इसे शुभ कार्यों में लगाओ, कुंवारी कन्याओं का विवाह कराओ, विद्यालय और बाग-बगीचों का निर्माण कराओ। ऐसे पुण्य कार्य करने से तुम्हारा लोक-परलोक सार्थक हो सकता है।
परन्तु व्यापारी की पत्नी साधु की इन बातों से खुश नहीं हुई। उसने कहा, “हे साधू महाराज मुझे ऐसे धन की आवश्यकता नहीं है, जिसे दान देने के लिए रखने उठाने में ही मेरा सारा समय नष्ट हो जाये।”
तब बृहस्पतिदेव ने कहा, “यदि तुम्हारी ऐसी इच्छा है, तो ऐसा ही होगा। इसके लिए तुम सात बृहस्पतिवार तक प्रत्येक बृहस्पतिवार को घर को गोबर से लीपना, अपने केशों को पीली मिटटी से धोना, केशों को धोते समय स्नान करना, व्यापारी से कहना वह हजामत करवाएं, भोजन में मांस-मदिरा खाना, कपड़े धोबी के यहाँ धुलने डालना। ऐसा करने से तुम्हारा सारा धन नष्ट हो जाएगा।”
इतना कहकर बृहस्पतिदेव अंतर्ध्यान हो गए।
व्यापारी की पत्नी ने बृहस्पति देव के कहे अनुसार सात बृहस्पतिवार वैसा ही करने का निश्चय किया। केवल तीन बृहस्पतिवार बीते थे कि उसी समस्त धन-संपत्ति नष्ट हो गई और वह परलोक सिधार गई।
जब व्यापारी वापस आया तो उसने देखा कि उसका सब कुछ नष्ट हो चुका है। उस व्यापारी ने अपनी पुत्री को सांत्वना दी और दूसरे नगर में जाकर बस गया। वहाँ वह जंगल से लकड़ी काटकर लाता और शहर में बेचता। इस तरह वह अपना जीवन व्यतीत करने लगा।
एक दिन उसकी पुत्री ने दही खाने की इच्छा प्रकट की लेकिन व्यापारी के पास दही खरीदने के पैसे नहीं थे। वह अपनी पुत्री को आश्वासन देकर जंगल में लकड़ी काटने चला गया।
वहां एक वृक्ष के नीचे बैठ कर वह अपनी दशा पर विचार कर रोने लगा। उस दिन बृहस्पतिवार का दिन था। तभी वहां बृहस्पतिदेव साधु के रूप में सेठ के पास आए और बोले “हे मनुष्य, तू इस जंगल में किस चिंता में बैठा है?”
तब व्यापारी बोला, “हे महाराज, आप सब कुछ जानते हैं।” इतना कहकर व्यापारी ने उन्हें अपनी सम्पूर्ण कहानी सुना दी और रो पड़ा।
बृहस्पतिदेव बोले, “देखो बेटा, तुम्हारी पत्नी ने बृहस्पति देव का अपमान किया था, इसी कारण तुम्हारी यह दशा हुई है। लेकिन अब तुम किसी प्रकार की चिंता मत करो। तुम गुरुवार के दिन बृहस्पतिदेव का व्रत करो। दो पैसे के चने और गुड़ लो, जल के लोटे में शक्कर डालकर बृहस्पतिदेव की कथा करो। वह अमृत और प्रसाद स्वयं भी लो और अपने परिवार के सदस्यों तथा कथा सुनने वालों में बांट दो। भगवान तुम्हारा अवश्य कल्याण करेंगे।”
साधु की बात सुनकर व्यापारी बोला, “हे साधू महाराज। मुझे लकड़ी बेचकर इतना भी नहीं बचता कि मैं अपनी पुत्री को दही भी लाकर दे सकूं।”
इस पर साधु जी बोले, “अब से तुम लकड़ियाँ लेकर शहर में बेचने जाना, तुम्हें लकड़ियों के दाम पहले से चौगुने मिलेंगे, जिससे तुम्हारे सारे कष्ट दूर हो जाएंगे।”
लकड़हारे ने लकड़ियां काटीं और शहर में बेचने के लिए चल पड़ा। उसकी लकड़ियां अच्छे दाम में बिक गई जिससे उसने अपनी पुत्री के लिए दही और गुरुवार की कथा के लिए चना, गुड़ लिया।
घर पँहुच कर उसने चना, गुड़ तथा जल के लोटे में शक्कर डाल कर बृहस्पति देव की कथा की और प्रसाद बांटकर स्वयं भी खाया। उसी दिन से उसकी सभी कठिनाइयाँ दूर होने लगीं, परंतु जब अगला गुरुवार आया तो वह बृहस्पतिवार का व्रत व कथा करना भूल गया। इससे बृहस्पति भगवान नाराज हो गए।
अगले दिन वहाँ के राजा ने एक बड़े यज्ञ तथा पूरे नगर के लोगों के लिए भोज का आयोजन किया। राजा की आज्ञा के अनुसार पूरा नगर राजा के महल में भोज करने गया।
लेकिन व्यापारी व उसकी पुत्री तनिक विलंब से पहुंचे, अत: उन दोनों को राजा ने महल में ले जाकर भोजन कराया। जब वे दोनों लौटकर आए तब रानी ने देखा कि उसका खूंटी पर टंगा हार गायब है। रानी ने सोचा कि जरूर उसका हार व्यापारी और उसकी पुत्री ने ही चुराया है।
उसने यह बात राजा से कही। राजा ने अपने सैनिकों को आज्ञा देकर उन दोनों को कारावास की कोठरी में कैद कर दिया गया। कैदखाने में पड़कर दोनों अत्यंत दुखी हुए। तब राजा ने बृहस्पति देवता का स्मरण किया।
बृहस्पति देव तुरंत एक साधु के रूप में प्रकट हुए और उन्होंने व्यापारी को उसकी भूल का आभास कराया और कहा, “गुरुवार के दिन कैदखाने के दरवाजे पर तुम्हें दो पैसे मिलेंगे। उनसे तुम चने और मुनक्का मंगवाकर विधिपूर्वक बृहस्पति देवता का पूजन करना। तुम्हारे सब दुख दूर हो जाएंगे।”
बृहस्पतिवार दे दिन राजा को कैदखाने के द्वार पर दो पैसे मिले। बाहर सड़क पर एक स्त्री जा रही थी। व्यापारी ने उसे बुलाकार गुड़ और चने लाने को कहा। इस पर उस स्त्री ने कहा, “मैं अपनी बहू के लिए गहने लेने जा रही हूं, मेरे पास समय नहीं है।”
इतना कहकर वह चली गई। थोड़ी देर बाद वहां से एक और स्त्री निकली, व्यापारी ने उसे बुलाकर कहा, “हे बहन, मुझे बृहस्पतिवार की कथा करनी है। तुम मुझे दो पैसे का गुड़-चना ला दो।
बृहस्पतिदेव का नाम सुनकर वह स्त्री बोली, “भाई, मैं तुम्हें अभी गुड़-चना लाकर देती हूं। मेरा इकलौता पुत्र मर गया है, मैं उसके लिए कफन लेने जा रही थी। लेकिन मैं पहले तुम्हारा काम करूंगी, उसके बाद अपने पुत्र के लिए कफन लाऊंगी।”
इसके बाद वह स्त्री बाजार से व्यापारी के लिए गुड़-चना ले आई और स्वयं भी बृहस्पतिदेव की कथा सुनी। कथा के समाप्त होने पर वह स्त्री कफन लेकर अपने घर गई। घर पर लोग उसके पुत्र की लाश को “राम नाम सत्य है” कहते हुए श्मशान ले जाने की तैयारी कर रहे थे।
स्त्री बोली “मुझे अपने लड़के का मुख देख लेने दो।” अपने पुत्र का मुख देखकर उस स्त्री ने उसके मुंह में प्रसाद और चरणामृत डाला। प्रसाद और चरणामृत के प्रभाव से वह पुन: जीवित हो गया।
पहली स्त्री जिसने बृहस्पतिदेव का निरादर किया था, वह जब अपने पुत्र के विवाह हेतु पुत्रवधू के लिए गहने लेकर लौटी और जैसे ही उसका पुत्र घोड़ी पर बैठकर निकला वैसे ही घोड़ी ने ऐसी उछाल मारी कि वह घोड़ी से गिरकर मर गया। यह देख स्त्री रो-रोकर बृहस्पति देव से क्षमा याचना करने लगी।
उस स्त्री की याचना से बृहस्पतिदेव साधु वेश में वहाँ पँहुचकर कहने लगे “देवी। तुम्हें अधिक विलाप करने की आवश्यकता नहीं है। यह बृहस्पतिदेव का अपमान करने के कारण हुआ है। तुम वापस जाकर मेरे भक्त से क्षमा मांगकर कथा सुनो, तब ही तुम्हारी मनोकामना पूर्ण होगी।”
जेल में जाकर उस स्त्री ने व्यापारी से क्षमा मांगी और कथा सुनी। कथा के उपरांत वह प्रसाद और चरणामृत लेकर अपने घर वापस गई। घर आकर उसने चरणामृत अपने मृत पुत्र के मुख में डाला| चरणामृत के प्रभाव से उसका पुत्र भी जीवित हो उठा।
उसी रात बृहस्पतिदेव राजा के सपने में आए और बोले “हे राजन। तूने जिस व्यापारी और उसके पुत्री को जेल में कैद कर रखा है वह बिलकुल निर्दोष हैं। तुम्हारी रानी का हार वहीं खूंटी पर टंगा है।”
दिन निकला तो राजा रानी ने हार खूंटी पर लटका हुआ देखा। राजा ने उस व्यापारी और उसकी पुत्री को रिहा कर दिया और उन्हें आधा राज्य देकर उसकी पुत्री का विवाह उच्च कुल में करवाकर दहेज़ में हीरे-जवाहरात दिए।
इस प्रकार बृहस्पतिदेव का व्रत व कथा करने से राजा के सभी कष्ट दूर हुए।
जो सच्ची भावना पूर्वक बृहस्पतिवार का व्रत करता है एवं कथा पढ़ता है अथवा सुनता है और दूसरों को सुनाता है, बृहस्पति देव उसकी सभी मनोकामना पूर्ण करते हैं। उनकी सदैव रक्षा करते हैं।
जो संसार में सद्भावना से गुरुदेव का पूजन एवं व्रत सच्चे ह्रदय से करते हैं, उनकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती है। जैसी सच्ची भावना से राजा और उसकी पुत्री ने बृहस्पतिवार की कथा का गुणगान किया तो उनकी सभी इच्छाएं बृहस्पतिदेव ने पूर्ण की।
इसलिए सबको कथा सुनने के बाद प्रसाद लेकर जाना चाहिए और ह्रदय से उनका मनन करते हुए जय कारा बोलना चाहिए।
बोलो बृहस्पतिदेव महाराज की जय, विष्णु भगवान की जय, गुरुदेव भगवान की जय।
बृहस्पतिवार की कथा करने के बाद बृहस्पति जी की आरती अवश्य करनी चाहिए।
Brihaspativar Vrat Katha – 3 बृहस्पतिवार व्रत कथा
एक दिन इन्द्र बड़े अहंकार से अपने सिंहासन पर बैठे थे और बहुत से देवतआ, ऋषि, गंधर्व, किन्नर आदि सभा में उपस्थित थे। उसी समय सभा में देवताओं के गुरु बृहस्पति जी वहाँ आए। सभी उपस्थित लोग उनके सम्मान में खड़े हो गए लेकिन इन्द्र घमंड के कारण बैठा ही रहा।
इन्द्र के इस आचरण पर हस्पति जी को बहुत क्रोध आया लेकिन उन्होंने इन्द्र से कुछ नहीं कहा और वहाँ से चले गए। उनके जाने के बाद इन्द्र को अपनी गलती का अहसास हुआ।
वह मन ही मन सोचने लगा कि देखो आज मैंने अपने गुरुदेव का अपमान कर दिया है। मुझसे बहुत भारी भूल हो गई है। उनके ही आशीर्वाद से मुझे यह सब वैभव प्राप्त हुआ है। कहीं उनके क्रोध के कारण यह सब नष्ट ना हो जाये इसलिए मुझे उनके पास जाकर उनसे अपने बर्ताव के लिए क्षमा याचना करनी चाहिए।
ऐसा सोच कर इन्द्र वृहस्पति के स्थान पर जाने के लिए निकल पड़े। उधर बृहस्पति जी ने अपने योगबल से यह जान लिया कि इन्द्र उनके पास क्षमा याचना के लिए आ रहे हैं। अपने क्रोधित रूप में इन्द्र से भेंट करना उचित ना जानकर वे वहाँ से अंतर्ध्यान हो गए।
इन्द्र को बृहस्पति जी के स्थान पर बृहस्पति जी नहीं मिले तो वे निराश होकर वहाँ से चले गए।
जब दैत्यों के राज्य वृषवर्मा को यह समाचार मिला तो अपने गुरू शुक्राचार्य की आज्ञा लेकर उसने इंद्रपुरी को चारों तरफ से घेर कर देवताओं पर हमला कर दिया। गुरू की कृपा ना होने के कारण देवता हारने लगे।
तब इन्द्र सहित सभी देवता त्राहि माम कहते हुए ब्रह्मा जी के पास गए और उन्हें सारा वृतांत सुनाया और दैत्यों से बचाने की गुहार लगाई। तब ब्रह्मा जी ने कहा, “हे देवताओं के राजा इन्द्र, तुमने गुरू का अपमान किया है, जो कि एक बहुत बड़ा अपराध है और क्षमा योग्य नहीं हैं। लेकिन तुम सबके कल्याण का एक उपाय है।”
इन्द्र ने कहा, “हे ब्रह्मा जी, आप हमें उपाय बताइये, हम वह उपाय जरूर करेंगे।”
तब ब्रह्मा जी ने उन्हें उपाय बताते हुए कहा, “यदि तुम त्वष्टा ब्राह्मण के पुत्र विश्वरूपा, जो कि बहुत ही तेजस्वी और ज्ञानी है, को अपना पुरोहित बना लो, तो तुम सभी का कल्याण हो सकता है।”
इन्द्र तुरंत त्वष्टा ब्राह्मण के पास गए और बड़े ही विनीत भाव से उनसे कहा, “हे विप्रवर आप मेरी विनती स्वीकार करके हमारे पुरोहित बन जाइए।”
तब त्वष्टा जी ने कहा, “हे, इन्द्र, पुरोहित बनने से तपोबल घट जाता है। इसलिए मैं तुम्हारी याह विनती स्वीकार नहीं कर सकता।”
जब इन्द्र ने बहुर अनुनय-विनय की तब उन्होंने इन्द्र से कहा, “यदि तुम इतना अनुरोध कर रहे हैं तो मैं इतना आश्वासन देता हूँ कि मेरा पुत्र विश्वरूपा आपका पुरोहित बनकर आप सभी की रक्षा करेगा।”
अपने पिता की आज्ञा से विश्वरूपा देवताओं का पुरोहित बन गए और उनकी सलाह और सहायता से इन्द्र दैत्यों के राज्य वृषवर्मा को हराकर फिर से स्वर्ग के सिंहासन पर आसीन हो गए।
विश्वरूपा के तीन मुख थे । एक मुख से वे सोमपल्ली का रस निकाल कर पीते थे, दूसरे मुख से मदिरा पीते और तीसरे मुख से अन्न और भोजन ग्रहण करते थे।
कुछ दिनों के उपरांत इन्द्र ने विश्वरूपा से कहा, “हे देव, यदि आपकी कृपा हो तो मैं देवताओं का तेज और शक्ति बढ़ाने के लिए एक यज्ञ करना चाहता हूँ।”
विश्वरूपा ने अपनी स्वीकृति दे दी और उनकी आज्ञा और मार्गदर्शन में यज्ञ प्रारंभ हो गया। तब एक दैत्य ने विश्वरूपा से कहा, “तुम्हारी माता एक दैत्य कन्या है। इसलिए यज्ञ में दैत्यों के कल्याण के लिए भी एक आहुति दे देंगे तो अति उत्तम होगा।”
दैत्य की बात मानकर विश्वरूपा आहुति के समय धीरे से दैत्यों का नाम भी लेने लगे। इस कारण देवताओं का तेज और शक्ति नहीं बढ़ी। जब इन्द्र को यह [आता चल तो उसने क्रोध वश विश्वरूपा के तीनों सिर काट दिए।
तब उनके मद्यपान करने वाले शीश से भँवरा, सोमपल्ली का रस पीने वाले शीश से कबूतर और अन्न तथा भोजन ग्रहण करने वाले शीश से तीतर की उत्पत्ति हुई।
एक ब्राह्मण की हत्या करने के कारण इन्द्र का स्वरूप बदल गया और देवताओं द्वार एक वर्ष तक पश्चाताप करने के बाद भी उनके सिर से ब्रह्म हत्या का पाप दूर नहीं हुआ।
तब सभी देवताओं के निवेदन पर ब्रह्मा जी वृहस्पति जी के पास गए और उनसे इन्द्र के अपराध को क्षमा करने के लिए विनती की। वृहस्पति देव ने इन्द्र की क्षमा कर दिया और उनकी सलाह से इन्द्र के ब्रह्महत्या के पाप के चार भाग किये गए।
जिसमें से एक भाग पृथ्वी को दिया गया। जिसके कारण पृथ्वी कई जगहों से ऊँची-नीची और बंजर हो गई। तब ब्रह्म जी ने पृथ्वी को वरदान दिया कि, “जिस भी स्थान पर पृथ्वी में गड्ढा होगा वह कुछ समय बाद स्वत: ही भर जाएगा।
दूसरा भाग वृक्षों को मिला, जो उनमें से गोंद बनकर बहता रहता है। इसीलिए गूगल के अलावा सभी तरह के गोंद अशुद्ध माने जाते हैं। तब ब्रह्म जी ने वृक्षों को याह वरदान दिया कि ऊपर से पूरा वृक्ष सुख जाने पर भी उनकी जड़ से नया अंकुरण फूट जाएगा।
तीसरा भाग स्त्रियों को दिया गया, जिसके कारण स्त्री प्रत्येक महीने रजस्वला होती है और उस समय पहले दिन चंडालिनी, दूसरे दिन ब्रह्म घातिनी और तीसरे दिन धोबिन रहकर चौथे दिन स्नान के बाद शुद्ध होती है। तब ब्रह्म जी ने स्त्री को संतान उत्पन्न करने की शक्ति प्रदान की।
चौथा भाग जल को दिया गया, जिसके कारण उसके ऊपर फेन, कई और सिवाल आ जाते हैं। जल को ब्रह्मा जी से याह वरदान मिला कि उसे जिस भी चीज में मिलाया जाएगा वह बढ़ जाया करेगी।
इस प्रकार इन्द्र के ब्रह्महत्या के पाप को चार जनों में बाँट कर उन्हें ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्त किया गया।
जो भी स्त्री-पुरुष या अन्य प्राणी इस कथा को कहता या सुनता है उसके सभी पाप वृहस्पति देव की कृपा से नष्ट हो जाते हैं।
कथा सुनने कर बाद ह्रदय से उनका मनन करते हुए जय कारा बोलना चाहिए।
बोलो बृहस्पतिदेव महाराज की जय, विष्णु भगवान की जय, गुरुदेव भगवान की जय।
बृहस्पतिवार की कथा करने के बाद बृहस्पति जी की आरती अवश्य करनी चाहिए।
Video of Brihaspativar Vrat Katha – बृहस्पतिवार व्रत कथा का वीडियो
आपकी सुविधा के लिए यहाँ बृहस्पतिवार के व्रत की इस कथा का लिंक दे रही हूँ आप इसे यहाँ से सुन भी सकते हैं।
Wrapping It Up
दोस्तों मैंने मेरी इस पोस्ट में बृहस्पतिवार के व्रत और उसकी तीन कथाओं के बारे में बताया है। आप अपने व्रत के समय इन तीनों मे से कोई भी एक कथा पढ़ सकते हैं।
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